संतान के प्रति कर्तव्य

बालकों का चरित्र निर्माण

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प्रत्येक बालक में चाहे वह बालक हो या प्रौढ़ भली-बुरी सब प्रकार की प्रवृत्तियों के बीज सूक्ष्म रुप में मौजूद होते हैं । इसलिए मनुष्य जैसी संगति जैसी परिस्थिति में रहेगा उसी प्रकार की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलेगा, वे ही विकसित होंगी और अन्य प्रकार की कुण्ठित हो जायेंगी । बालक में भी काम, क्रोध, ईर्ष्या आदि प्रवृत्तियों के साथ-साथ सहानुभूति, प्रेम और दया की प्रवृत्तियाँ गुप्त रुप से विद्यवान रहती हैं इनको वह अपने माता-पिता से, परम्परा से प्राप्त करता है और उसका चरित्र इसी पर बहुत कुछ अवलम्बित रहता है । उसकी इन प्रवृत्तियों का विकास उसके सहवास के अनुसार हुआ करता है । कामी, क्रोधी तथा द्रोही मनुष्यों के सहवास में आने से वह स्वयं भी वैसा ही बन जाता है क्योंकि ऐसे लोगों के मध्य में रहने से उसकी काम, क्रोध तथा ईर्ष्या की प्रवृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं । किन्तु इसके विपरीत यदि उसका सहवास ऐसे मनुष्यों से हो जो दयालु तथा सहानुभूति पूर्ण हों तो उसकी दया, प्रेम और सहानुभूति की प्रवृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं । बालक, संपर्क में आने वाले पुरुषों के भावों, विचारों तथा कार्यों का अनुकरण किया करता है और जैसे आदर्श उसके समक्ष उपस्थित होते हैं । उनके अनुसार उसकी प्रवृत्तियों का विकास हो जाता है । केवल उन प्रवृत्तियों पर सहवास का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता जो बालकों में जन्म से ही बहुत प्रबल होती हैं । अत: सबसे आवश्यक बात यह है कि बालक के माता-पिता का चरित्र निर्दोष होना चाहिए ।

यदि माता-पिता का चरित्र निर्दोष न हो तो उनकी संतान के सच्चरित्र होने की बहुत कम सम्भावना होती है, क्योंकि जन्म सिद्ध प्रवृत्तियों को दूर करना अत्यन्त कठिन कार्य है । इसीलिए यह उक्ति प्रचलित है कि "बालक की नैतिक शिक्षा उसके जन्म से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है" इस हेतु अपनी सन्तान को सच्चरित्र बनाने की अभिलाषा रखने वाले माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे बालक के जन्म से पूर्व ही उन गुणों को स्वयं प्राप्त करने का प्रयत्न करें, जिन गुणों का वे अपनी सन्तान में होना आवश्यक समझते हैं । इस ओर ध्यान देने से चरित्र गठन सम्बन्धी कई कठिनाइयाँ स्वयमेव ही हल हो जाती हैं ।

जिन बालकों के माता-पिता ने इस ओर उचित ध्यान नहीं दिया, उनकी प्रवृत्तियों का भी अच्छी परिस्थिति की सहायता से बहुत कुछ सुधार किया जा सकता है । भले साथियों के सहवास से बुरी प्रवृत्तियों को उत्तेजित किया जा सकता है । इस सम्बन्ध में बालकों के माता- पिता तथा अध्यापकों का यह कर्तव्य है कि वे जिन नियमों का बालकों से पालन कराना चाहते हैं उनका स्वयं पालन करें । घर पर तथा पाठशाला में प्रत्येक कार्य नियत समय पर किया जावे, प्रत्येक वस्तु के लिए निश्चित स्थान हो, प्रत्येक कार्य को करने में स्वच्छ्ता तथा सुन्दरता की ओर ध्यान दिया जाय, प्रत्येक व्यवहार में शिष्टता तथा कर्तव्य परायणता विद्यमान हो और भिन्न-भिन्न नियमों का यथोचित रीति से पालन किया जावे । इस प्रकार की आदर्श परिस्थिति में उपर्युक्त बातें सरलता से ही बालकों के स्वभाव का अंग बन जाती हैं और वे अनायास ही सच्चरित्र बन जाते हैं जो कि मनुष्यता का प्रधान लक्षण है ।

चरित्र निर्माण के लिए तीसरी आवश्यक बात "आचारिक शिक्षा" है । यदि परम्परा तथा बालक का सहवास उत्तम हो तो शिक्षा सोने में सुगन्ध का काम करती है । परम्परा तथा सहवास द्वारा प्राप्त कुप्रवृत्तियों का सुधार कुछ अंशों में आचारिक शिक्षा द्वारा हो सकता है । परन्तु इस प्रकार की शिक्षा देने में निम्नलिखित तीन बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है –

(१) कुछ सीमा के अन्दर बालकों को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता अवश्यमेव देनी चाहिए । उनकी प्रवृतियों का व्यर्थ दमन करने तथा हर समय उनको सख्त कैद में रखने से बहुत हानि की आशंका रहती है । इस प्रकार बालक डरपोक बन जाते हैं और उनमें आत्म विश्वास, स्वावलम्बन, दृढ़, निश्चय उद्योगशीलता तथा मौलिकता आदि गुणों का विकास नहीं होने पाता। अत: बालकों को स्वतंत्र रीति से कार्य करने का अधिक से अधिक अवसर देना चाहिए जिससे कि उनके व्यक्तित्व और चरित्र का उचित रुप से विकास हो सके ।

(२) बालकों में आत्म संयम का भाव उत्पन्न किया जावे तथा उनकी बुरी प्रवृत्तियों को रोका जावे । यह विशेष कर उन बालकों के लिए बहुत आवश्यक है जिनकी परम्परा तथा बाल्यकाल का सहवास अच्छा नहीं होता है । इस प्रकार के बालकों को उसी समय दृढ़तापूर्वक रोकने की आवश्यकता होती है जब कि वे सीमा का उल्लंघन करने को उद्दत होते हैं । ऐसी अवस्था में यदि अन्य साधनों से सफलता प्राप्त न होवे तो दण्ड का भी प्रयोग किया जा सकता है जिससे कि बालक की कुप्रवृत्तियों का दमन होकर उसमें संयम का भाव उत्पन्न हो सके ।

(३) बालकों को उन गुणों, नियमों, आदर्शों तथा कर्तव्यों से परिचित कर देना चाहिए जिनके आधार पर उनके चरित्र का निर्माण करना है, जिससे उनको यह भली भाँति विदित हो जावे कि कौन-सी बातें उनके लिए हितकर हैं, कौन-सी अहितकर, कौन-सी बातें उचित हैं और कौन-सी अनुचित तथा उनको किस आदर्श के अनुसार कार्य करना है । शिक्षाप्रद नाटकों, रोचक कथाओं, उत्तम-उत्तम कविताओं, आदर्श पुरुषों के जीवन चरित्रों से बालक के आचरण सम्बन्धी ज्ञान की वृद्धि तथा पुष्टि करें । बालकों को सुन्दर-सुन्दर कविताएँ, गीत, पद तथा श्लोक भी कण्ठाग्र करा देने चाहिए क्योंकि इनके द्वारा उचित निर्णयों पर पहुँचने और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उचित रीति से व्यवहार करने में बहुत सहायता मिलती है ।

( ४) बालकों को निषेधात्मक कार्य की अपेक्षा विधेयात्मक कार्यों का स्मरण दिलाना अधिक श्रेयस्कर है । यदि बालक को किसी कार्य को करने का निषेध किया जाता है तो उस कार्य को करने के लिए वह अधिक लालायित हो जाता है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल शाब्दिक रीति से अच्छी आदतों का बोध देकर ही शिक्षक तथा माता-पिता को सन्तुष्ट न होना चाहिए । उनके मन में उन आदतों के प्रति श्रद्धा तथा उनको अपने जीवन में चरितार्थ करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न की जानी चाहिए । इस प्रकार की दृढ़ इच्छा उत्पन्न हो जाने पर भिन्न-भिन्न गुणों कर्तव्यों तथा सिद्धान्तों के संबंध में बालकों के मन में स्थायीभाव (सेण्टीमेन्ट्स) उत्पन्न हो जाते हैं । इस भाव के उत्पन्न हो जाने से वे उन कार्यों को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हैं ।

(५) ऐसे भावों को बालकों के मन में अवश्य उत्पन्न करना चाहिए जिन पर उसके समाज में विशेष महत्व दिया जाता है । इसके साथ-साथ कुछ ऐसे गुणों के प्रति भी उसके मन में स्थायीभाव उत्पन्न कर देना आवश्यक है जिनका होना मनुष्यता का सूचक है और सभ्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए वांछनीय है । जैसे-आत्म-सम्मान, सभ्यता, ईमानदारी, स्वच्छता, स्वास्थ्य रक्षा, साहस, निर्भीकता, कर्तव्यपालन, संयम, नियमपालन आदि । इसमें सबसे आवश्यक आत्म-सम्मान का स्थायीभाव है । बालकों के चरित्र गठन में इससे सबसे अधिक सहायता मिलती है । जिस बालक में यह भाव उत्पन्न हो जाता है, वह कोई अनुचित कार्य नहीं कर सकता क्योंकि इस भाँति के व्यवहार से उसके आत्म-सम्मान में धब्बा लग जाने, उसके यश के कलंकित हो जाने और अन्य लोगों की दृष्टि में उसके गिर जाने की उसको सदा आशंका रहती है । इस भाव का विकास शनै:-शनै: होता है । इसको पूर्ण रुप से जागृत करने के लिए बालक पर विश्वास करना चाहिए और उसके उत्तरदायित्व के भाव को जागृत करना चाहिए ।

(६) किसी अनुचित कार्य को करने पर उसे भला-बुरा नहीं कहना चाहिए, बल्कि ऐसा कह कर कि "इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारे योग्य नहीं है । यह कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता । तुमसे कदापी ऐसी आशा न थी, इत्यादि......|" उसके आत्म-सम्मान के भाव को जागृत करना चाहिए जिससे भविष्य में वह कोई भी कार्य अनुचित ढंग से करे । ऐसे अवसर पर भला-बुरा कहने से बालक का उत्साह सदा के लिए भंग हो जाता है और दिन प्रतिदिन उसकी अवनति होने लगती है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सुन्दर स्थायी भावों का हमारे जीवन में कितना महत्व है । जिन लोगों में बुद्धि की वृद्धि अधिक हो जाती है किन्तु जिनके मन में सुन्दर, स्थायी भाव नहीं बन पाते वे एक ओर बुद्धिमान होते हुए भी दूसरी ओर दुराचारी हो सकते हैं । उनका विवेक उन्हें दुराचार से रोकने में समर्थ नहीं होता है । कितने ही बड़े-बड़े बुद्धिमान दुराचरण करते हुए दिखाई देते हैं, परन्तु बहुत से अपढ़ लोग भी सदाचारी होते हैं क्योंकि अपढ़ होते हुए भी उन में सुन्दर स्थाई भाव होते हैं । अत: सदाचार के लिए सुन्दर स्थायी भावों का होना आवश्यक है । किसी आदर्श के प्रति स्थायी भाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि बालकों के मन में उसका स्पष्ट चित्र खिंच गया हो तथा उसके सम्बन्ध में उचित अन्त:क्षोभ का संगठन कर दिया गया हो । इसके लिए अभीष्ट गुणों तथा आदर्शों की महत्ता प्रभावशाली शब्दों में प्रकट करनी चाहिए तथा उसके विपरित गुणों पर घृणा दर्शानी चाहिए । सद्गुणों से सम्बन्ध रखने वाले कार्य भी बालकों से बार-बार कराने चाहिए । चरित्र सुधार के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि निरन्तर अभ्यास द्वारा बालकों में सद्गुणों का बीजारोपण किया जाय ।

चरित्र गठन के लिए बालकों में दृढ़ संकल्प शक्ति का होना भी आवश्यक है जिससे कि विध्न वाधाओं तथा शारिरिक कष्टों का सामना करते हुए अपने निर्णयों को कार्य रुप में परिणत कर सकें । इस दृढ़ता को उत्पन्न करना भी बालक के माता-पिता एवं गुरुजनों का आवश्यक कर्तव्य है ।

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