जिन्दगी कैसे जियें?

क्या हम जीवन भर धक्के खाते रहेंगे?

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
मनुष्य स्वभाव से आलसी है वह किसी के नियंत्रण में नहीं रहना चाहता। उसे स्वतन्त्रता चाहिये और स्वतन्त्रता के साथ ढीलापन, विलासिता, और काम को टालना।
वह आवेशों में रहता है। जब तरंग आई काम में जुट गया, जब तक तरंग चली रही काम करता रहा, तरंग कम होते ही सब कुछ छोड़ बैठा।
वह बड़े लम्बे सफर के लिए निकलता है, लेकिन जहां एक बार बैठ जाता है, वहां से आलस्य वश आगे नहीं चलना चाहता। यदि कोई उसे आगे चलाता रहता तो वह अवश्य यात्रा पूर्ण कर सकता था।
यह आलस्य, यह ढीलापन, कार्य को मध्य में छोड़ भागना, बात को टालने की आदत, काम न करने की आजादी, अनियंत्रण, मजेदारी मस्ती, व्यर्थ के कार्यों में समय नष्ट करना उसकी बड़ी कमजोरियां हैं।
उपरोक्त सब प्रकार की कमजोरियों को दूर करने के लिए जीवन में एक गुण चाहिये, जो अंग्रेजी के ‘रेजीमेन्टेशन’ शब्द से व्यक्त होता है। रेजीमेन्ट फौज का एक टुकड़ा है। रेजीमेन्टेशन से अभिप्राय उस कठोर अनुशासन, नियंत्रण, नियमितता से है, जो हमें फौज में रह कर मजबूरन करना होता है। हम उस अनुशासन से बच नहीं सकते। न करने पर तुरन्त सजा मिलती है।
अनुशासन का महत्व—
फौज में सबसे अधिक महत्व अनुशासन का है। आप को अपने कैप्टेन की आज्ञा का पालन हर हालत में करना होता है। शुद्ध रीति से खड़े होना, कवायद, चलना, भागना मजबूरन करना होता है। जरा से अनुशासन भंग होने से, तनिक सी लापरवाही या अनियमितता से आपको घण्टे भर कन्धे पर दो दो बन्दूकें रखकर इधर से उधर टहलना होता है। आप मजबूर हैं, न अनुशासन भंग कर सकते हैं, न उस सजा या नियमितता से भाग सकते हैं। फलतः इच्छा से या अनिच्छा से आपको वह तमाम बातें करनी होती हैं, जो मिलिटरी का नियम है। आप को एक समय पर उठना, स्नान करना, कसरत भोजन, विश्राम, भागना दौड़ना, सोना जागना पड़ता है। यह अनुशासन आप पर लाद दिया जाता है। कल्पना कीजिये, जो व्यक्ति दस या बीस रेजिमेन्टेशन में रहा हो, उसकी आदतें कैसी बन जायंगी।
मेरे घर के सामने एक रिटायर्ड कर्नल की कोठी है। उनकी आयु साठ के लगभग है। जब मैं प्रातः काल अनिच्छा से अपने शरीर को कसरत देने की इच्छा से भागता दौड़ता हूं, शरीर के प्रत्येक अवयव को ठीक सशक्त अवस्था में रखने के लिए मजबूरी उससे शारीरिक कार्य लेता हूं (जिसमें कितनी ही बार मुझे आनन्द नहीं आता) तो मैं देखता हूं कि ये कर्नल महोदय उसी पुरानी मिलिटरी चाल से कमर सीधा किये छाती बाहर निकाले टहलने जाते हैं। उनका यह टहलना और मिलिटरी जैसे नपे-तुले कदम आगे पीछे जाने वाले हाथ और स्वास्थ्य खून से भरा हुआ रोबीला चेहरा एक आदत बन गया है। वे उससे मुक्त नहीं हो सकते। पूछने पर मालूम हुआ है कि उन्हें इस कार्य में कोई श्रम या कष्ट की भावना नहीं होती। उन्हें यह मालूम भी नहीं होता कि वे कोई विशेष श्रमसाध्य कार्य भी कर रहे हैं। कार्य मशीन की तरह स्वयं अपने आप होता चलता है।
सैनिक शिक्षा द्वारा विकसित आवश्यक गुण—
श्री रामचन्द तिवारी ने इसी तत्व को दृष्टि में रखकर क्या ही सुन्दर लिखा है—‘उचित मानसिक नियमन तथा व्यायाम अत्यन्त आवश्यक वस्तु है। संसार का सैनिक इतिहास बताता है कि भली भांति ड्रिल में अत्यन्त थोड़ी सी सेना के सम्मुख बहुसंख्यक साधारण सैनिक सदैव हारते रहे हैं। अनियमित सैनिक अधिक वीर हो सकते हैं, परन्तु उनकी व्यक्तिगत नियमाधीन हुए बिना विजय नहीं प्राप्त कर सकती। हमारा पिछले दो सहस्र वर्ष का इतिहास उसका साक्षी है। सैनिक व्यायाम तथा कला के अध्ययन और अभ्यास से केवल हमारा शरीर ही दृढ़ नहीं होता, केवल हमें हथियार चलाने की योग्यता ही प्राप्त नहीं होती, वरन् इस शिक्षा का वास्तविक महत्व मस्तिष्क का नियमन है। अच्छे वेधक होने के लिए मस्तिष्क को जितनी एकाग्रता की आवश्यकता है, वह एक व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, परन्तु अपने व्यक्तित्व को भुलाकर सेना में मिला देने के लिए जिस संयम, मानसिक दमन तथा आत्म-शासन की आवश्यकता है, वह वरक में रहने तथा एक पंक्ति में खड़े होकर पैर हिलाने से ही आती है। सैनिक शिक्षा का महत्व इसी में है। उसकी स्वतन्त्रता तथा सफलता संयम में है।’’
सैनिक शिक्षा से हमें दो महान् जीवन तत्वों का अभ्यास मजबूरन मिलता है—
1—संयम अर्थात् व्यक्तिगत स्वार्थों का सबके लिए त्याग, अपनी इच्छाओं का दमन।
2—अनुशासन — कठोर से कठोर कार्य को नित्य समय पर डिकटेटर की भांति कर डालने पर मजबूर करना। प्रत्येक गलती पर सजा, समय का पालन नियमितता।
संसार में जितने महान पुरुष हुए हैं सभी का जीवन कठोर आत्म शासन का जीवन रहा है। जिन्होंने संसार को जीता है उन्होंने पहले अपने आपको जीता है। दिग्विजयी होने के लिए प्रथम आत्म विजयी होना अनिवार्य है। देश तथा राष्ट्रों के विषय में भी यह कथन पूर्णतः लागू होता है।
मजबूरी चाहिये—
मनुष्य स्वभावतः ही आलसी है। जब तक खिंचा तना रहता है कोई इससे काम कराने के लिए सर पर सवार होता है, तब तक पर्याप्त कार्य करता है। जब कोई नियन्त्रण नहीं रहता, तो उसको आलस्य भावना उसे दबा लेती है और वह अपना किया कराया नष्ट कर देता है।
हम देखते हैं कि लोग भांति-भांति की सुन्दर योजनाएं पढ़ाई लिखाई, व्यापार, वा व्यायाम की प्राप्ति के लिए उत्साह से कामों में लगते हैं। कुछ दिन तक तो उनका जोश चलता है, किन्तु कुछ काल पश्चात् धीरे धीरे जोश समाप्त हो जाता है, और उनका महान् कार्य बीच ही में पड़ा रह जाता है।
जरूरी यह है कि किसी कार्य को करने के लिये हमें कोई मजबूर करता रहे। हमें सिपाही की भांति डरा धमका या अनुशासन संयम द्वारा कोई महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए बाध्य किया जाय। यदि न करें तो कोई हमें मिलिट्री की तरह सजा दे।
बाह्य तथा आन्तरिक प्रतिबन्धन—
किसी कार्य को करने की प्रेरणा दो प्रकार की हो सकती है—(1) अन्तर से हृदय या आत्मा को दिव्य प्रेरणा। इसका उदय सात्विक मन में तर्क तथा कर्तव्य भावना से होता है। मनुष्य किसी कार्य के औचित्य के विषय में सोचता है, तथा उसे पूर्ण करने में संलग्न होता है। (2) बाह्य परिस्थितियों या किसी बड़े व्यक्ति द्वारा शासन या सजा का भय। प्रायः अशिक्षित, अविकसित व्यक्तियों में यह दूसरी प्रकार की प्रेरणा ही काम करती है। वे दण्ड के भय से किसी कार्य के करने को मजबूर किये जाते हैं। छोटे बच्चे जो अपने भले बुरे को नहीं समझते दण्ड के भय से उन्नति करते हैं।
यदि बालक बड़ा होने पर तर्क और बुद्धि से किसी कार्य को पूर्ण करने की प्रेरणा प्राप्त कर ले तो उसकी उन्नति निरन्तर चलती है, अन्यथा स्वतन्त्र और निर्द्वन्द होने पर वह आलस्य मजेदारी, बेकारी, सरलता का मार्ग अपनाती है।
हमारा प्रथम पुनीत कर्तव्य अपने शरीर को बनाये रखना है। सोचकर देखिये, यदि शरीर पर नियन्त्रण और कठोर अनुशासन न रखा जाय, उससे मजबूर करा कर शारीरिक परिश्रम न कराया जाय, तो क्यों कर वह सशक्त बन सकता है? जब कसरत का समय आवेगा, तो शरीर उससे पीछा छुड़ाने की चेष्टा करेगा, मन आलस्य में डूबा होगा। विकास के लिए आपको शरीर से वरवश काम कराना ही होगा। ठीक समय पर शौचादि से निवृत्त होकर टहलने जाना ही होगा।
आन्तरिक अनुशासन सर्वश्रेष्ठ है—
पार्थिव शरीर स्वयं बन्धन का परिणाम है। यदि हम उस पर मन का दृढ़ और कभी अशक्त न होने वाला नियन्त्रण न रखेंगे, तो उसके अवयव अपना स्वाभाविक कार्य करना बन्द कर देंगे। शरीर बन्दर विहीन होकर बिखर पड़ेगा।
यही गति हमारे मानसिक जगत् की भी है। यदि हमारी इच्छाएं, वासनाएं, मनोवांछाएं विवेक बुद्धि के अनुशासन से बंधी रहे, तो उन्नति अन्यथा शक्तियों का ह्रास होगा। मन पर पूर्ण नियमन न होने के कारण बड़े बड़े योग्य एवं उपजाऊ मस्तिष्कों के हाथ के अवसर फिसल जाते हैं। आन्तरिक विवेक बुद्धि तथा कर्तव्य भावना ही सब प्रकार के अनुशासनों में श्रेष्ठतम है।
गम्भीर विषयों जैसे गणित, आध्यात्म, तथा फिजिक्स आदि के अध्ययन में प्रायः संयम और इच्छा निरोध की अतीव आवश्यकता पड़ती है। ये ऐसे शुष्क एवं जटिल विषय हैं कि जब तक आप अपने को मजबूरी की हालत में न रख देंगे, कुछ भी अध्ययन न हो सकेगा। अध्ययन के क्षेत्र में तभी उन्नति होती है, जब या तो बाहर से हमें कोई काम करने पर सख्ती से मजबूर करे, डराये, धमकाये, दण्ड का भय दिखाये, या सजा देने को तैयार रहे, अथवा स्वयं हमारी विवेक बुद्धि हमारी निम्न प्रवृत्तियों (आलस्य, प्रमाद, जी चुराना, काम से भागना, आनन्द मंगल, मजेदारी में समय व्यर्थ गंवाना) को सख्ती से दबा दे और कर्तव्य भावना, बुद्धि तर्क इत्यादि के अनुकूल कार्य हो।
वासनाओं पर कठोर शासन—
अपने मन पर विवेक बुद्धि का इतना सख्त अनुशासन रखिये कि विवेक हीनता का कोई कार्य आप कर न सकें। आप का विवेक आपके अन्तर वाह्य की समस्त क्रियाओं पर तीखी दृष्टि रखे। कोई भी बात उसके विरुद्ध न हो। जितना कठोर अनुशासन होगा, उतना ही श्रेष्ठ और विकसित जीवनपुष्प रहेगा।
जब आपका मन अपने पूर्व निश्चित कार्य से भागे, टिड्डी की भांति एक स्थान से कूद कर दूसरे, दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे विषय पर लाये, तो आप को चाहिये कि सख्ती से उसे दबा कर एक ही विषय पर एकाग्र करें। मन के ऊपर वैसा ही नियंत्रण रखें जैसा मिलिटरी में कोई सार्जेन्ट अपनी सेना के ऊपर रखता है। कोई भी दुष्प्रवृत्ति आप पर आक्रमण न कर सके, आप को निश्चित मार्ग से च्युत न कर सके।
मान लीजिए आप प्रातः काल कसरत करते हैं। ज्यों ज्यों व्यायाम का समय समीप आता है, जी करता है कि यह कार्य न करे, तो अच्छा है। किसी प्रकार इस श्रम से जी बच जाय तो अच्छा है। ऐसे अवसरों पर जबरदस्ती आप शरीर को मजबूर कीजिए कि वह कार्य करे।
किसी के यहां मिलने न जाने की प्रवृत्ति हो तो उससे मिलने जाइये। जो काम दूभर, कठिन, शुष्क प्रतीत हों, उन्हें करने पर अपने को मजबूर कर दीजिए।
विषय वासना की ओर प्रलोभन तेजी से आता है। जब आप का मन विषय वासना की ओर प्रवृत्त हो तो अपनी विवेक बुद्धि द्वारा निम्न स्वभाव को काबू में रखिए कहिये, ‘‘नहीं’’ मैं दूषित वासनाओं के वश में नहीं आ सकता। मैं इसके सामने नत नहीं हूंगा। मैं देव गुणों से सम्पन्न व्यक्ति हूं। मेरी वासनाओं, दूषित इच्छाओं, नारकीय भावनाओं भागो यहां से। मैं तुम्हें पराजित करता हूं। हटो, भागो, मुझे छोड़ो।’’
मानसिक नियमन के उच्च सन्तुलन के द्वारा मनुष्य की शक्तियां संगठित हो जाती हैं। एकाग्रता में अपूर्व शक्ति है। संगठन से मानसिक बल की सिद्धि प्राप्त होती है। एकाग्रता में ही सत्ता है। एकाग्रता का बल संयम, इन्द्रिय निग्रह, कठोर अनुशासन की शक्ति है। जिसका मन टिड्डी की तरह फुदकता है, या बन्दर की तरह वृक्ष की एक शाखा से दूसरी शाख पर कूदता फांदता है उसमें मानसिक दुर्बलता है, आन्तरिक अस्तव्यस्तता है, संगठन का अभाव है। उसकी शक्तियों का परिचालक, मन, स्वयं दुर्बल है, व्यायाम रहित है, शिथिल तथा निकम्मा है। उसकी दुर्बलता का कारण मन की दुर्बलता और अनियमन है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118