जिन्दगी कैसे जियें?

आप अपने जीवन से क्या चाहते हैं?

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‘‘मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?’’ इस प्रश्न का उत्तर आपके पास है। मौनर्टन का कथन है, ‘‘वह आत्मा जिसका कोई निश्चित उद्देश्य नहीं है, प्रत्येक स्थान पर भूली रहेगी और अन्ततः कहीं भी नहीं पहुंच सकेगी।’’ जीवन से अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिए आपको प्रारम्भ से ही जीवनोद्देश्य के विषय में स्पष्ट हो जाना चाहिये।
साधारण इच्छा आपका उद्देश्य नहीं है। अनेक इच्छाएं कल्पनाएं तो मन में क्षण क्षण में उठतीं और नष्ट होती रहती हैं किन्तु उद्देश्य वह है जिसके विषय में अपने मन में स्पष्ट मनः चित्र होना चाहिये। उद्देश्य एक बार निश्चित होकर नहीं परिवर्तित हो सकता। मन का विभ्रम, चंचलता, क्षणिक आवेश या उत्तेजना उसे नष्ट नहीं कर सकतीं। इसमें भावना का अधिक सम्मिश्रण होता है, विचार का इतना नहीं। जिस उद्देश्य की ओर तुम्हारा अन्तःकरण उन्मुख होता है, जो तुम्हारी आत्मा की आवाज पुनः पुनः कहती है, जिसकी ओर तुम स्वतः प्रेरित हो, और जिसे सम्पन्न करने में तुम अधिक से अधिक अपना और संसार का कल्याण समझते हो, वही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है।
तुम्हारी भावना और संस्कारों का झुकाव स्वतः इस उद्देश्य की ओर होगा। भावना हमारे विचार और बुद्धि का सृजन करती है और कार्य करने को उत्साहित करती है। भावना साधारण कल्पना से ऊंची और दृढ़तर वस्तु है। इसकी जड़े अव्यक्त मन के अतल क्षेत्र में गहरी जाती हैं।
भावना तुम्हारी रुचि का निर्माण करेगी। तुम्हें इस कार्य को करने में स्वतः आनन्द आवेगा। तुम शोक और आनन्द पूर्वक इसमें दिलचस्पी लोगे। महान् पुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने पर हमें मालूम होता है कि वे किसी विशेष बात में दिलचस्पी रखते थे। इस रुचि का स्पष्टीकरण दो प्रकार से हुआ 1—उनके पास एक निश्चित उद्देश्य, एक योजना, एक बात करने की बलवती धारणा थी 2—उसे प्राप्त करने के लिए साधनों का निर्माण हुआ। संक्षेप में, महात्वाकांक्षाओं से परिपूर्ण व्यक्ति थे।
असफलताएं और अधूरे प्रयास—
सेन्टपाल जब अपने जीवन के अन्तिम दिनों के समीप आये तो अपने जीवन पर एक दृष्टि डालकर उन्होंने कहा, ‘‘परमेश्वर को धन्यवाद है कि मैं एक अच्छे उद्देश्य के लिए सतत संघर्ष करता रहा।’’ उसका यह वक्तव्य उन कार्यों तथा जीवन की कठिनाइयों पर आधारित था, जिन्हें उन्होंने दृढ़ इच्छा और निश्चय बल से विजित किया था। यदि आज हम व्यक्तियों से पूछें कि आपने जीवन में क्या किया है? तो उनके उत्तर कुछ इस प्रकार होंगे—‘मैं जीवन भर अपना समय व्यर्थ नष्ट करता रहा। मैं पत्थरों से खेलता रहा, जब कि बहुमूल्य मणियां मेरे समीप ही पड़ी मेरी प्रतीक्षा करती रहीं। मेरे देखते देखते साधारण योग्यता और गरीब व्यक्ति मुझसे जीवन की दौड़ में आगे निकल गए, जबकि मैं यों ही पीछे पड़ा रहा। मेरी आशाएं कपोल-कल्पना मात्र थीं, जिनका अस्तित्व जल के थोथे बुलबुलों की भांति असत्य था। मैंने कभी डटकर कठोर परिश्रम न किया, मामूली आधे मन से ही कार्य करता रहा। मैंने उन्नति तो की है, पर यह कोई विशेष उल्लेखनीय नहीं है।’’ इसी प्रकार के अनेक उत्तर हमें उन व्यक्तियों से मिलते हैं, जो अधूरे मन से विश्रृंखलित शक्तियों, असफलता से भयभीत होकर जीवन काटते रहे हैं।
किन्तु आप इस परिस्थिति से अवश्य बचें। अभी समय है। जब जागे तभी सवेरा। अभी से कोई पथ निर्धारित क्यों न कर लीजिए? अब भी पर्याप्त उन्नति का कार्य हो सकता है। अपने मन, शक्तियों, विशेषताओं, अभिरुचियों का अध्ययन कर जीवनोद्देश्य चुन लीजिए।
निरुद्देश्य जीवन के क्या कारण हैं? प्रथम, किसी योग्य पथ-प्रदर्शक का अभाव है। यों ही भटकते रहने से कोई लाभ नहीं है। किसी विशेषज्ञ से मिलकर पथ निर्धारित करना चाहिए। दूसरा कारण शर्मीला, दूसरों से बचने, अलग रहने, असामाजिक स्वभाव रखना है। शर्मीला व्यक्ति आत्म-हीनता से ग्रसित रहता है और कार्य नहीं करना चाहता। उसमें पौरुष का अभाव होता है। किसी स्नायविक लम्बी बीमारी के कारण कुछ व्यक्ति इतने शिथिल हो जाते हैं कि वे उद्देश्य नहीं चुन पाते। मन की अति चंचलता, एक कार्य को पूर्ण न कर नये को आरम्भ कर बैठना, कार्य पर चित्त एकाग्र न कर सकना, टिड्डी-मन निरुद्देश्य जीवन का एक कारण बन जाता है। इससे इच्छा शक्ति की दृढ़ता नष्ट हो जाती है। कभी कभी बिना अपनी विशेषताओं, साधनों, या स्वाभाविक रुचियों के कोई कार्य चुन लिया जाता है, जो अन्त में असफलता का कारण बनता है। निरुद्देश्य जीवन के अन्तिम दो चरण विशेष ध्यान देने योग्य हैं (1) निराशावादिता जो कि प्रायः नकारात्मक संकेतों या बुरे वातावरण, या बचपन के संस्कारों के कारण उत्पन्न हो जाती है। (2) भाग्यवादिता—जिसके कारण दुर्बल चित्त व्यक्ति अपने आपको भाग्य का एक खिलौना, अदृष्ट शक्ति के हाथ में एक नगण्य कठपुतली मात्र मानते हैं। आप इन भयंकर शत्रुओं से सावधान रहें।
निज-पथ या जीवनोद्देश्य चुनते समय यह देख लीजिए कि 1—वह उचित है या नहीं 2—संभव है या नहीं? 3—आप क्या अपनी शक्तियों, मित्रों, रुपये-पैसे, पुस्तकों, अपने स्वास्थ्य की सहायता से उसे कर सकेंगे? 4—उसमें क्या–क्या अड़चनें आ सकती हैं? क्या आप इन्हें दूर कर सकेंगे? कहीं यह कार्य आपको अधिक महंगा तो नहीं पड़ेगा? यदि यह कार्य न हो सका, तो क्या उस अपूर्ण कार्य को ही देख कर आपको मनःसन्तोष हो सकेगा कि आपने एक भले कार्य के लिए प्रयत्न तो किया?
व्यर्थ की शंकाएं त्यागिये—
शिकायतें करना, अपने दोष दर्शन, निराशावादिता छोड़ दीजिए। जो इन बातों में लगा रहता है, वह काम से भागने वाला, कुछ न करने वाला, एक शेखचिल्ली मात्र है। अपने उद्देश्य इतने ऊंचे मत बना लीजिए कि उस तक आप पहुंचने के योग्य ही न हों। अपनी महत्वाकांक्षाओं और योग्यताओं में पर्याप्त संतुलन रखिये। दूसरे मजाक करेंगे, यह मिथ्या-भय त्याग दीजिये। अपने उद्देश्य की ओर निरन्तर अविश्राम गति से चलते रहना ही जीतने के लक्षण हैं। स्मरण रखिये, हानि-लाभ का क्रम सर्वत्र चलता है किन्तु यदि आप इष्ट सिद्ध कर लेते हैं तो हानि नगण्य है।
आपकी सबसे बड़ी सहायक ये वस्तुएं हैं (1) शरीर का स्वास्थ्य (2) मन का स्वास्थ्य, उत्साहपूर्ण आशावादी दृष्टिकोण (3) मित्र तथा हितैषी (4) पुस्तकें, जिनके अनुभव के बल पर आपको निरन्तर चलना होगा (5) आन्तरिक शान्ति (6) दूसरों की सेवा और सहयोग अपने साथ इन्हें लेकर चलने वाला सदैव लाभ में रहता है। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के हेतु खरा और ठोस कार्य करने में आनाकानी कदापि न कीजिए। अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को प्रकट करना, विचारों को समाज के सम्मुख उपस्थित करना, अपने दृष्टिकोण को दृढ़ता से सब के सम्मुख स्पष्ट रूप से पेश करना, आत्म प्रकटीकरण के रूप हैं। पुस्तकें लिखकर, समाचार पत्रों, मासिक पत्रों, साप्ताहिकों में अपने विचार लेखबद्ध कर जनता के समक्ष पेश करना, भाषण देना, क्लबों में खुले दिल से बात चीत करना, मित्र मण्डली में बोलने से न हिचकिचाना, जब कभी कोई भाषण देने को कहे पीछे न रहना, दूसरों को आकर्षित करने के उपाय है। इनके द्वारा आप जनता का विश्वास प्राप्त कर लेते हैं। एक बार जनता का विश्वास प्राप्त हो जाने पर आप सार्वजनिक जीवन में अद्भुत सफलता प्राप्त कर सकते हैं। स्मरण रखिये, कि मानसिक जगत् में सभी भिन्न भिन्न शक्तियों को परस्पर मिल कर आगे बढ़ना है। सन्तुलन, सहयोग, सभी शक्तियों का सामूहिक प्रयत्न, शरीर और मन का समन्वय ही विजय का रहस्य है।

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