आपका मानसिक चुम्बक
अनन्त पुण्य संस्कारों के फल स्वरूप हमें जीवन रूप वरदान प्राप्त हुआ है। इसमें हमारे लिए परमेश्वर ने सुख, सफलता, समृद्धि सभी एकत्र करदी है, वही हमें प्राप्त होगी। उसी पर हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। अतः सजीवता से आशावादी दृष्टि को स्थिर रखकर विजय के हेतु हमें जीवन संग्राम में प्रविष्ट होना है—इस भावना को लेकर जीवन क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति ही वास्तविक सफलता प्राप्त करते हैं।
इस विजय के लिए आपको मानसिक, कायिक एवं अध्यात्मिक शक्ति का संचय कर रखना है। उन्हीं के बल पर आप यह आशा कर सकते हैं कि आप कितने अंशों में सफल मनोरथ होंगे। मन में यह बात पुष्ट कर लीजिए कि आपके जीवन में कुछ शुभ, सात्विक लाभप्रद कार्य होने वाला है। आप प्रश्न करेंगे ‘‘यह किस प्रकार सम्भव है? इसके लिए क्या चाहिए?’’ इसका उत्तर है कि आपका मानसिक चुंबक सजीव और सशक्त होना चाहिए। जीवन को सफलताएं, समृद्धियां तभी आपको प्राप्त होंगी, जब आप अपने मानसिक चुम्बक द्वारा उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकेंगे।
एक विद्वान ने लिखा है—‘‘सकल पदारथ हैं जग माहीं। कर्महीन नर पावत नाहीं।।’’ हमारे चहुं ओर सुख, सफलता, समृद्धि, यश, विजय, प्रेम, सहानुभूति का समुद्र लहरा रहा है। ये स्वर्ण मुद्राओं और हीरे मोती की तरह हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं। आवश्यकता यह है कि अपने मानसिक चुम्बक द्वारा हम इन्हें अपनी ओर खींचलें। इनके पीछे भागे-भागे फिरने से ये प्राप्त होने वाली नहीं हैं। इन्हें आकृष्ट करने वाला चुम्बक अपने अन्दर विकसित करना है। खेद! अनेक व्यक्ति इस आन्तरिक चुम्बक को नहीं जानते हैं।
मानवीय चुम्बक का निर्माण
यह चुम्बक क्या है? तीव्र इच्छा, बलवती इच्छा। स्पष्ट इच्छा—ऐसी इच्छा जो दृढ़ है। जो न बीमारी प्रतिकूलता रोग शोक से टूटती है और न लालच-लोभ से, अपना प्रशस्त राजमार्ग छोड़ती है। यह इच्छा की अग्नि जितनी तीव्र होती है उतना ही तीव्र आकर्षक आपका मानसिक चुम्बक होता है। इस जागती इच्छा का दमन सम्भव नहीं। यह एक नशे के तौर पर मनुष्य को लक्ष्य की ओर उन्मुख किया करती है। उसे बढ़ाती है, प्रोत्साहित करती है। थके पांवों को नव जीवन से परिपूर्ण करती है, आत्मा में नवीन स्फूर्ति, नवीन ओज का संचार कर हम से कहती हैं—‘‘तुम अपने निश्चय पर दृढ़ रहो। इच्छा की आग न बुझे। प्रत्येक असफलता और प्रतिकूलता इस इच्छा को विकसित और उद्दीप्त करती चले। यही दृढ़ता यही निष्ठा कल्पवृक्ष के समान अक्षय विजय प्राप्त कराने वाली महत्वपूर्ण शक्ति हैं।’’
वह व्यक्ति धन्य है जिसके निश्चयों में बल है। निश्चयों में ओज हैं। जो अपने निश्चयों के लिए पश्चात्ताप नहीं करता। उसके लिए निश्चय के सम्मुख दुःख, क्लेश और विपत्ति विघ्न नश्वर हैं। रुपया-पैसा, प्रसिद्धि तथा लोकप्रियता सदैव उसे प्राप्त होती हैं। उसका इन पर जन्म सिद्ध अधिकार है। अपनी इच्छित वस्तु का एक काल्पनिक सूक्ष्म चित्र मन में अंकित कर लीजिए और तब उसी की प्राप्ति के लिए आगे चलिए। जो व्यक्ति यह निश्चय नहीं कर पाता कि वह क्या चाहता है? वह कुछ नहीं कर सकेगा। आपको किसकी महत्वाकांक्षा है, अपने से पूछिए और तय कीजिए। जिन्हें इच्छित वस्तु का ज्ञान नहीं उनका मानसिक चुम्बक सशक्त नहीं हो सकता। अच्छी वस्तुएं इधर-उधर पड़ी रह जाती हैं और वे बेखबर सोया करते हैं।
जो व्यक्ति समृद्धि रुपया-पैसा चाहता है वह तीव्र बलवती इच्छा के बल से एक ऐसे चुंबक की सृष्टि कर लेता है। जिसके द्वारा वह रुपये को खींचता है। यदि उसके पास आर्थिक समृद्धि को खींचने वाला विशालकाय मस्तिष्क है तो निश्चय ही वह उसे अपने समीप के वातावरण से अपनी ओर खींच लेगा। विद्या का इच्छुक वैसा ही मस्तिष्क बनाकर विद्या के कण आकर्षित करेगा। सार्वजनिक सफलता के लिए भी वही क्रम है।
लेकिन आकर्षित करने का भी एक नियम है। मामूली औसत दर्जे की योग्यता वाला व्यक्ति कुछ आकर्षित नहीं कर सकता। आपको असाधारण मस्तिष्क बनाकर कार्य करना पड़ेगा। उच्च कोटि का सचेतन चुम्बक ही सर्वोत्कृष्ट चीजें अपनी ओर खींचता है।
यदि कोई यह चाहे कि मैं एक कार्य को घृणा भी करूं और उसी की साधना द्वारा अमीर, योग्य या प्रसिद्ध बन जाऊं, तो वह मृग मरीचिका ही है। घृणा का अर्थ है कि आपका चुम्बक अभीप्सित वस्तु को दूर भगा देगा। आप जो कार्य अपने लिए चुनेंगे, उसको प्रेम करना होगा, पूरी निष्ठा, सहयोग, दृढ़ता और मनोयोग से उसमें इच्छा शक्ति को केन्द्रित करना होगा।
आप पूछेंगे कि ऐसा चुम्बक कैसे तैयार करें? हमारा चुम्बक कहां है? इसका उत्तर यह है कि आपकी इच्छा-शक्तियां दृढ़ता और निश्चयबल कितने मजबूत हैं। आपकी योजनाएं और युक्तियां, कार्य शक्तियां कितनी सशक्त और सचेतन हैं। अपनी शक्तियों को तौल कर देखिए कि वे कितनी शक्तिशालिनी हैं? जितनी उनमें शक्ति है, उतनी ही तुम्हारे चुम्बक में ये शक्ति विद्यमान है। जिनको तुम इच्छा की आग को बलवती, तीव्रतर करोगे उसी अनुपात में तुम्हारे इस चुम्बक की शक्ति अभिवृद्धि को प्राप्त होगी।
अवसर की बात मत सोचिए। योग्यता होगी तो लाख अवसर तुम्हारे पास आकर चरण चुम्बन करेंगे। योग्यता एक ऐसा धन है, जिसका उपयोग कभी न कभी जरूर होगा। तुम्हें अपनी योग्यताएं बढ़ानी चाहिए।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सफलता हमारे बाह्य पदार्थों, व्यक्तियों, वातावरण रुपये-पैसे, सिफारिश इत्यादि पर निर्भर नहीं है वरन् वह हमारे अन्तर में विद्यमान है। सफलता की जड़ अन्तर प्रदेश में है। वहीं से हमें उसे निकाल कर बाह्य जगत में स्थापित कर देना है।
आन्तरिक पक्ष का चिन्तन, अभ्यास द्वारा उसका विकास इच्छा शक्तियों को कार्य द्वारा बाहर निकालना प्रमुख तत्व है। आपको आंतरिक प्रदेश में विपरीत तत्व, विरोधी इच्छाएं, वासनाएं, हीनत्व की पांच भावनाएं निकाल देनी होगी। जो तुम्हारी इच्छा की कामना है, उसी विषय के विचार चलते, फिरते, उठते, बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते मन में लानी होगी। इन विचारों, योजनाओं तथा तत्सम्बन्धी कल्पनाओं को क्षण भर के लिए भी निज मन से विलग न होने देना होगा। हमेशा बार-बार उन्हीं विचारों के सुखद, सफल पक्ष को भविष्य के गर्भ में कल्पना के नेत्र से देखना होगा। यही नहीं प्रत्युत ‘‘वह वस्तु वास्तव में मुझे प्राप्त हो गई है, मेरी वही परिस्थिति असल में हो गई है’’—यह भाव मन में सदा सर्वदा करना पड़ेगा। सारांश तुम जिन वस्तुओं, पदों, मान, प्रतिष्ठा, रुपया-पैसा, प्रसिद्धि को प्राप्त करना चाहते हो, उनकी जितनी तीव्र इच्छा करोगे एवं उनकी प्राप्ति का मन में चित्र जितना स्पष्ट कल्पना में बनाकर मन के सम्मुख रखोगे, उतनी ही शीघ्र वे पदार्थ तुम्हारे मानसिक चुम्बक से खिच कर तुम्हारी ओर आयेंगे।
उत्कृष्टता की निरन्तर विजय
आज का युग उत्कृष्टता (स्पेशलाइजेशन) का है। जो जिस विषय का विशेषज्ञ है, वही पूजा जाता है। अधूरे ऊपरी सामान्य ज्ञान वाले असंख्य हो गये हैं। अतः कार्य का क्षेत्र भी ऊंचा उठता जा रहा है। आज के युग में जब सामान्य व्यक्तियों की गिनती नहीं, असाधारण योग्यता वाला व्यक्ति ही सफलता लाभ प्राप्त कर सकता है। उत्कृष्टता रुपये को अपनी ओर खींचती है। उत्कृष्टता का मूल्य निरन्तर ऊंचा उठता जा रहा है। जो क्षेत्र आपने चुना है, या चुनने वाले हैं, केवल उसमें उत्कृष्टता प्राप्त कीजिये। बहुत से कार्यों के पीछे मत दौड़िये अन्यथा अन्त में कुछ भी हाथ न आयेगा। जो कुछ चुनिये, उसमें हर प्रकार अपने आप को ऐसा पटु और कार्य दक्ष बना लीजिये कि कोई कमजोरी शेष न रह जाय।
अपने से पूछिये—क्या मैं किसी बात का विशेषज्ञ हूं? क्या मैं कोई बात दूसरों की अपेक्षा अधिक जानता हूं? व्यापार, नौकरी, अध्ययन, खेती, साहित्य, लोक सेवा या अन्य कौन से कार्य का मैं विशेषज्ञ हूं। और यदि आप सचाई से किसी के विशेषज्ञ हैं, तो कार्य और पैसा आ ही जायेगा।
विशेषज्ञ कैसे बनें? विचार संयम तथा एकाग्रता—ये दो ऐसे अमूल्य मन्त्र हैं जिससे मनुष्य का मन एक तत्व में पूर्णतः तन्मय हो जाता है। पहले विचारों में उत्कृष्टता आयेगी। तत्पश्चात् वही उत्कृष्टता आपके कार्यों में उतर आएगी। विचार के पश्चात् कार्य का यही क्रम है। स्मरण रखिए प्रत्येक पुरुष एक विशेष क्षेत्र में उत्कृष्टता लेकर उत्पन्न हुआ है। स्वयं आत्म चिन्तन करने से, अपनी शक्तियों की परीक्षा करने से स्वयं यह मालूम किया जा सकता है कि मैं किस बात का विशेषज्ञ हूं। तुम्हारे भीतर जो महान् शक्ति का भण्डार छिपा पड़ा है, उसे निकालो। तुम्हारे भाग्य तुम्हारे कार्यों के आधीन हैं। पुरुषार्थ से तुम जीवन की यह उत्कृष्टता खोज निकाल सकते हो। अपनी विशेषता की ओर निरन्तर, अदम्य रूप में बढ़ने से उत्कृष्टता की सिद्धि होती है। जो कुछ शक्तियों का महाभण्डार तुम्हारे अन्तर प्रदेश में छिपा हुआ है, वह कभी न कभी तुम्हारे जीवन में अवश्य आएगा। फिर क्यों अभी से उसके प्रति सजग और सचेष्ट हो जायें? प्रत्येक आत्मा उसी वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करती है, जो उसकी होती है। अन्य कोई वस्तु उसके समीप नहीं आ सकती। कुछ काल के लिए उस पर घास-मिट्टी भले ही एकत्रित हो जाय। अन्ततः यही वस्तु तुम्हारे पास जाएगी। इस तत्व को जानने और अनुभव करने के लिए ईश्वरीय नियम की सर्व व्यापकता को मानना पड़ेगा।
एकाग्रता बहुमूल्य गुण है
इच्छा शक्ति के फल पर सिद्धि पर, अपनी समस्त शक्तियों को केन्द्रित रखिए। जब हम शक्तियों को एक स्थान पर एकाग्र करते हैं तो अद्भुत शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। सम्पूर्ण मानसिक संस्थान और शारीरिक शक्तियां जब मिल कर एक कार्य सिद्धि के लिए प्रयत्न करती हैं, तो वह अवश्य सिद्ध होता है। उस मन, मस्तिष्क या शक्ति से तुम क्या विजय, दृष्ट सिद्धि, या साधना करोगे, जो पल पल इधर-उधर भागा-भागा फिरता है। मनुष्य का मन बड़ा चंचल है, अस्थिर है। विषयों, प्रलोभनों, आसान चीजों की ओर दौड़ता है। अतः पहले चित्त संयम द्वारा मन को अन्तर्मुख कर लीजिए। चित्त की चंचलता रोकने के लिए दृढ़ता से इन्द्रियों के द्रव्य-विषयों की प्रवृत्ति और मन के वेग को रोकना पड़ेगा। मन को पुनः पुनः एक ही बात पर खींच-खींच कर लगाना होगा। मन मार कर एक ही कार्य निरन्तर करना होगा। मन का वेग, भागना और चंचल होना, कम होते और उस विचार उच्च ध्येय में संलग्न होने से उन्मत्त इन्द्रियां चित्त को चलायमान न कर सकेंगी। स्मरण रखिए मन तुम्हारा है, तुम उसके दास नहीं हो। कभी उसे अपने ऊपर हावी मत होने दो। मन की चंचलता जीतने के लिए इच्छा शक्ति का उपयोग कीजिए।
आप दुनिया को बदल देंगे यदि—
आप विजय प्राप्त करेंगे यदि आप अपने समय का उपयुक्त मूल्य समझ सकेंगे। कितना समय कार्य करें, खेलें, विश्राम करें, मनोरंजन करें, निद्रा लें यह विवेक आवश्यक है। आठ घंटे विश्राम, 2 घंटा मनोरंजन और 4 घंटे नित्य कर्मों के निकाल कर 10 घण्टे सचाई के परिश्रम के होने चाहिए। इन दस घंटों का सच्चा कार्य आपको निश्चय ही ऊंचा उठाने वाला है।
आप विजय प्राप्त कर सकेंगे यदि आप दूरदर्शी हैं। अर्थात् आगे आने वाले अवसर, दूसरों की जरूरतें, बाजार का हाल, घटनाएं दूरदर्शिता से अनुमान लगालें। भविष्य दृष्टा बनें। यह कोई अलौकिक शक्ति नहीं है। तीव्र बुद्धि, संसार का ज्ञान, स्वयं अपना अनुभव और समाचार-पत्र आपको भविष्य दृष्टा होने में पर्याप्त सहायता करेंगे। आगे बढ़ने वाली जरूरतों के लिए अभी से अपने आपको तैयार रखना, मानसिक, शारीरिक उत्कृष्टताएं पहले ही बढ़ा लेना विजय का मूल मन्त्र है।
आप संसार को बदल सकते हैं यदि आपको अपनी अन्दर की शक्तियों के प्रति विश्वास है। अपने अन्दर विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही सदैव आगे चलता है। डरता, शरमाता, या बुज़दिल की तरह लज्जाशील कैसे आगे बढ़ेगा?
तुम हीन नहीं हो। असमर्थ नहीं हो। कायर नहीं हो। दुर्बल नहीं हो। निस्तेज नहीं हो। अमृत संतान हो, आत्मा तेज के केन्द्र हो। तुम मोह और संशय के आवेश में आकर अपने को दुर्बल, पापी, कायर, डरपोक पा रहे हो। तुम अपने को क्षुद्र समझ कर भयभीत हो गये हो। हृदय की दुर्बलता त्यागो, संकटों का सामना करो और हष्ट पथ पर डटे रहो।
अपनी शक्तियों, योग्यताओं के प्रति सच्चे रहो। अपने अन्दर पूर्ण विश्वास रख कर आगे बढ़ो। जो मनुष्य जरा सी विघ्न-बाधाओं के आने पर अपने मन की शान्ति खो देता है उसमें आत्मिक बल तो कहां, साधारण मानुषी बल भी नहीं कहा जा सकता। उसका दूसरों पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता जो आप में और लोभ में और संकट में या क्रोध की उत्तेजना में अन्धा हो जाता है।
समय पर सुयोग से लाभ उठाने के लिए मानसिक स्फूर्ति, विचार, बुद्धि, परिकल्पना, शक्ति और प्रेरणा आदि की आवश्यकता है किन्तु यदि असीम, अपरिमेय ईश्वर और अपनी शक्तियों के ऊपर निर्भर बना रहे, तो चरम लक्ष्य की आसानी से प्राप्ति हो जाती है। आत्म श्रद्धा हमारी आन्तरिक शक्तियों को प्रदीप्त कर देती है। श्रद्धा बुद्धि से पृथक नहीं रहती, किन्तु बुद्धि को अनुप्राणित करती है, उच्चतर ज्ञान के प्रकाश से प्रकाश करती है। यह बुद्धि को उच्च से उच्च सम्भावनाओं से प्रफुल्लित करती है।
कुछ महानुभाव पूछते हैं—‘‘अपना मौजूदा काम हम ठीक तरह नहीं कर पा रहे हैं? क्या हम इसे छोड़ दें?’’ हमारा उत्तर है कि पहले इस कार्य की अच्छाई-बुराई पर विचार कर लीजिए। यदि आपका अन्तःकरण कहता है कि वह अच्छा काम है और आपको करना उचित है, तो उसे कदापि न त्यागिये। धीरे-धीरे शान्ति से कार्य करने से आप अवश्य उसके योग्य हो सकेंगे, निश्चय मानिये। एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा काम करने वाले सदैव असफल रहते आये हैं। कई व्यक्ति लिखते हैं—‘‘कृपा कर बताइए कि हमें कितने दिन यह मामूली सूखा कार्य करने की चक्की पीसनी पड़ेगी?’’ हमने उन्हें सूचित किया है कि वे जिन कार्यों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें, घृणा के स्थान पर उसे प्रेम करें, उसमें दिलचस्पी लें, रुचि पैदा करें और तब वे स्वयं कार्य मजे में करेंगे। प्रतिदिन अच्छाई और श्रेष्ठता आती जायगी—यह हमारा विचार है।