आज समाज में चारों ओर अन्याय, अनीति तथा भ्रष्टाचार का जो तांडव दिखाई दे रहा है और पिस-पिस कर जनता चकनाचूर हुई जा रही है, उसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व उस गलत मापदण्ड पर भी है जिसके कि आधार पर मनुष्यों का मूल्यांकन किया जा रहा है।
लोगों ने देखा कि कितनी विशाल कोठी है। चांदी की तरह चमक रही है। खिड़की, दरवाजे और रोशनदान रंगीन कांच से जड़े हुए हैं। रेशमी परदे झिलमिला रहे हैं। मूनलाइट बल्ब जल रहे हैं, रेडियो से गायन-वादन के स्वर गूंज रहे हैं। आंखें चकाचौंध हो गईं, कान लालायित हो उठे। मन कह उठा साक्षात् स्वर्ग का निवास है। बड़ा भाग्यवान है इसका मालिक! कितना बड़ा आदमी होगा? लाखों-करोड़ों होंगे इसके पास। अनायास श्रद्धा जागी और उस अनजान धनवान् की ओर झुक गई। उसका बड़े आदमी के रूप में मूल्यांकन हो गया। वह चर्चा और प्रशंसा का पात्र बन गया और कोई अवसर आने पर पूजा-प्रतिष्ठा के रूप में उसका मूल्य व्यक्त कर दिया जाता है।
धन-प्रतिष्ठा का विषय रहता रहा है इसलिए कि यह परिश्रम एवं पुरुषार्थ का साक्षी होता था। प्राचीन समय में जब धन को प्रतिष्ठा के विषयों में स्थान दिया गया था। लोग यह कल्पना तक भी न कर सकते थे कि इसका उपार्जन अनीति के मार्ग से भी किया जा सकता है। अनुचित तथा अनीति के पैसे और पैसे वाले से लोग ऐसे डरते और घृणा किया करते थे जैसे विषैले सर्प से। कोई किसी का अन्न पाने, दान या सहायता लेने में हजार प्रकार से सोच-विचार किया करते थे। उसी की सेवा अथवा सहायता स्वीकार करते थे जिसकी कमाई के विषय में यह विश्वास रहता था कि प्रत्यक्ष तो क्या परोक्ष रूप में भी इसका पैसा अन्याय अथवा अनीति से दूषित नहीं हुआ है। यदि इस प्रकार का सन्देह भी हो जाता था तो समाज का बच्चा–बच्चा लक्षाधिपति होने पर भी उस धनवान् को नीची नजर से देखा करता था, जिससे उसकी धनाढ्यता ही उसके लिए काल-फांस की तरह दुःख दायिनी हो जाती थी।
समाज द्वारा इस कठोर मूल्यांकन से अनुशासित तब के धनवान् अपने व्यापार एवं व्यवसाय में पराकाष्ठा तक पवित्र एवं सत्यपरायण रहकर विशुद्ध परिश्रम एवं पुरुषार्थ से उस स्थिति तक पहुंचकर प्रतिष्ठा के पात्र बनते थे। साथ ही यह विशुद्धता भी तब तक मान्यता नहीं पाती थी जब तक उसका पवित्र धन पवित्र एवं पुनीत कामों में व्यय नहीं होता था। इस प्रकार आय-व्यय दोनों की समान पवित्रता से तुलकर ही कोई धनवान् धन के आधार पर उसी प्रकार समाज में मान्यता एवं श्रद्धा के भाजन बन पाते थे जैसे जन-सेवा के अन्य कार्य करके कोई सत्पुरुष।
पहले जहां धन की मात्रा का कोई मूल्य नहीं था। मूल्य था उसके आय-व्यय की रीति-नीति का। वहां आज आय-व्यय की रीति-नीति का तो कोई मूल्य रहा नहीं। धन की मात्रा को ही श्रेष्ठत्व का मापदण्ड मान लिया गया है। स्थिति बिलकुल विपरीत हो गई है, इसलिए उसका प्रभाव एवं परिणाम भी उल्टा हो गया है।
लोगों ने कोठी, कार, बिजली, पंखा, रेडियो, नौकर, चाकर, हास-विलास और मोद-प्रमोद की चहल-पहल देखी नहीं कि बड़ा आदमी मान लिया और मान सम्मान देना शुरू कर दिया। मान-सम्मान जैसी बहुमूल्य चीज और श्रद्धा जैसी दुर्बल वस्तु जोकि त्याग, तपस्या, साधना, सेवा, श्रम और पुरुषार्थ के आधार पर इतनी सस्ती और आसानी से मिल सकती है तब किसी ने क्या भांग खाई है कि वह प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने के लिए संयम तथा साधना करते फिरे, सेवा और त्याग का प्रमाण देता घूमे, क्यों न किसी प्रकार से धन बटोरकर उसे प्राप्त किया जाये! जनता द्वारा धन के प्रभाव में आकर दी जाने वाली इस सस्ती सामाजिक प्रतिष्ठा ने लोकप्रियता के प्यासे लोगों को अन्ध आर्थिकता में खो दिया है।
यही नहीं कि लोग किसी का धन-वैभव देखकर ही प्रभावित हो जाते और उससे प्रतिष्ठापूर्ण दृष्टि से देखने लगते हों, फिर चाहे उसका वह धन उनके अथवा समाज के किसी हित में आता हो या न आता हो—प्रतिष्ठा का स्तर इतना गिर गया है, सम्मान इतना सस्ता हो गया है कि लोग धन के संचय को ही नहीं, अपव्यय तक को श्रद्धा दृष्टि से देखते हैं। नाच रंग में डूबा रहना, शराब-खोरी और फैशनपरस्ती में लगा रहना, ब्याह-शादियों में धूम-धड़ाका करते रहना, बड़ी-बड़ी दावतों और जश्न से पैसा पानी की तरह बहाना तक लोगों के लिए श्रद्धास्पद बन जाता है। लोग उसे उदार, बड़ा आदमी, शाहखर्च कहकर सम्मान करते और रास्ता देते हैं। जनता की इस सस्ती श्रद्धा और अस्तरीय मापदण्ड ने भी लोगों की अन्ध आर्थिकता बढ़ाने में बहुत कुछ योग दिया है।
हर बुद्धिमान् व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है कि वह किसी के वैभव विलास से प्रभावित होकर उसका मूल्यांकन करने से पूर्व यह अवश्य देख ले कि इस सम्पत्ति का आधार नीतिपूर्ण रहा है या नहीं? उसे उसके साधन, उपायों तथा मुक्तियों की पवित्रता को खोज कर लेना आवश्यक है जिससे कि गलत कामों के मूल्यांकन का अपराध न हो जाये।
जब यह बात स्पष्ट दिखाई देती है कि अमुक व्यक्ति छल, कपट, छीना-झपटी, चोर बाजारी, मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार को आधार बना कर कोठी पर कोठी बनाये जा रहा है, बैंक बैलेंस और कारोबार बढ़ाया जा रहा है तब क्या उसे अधिकार है कि वह हमारी प्रशंसा अथवा सम्मान की भावना को पाये और क्या हमें ही अधिकार है कि हम उसे वह सब कुछ दें! यदि हम दोनों में से कोई भी ऐसा करता है तो अनधिकार चेष्टा करता है, समाज में अन्ध अर्थवाद को बढ़ावा देकर भ्रष्टाचार फैलाने में सहयोग करता है, जो कि रिश्वत रूप से सामाजिक अपराध और आध्यात्मिक पाप है। आज यदि लोग धनाढ्यता का मूल्यांकन कब करना छोड़कर साधनों और उसके उपायों पर ध्यान रखने लगें तो समाज में पैसे के लिए फैला हुआ भ्रष्टाचार बहुत कम हो सकता है। अनुचित साधना के कारण यदि धनियों का मूल्यांकन कम हो जाये, उनका वह अन्याय-उपार्जित वैभव घृणा एवं तिरस्कार का प्रसंग बन जाये तो निश्चय ही लोग आवश्यकता से अधिक धनवान् बनने की लिप्सा छोड़कर सम्मान-रक्षा के लिये कमाई के उचित एवं उपयुक्त उपाय अपनाने के लिए विवश हो जायें।
आर्थिक क्षेत्र की तरह धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में भी जनता के मूल्यांकन की कसौटी खोटी हो गई है। जिसे भी रंगे कपड़े पहने, जटा रखाये, चन्दन लगाये और भस्म रमाये देख लिया उसी को महात्मा, सन्त अथवा साधु समझ लिया और पूजा-प्रसाद चढ़ाने लगे। सेवा करने और वरदान की आशा लगाने लगे। जिसको भी धार्मिक शब्दावली में वाचालता करते सुन लिया विद्वान, दार्शनिक तथा तत्वज्ञाता मान लिया जिसे भी हाथ उठाये, पैर गड़ाये, शरीर तपाते, पानी में खड़े या सूर्य से आंख मिलाये देख लिया उसे ही सिद्ध, चमत्कारी, मुक्त, वीताराग, गुणातीत आदि न जाने क्या-क्या समझकर पूजा-प्रतिष्ठा करने लगे।
जनता की इस सस्ती श्रद्धा में आध्यात्मिक क्षेत्र में रंगे सियारों की बाढ़ बुला दी है। जब ढोंग, आडम्बर तथा बहरूपियापन करके तपस्वियों तथा सिद्धों जैसी पूजा पाई जा सकती है, स्थान पर बैठे बैठे पुजापा प्राप्त किया जा सकता है, तब क्या जरूरत है कि त्याग-तपस्या का असिधारा के समान तीखा मार्ग अपना जाये।
पता नहीं श्रद्धा जैसी बहुमूल्य संपत्ति को लोग बिना परखे पहचाने ढोंगियों तथा आडम्बरियों पर क्यों लुटाते, फेंकते हैं। वे यह क्यों सोचने-समझने की कोशिश नहीं करते कि अध्यात्म साधना और उसकी सिद्धियां यदि इतनी ही सरल और सस्ती होतीं तो प्राचीन ऋषि-मुनि आत्म-परिष्कार, चिन्तन-मनन तथा स्वाध्याय में अपना जीवन क्यों खपा देते। आध्यात्मिक सिद्धियों के धनी क्या इस प्रकार गली-गली पैसा और प्रतिष्ठा मांगते घूमते हैं। क्या यह शंका और सन्देह का विषय नहीं है कि जो दूसरों को धन, वैभव, सम्पत्ति सन्तान का वरदान देने की क्षमता रखता है वह क्यों स्वयं दरिद्र, भिखारी तथा पैसे-पैसे के लिए जान दे रहा है। क्या दूसरों को लाखों का वरदान देकर दो पैसे मांग ले जाने वाला सिद्ध हो सकता है, उसकी पूजा की जानी चाहिए। इस मान्यता में कौन-सी तुक है—यह बात समझ में नहीं आती। झटपटे शब्दों का उच्चारण और विलक्षण क्रिया-प्रतिक्रिया के साथ भूल भागने वाले, रोग और दोष दूर करने वाले यदि पूजा-प्रतिष्ठा के अधिकारी हो सकते हैं तो क्या कारण है कि विचित्र अनबूझ भाषा बोलने और असंगत काम करने वाले पागल पूजा के अधिकारी नहीं हैं, ऐसा किस प्रकार कहा जा सकता है।
भाषण सुनकर भक्त हो जाने और शब्द सुनकर ही विश्वास कर लेने की सार्वजनिक दुर्बलताएं समाज में नित्य नये वाक्-वञ्चकों को जन्म देती और आगे बढ़ती रहती हैं। शब्द सुनकर ही किसी के प्रभाव में आ जाना वह प्रोत्साहन एवं प्रेरणा है जिससे लोग व्यक्तिगत आचरण की उपेक्षा कर वाक्पटुता और अभ्यास करके सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठा पा लेते हैं। जनता पर यदि महत्व का मापदण्ड होता तो निश्चय ही वाक् वंचकों की बुद्धि पर अंकुश लग जाता और समाज परिगत-प्रवृत्ति के धर्म-ध्वजियों तथा धन्धकों से होने वाली हानियों से बच जाता और धार्मिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की बाढ़ पर रोक हो जाती। किन्तु खेद है कि जनता की अन्ध श्रद्धा अन्धविश्वास और मूल्यांकन की खोटी कसौटी ही हित-अनहित कर निदर्शन नहीं करने देती।
यह बात बड़ी सीमा तक सत्य मानी जा सकती है कि यदि जनता आज बुद्धिमानी से काम ले और मूल्यांकन के विषय में अपनी श्रद्धा एवं प्रतिष्ठा का मापदण्ड ऊंचा करे, तथा सही कसौटी को काम में लाये तो उक्त महान् एवं व्यापक क्षेत्रों में से भ्रष्टाचार बहुत अंशों तक दूर हो जाये। अर्थ तथा धर्म के क्षेत्र में देखने, परखने और मूल्यांकन करने का सही मापदण्ड साधन और सच्ची कसौटी व्यक्ति के कथन तथा आचरण की एकरूपता ही है। जिस दिन जनता इस सत्य को हृदयंगम कर तटस्थ आचरण करने लगेगी। उसी दिन से सुधार का शुभारम्भ प्रारम्भ हो जायेगा।