हम बदलें तो दुनिया बदले

सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन न हो

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जिन प्राणियों की आवश्यकताएं शरीर निर्वाह तक सीमित हैं, वे एकाकी जीवन जी सकते हैं। खरगोश, कबूतर आदि के सामने इतनी ही समस्या रहती है कि वे क्षुधा की शान्ति एवं शरीर रक्षा कैसे करें? इनका हल ढूंढ़ निकालना एकाकी प्रयत्नों से संभव हो सकता है। पर जैसे ही प्राणी की मानसिक आकांक्षाओं का क्षेत्र विस्तृत होता है वैसे ही उसे दूसरों का सहयोग अपेक्षित होने लगता है। तनिक सी भावनाएं जगने पर उसे कुटुम्ब बनाकर रहना पड़ता है। इतना ही नहीं झुण्ड में रहना भी आवश्यक हो जाता है। सारस, चकोर, चकवी, सिंह, सियार, रीछ आदि दाम्पत्ति जीवन का सुख लेते हैं। नर-मादा मिलकर रहते हैं। हाथी, मृग, बन्दर नील गाय, मधुमक्खी आदि झुण्ड बनाकर रहने पर सन्तोष मिलता है। यदि उन्हें एकाकी रहना पड़े तो उदास एवं दुखी रहने लगते हैं।

मनुष्य इन सबसे अधिक विकसित प्राणी हैं। इसलिए उसकी बढ़ी हुई मानसिक आवश्यकताएं तभी पूरी होती है जब मिलजुल कर रहने का समाज बना रहने का उसे अवसर मिलता है। विवाह की परिपाटी इसीलिए चली। कुटुम्ब इसी दृष्टि से बने। इनके अभाव में मनुष्य खोया-खोया सा अपूर्ण एवं अनुष्य बना रहता है, उसकी प्रसन्नता एवं प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।

बात इतने तक ही समाप्त नहीं होती। कुटुम्ब की परिधि तक सीमित रहकर भी मनुष्य अपना काम नहीं चला सकता। अगणित प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे दूसरों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। दुष्ट दुराचारियों से बचने के लिए शासन की, रुग्ण हो जाने पर चिकित्सक की शिक्षा के लिए अध्यापक की, दूर यात्रा के लिए वाहन की, शरीर ढकने के लिए वस्त्रों की निवास के लिए मकान की, खाने के लिए अन्न की, मनोरंजन के लिए क्रीड़ा साधनों की, इसी प्रकार विविध प्रयोजनों की आवश्यकता होती है। क्या कोई व्यक्ति यह सुविधाएं एकाकी जुटा सकने में समर्थ हो सकता है? जन-सहयोग के बिना सामाजिक संगठन के बिना उन प्रसाधनों का उत्पादन एवं आदान-प्रदान संभव ही नहीं। यदि सामाजिकता हो तो फिर मनुष्य को करोड़ों वर्ष पूर्व जैसी आदिम अवस्था में जाना पड़ेगा।

मनुष्य की अब तक की प्रगति का सारा श्रेय उसकी सामाजिकता कोमिलजुलकर काम करने की प्रवृत्ति को है। मनुष्य बुद्धिमान होने से आगे बढ़ा है। पर सच बात यह है कि उसकी असाधारण अहंकार प्रवृत्ति ने वह अवसर दिया कि बुद्धि का विकास करते चले। जिन्हें वह सामाजिकता प्राप्त नहीं हुई है वे अभी भी अविकसित स्तर का पाशविक जीवन जीते देखे जाते हैं भेड़िये की मांद में पाया गया मनुष्य का बालक काफी बड़ा हो जाने पर भी मानसिक दृष्टि में पशु तुल्य ही पाया गया। बुद्धि तत्व का बाहुल्य मनुष्य में आदि काल में था, यह तो उसने अपनी सामाजिकता को परिपुष्ट बनाते-बनाते विकसित किया है। सामाजिकता को ही मानव प्रगति का एकमात्र आधार कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति होगी।

सब सामाजिकता मानव जीवन का अविच्छिन्न अंग ही ठहरी तो यह आवश्यक है कि उसे शुद्ध और परिष्कृत रखा जाय। अन्न, दूध, फल आदि खाद्य पदार्थ तभी उपयोगी होते हैं जब वे शुद्ध हों। यदि वे किसी कारण दूषित एवं विषैले हो जायें तो उल्टी हानि पहुंचते हैं, विषैला खाद्य प्राण संकट तक उत्पन्न कर सकता है। इसी प्रकार मानव समाज में सामाजिकता भी जब ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, शोषण, अहंकार आदि स्वार्थपूर्ण संकीर्ण प्रवृत्तियों से गंदी हो जाती है तो उससे अगणित प्रकार के क्लेश, कलह और शोक सन्ताप उठ खड़े होते हैं। एक कुटुम्ब सदस्य यदि प्रेम, सद्भाव और सहयोग-पूर्वक रहते हैं तो वे सभी सुव्यवस्थित और शान्तिमय जीवन व्यतीत करते हैं, पर यदि वे परस्पर द्वेष, दुर्भाव रखें, छल, प्रपंच करते रहें, और साथियों की उपेक्षा कर अपना लाभ सोचें, तो उस परिवार में ऐसी विषम उलझनें उत्पन्न हो जायेंगी कि सभी नारकीय कष्ट का अनुभव करने लगेंगे।

समाज भी एक प्रकार का बड़ा परिवार ही है। घर से बाहर रहने वालेकुटुम्ब के अतिरिक्त अन्य लोगों के सहयोग पर भी हमें आश्रित रहना पड़ता है। वह उचित मात्रा में तभी मिलता है जब अपनी ओर से समुचित सद्भाव बरता जाय।

वस्तुओं को जल्दी से, अधिक मात्रा में प्राप्त करने की हड़बड़ी में उस अनैतिक असामाजिक कार्य पद्धति अपना ली जाती है तो उससे और कुछ प्राप्त भले ही हो जाय, विक्षोभ भी अवश्य बढ़ता है। और यह बढ़ा हुआ विक्षोभ आग की चिनगारी की तरह बढ़ते-बढ़ते दावानल की तरह फैल जाता है तब चारों ओर दम घुटने वाला विषैले धुएं जैसा वातावरण विनिर्मित होता है। द्वेष, दुर्भाग्य से, शोक संताप से, विक्षोभ और प्रतिहिंसा से भरा हुआ समाज वस्तुतः एक नरक है जिसमें केवल कष्ट ही मिलता और केवल पतन ही होता है।

हमें वस्तुस्थिति समझनी चाहिए। यदि सुखपूर्वक जीना और शान्तिपूर्वक जीने देना है तो यह भूलें, कि मानव प्राणी की सारी प्रगति एवं सुख-शान्ति उसकी सामाजिकता पर अवलम्बित है। एक दूसरे को स्नेह सद्भाव देकर ही वे परिस्थितियां विनिर्मित कर सकते हैं जिनमें सब लोग सुख शान्तिपूर्वक रहकर प्रगति पथ पर उल्लासपूर्वक बढ़ते रह सकें।


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