हम बदलें तो दुनिया बदले

सेवा हमारी जीवन नीति बने

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मनुष्य का शारीरिक और मानसिक अभ्यास जैसा होगा उसी के अनुसार उसके आन्तरिक एवं बाह्य जीवन का निर्माण होता है दूसरों के अहित का विचार करने वाले दूसरों के लिए बुरे, हानिकारक दुष्कृत्य करने वाले, व्यक्तियों के जीवन में इन्हीं तत्वों की प्रधानता हो जाती है। उनका स्वयं का जीवन भी बुराई, अहित, हानि और अकल्याण से प्रभावित हो जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है।

मनीषियों ने कहा है ‘‘पाप का परिणाम पाप ही होता है।’’ बुराई का फल बुरा और भलाई का भला, सभी ने इसे स्वीकार किया है। क्योंकि मनुष्य जैसा अभ्यास करेगा वैसा ही वह बनता है। इसी लिए शुभ की प्राप्ति के लिए, अच्छाइयों की वृद्धि के लिये, आचार शास्त्र में परमार्थ, सेवा, दान-पुण्य विविध उपासना, व्रत आदि को धर्म मानकर उन्हें जीवन में प्रमुख स्थान दिया है।

यदि मनुष्य अपने जीवन में सुधार चाहे, शुभ की आकांक्षा रखे तो दूसरों के लिए वही सब करे जो वह स्वयं अपने लिए चाहता है। दूसरों के लिए वही सोचे जो वह अपने लिए सोचता है। दूसरों के दुःख दूर करने में, कठिनाइयों में मदद करने में, उनका सुधार करने में उनके हित के लिए वही प्रयत्न किया जाय जो मनुष्य अपने लिए करता है। इससे मनुष्य के दुःख परेशानियां, उलझनें स्वतः दूर हो जाती हैं। मानसिक गुत्थियां सुलझ जाती हैं।

अपनी बुराइयों से सीधे लड़ने पर वे और भी प्रबल होती जाती हैं, ऐसी हालत में उनसे लड़ कर विजय पाना कठिन है। अपनी बुराइयों का सुधार करने के लिए उनसे सीधे लड़कर दूसरों के हित, सेवा कल्याणमें अपनी शक्ति लगानी चाहिए। इससे जो लाभ दूसरों को मिलना चाहिए वह स्वयं को भी सहज ही प्राप्त हो जाता है। परमार्थ साधन की पुण्य प्रक्रिया में मनुष्य के स्वयं के दोष, बुराइयां भी दूर हो जाते हैं और दुहरा लाभ होता है।

सेवा का आधार जितना निःस्वार्थ होगा, वास्तव में दूसरों के परमार्थ का ध्यान होगा, उतना ही बड़ा सत्परिणाम भी मनुष्य को प्राप्त होगा। किन्तु सेवा का ढोंग बना देने पर वह परमार्थ नहीं दूसरों के साथ धोखादेही छल कपट चालाकी और स्वार्थसाधन मात्र बन कर रह जाती है। बाहर से ऐसी सेवा का आडम्बर कितना ही बड़ा क्यों हो, कर्ता को उसका रत्ती भर भी वास्तविक सत्परिणाम नहीं मिल सकता। लोगों से प्रशंसा प्राप्त कर लेने या कुछ कमाई कर लेने मात्र तक ही ऐसे सेवा-आडम्बरों का लाभ सीमित रह जाता है।

सेवा के लिए कोई स्थूल नियम नहीं बनाये जा सकते। दूसरों के लिये कोई उपयोगी काम करके उनसे प्रेम करने के अभ्यास को बढ़ाया जा सकता है। दूसरों की सेवा करके अपने सद्भावों को विकसित किया जा सकता है, दूसरों के दुख दर्द को अपना ही दुख दर्द मानकर उसको दूर करने के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न करना, अभावग्रस्तों की अभावपूर्ति में योग देना, दूसरों के दुःख सुनना, उनकी उन्नति कल्याण में योग देना, दूसरों की हर तरह की सेवा करने के लिए एक सेवक की तरह तैयार रहना आत्म सुधार के लिए आवश्यक है। जो दूसरों के लिए जितना अपने आपको घुला देगा वह उतना ही आत्म सुधार के क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकेगा। इस तरह की सेवा से सच्चे प्रेम का उदय होता है जो मनुष्य के सब कलंकों को धो देता है अन्तर बाह्य जीवन को निर्मल बना देता है। सेवा के साथ सन्तोष की वृत्ति अवश्य बनी रहे।

सेवा जितनी बने उतनी करते हुए स्वयं अपनी सेवा करने की क्षमताओं को भी विकास करते रहना आवश्यक है। क्षमताओं के अभाव में सेवा का परिमाण और प्रतिफल स्वल्प ही रहेगा। जितनी व्यापक सेवा होगी उसके लिए उतनी ही व्यापक क्षमता और शक्ति की आवश्यकता सेवा सम्बन्धित अपनी क्षमताओं का विकास करना भी सेवा का ही एक अंग है। हम चाहते हैं कि गरीबों को भोजन वस्त्र दे किन्तु हमारे पास देने को होगा तभी तो हम ऐसा कर सकते हैं। हम चाहते हैं कि देश को उन्नति, विकास एवं कल्याण की दिशा में आगे बढ़ावें किन्तु तत्सम्बन्धी क्षमताओं पर ही तो इसकी पूर्ति निर्भर है। हम चाहते हैं कि अधिकाधिक लोगों को सद्ज्ञान देकर जीवन लाभ करायें, किन्तु इसके पहले हमारे पास ज्ञान की कमाई हुई पूंजी का होना भी तो आवश्यक ही है।

सेवा के परिणाम और फल का ध्याय रखना सेवक के लिए आवश्यक नहीं उसके लिये प्रयत्न करने का आनन्द ही पर्याप्त है। परिणाम और फल की आसक्ति सेवा के आनन्द और स्वरूप को नष्ट कर देती है। फिर तो वह अन्य सांसारिक कार्यों की तरह एक व्यवसाय बन जाती है।

संवेदनशीलता दूसरों की सेवा सहायता सहानुभूति का मूल आधार है। यह गुण जिसमें जितना होगा वह उतना ही दूसरों की सेवा करने का अधिकारी है। सत तत्व की स्थापना और हृदय शुद्धि से ही संवेदनशीलता का जन्म होता है। अतः सेवक को प्रारम्भ में अपने हृदय शुद्धि और स्वयं सत्तत्व की स्थापना के लिए प्रयत्न करना आवश्यक ही है।

दया, सहानुभूति, संवेदना होना लोकसेवी के लिए आवश्यक है, किन्तु उसके साथ तारक बुद्धि उपचार के लिए प्रयत्न का समावेश हो तभी उसका महत्व और उपयोगिता है। संवेदनशीलता का अर्थ यह भी नहीं कि कोई दुःख से रो रहा हो तो उसके पास बैठकर हम भी रोने लग जायं। इससे क्या लाभ! इससे तो अशुभ के प्रसार और स्थायित्व में ही योग मिलेगा। अतः इन सबके साथ तारक, रचनात्मक बुद्धि का होना भी आवश्यक है, जो गरीबों की गरीबी दूर कर सकें, रोने वालों को हंसा सके, गिरे हुओं को उठा सके।

जीवन की बुराइयों को दूर करके पूर्ण जीवन की ओर अग्रसर होने के लिए भी दूसरों को प्रेरणा देना एक बहुत बड़ी सेवा है। पूर्ण जीवन वह है जिसमें रस है, उत्साह है आत्मसंतोष है। भोग विलास अथवा दीनता, दरिद्रता, हीनता की भावनाओं को वहां कोई स्थान नहीं है। जीवन की पूर्णता में तो इनकी भावना तक नहीं रहती। मनुष्य वाह्य-दृष्टि से गरीब दीन हो किन्तु पूर्णता के लिए इसका कोई महत्व नहीं है। दरिद्र होकर भी सेवा द्रुम को विकसित करते हुए पूर्णता प्राप्त की जा सकती है।

विकृत मनोभूमि, संकीर्ण मानसिक स्थिति के ऐसे लोगों की कमी नहीं जो सदैव सेवा भावी संवेदनशील व्यक्तियों को धोखा देकर अनुचित लाभ उठाते हैं और यहां तक की दूसरों की सेवाओं से प्राप्त सहायता, सहयोग सहानुभूति को अपना व्यापार बनाकर सदैव इस तरह के आडम्बर बनाये रखते हैं जिससे दूसरों की सेवाओं से प्राप्त सुविधायें उन्हें मिलती रहें। इस तरह के लोगों से सेवाशक्ति का शोषण, दुरुपयोग होता है। सेवा, परमार्थ के छद्म वश में छिपे हुए घोर स्वार्थी लोगों से सदैव बचा जाय, जो सेवा और परमार्थ जन कल्याण के नाम पर दूसरों की भावनाओं, सेवा के साधनों का दुरुपयोग करते हैं। सेवक के लिए इस बात में जानकारी भी होनी चाहिए कि लोग उसकी संवेदनशीलता, सद्भावना सेवा का अनधिकृत लाभ उठाकर उसका दुरुपयोग करें। सेवा के लिए सही योग्य उपयुक्त जरूरतमन्दों का भी ध्यान रखा जाय। साथ ही सबके अपनी कठिनाई, दरिद्रता को भी प्रकट होने दें जिससे दूसरे लोग उसकी सहायता के लिए आकर्षित हों। ऐसा होने पर तो सेवा एक व्यापार बन जायगी और सेवक को उल्टा लाभ कमाने का अवसर मिलने लगेगा। सच्चे सेवक तो दूसरों के आगे अपनी कठिनाइयों को प्रकट करते हैं, इस तरह रहते कि उन्हें त्यागी तपस्वी कहलाने की प्रशंसा प्राप्त हो।


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