हम बदलें तो दुनिया बदले

आत्म-सुधार-विश्व-कल्याण का सबसे सरल मार्ग

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बहुधा हम सब यह अभियोग करते रहते हैं कि संसार बहुत खराब हो गया है। जिसे देखो वह ऐसे ही कार्य करने में लगा हुआ है, जो संसार की दुःख-वृद्धि करते हैं। पर क्या कभी हम यह भी सोच पाते हैं कि संसार में दुःख और कष्ट बढ़ाने में हमारा भी कुछ हाथ है या नहीं?

सच्ची बात यह है कि हमारी यह शिकायत ही इस बात का प्रमाण है कि हम स्वयं ही अपने में पूरी तरह से अच्छे नहीं हैं। यदि हमारी मनोभूमि स्वच्छ और उच्च स्तर की हो तो हमें संसार तो बुरा ही दीख पड़े और उससे प्रभावित होकर हम दुःखी हों।

जिन मनुष्य का स्वभाव जैसा होता है उसी प्रकार की प्रतिक्रियायें ही उसे प्रभावित करती हैं और उसी प्रकार के तत्व वह ग्रहण करती हैं। किसी दूसरे के क्रोध का प्रभाव उसी पर होगा, जो स्वयं भी क्रोधी होगा। शांत चित्त और सन्तुलित मस्तिष्क वाले मनस्वी व्यक्तियों पर उसका तो कोई प्रभाव पड़ता है और उस पर तदनुरूप प्रतिक्रिया होती है। जिसने अपने तामस पर विजय करली होती है, वह अपने प्रति दूसरे की बुराई देखकर भी शांत बना रहता है। दूसरे की क्रोधाग्नि को अपनी शीतल वाणी और मधुर व्यवहार से बुझाने का प्रयत्न किया करता है।

महात्मा गांधी ने क्रोध पर विजय प्राप्त करली थी। उन्होंने अपनी मनोभूमि को आवेशरहित बना लिया था। उन पर अफ्रीका में बड़े-बड़े अत्याचार किये गये। उन्हें मारा धकेला गया, उनके लिये गाली और अपशब्दों का प्रयोग किया गया। उन्हें रेल और जहाज पर से बलपूर्वक नीचे उतारकर अपमान किया गया, पर उन्होंने कभी क्रोध नहीं किया। यदि वे अपने आवेगों को वश में कर चुके होते, तो उन्हें भी क्रोध की अग्नि जलाती और तब उस पीड़ा से परेशान होकर वे भी संसार को बुरा कहकर दोष लगाते रहते। इसके विपरीत संसार तो दूर, उन्होंने अपने ऊपर जुल्म करने वालों को भी कभी बुरा नहीं कहा। बल्कि वे उन विरोधियों की प्रशंसा ही करते रहे।

यह एक निर्विवाद सत्य है कि जो जैसा होता है, संसार का स्वरूप उसे वैसा ही दिखाई देता है। यह संसार एक दर्पण के समान है। इसको जो देखता है, उसे अपना स्वरूप ही दिखाई देता है। सज्जन व्यक्ति को यही संसार सज्जन और दुर्जन व्यक्ति को दुर्जनों से भरा दीखता है। इसलिये शिकायत करने से पूर्व हमें यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि हम पूरी तरह भले हैं या नहीं। निश्चय ही हम में बुराइयां हैं, तभी यह संसार हमें बुरा दीखता है। यदि हमारी मनोभूमि उसकी बुराइयां ग्रहण करने योग्य हो तो हमें यह संसार कदापि बुरा दिखलाई पड़े।

संसार को बुरा-भला कहने और उसकी आलोचना करने में हम जितना समय और शक्ति खराब करते हैं यदि वही समय और शक्ति अपना सुधार करने में लगाने लगें, तो संसार आप से आप ही अच्छा हो जाये। उदाहरण के लिये यदि लड़ाई-झगड़े की बात ले ली जाये और उस पर प्रयोग किया जाय, तो जल्दी ही हम यह जान लेंगे कि बुराई बाहर कम है बल्कि अपने अन्दर ज्यादा है। एक आदमी हमारा कुछ अहित करता है और हम भी बदले में उसका अहित करने पर तुल जाते हैं तो अहित की यह क्रिया-प्रतिक्रिया आगे बढ़ती जायेगी और एक दिन किसी बड़े संघर्ष की स्थिति खड़ी हो जायेगी और हम एक दूसरे को मारने-मरने पर तुल जायेंगे। इसके विपरीत यदि हम अहित करने वाले का हित करके अपने उत्कृष्ट स्वभाव का परिचय देने का प्रयत्न करें तो निश्चय ही विपक्षी की प्रवृत्ति बदल जायेगी और वह हमारा अहित आगे तो नहीं ही करेगा, किये अहित के लिये भी लज्जित होकर माफी मांगेगा। झगड़े में एक पक्ष शांत तथा विनम्र बना रहे, तो दूसरे को भी शांत ही हो जाना पड़ेगा और सच्ची बात तो यह है कि जो मन-वचन-कर्म से किसी का अहित वाहक नहीं होता, किसी के प्रति द्वेष-दुर्भाव नहीं रखता उससे तो कोई झगड़ा करेगा और उसका अहित चाहेगा। अपने भीतर की बुराई ही दूसरे को हमारे लिये बुरा बनाती है। वैसे किसी को क्या पड़ी है कि वह अकारण ही हमारे साथ बुराई करने पर उतर आयेगा।

जीवन की प्रगति और सुख-शान्ति के लिए आध्यात्मिक आदर्शों का प्रतिपादन संसार के सभी विद्वानों ने एक मत से किया है। आध्यात्मिक विचार धारा वाले व्यक्तियों का जीवन सब प्रकार से सुख शान्ति पूर्ण रहता है। संसार में तो उनका कोई शत्रु होता है और विद्वेषी। उनके सामने कदाचित् ही ऐसी परिस्थितियां आती हैं कि उन्हें किन्हीं लोगों की ओर से आशंका अथवा अहित की सम्भावना रहे। यदि कभी संयोग वश कोई अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों के कारण उनका बुरा चाहता या करता भी है तो भी आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देकर उसे यथा स्थान ही रोक देता है। वह फिर आगे बुराई नहीं करने पाता। आध्यात्मिक व्यक्ति तो किसी के प्रति द्वेष रखता है और प्रतिशोध की भावना। इसी कारण उसके सम्मुख पीड़ादायक परिस्थितियां बहुत कम आती हैं।

किन्तु यह होता जभी है, जब व्यक्ति अध्यात्म के आदर्शों के प्रति मन, वचन, कर्म से ईमानदार रहे। आध्यात्मिक जीवन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति, सबसे पहले बुराइयों की खोज अपने अन्दर किया करता है। यदि कभी कोई उसके साथ बुराई करता है तो आध्यात्मिक व्यक्ति उसका दोष बुराई करने वाले को तो शायद ही देता है, वह उसका कारण अपने अन्दर, यह सोचता हुआ खोजता है कि जरूर ही हमारे अन्दर कोई बुराई, कोई कमी अथवा कोई त्रुटि अवश्य है, हम अवश्य ही किसी दुर्बलता अथवा निर्बलता के बन्दी हैं तभी अमुक व्यक्ति का साहस अथवा प्रवृत्ति हमारे साथ ऐसा व्यवहार करने की हुई। अपनी खोज के फलस्वरूप वह कारण खोज निकालता है और उसका निवारण करके निष्कंटक हो जाता है मनुष्य के अन्दर कौन सी क्या दुर्बल प्रवृत्तियां छिपी हैं वह बहुधा कम लोग ही जान पाते हैं। इसलिए हृदय मार्जन के लिए हम सबको निरन्तर अपना निरीक्षण करते ही रहना चाहिए।

यदि हमें संसार के खराब होने की शिकायत है, और हम यह चाहते हैं कि संसार का सुधार हो, उसकी गति-विधि ठीक हो, चारों ओर सुख-शान्ति के वातावरण का निर्माण हो तो उसके उपाय यह हैं कि हम आज से ही अपना सुधार प्रारम्भ करदें। जितने अंशों में हम अपना सुधार करते जायेंगे, संसार उतने ही अंशों में आपसे आप सुधरता जायेगा। संसार का एक अंश हम भी हैं। अपना सुधार करने का प्रथम चरण में समाज या संसार और कुछ नहीं हम सब लोगों का ही समूह है। हम सब मिलकर संसार को बनाते हैं। हमारी अपनी अच्छाइयों से ही संसार अच्छा बनता है और हमारी बुराइयां ही उसे बना देती हैं।

यदि वास्तव में हम संसार की विकृतियों से ऊब गये हैं, उसमें व्याप्त शोक-संतापों के कारणों के प्रति हममें अरुचि का भाव है और हम चाहते हैं कि संसार की यह रचना उसके रचयिता के अनुरूप ही सुखद और सुन्दर बने, मनुष्यों के रहने योग्य इसका स्वरूप बने तो हमें आत्म-सुधार से संसार सुधार का कार्य जल्दी से जल्दी प्रारम्भ कर देना चाहिए।

दूसरों की अपेक्षा अपना सुधार अधिक सरल तथा अधिक सम्मत होता है। दूसरे को तो हम सुधार के लिए समझा ही सकते हैं, प्रार्थना कर सकते, अधिक से अधिक उपदेश दे सकते हैं। लेकिन अपने को हठपूर्वक भी सुधार सकते हैं। जहां दूसरों पर हमारा कोई वश नहीं होता, वे हमारी बात मानें ही, इसके लिए उन्हें विवश नहीं किया जा सकता। किन्तु अपने पर तो हमें पूरा अधिकार हो सकता है। अपना सुधार करने के लिए हम सब अपने पर सख्ती भी कर सकते हैं और जिधर चाहें, बलपूर्वक मोड़ सकते हैं। दूसरों के विषय में हमें तो यह अधिकार

अपना सुधार करने से तो केवल हमारा ही सुधार हो सकता है इससे इतने बड़े संसार का सुधार किस प्रकार सम्भव हो सकता है। ऐसी निराश पूर्ण शंका करना विचार-संकीर्णता है। कोई भी आदर्श अथवा सिद्धान्त सार्वभौमिक होता है। जब हम सब अलग-अलग एक-एक करके सुधरने लगेंगे तो सारा संसार स्वतः ही एक साथ सुधरने लगेगा। संसार का सुधार का इतना बड़ा काम कुछ थोड़े से सुधारकों के लिए सम्भव नहीं है, अपितु सबसे सरल तरीका यही है कि हम सुधारकों से प्रेरणा एवं प्रकाश लेकर अपना सुधार आप ही करें। इससे यह विशाल कार्य छोटे-छोटे भागों में वितरित हो कर सरल हो जायेगा। थोड़ी थोड़ी जिम्मेदारी सब पर चली जायेगी और एक तरह से सभी लोग संसार सुधार के काम में लग जायेंगे। विशाल कार्य विशाल जनसमूह द्वारा किये जाने पर जल्दी तथा पूर्ण रूप से सम्पादित हो जायेगा।

आत्म-शोधन में निरत होना संसार शोधन में लगने का एक प्रकार है। एक व्यक्ति अपनी अच्छाई से केवल आप ही लाभान्वित नहीं होता बल्कि अन्य लोगों की सुख-शान्ति बढ़ाने में भी सहायक होता है। जिस प्रकार एक बुरा आदमी अपनी बुराई का प्रभाव दूसरों तक पहुंचाता है और इस प्रकार उनके दुःखों में वृद्धि करता है उसी प्रकार एक उपयुक्त आदमी भी अपनी अच्छाई का प्रभाव दूसरों पर डालता है और वे उसके व्यवहार से लाभान्वित ही नहीं प्रेरित भी होते हैं। उनके शोक-संतापों की संख्या घटती और सुख-शान्ति की वृद्धि होती है। इसलिए विश्व-कल्याण का सबसे सरल और सही तरीका आत्म-कल्याण ही मानना चाहिए।

आत्म सुधार आत्म-कल्याण की भावना को किसी प्रकार भी स्वार्थ मनाना भारी भूल होगी। अपने चरित्र को ऊपर उठाना अथवा आत्मा की उन्नति करना स्वार्थ नहीं माना जा सकता। वह विशुद्ध परमार्थ है और परमार्थ के कार्यों से केवल अपना ही मंगल होता है अपितु सारे संसार, सारे मनुष्यों और सारे जीव, प्राणी मात्र को मिलता है।

संसार का सुधार करने के लिए हमें जीवन में आध्यात्मिक दृष्टिकोण को विकसित और आध्यात्मिक गतिविधि को अपना कर चलना चाहिए। प्रत्येक अच्छी बुरी परिस्थिति का उत्तरदायी हम स्वयं अपने को माने। बाह्य प्रवृत्तियों का कारण अपने अन्दर खोजें और उनका निवारण करें। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उन्नत एवं उदात्त बनायें तब तो हमें संसार से शिकायत रहेगी और इस प्रकार सारा संसार ही सुधार की ओर चल पड़ेगा।


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