संतान के प्रति कर्तव्य

बालकों को पवित्र वातावरण में रखिए

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बालकों के जीवन को सफल बनाने और उनके मानसिक विकास को उपयुक्त रीति से अग्रसर होने के लिए पवित्र वातावरण की बड़ी आवश्यकता है । यह एक अटल सत्य सिद्धान्त है कि जो मनुष्य किसी अन्य मनुष्य के साथ रहेगा तो उसकी भावनाओं का प्रभाव भी उस पर अवश्य पड़ेगा । अगर उन दोनों में से एक कोमल प्रकृति का हुआ तो वह दूसरे सबल व्यक्ति की भली-बुरी बातों से अवश्य प्रभावित होगा और उनको ग्रहण भी कर लेगा । इस दृष्टि से हम यदि दूसरों के प्रति सद्भावना रखते हैं तो अप्रत्यक्ष रुप में उनका कल्याण ही होता है । इसके विपरीत अगर दुर्भावना रखते हैं और प्रकट करते हैं तो उससे अन्य लोगों की क्षति होती है । बालक का मन बड़ा ही निर्मल होता है । उसके मन में दृढ़ता नहीं होंती । अतएव जब किसी व्यक्ति के प्रबल विचार उसके अचेतन मन में घुस जाते हैं तो वे उसकी बड़ी क्षति कर डालते हैं । यदि कोई व्यक्ति अपने शत्रु के विनाश के विचार मन में ला रहा है और इसी बीच उसका बालक उसके समीप आये तो अज्ञात रुप से उसके वे अभद्र विचार बालक के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं । इस कारण बालक का स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है अथवा उसकी मृत्यु ही हो जाती है ।

हमारी साधारण धारणा है कि बालक को बिना सिखाये कुछ भी नहीं आता । बालक के जीवन पर उन्हीं बातों का प्रभाव पड़ता है जिन्हें हम जानबूझ कर उसके मन में डालते हैं, पर हमारी यह धारणा भ्रमात्मक है । हम बालक के जीवन पर जितना जान-बूझकर प्रभाव डालते हैं, उससे कहीं अधिक प्रभाव उसके जीवन पर अनजाने डालते हैं । हम जो भी विचार मन में लाते हैं, उससे बालक प्रभावित होता है । यदि हमारे सब समय के विचार भले हैं, यदि हम सब समय दूसरे के ही कल्याण का चिन्तन करते हैं तो बालकों का चरित्र स्वत्: ही सुन्दर बन जाता है । प्रेम ही सब सद्गुणों का स्त्रोत मूल है और घृणा सब दुर्गुणों का । हमारी विश्व-प्रेम की भावनाएँ बालकों के हृदय में स्थान कर लेती हैं और वे उसे अपने आप सदाचारी बना देती हैं ।

जो व्यक्ति अपनी सन्तान को सुयोग्य बनाना चाहता है, उसके लिए यह आवश्यक है कि वह कठोर परिश्रम से पैसा कमाकर उनका लालन-पालन करे । दूसरे के धन की आशा न करे । अपने बालकों को दूसरों के सहारे कभी न छोड़े । यदि कोई गरीब व्यक्ति अपने बालक को प्रेम के साथ पालता है और यदि ऐसे बालक को वह किसी कारणवश किसी धनी के घर थोड़े दिन के लिए रख दे, जहाँ बालक को सब प्रकार की सुख-सामग्री मिलती हैं, तो भी वह बालक वहाँ रहना पसन्द नहीं करेगा । बालक प्रेम का भूखा होता है । प्रेम की भूख भोजन की भूख से भी प्रबल होती है । धनी घर में बालक की केवल भौतिक भूख तृप्त हो सकती है । यही कारण है कि वह ऐसे घर को जेलखाने के समान मानता है । ऐसे घर में रहने पर पहले तो वह वहाँ से भागने की चेष्टा करता है और जब वह इसमें समर्थ नहीं होता तो रोग का आश्रय लेता है । जो बालक इस प्रकार के वातावरण में रहकर भी जी जाते हैं, वह किसी न किसी प्रकार के बड़े चरित्र-दोष को पकड़ लेते हैं । देखा गया है कि दत्तक पुत्र, यदि रोगी, क्रूरकर्मी, व्यभिचारि न हुआ तो वह निसंतान अवश्य होता है । इस प्रकार की घटना का प्रधान कारण बालक का दूषित मानसिक वातावरण में पाला जाना ही है ।

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