हम बदलें तो दुनिया बदले

अनुशासन का उल्लंघन न करें

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सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा, एवं अन्य सभी ग्रह-उपग्रह एक ठीक-ठीक नियम, व्यवस्था और विधान के अनुसार काम करते हैं। पेड़ों का उगना, फलना-फूलना, ऋतुओं का परिवर्तन, जीवों का जन्म-मरण आदि भी एक विशेष नियम की प्रेरणा से नियत विधान के अनुसार होता है। संसार की प्रत्येक छोटी से लेकर बड़ी घटनाओं के पीछे एक नियामक विधान ही काम करता है। समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन नियमन करने वाला विधान पिण्ड अणु-अणु में भी काम करते देखा जा सकता है। प्रत्येक अणु अपने में गतिशील है, उसके भी चारों ओर कई परमाणु चक्कर लगाते हैं। मनुष्य का जीवन भी इस विश्व नियम से अलग नहीं है वरन् जीवन की प्रत्येक गति-विधि का नियमन भी इसी में होता रहा है।

प्रसिद्ध दार्शनिक कान्ट ने लिखा है ‘‘आकाश के नक्षत्रों से लेकर अणु परमाणु के कार्यकलाप और संसार की प्रत्येक घटना के पीछे, मनुष्य की प्रत्येक क्रिया के पीछे एक अमर-चेतन सत्ता का नियमित विधान काम कर रहा है। जिस तरह किसी ग्रह के पथ भ्रष्ट हो जाने पर सृष्टि में खलबली मच सकती है उसी तरह विश्व नियम, नियति के विधान के विरुद्ध चलने पर मनुष्य के आन्तरिक जीवन में भी भयंकर संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। उसका परिणाम बाह्य जीवन में विनाश हानि के रूप में ही प्राप्त होता है। विश्व नियम नियतिचक्र शान्ति और विकास का रास्ता है, जिसके अनुसार चलने पर मनुष्य के स्वास्थ्य, प्रतिभा का विकास होता है, जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त होती है।’’

संसार में काम करने वाला नैतिक विधान एक विवेक-पूर्ण तथ्य है जो विभिन्न शक्तियों, पदार्थों, क्रियाओं में संतुलन पैदा करता है। प्रत्येक क्रिया और उसकी प्रतिक्रिया विश्व नियामक तथ्यों की प्रेरणा से ही होती है। मन के सूक्ष्म भाव, संकल्प-विकल्प उतार-चढ़ाव उनमें सन्तुलन-असन्तुलन भी इसी विश्व नियम की प्रतिक्रिया का अंग है।

एडिंगटन ने लिखा है ‘‘जिस तरह मनुष्य के कार्य-कलापों के पीछे मन की शक्ति कार्य करती है ठीक इसी तरह सृष्टि के मूल में भी एक चेतनसत्ता कार्य करती है, जो पूर्ण व्यवस्थित और नियामक है। पहले स्थूल दृष्टि से देखने पर जड़ जगत का कार्य भी एक मशीन की तरह दिखाई देता है किन्तु गम्भीर विचार, चिन्तन द्वारा देखा जाय तो मालूम पड़ता है कि जगत और इसके प्रत्येक कार्य कलाप के पीछे एक चेतन सत्ता काम कर रही है जो नियामक है।’’ भारतीय मनीषियों ने तो बहुत पहले ही इस तथ्य की अनुभूति प्राप्त करली थी। भारतीय दर्शन तो पद-पद पर इस विश्व-विधायक सत्ता को स्वीकार करके ही आगे बढ़ता है।

नियतिचक्र, विश्वनियम, नैतिक विधान एक विवेक-पूर्ण, व्यवस्थित सुनियोजित तथ्य है जिसका स्वभाव सत्यं शिवं सुन्दरम् की रचना सर्जना करना है। यह इतना ही सत्य है जितना विश्व और मानव शरीर में काम करने वाली अमर चेतना, साथ ही यह उतना ही सूक्ष्म और दुरूह भी है। इसे जानना समझना उसी तरह क्लिष्ट है जैसे शरीर में आत्मा को जानना। यही कारण है कि अधिकांश लोग इसे समझ नहीं पाते। खास कर व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान तुच्छ दृष्टिकोण से इस असीमित सर्वव्यापी तथ्य को बहुधा समझ नहीं पाते।

विश्व विधान, नियतिचक्र की अनुभूति के लिये विवेक युक्त निरपेक्ष बुद्धि की आवश्यकता है। अविवेकी अज्ञ मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं का हल ही नहीं निकाल सकता तो इस संसार के मूल नियम, मूल्य विधान को समझने की बात और भी दुरूह है। इस तरह के अज्ञानी जन जीवन की बाह्य घटना और उनके अच्छे बुरे परिणामों से ही सुखी दुःखी होते रहते हैं। वे नहीं समझते कि उन्हें सुधारने के लिये ही दुःख एवं कष्ट दण्ड रूप में किसी नियत की प्रेरणा से मिलते हैं। इसी तरह अच्छे कार्यों का परिणाम सुख, शान्ति, प्रफुल्लता, उल्लास वरदान के रूप में मिलता है।

गम्भीर चिन्तन के द्वारा मनुष्य विचार करे तो उसे भौतिक बाह्य जगत के प्रत्येक क्रिया-कलाप के अन्तर्गत एक शक्ति काम करती हुई मालूम पड़ेगी। एक नियत विधान के अनुसार संसार के कार्यों का नियमन, संचालन होता दिखाई देगा। आग छूने पर जला देती है। पानी गीला कर देता है। विद्युत छूने पर प्राण हरण कर लेती है। बर्फ ठण्डी लगती है। कदाचित नक्षत्र टकरा जायें तो विश्व में खलबली मच जाय। इसी तरह कई नियम देखे जा सकते हैं ये बाह्य जगत में काम करते हैं इसलिये इन्हें भौतिक नियम कहा जायेगा। सूक्ष्म जगत में काम करने वाले नैतिक नियम कहलाते हैं। प्रत्यक्ष रूप में किसी इन्द्रियों के संयोग से इनको नहीं जाना जा सकता, किन्तु गम्भीरतापूर्वक सूक्ष्म दृष्टि के साथ देखने पर इन्हें उसी तरह जाना जा सकता है जैसे किसी भौतिक नियम को जाना जा सकता।

नियतिचक्र की अनुकूल दिशा में चलकर ही व्यक्ति और समाज की उन्नति विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। इसके विपरीत चलना, विश्वनियम का उल्लंघन करना अपनी अवनति और पतन को निमंत्रण देना है। विद्युत का सदुपयोग करके उससे बड़े महत्वपूर्ण काम लिए जा सकते हैं। मशीनों, इंजनों, पंखे, रेडियो तथा अन्य उपकरणों को गति मिलती है। सुन्दर सुरुचिपूर्ण प्रकाश प्राप्त किया जाता है। सचमुच विद्युत ने संसार का नक्शा ही बदल दिया है। इसी बिजली को गलत ढंग से छू लिया जाय तो यह प्राण-घातक बन जाती है। आग का उपयोग मनुष्य की बहुत-सी समस्याओं को हल कर देता है। अग्नि मनुष्य की जीवनदाता है, किन्तु गलत ढंग से नियम विरुद्ध होने पर यही प्राणलेवा बन जाती है। परमाणु शक्ति संसार के अभाव, गरीबी, अनेकों समस्याओं का समाधान करने में समर्थ है किन्तु उसके गलत उपयोग से संसार का कुछ ही समय में नाश भी किया जा सकता है।

नियति चक्र, विश्व विधान भी ठीक इसी तरह है। इसके अनुरूप चलने पर मनुष्य की उन्नति विकास समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है और इसके विरुद्ध चलने पर मनुष्य को असीम दुःख परेशानी विपरीतताओं का सामना करना पड़ता है। विश्वनियम नियतिचक्र किसी के सुख दुःख का ध्यान नहीं रखता वह एक नियम है जो सब पर लागू है। यह दुधारी तलवार है। सामने चलाकर जीवन के रण में विजय पाई जा सकती है और विपरीत दिशा में चलाकर अपना ही नाश किया जा सकता है। बुरे आचरण करना, बुरे कर्म करना, नियत के विरुद्ध चलना अपने लिये बुरे परिणाम पैदा करता है। ऐसी स्थिति में सुखमय, शुभ हितकर परिणामों की आशा करना व्यर्थ है। बुराई का परिणाम कालान्तर में बुरा ही होता है।

बबूल के बीज बोने पर कांटेदार वृक्ष का पैदा होना निश्चित है, किसी भी तरह का अनैतिक बुरा कार्य करने पर शारीरिक अथवा मानसिक रोग या किसी बाह्य दंड विपत्तियों का सामना करना पड़े तो इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। नियतिचक्र, नैतिक मर्यादाओं के विरुद्ध आचरण करने पर मनुष्य का मनोबल क्षीण हो जाता है। कई तरह के कुविचार कुकल्पनायें उसके मन में घुस जाती हैं जिनसे बाह्य जीवन भी प्रभावित होता है और उसके फलस्वरूप कई दुष्परिणाम मिलते हैं। मानसिक द्वन्द्वों में मनुष्य घुल-घुलकर विनाश को प्राप्त होने लगता है, अनैतिक आचरण से मनुष्य का विवेक नैतिक बुद्धि प्रबल नहीं होती और उसे उचित अनुचित का भी ध्यान नहीं रहता। फलस्वरूप गलत निर्णय होते हैं और इससे मनुष्य भयंकर दुःखद परिस्थितियों में पड़ जाता है।

इसका यह भी अर्थ नहीं कि विश्व नियामक विधान की मर्यादा तोड़ने वाले मनुष्यों से कोई दुश्मनी हो। यह सुधारात्मक, सन्तुलन पैदा करने वाला तत्व है। जिस तरह किसी रोग के बाह्य लक्षण उस रोग को प्रकृति द्वारा शरीर से बाहर निकालने का प्रयत्न है उसी तरह नियतिचक्र के विरुद्ध आचरण करने से मिलने वाला शारीरिक या मानसिक दण्ड अनैतिक कार्य करने वाले को उस ओर से विरत करने के लिए ही एक प्रयत्न है। अभिमानी दुराचारी अपनी असहाय दीन अवस्था में अपने अनैतिक कार्यों के लिए बहुत पश्चाताप करते हैं। नियति की ठोकर खाकर ही मनुष्य को कुछ होश आता है और वह अपने दुष्कर्मों के बारे में समझने लगता है। भविष्य में ऐसा करने का संकल्प भी करता है खासकर परेशानी की स्थिति में तो वह दुष्कर्म नहीं ही कर सकता। ऐसी स्थिति में कई सुधार भी किये जाते हैं। अनैतिक कार्य छोड़ देते हैं विश्व नियामक सत्ता का अनुभव करने लगते हैं और उन्हें यह सोचने को बाध्य होना ही पड़ता है कि कोई सत्ता हमसे भी प्रबल है जो हमारे कर्मों का लेखा-जोखा लेती है। इतिहास साक्षी है कि जब नियति की ठोकर लगी विश्व विधान के अनुसार प्रतिक्रिया पैदा हुई तो बड़े-बड़े महारथी, दिग्गज बलवानों को यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा कि कोई हमसे भी शक्ति शाली सत्ता है जो हमारा लेखा-जोखा लेती है। उनका गर्व काफूर हो गया।

विश्वव्यापी नैतिक विधान एक अनिवार्य और अकाट्य नियम है, जो संसार के समस्त कार्य कलापों का नियमन संचालन करता है। यह सर्वत्र व्याप्त एक नियम व्यवस्था है, जड़ पदार्थ और अविकसित प्राणियों का तो यह प्रकृति के माध्यम से सीधा नियमन करता है। पशु-पक्षी प्रकृति की प्रेरणाओं से ही जीवन व्यापार चलाते रहते हैं। मनुष्य का एक विकसित, बुद्धि प्रधान प्राणी होने के नाते यह केवल नियमन करता है संचालन नहीं। मनुष्य अच्छा बुरा सब कुछ करने को स्वतन्त्र है किन्तु इन सबका परिणाम नियति-चक्र के अनुसार ही मिलता है। ठीक इसी तरह जैसे समाज में अच्छे कार्यों के लिए मनुष्य पुरस्कृत और प्रशंसित होता है तो बुरे कार्यों के लिए दण्डित और उपेक्षित।

मनुष्य अपनी चालाकी चतुराई कूटनीति के द्वारा भौतिक जगत के सामाजिक राजनैतिक दण्ड से बच सकता है किन्तु नियतिचक्र की निगाह से, विश्वविधायक के दण्ड से वह नहीं बच सकता। यह दण्ड उसे भोगना ही पड़ता है। अनैतिक कार्यों के लिये अन्तर्द्वन्द, आत्मभर्त्सना होने लगती है समय पर उसका दुष्परिणाम तो मिलता ही है। असंयमी, दुराचारी, शरीर के साथ ज्यादती करने वाले इन कामों के लिये स्वतन्त्र हैं। किन्तु नियति के दण्ड स्वरूप अस्वस्थता रोग, दुर्बलता का दण्ड उन्हें भोगना ही पड़ता है। संसार की कोई शक्ति उन्हें इससे नहीं बचा सकती अत्याचार अनाचार स्वेच्छाचार का परिणाम विनाश, असफलता हानि के रूप में ही मिलते हैं, तो अच्छे कार्य, सदा-चार, पुण्य परमार्थ कार्यों के परिणाम आत्म सन्तोष, प्रसन्नता शान्ति आदि वरदान के रूप में मिलते हैं। बुरे कार्यों के परिणाम बुरे, अच्छे के परिणाम अच्छे रूप में ही मिलते हैं यह एक निश्चित तथ्य है। दुनिया की खुली पुस्तक में यह सहज ही पढ़ा जा सकता है।

संसार का सबसे विकसित और उत्कृष्ट प्राणी होने के नाते मनुष्य को कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। वह कुछ भी कर सकता है। किन्तु नैतिक तथ्य, नियतिचक्र और विश्वनियम के विरुद्ध आचरण करने की छूट नहीं है। इस पर तो उसे दण्ड मिलना अवश्यम्भावी ही है। वह इससे बच नहीं सकता। मनुष्य जैसा कर्म करेगा वैसा ही परिणाम उसे प्राप्त होकर रहेगा, यह ध्रुव सत्य है।

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