जिन्दगी कैसे जियें?

अन्तः प्रेरणा जागृत कीजिए

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घोर निराशा को जीतने वाला—
प्रसिद्ध अंग्रेज आर्थर पियर्सन से कौन परिचित नहीं है? जन्म से ही उसकी आंखें कमजोर थीं, किन्तु नेत्रों की दुर्बलता की क्षतिपूर्ति बुद्धि की कुशाग्रता से हो गई थी। युवावस्था में प्राप्त होने पर उसने अनुभव किया कि शायद मेरी दृष्टि बिल्कुल ही जाती रहेगी। 24 वर्ष की आयु में उसके नेत्रों की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई। यूरोप के प्रवीण-प्रवीण नेत्र चिकित्सकों के इलाज करने पर भी वह अन्धा हो गया। जीवन की आशा-अभिलाषाओं का एक वृहत कोष लिए उसके नेत्रों की अन्तिम झिलमिलाहट भी जाती रही।
जिस वर्ष वह नेत्र खो चुका था, उसके अगले ही वर्ष योरोप में महायुद्ध आरम्भ हो गया और युद्ध के फलस्वरूप कुछ काल पश्चात् ही लन्दन के निकट विषैली गैसों, धुएं तथा अन्य जहरीली दवाओं से अन्धे किए हुए सैनिक एक वृहत् संख्या में दृष्टि-गोचर होने लगे। एक दिन पियर्सन को एक ऐसे ही अस्पताल से फोन आया कि शीघ्र आइए। अस्पताल में एक सिपाही ने जब यह सुना कि उसके नेत्र सदा के लिए खो गए हैं तो वह पागल सा हो गया था। सब उसे शान्त करने में लगे थे, किन्तु असमर्थ पाकर उन्होंने पियर्सन को बुलाया था। उनकी आशा थी कि यह अन्धा कदाचित उस तरुण अन्धे सिपाही के भय तथा निराशा को कम कर सकेगा।
पियर्सन ने उस अन्धे को टटोला और उसकी दशा की कल्पना की, फिर बोला—‘‘तरुण सिपाही! क्या तू अपने इस चमत्कारी शरीर के सिर्फ एक पुर्जे के खराब होने से निराश हो गया? क्या एक जरा-सी क्षति से तेरे अरमान मिट्टी में मिल गये। तुझे पस्त हिम्मत नहीं होना है, कोई शक्ति तेरा मुकाबला नहीं कर सकती। अपने हाथों की मजबूती को देख, अपने मस्तिष्क के आश्चर्यों को प्रकट कर। अपनी गुप्त शक्तियों को संसार में दिखा। अभी तेरे शरीर की मशीन वैसी की वैसी ही है। जब तक एक पुर्जा भी काम करता है, सांस बाकी है, तब तक भी उत्तम भविष्य की आशा रख।’’
पियर्सन न जाने क्या क्या कहता गया, किन्तु इससे उसके अन्तःकरण में एक दिव्य प्रेरणा उदित हुई। उसके अंतःप्रदेश में एक नवज्योति के दर्शन हुये और उसे कुछ ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई कह रहा हो—‘‘पियर्सन तू जीवन में एक बहुत पवित्र कार्य कर सकता है। तू अन्धे सिपाहियों के लिए एक विशेष योजना की तैयारी कर, उसे संगठित कर और उन्हें जीवन में पुनः काम में लगाने की एक रीति का आविष्कार कर। यह क्षेत्र तेरे लिए है। इसी को सम्पन्न करने के लिये तुझे सृष्टि में भेजा गया है।’’
पियर्सन देर तक इस प्रेरणा पर विचार करता रहा। बारम्बार वही प्रतिध्वनि अधिकाधिक स्पष्ट होती हुई सुनाई पड़ने लगी। वह अहर्निश उसी विचार में प्रवृत्त होने लगा। अन्त में उस प्रेरित व्यक्ति ने अपनी कल्पना को पूरा किया।
जब युद्ध समाप्त हुआ तो उसकी अध्यक्षता में सेन्ट वस्टन में 1700 अन्धे सिपाही थे। वह देवदूत की भांति पूजा जाता था। उसने इस बात पर जोर दिया कि वहां रहने वाला प्रत्येक सिपाही उंगली से छूकर पढ़े जाने वाले अन्धों के लिए उभरे हुए अक्षर सीखे। प्रत्येक सिपाही को ऐसा काम (टोकरी बनाना, चिकहैड, कपड़े धोना, खेती इत्यादि) सीखे, जिससे वह स्वावलम्बी बन सके और प्रत्येक मनुष्य उसके मनोरंजन के लिए दान देने में सहयोग प्रदान करे।
इस गुप्त प्रेरणा के बल पर पियर्सन वह अद्भुत कार्य सम्पन्न कर सका। किसी को भी पता नहीं कि उसने कितने अन्धों को मृत्यु तथा पागलपन से बचाया, या कितने हजार हृदयों तथा परिवारों में नव प्रेरणा का संचार किया।
बन्दा वैरागी लोहे के पिंजरे में बन्द करके दिल्ली लाया गया, फिर मय अपने साथियों के उसे काली भेड़ों की खून से लथपथ खालें पहनाई गईं तथा काला मुंह कर गधों पर सवार करा गली—कूंचों में फिराया गया। काजियों ने कहा—इस्लाम मजहब कबूल करलो तो तुम्हें प्राण दान दिया जायगा। अस्वीकार करने पर उसे प्राण दण्ड मिला। जब उसके मरने की बारी आई तो मुहम्मद अमीन नाम के एक मुसलमान ने उससे कहा—‘तुम जैसे समझदार व्यक्ति ने ऐसा कर्म क्यों किया, जिसका दण्ड तुम आज भुगतने को हो?’’ वैरागी ने कहा—
‘‘मैंने स्वयं यह काम नहीं किया है। न मैं ऐसे महान कार्य को कर ही सकता था। मैं तो प्रजापीड़िकों को दण्ड देने के लिए ईश्वर के हाथ में एक शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में अभिमान और अत्याचार सीमा का उल्लंघन कर जाते हैं तब मुझ जैसे दण्डदाता उत्पन्न होते हैं।’’
गरम चिमटों से खींच खींच कर उसके मांस के लोथरे निकाल लिए गए, फिर हाथी के पांवों के नीचे कुचलवाकर मरवा डाला गया और उसका मृत शरीर एक खाई में फेंक दिया गया। अन्त समय तक एक दिव्य प्रेरणा उसे प्रोत्साहन प्रदान करती रही।
मोरोपन्स महाराष्ट्र देश के एक प्रसिद्ध कवि तथा सन्त हो गये हैं। वे पहले क्लर्क थे तथा हिसाब-किताब रखने में अपना सानी नहीं रखते थे। एक पाई की भी गलती होने पर सारी रात बिता देते थे और भूल निकाल कर उचित सुधार कर देने पर ही शान्ति लेते थे। उनकी यह वृत्ति देख कर किसी ने कहा ‘‘इतना ध्यान प्रभु के चरणों में रखते तो....!’’ बस यह वाक्य उनके लग गया। गुप्त प्रेरणा प्रदीप्त हो उठी मोरोपस्त क्लर्क से सन्त और महाकवि हो गये! उनकी कविता आज घर घर में गाई जाती है।
एक बार एक बेंत की कुर्सी बुनने वाले के यहां जज की कुर्सी मरम्मत के लिए आई। उसे आदेश मिला था कि उसकी बुनाई अत्यन्त सुन्दर होनी चाहिये तथा कुर्सी खराब न हो जाय यह भी ध्यान रखना चाहिये। कुर्सी बुनने वाले ने बड़ी मेहनत से उसे तैयार किया। वह किसी आवश्यक कार्य वश बाहर गया। बाहर से आने पर क्या देखता है कि उसका तेरह वर्ष का लड़का उस पर शान से बैठा है। अबोध पुत्र की इस क्रीड़ा पर उसके पिता को अपनी हीनता पर क्षोभ हो उठा। वह बोला—‘‘बेटा, यह जज की कुर्सी है। हमारा ऐसा भाग्य कहां जो इस कुर्सी पर बैठें। आओ, उस पर से उतर आओ’’
लड़का धीरे धीरे कुछ सोचता हुआ, कुछ खोया खोया सा कुर्सी पर से उतर आया, पर उसके मन में एक विचित्र क्रांति मची हुई थी। उसने सोचा, बहुत विचार किया। अन्त में अपनी योग्यता तथा मनोबल से बड़ा होकर वह सचमुच जज बना और जज की कुर्सी पर बैठा।
जब मनुष्य की गुप्त प्रेरणा जाग्रत हो जाती है तो उसे अपूर्व बल प्राप्त होता है। उसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह सोते-सोते एक दम जाग्रत हो उठा हो, जैसे अन्धकार में प्रकाश की किरण आ गई हो। प्रेरणा एक ऐसी विद्युत तरंग है, जिसके आवेश से समस्त शरीर झंकृत हो उठता है। मनुष्य की शक्तियां दुगुनी-चौगुनी हो उठती हैं। जैसे नदी में बाढ़ आने पर वह किनारों को तोड़ती-फोड़ती अपना मार्ग साफ करती हुई प्रबल वेग से अग्रसर होती है, उसी प्रकार प्रेरणा प्राप्त हो जाने पर मनुष्य कुछ का कुछ हो जाता है। उसकी विघ्न-धाराएं, कठिनाइयां छू मन्तर हो जाती हैं। तथा उसकी उन्नति बड़े प्रबल वेग से होने लगती है।
महापुरुषों की उन्नति का रहस्य—
यदि आप महापुरुषों के मन का विश्लेषण करें तो आपको प्रतीत होगा कि प्रायः प्रत्येक के जीवन में एक क्षण ऐसा आया जब उन्हें किसी न किसी प्रकार से प्रेरणा प्राप्त हुई। इस दिव्य ज्योति के मार्ग दर्शन से उन्हें अपने उद्देश्य का ज्ञान हुआ तथा वे उसी मार्ग में निरन्तर अग्रसर होते रहे। यदि सीजर को इस आत्म प्रेरणा की प्राप्ति न होती तो निस्सन्देह वह हरी घास की खोज में रोम की विचित्र पहाड़ियों पर अपनी भेड़ों को साधारण गड़रियों की तरह चराता फिरता। नेपोलियन को गुप्त प्रेरणा मार्ग न दिखाती तो सम्भवतः वह साहित्य संसार की किसी अन्धकारमय कौने में अज्ञान रूप से अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर देता। यदि लेलिन, मुस्तफा, कमालपाशा, डीवेलरा जैसे पुरुष अन्तर्प्रेरणा से प्रेरित न होते तो अपने अपने देशों के भाग्य विधाता कदापि न बन पाते। इसी प्रकार यदि रेम्जेक्डानल्ड जैसे मजदूर को विलक्षण प्रेरणा न मिलती तो उसकी अद्भुत प्रतिभा तथा राजनैतिज्ञता भीतर ही भीतर दम घुटकर शान्त हो जाती। एक योग्य प्रधान मन्त्री बनने के स्थान पर वह कोयले की खानों में कोयले की बोरियां ही ढोया करता। इन सबकी संचालन शक्ति इनके अन्तःकरण में प्रवेश करने वाली आत्म प्रेरणा ही थी।
प्रेरणा क्या है? —
प्रेरणा के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा को स्पष्ट करने के लिए परिभाषाएं गढ़ने का प्रयत्न किया है। कुछ परिभाषाएं देखिये।
‘प्रेरणा ईश्वरीय शक्ति है। जो सात्विक प्रकृति के महापुरुषों को अपना जीवन कार्य करने का आदेश देती है।’
‘प्रेरणा मनुष्य के अन्तः स्थित अगाध सामर्थ्य को बाहर प्रकट करने की चेतावनी है। हमारे मनः प्रदेश में जो वास्तविक सामर्थ्य है हम उसका करोड़ हिस्सा भी बाह्य जीवन में प्रवेश नहीं करते। प्रेरणा आत्मा को देदीप्यमान कर मनुष्य को आगे ढकेलती है।’
प्रत्येक व्यक्ति को परमेश्वर एक कार्य सौंपता है, किन्तु संसार में पदार्पण करने के पश्चात् हम उस दैवी आशा को विस्मृत कर बैठते हैं। प्रेरणा एक ऐसी आवाज है जो हमें उस सर्वव्यापक महाशक्ति के साथ संयुक्त कर देती है जो समस्त संसार का संचालन करती है।
डॉक्टर दुर्गा शंकर जी नागर का विचार है कि ईंधन के समान हमारे भीतर गुप्त शक्ति अग्नि सुलगाने की बाट जोह रही है। ईंधन को सुलगाया न जाय तो सैकड़ों वर्षों तक उसमें अग्नि होते हुए भी वह जहां का तहां पड़ा रहेगा। उसी प्रकार बिना प्रेरणा के मनुष्य का अन्तःस्थिति गुप्त सामर्थ्य भी निश्चेष्ट पड़ी रहती है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रोया करते हैं। प्रेरणा भीतर अग्नि को सुलगा देती है।
प्रेरणा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण—
आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रेरणा को ईश्वरीय तत्व नहीं मानते। ईश्वर हम से कोई विशेष कार्य करने को अपने आप कहता हो—ऐसी बात नहीं है। आधुनिक मनोवेत्ताओं ने ऐसी अद्भुत प्रतिक्रियाओं का केन्द्र मनुष्य का अव्यक्त मन या अचेतन मन माना है। वे यह नहीं मानते कि प्रेरणा कोई नयी बात है या किसी नवीन रीति से मनः केन्द्र में प्रविष्ट करायी जा सकती है। उनके अनुसार सब कुछ हमारे अव्यक्त या अचेतन मन में पहले ही से मौजूद था। गुप्त रूप में समस्त शक्ति पहले से ही अन्तःस्थित थी। वह अप्रकट रूप से प्रस्तुत थी, पर उस पर मिट्टी कीचड़ जम जाने से वह व्यक्त या चेतन मन से अचेतन प्रविष्ट कर गयी थी। उपयुक्त अवसर पाकर या कोई भारी ठेस लगने पर एकाएक गुप्त सामर्थ्य प्रकट हो गयी। उन आश्चर्यजनक सामर्थ्यों को देख कर मनुष्यों ने समझा कि कोई नवीन अदृष्ट शक्ति शरीर में प्रविष्ट हो गयी।
महान् कार्य करने का आश्चर्यजनक बीज पहले से ही विद्यमान था, किन्तु उनके इर्द-गिर्द ऐसी उत्तम भूमि न थी कि वह अंकुरित, पल्लवित या फलित हो पाता। बीज को वृक्ष के रूप में लाने के लिए जल, खाद, सूर्य की किरणें इत्यादि अनेक चीजों की आवश्यकता होती है। इन तत्वों के अभाव में मनुष्य यह मान बैठते हैं कि उनमें ऊंचे उठने की शक्ति नहीं है। मन के बीजों को अंकुरित करने के लिये श्रद्धा, प्रयत्न, उत्साह इत्यादि तत्वों की बड़ी आवश्यकता होती है। अतः आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रेरणा को मन की अगाध सामर्थ्य की प्रतीति ही मानेगा।
जिस मनुष्य ने अपना अधिकांश जीवन योंही व्यर्थ खराब किया तथा ‘उष्ट्र’ शब्द का भी शुद्ध उच्चारण न कर सका, वही बाद में ‘रघुवंश’, ‘कुमार सम्भव’, ‘मेघदूत’ जैसे विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें निर्माण कर गया। वह मूर्खता एवं विद्वता की चरम है। बंगाल प्रान्त के महाकवि माइकेल, मधुसूदनदत्त एक दिन यह नहीं समझते थे कि ‘पृथ्वी’ ‘प्रथ्वी’ में शुद्ध कौन सा है। तिस पर भी उन्होंने युगान्तरकारी काव्य लिख डाला। जो मनुष्य आज कंगाल है, कल वही धन कुबेर बन जाता है। जिसने जीवन भर तलवार बन्दूक का नाम नहीं लिया वही कुछ पल पश्चात् रणक्षेत्र में शस्त्र विद्या की वह बहादुरी दिखाता है कि लोग देखकर चकित रह जाते हैं। आप मनोवैज्ञानिक से उक्त चमत्कारों का कारण पूछिये। क्या ये सब प्रेरणा के अद्भुत कार्य नहीं हैं?
मनः शास्त्र वेत्ता कहेगा—‘जी नहीं, यह प्रेरणा नहीं। इन व्यक्तियों में किसी भी वाह्य शक्ति ने प्रवेश नहीं किया है। इसके अन्तःकरण में पहिले ही से गुप्त सामर्थ्य भरी पड़ी थी। समस्त अद्भुत कृत्यों का भण्डार भीतर प्रस्तुत था। केवल ये भूले हुए थे। किसी अज्ञात ठेस से एकाएक मन अव्यक्त प्रदेश से वह सामर्थ्य उबल उठी। वास्तव में महा मूल्यवान भण्डार पहले से ही अन्तःकरण में प्रस्तुत थे।
प्रेरणा के तत्व—प्रेरित व्यक्ति की मनोदशा  देखने पर कई तत्व मिलते हैं। सर्व प्रथम तो एक निश्चित उद्देश्य की प्रतीति है। प्रेरणा किसी खास दशा में होती है। यह किसी भी क्षेत्र के लिये सम्भव है। जोन आफ आर्क को प्रेरणा हुई कि वह अपने देश का उद्धार करने के उद्देश्य से भेजी गई है। उसने सब ओर से चित्त मोड़ कर केवल उसी महत् कार्य पर समस्त शक्तियां केन्द्रित करलीं। अन्य सभी ओर यहां तक कि अपने विवाह तक की ओर से उसने मन मोड़ लिया। अन्त में सैकड़ों कठिनाइयों का सामना करने के पश्चात उसने अपना कार्य पूर्ण किया।
द्वितीय तत्व है असाधारण मनोबल। प्रेरित व्यक्ति परमेश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी से भी नहीं डरता। उसके शरीर में अधिक बल नहीं होता, किन्तु उसमें दृढ़ निश्चय व्रत इच्छा तथा प्रबल प्रयत्न का बल होता है। वह तुच्छ विघ्नों से अकारण ही भयभीत नहीं होता प्रत्युत महान् साहसिक कार्यों की पूर्ति के लिए अग्रसर होता है। मनोबल उसकी शक्तियों को दूना कर देता है तथा उसकी अन्तर्दृष्टि तीव्र हो उठती है।
तृतीय तत्व है अपूर्व आत्म श्रद्धा। उसे पूरा-पूरा विश्वास होता है कि परमेश्वर की सेना मेरे साथ है। मैं ठीक पथ पर हूं। मुझमें कार्य सम्पादन की पूरी पूरी योग्यता है। मैं ही अपने उद्देश्य में कृतकृत्य हो सकता हूं। आत्म श्रद्धा सब प्रकार की सफलताओं की मूल है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इससे अद्भुत प्रकाश मिलता है। विशिष्ट उद्देश्य मनोबल तथा आत्म श्रद्धा से प्रेरणा प्राप्त हो गई है सचमुच वह व्यक्ति धन्य है।

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