जिन्दगी कैसे जियें?

मानसिक असन्तुलन

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मानसिक असंतुलन से मनुष्य के व्यक्तित्व का एकांगी विकास होता है। इसमें से प्रत्येक व्यक्ति मानसिक रूप से नई परिस्थितियों में फिट होने का प्रयत्न करता रहता है। यदि हम अपने घर, पेशे, वातावरण के अनुसार अपने मानसिक संस्थान को ढाल लेते हैं, तो हमें कार्य में प्रसन्नता और मन में शान्ति प्राप्त होती है, अन्यथा हमारा मन अतृप्त और हमारी आत्मा अशान्त रहती है।
उदाहरण स्वरूप कुछ ऐसे विचार और तथ्य होते हैं जिनके प्रति हम ईर्ष्यालु हो उठते हैं। हम इन विचारों से बच नहीं सकते। उनके बावजूद हमें इन्हीं विरोधी विचारों में कार्य करना है, उनसे मित्रता करनी है। तभी हमें मानसिक शान्ति प्राप्त हो उठेगी।
मन में आन्तरिक संघर्ष का क्या कारण है? दो विरोधी विचार, दो विभिन्न दृष्टिकोण हमारे मानसिक क्षितिज पर उदित होते हैं। हमें इन दोनों के बावजूद कार्य करना है संतुलन ही शान्ति का एक मात्र उपाय है।
चोरी करने वाला व्यक्ति वह है जो अपने विचार, भावना और अन्तरात्मा में पारस्परिक संतुलन नहीं कर पाता। उसकी लालच और मोह की प्रवृत्ति अन्तरात्मा को दबा लेती है। वह मोह को लम्बा छोड़ देता है और स्वयं भी उसमें लिपट जाता है। सत्य और न्याय की पुकार दब जाती है। पापमय वृत्ति की विजय होती है। शैतान बच्चे, झगड़ालू औरतें, सब इन मानसिक रोग के शिकार होते हैं। वे मानसिक जगत को ठीक तरीके से संचालित और संतुलन नहीं कर पाते हैं। कोई विकार इतना तीव्र हो जाता है, जो विवेक बुद्धि को दबा कर, उनके स्वभाव का एक अंग बन जाता है।
मन की क्रियाओं को तीन भागों में विभाजित किया जाता है— 1-भावना, 2-विचार, 3-क्रियाएं। ऐसे बहुत कम व्यक्ति हैं, जिनमें उपरोक्त तीनों क्रियाओं का पूर्ण सामंजस्य का पूर्ण संतुलन हो। किसी में भावना का अंश अधिक है तो वह भावुकता से भरा है, आवेशों का विचार रहता है। उसकी कमजोरी अति-संवेदना शीलता है। वह जग सी भावना को तिल का ताड़ बनाकर देखता है।
विचार प्रधान व्यक्ति दर्शन की गूढ़ गुत्थियों में ही डूबते उतराते रहते हैं। नाना कल्पनाएं उनके मानस क्षितिज पर उदित मस्त होती रहती हैं, योजना बनाने का कार्य उनसे खूब करा लीजिए। पर असली काम के नाम पर वे शून्य हैं।
तीसरी प्रकार के व्यक्ति सोचते कम हैं, भावना में नहीं बहते हैं, पर काम खूब करते रहते हैं। इन कार्यों में कुछ ऐसे भी काम वे कर डालते हैं जिनकी आवश्यकता नहीं होती तथा जिनके बिना भी उनका काम चल सकता है।
पूर्ण संतुलित वही व्यक्ति है जिसमें भावना, विचार तथा कार्य, इन तीनों ही तथ्यों का पूर्ण सामंजस्य या मेल हो। ऐसा व्यक्ति मानसिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ है। हमें चाहिए कि हम ‘अति’ से अपनी रक्षा करें और इस प्रकार असंतुलन से बचे रहें। कहने का तात्पर्य यह है कि अति भावुकता के चक्र में पड़ कर ऐसा न कर डालें ऐसे वायदे न कर बैठें, जिन्हें बाद में पूर्ण न कर सकें। इतने विचार-प्रधान न बन जायें कि सम्पूर्ण समय सोचते-विचार, चिंतन करते-करते ही व्यतीत हो जाय। विचार करना उचित है, किन्तु विचारों ही में निरन्तर डूबे रहना और कार्य न करना हमें मानसिक रूप से आलसी बना डालेगा।
अच्छे व्यक्ति के निर्माण में क्रिया, भावना, तथा विचारशक्ति इन तीनों आवश्यक तत्वों का पूर्ण विकास होना चाहिए। जो व्यक्ति काम, क्रोध, आवेश, उद्वेग इत्यादि में निरत रहते हैं, उन्हें इन भावनाजन्य मानसिक व्याधियों का परित्याग करना चाहिए। जो केबल कागजी योजना से और व्योम-विहारिणी कल्पनाओं में लगे रहते हैं, इन्हें सांसारिक दृष्टिकोण से अपनी योजनाओं की सत्यता जांचनी चाहिये। इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों को अपने कार्यों को जीवन में प्रकट करना चाहिये। हम महान पुरुषों में देखते हैं कि उनकी बुद्धि पूर्ण विकास को पहुंच चुकी थी, विचार और इच्छा शक्ति बड़ी बलवती थी और कार्य शक्ति उच्च कोटि की थी। महात्मा गांधी ऐसे संतुलित व्यक्तित्व के उदाहरण थे।
जीवन में संतुलन का महत्व
एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जो हवा के भयंकर तूफान में चला जा रहा है। धूल से उसके नेत्र क्षण भर के लिए बन्द हो जाते हैं। अधमिचे नेत्रों से वह दूसरी ओर बहक जाता है। ठीक मार्ग पर आरुढ़ होना चाहता है किन्तु मार्ग नहीं सूझता।
यही हाल मानव के अन्तर्जगत का है। वह अन्दर ही अन्दर अनेक विरुद्ध भावनाओं का शिकार रहता है। प्रलोभन का माया जाल और वासना की आंधी उसे घेरे रहती है। और वासना तृप्ति के लिए वह इधर-उधर भटकता रहता है। उसे पथ भ्रष्ट होते देख उसकी शुभ शक्तियां उसे सचेत करती हैं। यदि उनकी शक्ति अधिक हो तो व्यक्ति बच जाता है, अन्यथा पतन के गर्त में विलीन हो जाता है।
मानव जीवन में अनेक आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों का प्राधान्य है। भावना कहती है—
‘‘अमुक व्यक्ति बड़ी दयनीय स्थिति में है। उसकी सहायता करें, अपने सुख सुविधा, साधनों को न देखें। कर्ण, शिवि, राजा हरिश्चन्द्र का उदाहरण लीजिए। इन महापुरुषों ने दया, करुणा, सहानुभूति और दान द्वारा महान पद प्राप्त किया। हमें भी यही करना चाहिए। अपने सुख सुविधा इत्यादि का कोई ध्यान न रखना चाहिए।’’
तर्क आपको रोकता है और कहता है—‘‘क्या पागल हुए हो। सोचो विचारों, दिमाग से काम लो। यदि साधनों का ध्यान छोड़ कर व्यय किया, दूसरों से बड़े-बड़े वायदे किये, तो आफत में फंस जाओगे। भावना में मत बहो। समाज रुपये का आदर करता है।
विलास भावनाएं कहती हैं—‘अरे मानव तूने बहुत श्रम कर लिया है। अब कुछ आनन्द मनाले। जीवन का रस ले। बार-बार जीवन आने वाला नहीं है।’
इस प्रकार मानव के आन्तरिक जीवन में भावना, तर्क, वासना, शरीर बल, आत्म बल, प्रेम, द्वेष, घृणा इत्यादि परस्पर विरुद्ध शक्तियों का अविराम ताण्डव चलता रहता है। जो इन शक्तियों का उचित समन्वय कर सकता है, वही सफल है।
जीवन में भावना की आवश्यकता है। बिना भावना का मनुष्य मिट्टी या पत्थर का पुतला मात्र बन जाता है। तर्क अर्थात् विवेक की भी आवश्यकता है। जो सोच समझ कर कार्य न करे, बुद्धि से काम न ले, वह तो निरा पशु ही है। इसी प्रकार वासना, घृणा, प्रेम इत्यादि सबका अपने अपने स्थान पर महत्व है। पर सुख और सफलता मानव की विभिन्न शक्तियों के सन्तुलन में ही है। असंतुलन में पराजय छिपी हुई है।
सिकन्दर महान, जूलियस सीजर और औरंगजेब की अत्यन्त बड़ी महत्त्वाकांक्षाओं का परिणाम हमारे सामने है। कर्ण के पतन का कारण अति भावुकता थी। रावण दर्प के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ।
तर्कशील, भावनाशील, कर्मशील—तीनों ही प्रकार के मानव, जीवन में अमर्यादित संतुलन से असफल हो सकते हैं। इसलिए यह ध्यान रखें कि कहीं आपके व्यक्तित्व का एक ही पहलू विकसित न होता रहे। सभी संतुलित रूप से विकसित होते रहें। अतिरेक त्याज्य है। ध्येय और व्यवहार, कर्म और भावना, परिश्रम और विश्राम, तर्क और कार्य इन सभी द्वन्द्वों में उचित समन्वय का नाम ही जीवन है।
उत्तेजना के दुष्परिणाम—
कहते है आदिम जातियों में एक बड़ी मानसिक कमजोरी रहती है, जिसे उत्तेजना कहा जाता है। आदिम जातियों में नृशंस हत्याओं और मारपीटों का विशेष कारण यही उत्तेजना होता है। लड़का यदि अपने पिता से क्रुद्ध और उत्तेजित हो उठा तो एक ही आवेश में वह पिता की हत्या कर बैठता है। यही स्थिति पिता, पति अथवा अन्य कुटुम्बियों की है। क्रोध पर ये काबू कर नहीं पाते और क्षणिक आवेश में हत्या, मारपीट खून-खराबी हो जाती है। छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े चलते रहते हैं, पारस्परिक कटुता की अभिवृद्धि होती रहती है, एक-दूसरे के प्रति बैर, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा इत्यादि विषैले मनोविकार पनपते रहते हैं।
उत्तेजना द्वारा हत्याएं—
कुछ दिन की बात है एक पढ़े-लिखे युवक ने उत्तेजना का शिकार होकर अपने तीन बच्चों की हत्या कर डाली, अपनी पत्नी को मार डाला और स्वयं रेल की पटरी पर लेट कर आत्महत्या करते पकड़ा गया। इसी प्रकार हम देखते हैं अनेक युवतियां वैवाहिक जीवन में तनिक सी बात से उत्तेजित होकर आत्म हत्या कर बैठती हैं। एक युवती का वृत्तान्त, जिसने अपने वस्त्रों पर मिट्टी का तेल डालकर आत्महत्या की थी, पत्रों में छपा था।
प्रेम-सम्बन्धी जटिलताओं, धोखेबाजियों, गुप्त व्यभिचार, वेश्यागमन तथा शराबखोरी के मामलों में उत्तेजना बड़ी तीव्रता से उद्दीप्त होती है। दो व्यक्ति एक ही स्त्री से प्रेम करते हैं। कुछ काल तक चुपचाप अनुचित सम्बन्ध चलता है। किसी दिन एकाएक प्रेम सम्बन्ध विपरीत व्यक्ति पर प्रकट होता है। वह प्रतिशोध और ईर्ष्या की क्षणिक उत्तेजना में पागल-जैसा बन जाता है। किसी न किसी की हत्या होना अवश्यम्भावी है।
एक वर्ष पूर्व की बात है। कोटा में एक स्थान पर नव-विवाहित स्त्री का धड़ गाड़ी में डाल कर लाया गया था। लड़की का विवाह कुछ दिन हुए हुआ था। पति को यह शक हो गया था कि उसका गुप्त प्रेम सम्बन्ध किसी अन्य व्यक्ति से है। वह उत्तेजना में अन्धा हो गया और कुल्हाड़ी से पत्नी का सिर काट डाला। सब व्यक्ति वह कारुणिक दृष्टि देखकर आठ-आठ आंसू रो रहे थे।
जिन व्यक्तियों ने शेक्सपीयर का ओथैलो नाटक पढ़ा है। वे जानते हैं कि उस वीर ने कैसे ईर्ष्या और उद्वेग का शिकार होकर अपनी सुन्दर पत्नी डेस्डीमोना की हत्या कर दी थी, जो बात बाद में मिथ्या सिद्ध हुई थी। उस नाटक में शेक्सपीयर ने मनुष्य की उत्तेजना, आकस्मिक उद्वेग, जल्दबाजी, प्रतिशोध और ईर्ष्या की मानसिक निर्बलताओं का सजीव चित्रण किया है।
उत्तेजक स्वभाव का मनोविश्लेषण
उत्तेजना क्या है? इसका विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह उद्वेग (एक्साइटमेंट) का आधिक्य है। साधारणतः व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं—एक तो वे जिन्हें मोटी चमड़ी (थिक स्किन्ड) कह सकते हैं। इन व्यक्तियों में भावनाएं कम होती हैं। इन्हें कुछ कह दीजिए, इनके मन में कोई प्रभाव न पड़ेगा। गाली गलोज या मानहानि से भी ये उत्तेजित न होंगे। ये भावना के आक्रोश में नहीं रहते। क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, क्षणिक आवेश का इन पर कोई शीघ्रव्यापी प्रभाव नहीं होता।
दूसरे व्यक्ति भावुक और अति उद्विग्न होते हैं। फूल की तरह कोमल, छुईमुई के पौधे के समान संवेदनशील होते हैं। भावना की अधिकता इनकी दुर्बलता है। भावना क्रोध, प्रेम, वात्सल्य, दया, ईर्ष्या इत्यादि मनोविकारों को गहराई से अनुभव करना और उन्हीं के वश में इतना हो जाना कि स्वयं अपनी विवेक बुद्धि को भी खो डालना, लाभ-हानि या अन्तिम परिणाम का खयाल न रखना इनकी कमजोरी है। जो गुण कवि में सौभाग्य का विषय है, वही मनोविकारों के ऊपर नियन्त्रण न कर सकने वाले व्यक्ति के लिए एक अभिशाप है। ये अपनी उत्तेजनाओं के ऊपर विवेक बुद्धि का नियंत्रण नहीं कर पाते और स्वयं उनके वशीभूत हो जाते हैं।
उत्तेजना एक क्षणिक पागलपन है। यह भावना का तांडव नृत्य है, उद्वेग की एक आंधी है, ईर्ष्या, क्रोध, प्रतिशोध का एक भयंकर तूफान है, जिसे निर्बल इच्छा-शक्ति वाला व्यक्ति सम्हाल नहीं पाता, अपने आपको खो देता है।
उत्तेजना की आंधी में बुद्धि विवेक शून्य निश्चेष्ट हो जाती है, उत्तरोत्तर बढ़ कर शरीर पर पूरा अधिकार कर लेती है। भावना के उद्वेग में नीर-क्षीर का ज्ञान लुप्त हो जाता है।
उत्तेजक स्वभाव वाला व्यक्ति दूरदर्शिता को खो बैठता है। कभी-कभी उसे अपनी शक्तियों का ज्ञान तक नहीं रहता। कमजोर व्यक्ति भी उत्तेजना का शिकार होकर मजबूत व्यक्ति से लड़ बैठते हैं। बातों बातों में उग्र हो जाते हैं। हाथापाई की नौबत आ जाती है। अनेक बार उत्तेजक स्वभाव वाले बड़ी बुरी तरह पीटे जाते हैं।
सहनशील बनिए
संसार में स्थान-स्थान पर मनुष्य को दबना पड़ता है और उत्तेजनाओं को दबाना पड़ता है। प्रायः देखा जाता है उत्तेजक स्वभाव वालों को न कोई नौकर रखता है, न उनका व्यापार ही चमकता है। अफसर उन्हीं मातहतों से प्रसन्न रहते हैं जो उनकी जहां चार अच्छी बातें सुनते हैं, वहां दो तीखी कड़वी बात भी पी जाते हैं। कड़वी तीखी बातें सुनना, उनसे उत्तेजित न होकर मनःशान्ति स्थिर रखना सांसारिक जीवन में सफलता का एक रहस्य है। इस सहिष्णुता से विभूषित व्यक्ति चाहे कुछ काल के लिए प्रसिद्ध न हो, अन्त में उसकी आन्तरिक शान्ति और सहिष्णुता विजयी होती है।
विषय-वासना की उत्तेजना अत्यन्त भयावय है। आप एकान्त में हैं, या चार विपरीत लिंग वाले व्यक्तियों के सम्पर्क में हैं, कोई उत्तेजक पुस्तक, गन्दा उपन्यास या अश्लील सिनेमा-चित्र देखते हैं तो अनायास ही आपकी वासना उद्दीप्त हो उठती है। आप नहीं समझते कि आप आखिर क्या करने जा रहे हैं। आप अनायास ही किसी से अशिष्टता, मानहानि, दुर्व्यवहार, अश्लीलता, कुचेष्टा कर बैठते हैं, जिसके लिए आप जीवन में स्थान-स्थान पर अपमानित होते हैं। क्रोध में जहां मार पीट, हत्या होती है, वहां वासना में अश्लील, अविवेक पूर्ण दुर्व्यवहार हो जाता है। वासना के पागलपन में किया हुआ गन्दा कार्य, क्रोध की हत्या की तरह, बाद में जनता की आलोचना, लांछन, पश्चात्ताप का विषय बन जाता है।
अनेक व्यक्ति अपनी विवाहित पत्नियों से अधिक सन्तानोत्पत्ति से तंग आकर ब्रह्मचर्य के वाद करते हैं, विशुद्ध सात्विक जीवन की बड़ी बड़ी योजनाएं बनाते हैं, किन्तु जब पत्नी के साथ एकान्त में मिलते हैं, तो उत्तेजित होकर वासना-रत हो जाते हैं। यह भी सर्वथा त्याज्य है। मनुष्य को शान्त और विवेक द्वारा संचालित होना चाहिये। मनःशान्ति की अवस्था में ही सच्चा नीर-क्षीर-विवेक हो सकता है। निर्णयात्मक बुद्धि द्वारा संचालित व्यक्ति ही उन्नति कर सकते हैं। उत्तेजना से सावधान रहें!

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