हम बदलें तो दुनिया बदले

नागरिकता और नैतिकता की आधारशिला

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परस्पर दुर्भाव की धारणाओं के कारण संघर्ष और विद्वेष की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। उनके फलस्वरूप अवांछनीय अनैतिक और अशोभनीय घटनाएं आये दिन घटित होती रहती हैं आज सर्वत्र अधिकारों की मांग प्रबल हो रही है, दूसरों से अधिक सुविधायें प्राप्त हों यह अपेक्षा की जाती है, पर कर्तव्यों का किसी को ध्यान नहीं। कर्तव्यों की उपेक्षा करते हुए अधिकारों की मांग करने से कलह का जन्म होता है। शान्ति का तरीका यह है कि अधिकारों की उपेक्षा करते हुये कर्तव्यों का बुरी तरह पालन किया जाय।

नागरिक जीवन की सुव्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि हर व्यक्ति दूसरों के प्रति अपने उत्तर-दायित्वों का पूरी तरह पालन करे, अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को तत्परता के साथ निवाहने के लिए कटिबद्ध रहे। सामाजिक सुख शान्ति और प्रगति का यही आधार है। जिस देश के नागरिक अपने कर्तव्यों का ठीक तरह पालन करते हैं वही सबल राष्ट्र कहलाता है, जिस समाज में चरित्रवान लोगों का बाहुल्य रहता है वही सभ्य कहा जाता है। किसी व्यक्ति या समूह की उत्कृष्टता केवल इसी आधार पर नापी जा सकती है कि उसमें कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के प्रति कितनी आस्था है। झूठे और गवार, चालाक और बेईमान, धूर्त और ढोंगी, आलसी और कायर लोग चाहे कितने ही साधन सम्पन्न क्यों हों उनका तथा उनके समूह का स्तर सदा गिरा हुआ ही रहेगा। चिरस्थायी उन्नति, संतुष्टि और प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकना उनके लिए कदापि संभव हो सकेगा।

एक दूसरे के प्रति सद्व्यवहार करने से परस्पर स्नेह, सन्तोष सद्भाव और प्रसन्नता की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। प्रेम का सद्गम सज्जनता और सद्व्यवहार होता है। दुष्टता और दुर्बुद्धि की भावनाएं मन में रहें तो किसी के प्रति सच्चा सद्व्यवहार बन ही पड़ेगा। नीति और चतुरता के माध्यम से जो नकली बनावटी एवं झूंठा शिष्टाचार बरता जाता है, वह देर तक किसी को भ्रम में नहीं रख सकता है। सद्भावनाएं रहती हैं वहां प्रेम और विश्वास स्वयमेव उत्पन्न होता है। जब कुछ व्यक्तियों के बीच प्रेम और विश्वास का सम्बन्ध बन जाता है तो वे आपस में मित्र कहलाते हैं और सच्चे मित्रों द्वारा एक दूसरे के प्रति बरते जाने वाले सद्व्यवहार से जितना अधिक सुख मिलता है, उसकी तुलना संसार के और किसी सुख से नहीं की जा सकती।

पति-पत्नी के बीच स्थिर रहने वाला प्रेम और विश्वास जीवन की सबसे बड़ी शक्ति सिद्ध होती है। जिनके जोड़े बिछुड़ गये हैं, वे जानते हैं कि यह आघात कितना असह्य रहा। जीवन सहचर के रहने पर जिन्दगी के दिन कितनी नीरसता और कठिनाई के साथ भार रूप कटते हैं, इसे कोई भुक्तभोगी ही जानते हैं। यदि उनका वह खोया हुआ साथी सारी धन सम्पदा, सुख सुविधा देकर भी वापिस प्राप्त हो सकता तो निश्चय असंख्य मनुष्य सर्वस्व देकर भी खोये साथी को प्राप्त करने को तैयार होते। परस्पर प्रेम और विश्वास से उत्पन्न होने वाला सन्तोष उल्लास और सुख इतना बड़ा है कि उसके लिए मनुष्य सर्वस्व निछावर कर सकता है। पति-पत्नी के वियोग में जीवन तक खो बैठना, सती हो जाना, मित्र का मित्र के लिए प्राणों की बाजी लगा देना यही प्रमाणित करता है कि सद्भावनाओं से प्राप्त सुख को किसी भी मूल्य पर छोड़ सकना कठिन होता है। परिवार रिश्तेदारी और मित्रता के सम्बन्धों में बंधे हुए लोग एक दूसरे के लिए इस गये गुजरे जमाने में भी बहुत कुछ करते रहते हैं।

कुटुम्ब, रिश्तेदारी, मैत्री या विवाह अपने आप में कोई गुण दोष नहीं रखते। निकट समीपता सद्भावना से उत्पन्न प्रेम ही आत्मीयता का कारण बनता है। अनेकों कुटुम्ब ऐसे हैं जहां पितापुत्र में, भाई-भाई में जानी दुश्मनी देखी जाती है। पति-पत्नी के बीच भी कई बार इतना बढ़ा-चढ़ा मनोमालिन्य देखा जाता है कि एक दूसरे के साथ रहने में दुःख ही अनुभव नहीं करते वरन् कई बार तो एक दूसरे की जान के ग्राह तक बन जाते हैं। रिश्तेदारों में भी कितनी ही जगह लोकाचार जितना ही दिखावटी व्यवहार पाया जाता है। मित्रों में भी अधिकांश मतलब के होते हैं। काम निकलते ही आंखें फेर लेते हैं। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि आन्तरिक सद्भावना के अभाव में जो पारस्परिक संबंध, मैत्री, कुटुम्ब विवाह रिश्तेदारी आदि के माध्यम बनते हैं वे भी अवास्तविक सिद्ध होते हैं। उसके विपरीत इन बंधनों में बंधे हुए लोग भी केवल मानवता और सज्जनता के नाम पर एक दूसरे के प्रति बहुत कुछ कर गुजरते हैं और इतना गहरा सद्व्यवहार रखते हैं कि उसकी तुलना में रिश्तेदारी आदि का सम्बन्ध बिलकुल तुच्छ सिद्ध होता है।

पारस्परिक सच्चे प्रेम से उत्पन्न होने वाला सुख निस्संदेह इस संसार का सबसे बड़ा वरदान है। वह जिसे भी प्राप्त होता है, निश्चय ही बड़भागी माना जायगा। यह सौभाग्य प्राप्त कर सकना या उससे वंचित रहना किसी भी मनुष्य के लिए उसके अपने हाथ की बात है। अपने भीतर यदि दूसरों के आत्मीयता और ममतापूर्ण सद्व्यवहार करने की प्रवृत्ति समुचित मात्रा में जाग्रत हो तो उसके फलस्वरूप जो भी व्यक्ति सम्पर्क में आवेगा मिठास और सन्तोष अनुभव करेगा। उसके अभाव में बनावटी शिष्टाचार आसानी से ताड़ लिया जा सकता है। उसका प्रभाव उतना ही सीमित होता है जितना कि उथले मन से किया गया था।

जो प्रेम सद्भाव दाम्पत्ति जीवन में, सन्तान के साथ, रिश्तेदारी या मैत्री में बरता जाता है उसे ही थोड़ा और विकसित करके अपने सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों के साथ व्यवहार में लाया जाय तो वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श पूरा करते हुये हम सच्चे अर्थों में उदार चरितकहलाने के अधिकारी बन सकेंगे। जो सुख, साहस और विश्वास एक मित्र को या एक सम्बन्धी से दूसरे सम्बन्धी को प्राप्त होता है वही सम्बन्ध यदि विकसित होकर सारे समाज में व्यापक बन सके तो एक मनुष्य के सम्पर्क से दूसरा मनुष्य असाधारण प्रसन्नता और प्रफुल्लता अनुभव करेगा। एकता और आत्मीयता के स्नेह सम्बन्ध जब लोगों की मनोभूमि में व्यापक रूप धारण कर रहे होंगे तो इसका प्रतिफल इस धरती पर साकार स्वर्ग के प्रत्यक्ष दर्शन के रूप में ही परिलक्षित हो सकता है। इससे सारी दुनिया सुख शान्ति से ओत प्रोत बन सकती है।

कानून शासन, समाज व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि मनुष्य परस्पर टकराने की स्थिति से बचें और स्नेह सद्भाव की परिस्थितियां बढ़ावें। संस्थाओं और संगठनों का निर्माण इसी दृष्टि से होता है। सभा-सम्मेलनों, प्रीतिभोज, गोष्ठी, आदि का आयोजन यही सोच कर होता है। कि एकत्रित लोगों के बीच सहयोग एवं निकटता के भाव उत्पन्न हों। सांस्कृतिक कार्यक्रम, क्लब, सहभोज, पार्टियों, सहभोजों आदि जाने क्या-क्या कार्यक्रम परस्पर प्रेम भाव पैदा करने के लिये सोचे और किये जाते हैं। नागरिकता और शिष्टाचार का शास्त्र ही इस भावना को लेकर विकसित हुआ है कि मनुष्य एक दूसरे के लिए हानिकारक क्षोभ उत्पन्न करने वाले सिद्ध हों वरन् परस्पर स्नेह, सहयोग, उदारता एवं सज्जनता का व्यवहार करते हुए उपयोगी और सहायक बन कर रहें। यह प्रयत्न जब जितने अंशों में सफल होते हैं तब उनका प्रभाव समाज की उन्नति एवं व्यक्तिगत विकास के रूप में तुरन्त दिखाई देने लगता है।

आम शिकायत यह सुनी जाती है कि लोग अपने नागरिक कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देते, व्यक्ति का समाज के प्रति क्या उत्तरदायित्व है और उसे किस प्रकार निवाहा जाना चाहिए यह नहीं सोचते। सड़कों पर बांई ओर चलने, गलियों में घर का कूड़ा फेंक देने, बच्चों को नालियों पर टट्टी कराने, रास्ते में केले, नारंगी, आलू के छिलके फेंक देने, धर्मशाला मुसाफिर खाना आदि सार्वजनिक स्थानों में जहां-तहां गंदगी फैला देने, रेलों में अनुचित परिणाम में स्थान घेरकर बैठने, वचन के अनुसार नियत समय पर उपस्थित रहने, वस्तुएं लौटाने का वायदा पूरा करने, अशिष्टता बरतने, आदि बातें इस बात की प्रतीक मानी जाती हैं कि नागरिक सभ्यता की मर्यादाओं को तोड़ा जा रहा है। उठने, बैठने, बोलने, खाने, नहाने, कपड़ा पहनने, कुल्ला करने आदि में लोग उच्छृंखलता बरतते हैं। असभ्य आचरण करने में गर्व अनुभव करते हैं। इन बुराइयों को दूर करने के लिए नागरिक शिक्षा और शिष्टाचार का प्रचलन होना आवश्यक अनुभव किया जाने लगा है।

सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना मनुष्यत्व का और उच्छृंखलता बरता पशुता का चिह्न माना गया है। इसलिए यह उचित ही है कि मानवीय उत्तरदायित्वों की रक्षा करने के लिए दूसरों का ध्यान रखते हुए अपने आचरण को ऐसा रखा जाय जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में असुविधाजनक हो। शिष्टाचार सिखाने की कई पुस्तकें भी मिलती हैं और अच्छे लोगों के आचरणों को देखकर एवं उनके प्रवचनों को सुनकर भी इसे सीखा जा सकता है। इस प्रकार सद्व्यवहार को एक अच्छी आदत के रूप में एक सीमा तक अपनाया जाना सरल हो सकता है। पर वास्तविक नागरिकता एवं नैतिकता आध्यात्मिक आदर्शों पर ही अवलम्बित रहती है। मनोभूमि में यदि दूसरों के प्रति सच्चा आदर सच्चा स्नेह, सच्चा सौजन्य हो तो ठगों धूर्तों और चापलूसों जैसी बनावट कुछ अधिक काम की सिद्ध हो सकेगी।

चतुरता एवं कला के रूप में वेश्याओं से लेकर ठगों तक और चाटुकारों से लेकर धूर्तों तक सभी इस सम्बन्ध में निष्णात होते हैं। दूसरों पर अपनी सज्जनता और मधुरता प्रकट करके उन्हें कैसे उल्लू बनाया जा सकता और अपना मतलब कैसे गांठा जा सकता है इस विद्या को लोग अब सुविकसित कला का रूप देते जा रहे हैं। विदेशों में तो इस सम्बन्ध की ढेरों पुस्तकें भी छप रही हैं जो उसी मनोवृत्ति के लोगों में लाखों की संख्या में हाथों हाथ बिक भी जाती हैं। जेबकटी, उठाईगीरी की तरह यह मधुरता की चतुरता भी अब समझदार लोगों में तेजी से फल रही है। लाठी मारकर छीन लेने या गाली घूंसा से डराकर काम निकालने की विधि अब बदनाम गुण्डे, बदमाशों के हिस्से में रह गई है।

नागरिकता का अर्थ बगुलाभक्ति का वाह्य आवरण ओढ़ लेना नहीं वरन् हर किसी को अपनी आत्मा के समान प्रिय समझ कर उनकी कठिनाइयों को अपने कष्टों के समान और उनकी सुविधाओं को अपने सुखों के समान ‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’’ का आचरण करना है। हम जिस प्रकार के व्यवहार की आशा दूसरों से करते हैं वैसा ही आचरण औरों के साथ करना चाहिये। हर बात में यही सोचना चाहिए कि यदि हम दूसरे के स्थिति में होते और दूसरा हमारी स्थिति में होता तो हम उससे क्या आशा करते। और उस आशा के पूरा होने पर कितने खिन्न होते। इस कसौटी पर हमें अपने प्रत्येक व्यवहार को परखना चाहिए और जो आचरण अनुपयुक्त लगे उसे छोड़ देना चाहिये।

सभ्यता का अर्थ हैसज्जनता। प्रेम और आत्मीयता की दृष्टि जितनी उदात्त होगी उतनी ही सज्जनता व्यवहार में सकेगी, स्वार्थी कंजूस, लोभी और निष्ठुर हृदय व्यक्ति का कला की तरह दूसरों को प्रभावित करने के लिए भाईचारा बरत लेना आसान है, पर जिस सज्जनता के कारण व्यक्ति कुछ घाटे में रहता है, थोड़ा कष्ट भी उठाता है वही उन्हीं के लिए संभव है जिन्होंने आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखकर, परमार्थ, सेवा एवं उदारता को एक सर्वश्रेष्ठ मानवीय कर्तव्य के रूप में स्वीकार किया हुआ है तथा लोकहित को ध्यान में रखकर जो अपनी सुख सुविधाओं में कमी कर सकता है। दूसरों के प्रति उदार और अपने प्रति बने बिना सज्जनता का आचरण बन पड़ना संभव नहीं है जिसके लिए अपनी सुख सुविधाएं ही सर्वोपरि हैं वह क्यों किसी की कठिनाई या सुविधा का विचार करेगा? स्वार्थ को घटाकर ही परमार्थ की बात बनती है। नागरिक सभ्यता का वास्तविक आधार यही है कि मनुष्य अपनेपन का दायरा बढ़ा करमानव मात्र तकप्राणि मात्र तक व्यापक बनादे। सब के सुख में अपना सुख समझ कर प्रसन्नता का और दूसरों के दुख में दुखी होकर जो करुणा का अनुभव कर सकता है वस्तुतः वही मनुष्यता का उत्तरदायित्व अनुभव कर सकेगा और उसी के द्वारा सज्जनता एवं नागरिकता, का शिष्टाचार एवं भलमनसाहत का सच्चा व्यवहार बन पड़ना संभव हो सकेगा।

मानव जाति में चल रहे समस्त संघर्षों, क्लेशों, कलहों, द्वेष, दुर्भावों का कारण एक ही हैसंकीर्ण स्वार्थपरता, अपनत्व और पापों की पृष्ठभूमि भी यही है। घर और परिवारों में मनोमालिन्य इसी कारण रहता है। मुकदमेफौजदारी, तनाव और दुश्मनी का आधार यही है। फूट और विघटन इसी से पनपते हैं। प्रेम और मैत्री का दर्शन दुर्लभ का निमित्त यह एक ही है। मानवीय सभ्यता के स्थान पर पशुता और पैशाचिकता की प्रवृत्तियां बढ़ते जाने का इसके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं। आनंद और उल्लास इस संसार की किसी भी वस्तु में नहीं, यदि वह कहीं है तो एक ही स्थान पर हैप्रेम और आत्मीयता में। जो भी पदार्थ या व्यक्ति हमारे प्रेम एवं ममत्व के दायरे में जाता है वही प्रिय लगने लगता है। यदि कोई चाहता हो कि इस संसार में सर्वत्र आनन्द और प्रसन्नता का ही वातावरण दृष्टिगोचर हो तो उसके लिए एक ही मार्ग है कि अपनी संकीर्णता को उदारता में स्वार्थ को परमार्थ में परिणित करे।

इस संसार में सद्भाव और सौजन्य बढ़े अपराधों और पापों की सत्ता घटे, इसका एक ही आधार हो सकता हैसज्जनता की अभिव्यक्ति सच्ची नागरिकता और वास्तविक नैतिकता इसी को कहते हैं, विश्व शान्ति की समस्या का हल इसी आधार पर संभव है। मनुष्य-मनुष्य के बीच घटते हुए सद्भाव को रोकने के लिए, पारस्परिक सद्भाव की अभिवृद्धि से प्राप्त होने वाले आनन्द को बढ़ाने के लिए, आत्मीयता को व्यापक बनाया जाना आवश्यक है। मानवीय सद्गुण ही तो बाह्य जीवन में शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न किया करते हैं।


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