जिन्दगी कैसे जियें?

दूसरों के विचारों की गुलामी!

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सर्वं परवशं दुःखम् !
तुम चिन्तित हो? किसी ने तुम से अपशब्द कहा है, जो तुम्हारे मर्मस्थल पर व्यंग्यबाण-सा लगा है और तुम्हें खिन्न कर गया है। तुम उसके अशुभ संकेत को सही मान बैठे और दुःख सागर में डूब गये? यह तुम्हारी इच्छा शक्ति की कमजोरी है, जो दुःख का एक कारण बनकर मन पर सवार हो गई है।
क्या तुम दूसरों के विचारों के दास हो?
तुम्हारा मित्र तुमसे हंसता बोलता था, साथ साथ रहता था। यकायक किसी छोटी सी बात पर तुम्हारी बात बिगड़ गई। न मित्र बोलता है, न तुम स्वयं बोलते हो। मन पर भारी बोझ है।
तुम्हारी पत्नी तुमसे अप्रसन्न है। जब वह तुमसे बोलती हंसती या वार्त्तालाप करती थी, तो तुम अपने आपको बेहद भाग्यशाली समझते थे। आज वह अप्रसन्न है तो तुम्हें समस्त संसार थोथा, अस्थिर और सूना-सूना सा प्रतीत होता है। खाना पीना अच्छा नहीं लगता। किसी से बातें करने की इच्छा नहीं होती। मन उदास है?
दूसरों के मत या सम्मति की परवाह मर्यादा से अधिक करने वालों का ऐसा ही हाल होता है। जो व्यक्ति स्वतन्त्र विचार नहीं रखते, जैसा दूसरे कहते हैं, वैसा ही मानकर कभी यह, कभी वह किया करते हैं, वे अपने सुख, दुःख, आशा, निराशा और उत्साह के लिए पग पग पर दूसरों के संकेतों की प्रतीक्षा किया करते हैं। स्वयं स्वतन्त्र रूप से उनका कोई मत या दृष्टिकोण नहीं रहता। वे दूसरों के विचारों के दास हैं।
एक पुरानी कहानी है। एक बार एक मूर्ख कहीं बकरी ले जा रहा था। तीन चतुर चोरों ने उससे बकरी ठगने की योजना बनाई और थोड़े थोड़े अन्तर पर खड़े हो गये। जब वह मूर्ख एक के पास से गुजरा तो पहला चतुर बोला—‘‘अरे भाई, इस कुतिया को कहां लिये जाते हो। वह गन्दी है। छोड़ो इसे।’’ मूर्ख ने कहा ‘‘अरे, यह तो दूध देने वाली बकरी है।’’ वह आगे बढ़ा, तो दूसरा ठग मिला, जिसने पुनः वही पहले वाली बात दुहरा दी। मूर्ख दूसरों के विचारों से परिचालित हुआ।  जब तीसरे ठग ने वही बात कही, तो उसे यह निश्चय हो गया कि वह बकरी नहीं, कुतिया है? वह उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ गया। यह हाल है, दूसरों के मत पर चलने वालों का।
स्वयं अपना पथ चुनो!
दूसरे अपनी परिस्थिति एवं वातावरण से परिचालित होते हैं। दूसरे लोग तुम्हारे ऊपर अपने अच्छे बुरे विचारों का जादू चलाकर तुम्हारे व्यक्तित्व की परीक्षा लिया करते हैं। वे यह परीक्षा करते हैं कि तुम स्वतन्त्र विचारक हो या दूसरों के इशारों पर नाचने वाले कमजोर प्रकृति के मनुष्य?
अपने आन्तरिक सुख का केन्द्र भाई, बहिन, पत्नी, पिता-माता, मित्र, अफसर, प्रजा, श्रोता, ग्राहक इत्यादि किसी को मत बनाओ। जितना ही ये लोग तुमसे दुर्व्यवहार करेंगे, तुम्हें आन्तरिक पीड़ा होगी। वह सम्भव नहीं है कि ये सब लोग सदा-सर्वदा तुमसे प्रसन्न या सन्तुष्ट ही रहें। अतः सुख का केन्द्र अपनी अन्तरात्मा को ही मानने में पूर्ण सन्तोष और स्थायी सुख प्राप्त हो सकता है।
तुम यह समझो कि तुम अकेले हो। दूसरा कोई तुम्हारे साथ चलने वाला सह-यात्री नहीं है। अल्प काल के लिए कुछ व्यक्ति तुम्हारे साथ हो लिये हैं, जो कुछ समय बाद अपनी अपनी राह लेंगे और तुम्हें नितान्त अकेला छोड़ देंगे। तुम क्यों उन पर तथा उनकी विचारधारा मत इत्यादि पर निर्भर रहते हो? क्यों उनके बुरे कहने अथवा टीका टिप्पणी को सही मानकर स्वीकार करते हो? जो तुम्हारी विवेक बुद्धि और अन्तरात्मा, अन्तःप्रेरणा कहती है, वही वास्तव में सत्य है। वही तुम्हारे लिए कल्याणकारी है। याद रक्खो अपने आपको अकेला चलने वाला व्यक्ति मान कर अपनी धुन में मस्त, उद्देश्यों का पक्का, अपनी ही चाल से चलने वाला, दृढ़ चित्त व्यक्ति ही वास्तविक विजयी पुरुष है।
आत्म निर्भरता एक महान तत्व!
अपने मन्तव्यों, संकल्पों तथा विचारों की आत्म-निर्भरता अपने प्रति सच्चा रहना—वह गुण हैं, जिससे मनुष्य आन्तरिक सुख का अनुभव करता हुआ जीवन यात्रा आनन्द पूर्वक व्यतीत कर सकता है।
हम दूसरों के अशुभ संकल्पों को ग्रहण नहीं करेंगे, स्वतन्त्र चिन्तन करेंगे, स्वतन्त्रता पूर्वक निज मार्ग का अवलम्बन कर चलते रहेंगे, कोई हमारे अन्तर्मन में दुष्ट विचार नहीं ठेल सकता, क्योंकि हम अपने विचारों के प्रति सच्चे हैं—इस प्रकार के शुभ संकेतों में रमण कर उन्हें कार्यान्वित करने से मनुष्य में मानसिक आत्म-निर्भरता का विकास होता है। व्यक्तित्व के विकास में आत्म–निर्भरता प्रधान अंग है।
सब प्रकार की पराधीनता से भी बुरी पराहीनता दूसरों के विचारों और सम्मतियों और संकेतों पर निर्भर रहना है। कहा भी है—‘‘सर्वं परवशं दुःखम्।’’ सब तरह की पराधीनता दुख का मूल है। हमारा परम सुख स्वयं हमारे भीतर है। उस सुख और आनन्द की प्राप्ति में कोई मनुष्य, पदार्थ और परिस्थिति बाधा नहीं डाल सकती। हम स्वयं अपने बुरे भले को सोच सकते हैं। अपने सम्बन्ध में हमारे निर्णय अधिक दूरदर्शी हो सकते हैं। फिर क्यों हम दूसरों के सामने हाथ फैलायें, उनकी योजनाओं के गुलाम बनें? हम स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करना सीखें और हम विचारों पर दृढ़ता के साथ चल, स्वयं अपनी समस्याएं हल करें—इसी में हमारा भला है। विजय अपने ही बल से मिलती है और लक्ष्य पर वही पहुंचता है, जो अपनी राह पर ही चल रहा होता है।

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