दिव्य शक्तियों का उद्भव प्राणशक्ति से

गायत्री का देवता सविता

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गायत्री उपासना प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य धर्म कर्त्तव्य माना गया है। इस उपासना से अर्जित प्राण की मात्रा और उसके व्यवहारिक जीवन के उपयोग के आधार पर ही जाति व्यवस्था तक का निर्धारण करने की परम्परा रही है। ब्राह्मी चेतना की समीपता, धारणा, विकास और ब्रह्मचर्य के विस्तारण के कारण एक वर्ग को ब्राह्मण कहा गया है। ब्राह्मण का तात्विक अर्थ किसी ब्राह्मण माता-पिता से पैदा हुआ नहीं अपितु ब्राह्मी शक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व माना गया है। कल्पना की गई है कि ऐसे व्यक्तियों में ब्रह्मतेज की बहुलता होती है। यह ब्रह्मतेज और कुछ नहीं गायत्री उपासना से अर्जित प्रचुर परिमाण में प्राण और उसके फलस्वरूप विकसित हुई मेधा एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा ही है। यह सुनिश्चित है कि ऐसे व्यक्ति की भावनायें अत्यधिक आस्तिक, आस्थावादी, विशाल, उदार और परमार्थ परायण होंगी। वह निरन्तर धर्म कृत्यों द्वारा मनुष्य जाति को ऊर्ध्वगामी चिन्तन और आदर्श नेतृत्व की ओर मोड़े रहता है इसलिये वह समाज का शिरोमणि, श्रद्धास्पद और सम्मानास्पद ठहराया गया। अगली श्रेणियां क्रमशः इस तत्व की कमी और पार्थिव जीवन के प्रति क्रमशः अधिक आसक्ति के अनुसार निर्धारित हुई हैं, पर तीनों वर्णों के लिये गायत्री उपासना को अनिवार्य माना गया। जो सामाजिक कर्तव्यों का उपेक्षक और घोर सांसारिक हुआ उसे अन्त्यज कहा गया। यह विशुद्ध वैज्ञानिक समाज व्यवस्था थी। आज भले ही उसका स्वरूप विकृत क्यों न हो गया हो।

सामान्यतः यह एकाएक समझ में आने वाली बात नहीं है कि भला मनुष्य की तरह विचारशील चेतन सत्ता बनाने वाली प्राण सत्ता इतनी व्यापक कैसे हो सकती है कि वह वायु मण्डल में घुला हुआ हो। किन्तु विज्ञान ने इस धारणा को पूरी तरह बुद्धि संगत ठहरा दिया है।

विद्युत वैज्ञानिकों की दृष्टि में पृथ्वी एक चुम्बकीय शक्ति से भरा-पूरा गोला है। रासायनिक पदार्थों का अस्तित्व अवश्य है पर उनकी क्षमता, कार्य प्रणाली परिवर्तन पद्धति, सम्मिश्रण से रूपान्तरण की प्रक्रिया जैसी हलचलों के पीछे वह विद्युत शक्ति ही काम करती है जिसे प्रत्येक पदार्थ का प्राण कहना चाहिये। यदि इसका अपहरण कर लिया जाय तो वस्तु अपनी मौलिक विशेषतायें खो बैठेगी और मृत तुल्य बन जायगी।

यह तथ्य न केवल वस्तुओं के सम्बन्ध में है अपितु जीवित प्राणियों के सम्बन्ध में भी है। जीवन और मृत्यु के बीज अन्तर करने वाले तत्व को अध्यात्म की भाषा में ‘प्राण’ कहा जाता है। भौतिक विज्ञानी उसे बिजली की ही एक किस्म मानते हैं।

चुम्बक और विद्युत यों प्रत्यक्षतः दो पृथक-पृथक सत्तायें हैं पर वे परस्पर अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध हैं और समयानुसार एक धारा का दूसरी में परिवर्तन होता रहता है। यदि किसी ‘सरकिट’ का चुम्बकीय क्षेत्र लगातार बदलते रहा जाय तो बिजली पैदा हो जायेगी इसी प्रकार लोहे के टुकड़े पर लपेटे हुए तार में से विद्युतधारा प्रवाहित की जाय तो वह चुम्बकीय शक्ति सम्पन्न बन जायेगी।

पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक चुम्बकीय वातावरण फैला हुआ है। अकेला गुरुत्वाकर्षण कार्य ही नहीं उससे और भी कितने ही प्रयोजन पूरे होते हैं। यह चुम्बकत्व आखिर आता कहां से है? उसका उद्गम स्रोत कहां है? यह पता लगाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह कोई बाहरी अनुदान नहीं वरन् पृथ्वी के गहन अन्तराल से निकलने वाला शक्ति प्रवाह है।

हिन्दू शास्त्रों में, हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में, जापानी परम्पराओं में इस बात का प्रतिपादन है कि सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर करके सोना चाहिये। इसके औचित्य की रीचेन वैक, डूरविले, क्लोरिक, अब्रावस, रेगनाल्ट लिंप्रिस, मुलर प्रभृति अनेक मनः शास्त्रियों ने लम्बी खोज की और उसे सही बताया। उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है कि सही और गहरी नींद के लिये उत्तर की ओर उत्तरी ध्रुव की ओर मस्तिष्कीय चुम्बक का रुख रहना चाहिये। उत्तर को सिर करके सोना ही ठीक है।

डा. मौरिनस्को ने अपने प्रयोगों में चुम्बकीय उपकरण द्वारा तीसरी वोट्रकिल को घन ध्रुवीण करके कृत्रिम निद्रा उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। मस्तिष्क को अचेतन करने वाले, इन्जेक्शनों की तरह ही इस प्रयोग का प्रभाव सम्भव पाया गया। लोहे के पलंगों की अपेक्षा लकड़ी की चारपाई की, लोहे की छड़ी या टीन की चादर से बने मकानों की अपेक्षा लकड़ी मिट्टी या फूंस के पटाव की अधिक उपयोगिता पाई गई। स्वास्थ्य की दृष्टि से उन्हें अधिक उपयुक्त इसलिये पाया गया कि ध्रुवीय विद्युत संचार का, आकाशीय विद्युत, फेराडेन्डेज का, अनावश्यक संग्रह शरीर में न होने पावे। अनावश्यक संग्रह हर चीज का अहितकर होता है। चुम्बकत्व की अनावश्यक मात्रा शरीर और मस्तिष्क में ठूंसने वाले लौह उपकरण इस दृष्टि से यदि अनुपयुक्त माने गये हैं तो यह तर्क संगत ही हैं।

पृथ्वी दृश्य रूप से मिट्टी, पानी, खनिज वनस्पति आदि का समन्वय दीखती है या सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर वह एक विशाल चुंबक ही प्रतीत होती है। मानव शरीर भी यों रक्त मांस अस्थि, त्वचा आदि का समूह दीखता है पर तात्विक दृष्टि से उसे भी एक चलता फिरता सजीव चुम्बक ही कहना चाहिये।

शरीर का प्रत्येक कोषाणु एक विद्युत इकाई है। जिस तरह पौधे अपने पत्तों द्वारा आकाश से सांस वायु ग्रहण करते हैं उसी प्रकार यह कोषाणु आकाशीय वायु मण्डल से ‘फ्रीक्वेन्सी आवृत्ति’ खींचते हैं। उन्हीं के आधार पर वे अपना वाइब्रेट (कम्पन्न) एवं असीलेट (दोलन) क्रम चलाते हैं।

स्विट्जरलैंड के डॉक्टर फिलिटस आरोलस पेरा सेलसन्स ने कितनी ही बीमारियों का कारण शरीरगत चुम्बकत्व की विकृति एवं विश्रृंखलता को सिद्ध किया है। ऐसे रोग जिनका कारण ठीक से समझ नहीं पा रहे थे और चिकित्सा के अनेक प्रयोगों में असफल रहे थे। डा. फिलिप्स ने रुग्ण केन्द्र मूलों में चुम्बक की आवश्यक मात्रा पहुंचा कर उन उन रोगों से मुक्ति दिलाई।

चुम्बकत्व का उत्तरी ध्रुव जीवाणु क्रिया को नियन्त्रित करता है और दक्षिणी ध्रुव शक्ति पोषण की आवश्यकता पूरी करता है। अस्वस्थता को इन दो वर्गों में वर्गीकृत करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चुम्बक की दोनों धाराओं में से किसका, कहां और कितना उपयोग किया जाय?

‘मेडीकल वर्ल्ड न्यूज’ पत्रिका में शिकागो की वायो मैगनेटिक रिसर्च फाउण्डेशन द्वारा किये गये इस सन्दर्भ के अनुसन्धानों का विस्तृत विवरण छपा है। हंगरी निवासी डा. जीन बारबेथी के प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकला है कि विषाणुओं से निपटने और कोषाणुओं की अशक्तता को दूर करने में चुम्बक के प्रयोग आश्चर्यजनक रीति से सफल हो रहे हैं। इस चिकित्सा पद्धति का स्वतन्त्र नामकरण किया गया है, ‘वायोमैगनेटिक्स’।

मस्तिष्कीय विकृतियों में साधारणतया औषधियों का उपचार कुछ विशेष कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। मूढ़ता, मन्द बुद्धि, आवेश, आदतों की जकड़न से लेकर मृगी और उन्मान तक के औषधि उपचार यों होते तो रहते हैं पर उनका प्रभाव अति स्वल्प ही देखा जाता है। इस क्षेत्र में जो थोड़ी बहुत सफलता मिली है उसका श्रेय विद्युत चिकित्सा को ही है। बिजली के झटके देकर अक्सर सनक और उन्माद का इलाज मानसिक अस्पतालों में किया जाता है और उनमें सफलता भी मिलती है। डा. के. हिलाल ने मस्तिष्कीय मूढ़ता और विकारग्रस्तता के लिए चुम्बक का प्रयोग करके यह पाया कि इस माध्यम से उन कोषों को अधिक सुविधापूर्वक स्पर्श किया जा सकता है जो इस प्रकार की रुग्णता के लिये उत्तरदायी हैं।

जीवन सत्ता का सूर्य से सम्बन्ध

शक्ति तत्वों के बारे में वैज्ञानिक जानकारियां जितनी बढ़ती जा रही हैं जीवन और प्राण से सम्बन्धित पाश्चात्य मान्यतायें उतनी ही तेजी से गलती और बदलती जा रही हैं, भारतीय तत्व-दर्शन की सत्यता की सम्भावनाओं में उतनी ही तीव्र वृद्धि होती जा रही है साधनाओं की, योगाभ्यास की कठिन प्रक्रियाओं को पार कर भारतीय तत्वदर्शियों ने जो खोजें की हैं पाश्चात्य विज्ञान उधर ही बढ़ रहा है। प्रस्तुत लेख में पाश्चात्य विज्ञान द्वारा प्रमाणित मानवजीवन के विद्युत चुम्बकीय स्वरूप का विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे पाठकों को जीवनशक्ति, प्राणतत्व की कल्पना का एक नया रूप मिलेगा।

एक बार डा. रेगनाल्ट एक रोगी की परिचर्या कर रहे थे, मानसिक तनाव के उस बीमार को वे जब-जब पूर्व पश्चिम दिशा की ओर सुलाते ‘औसिलोमीटर’ की सहायता से पता चलता कि कष्ट बढ़ गया है जबकि चारपाई की दिशा उत्तर-दक्षिण करते तत्काल लाभ मिलता। उन्होंने बताया यह घटना इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य का पृथ्वी की चुम्बकीय धाराओं से सम्बन्ध है। डा. रेगनाल्ट की यह खोज एक दिन विकासवाद और मनुष्य के अमीबा जैसे एक कोशीय जीव से उत्पत्ति की बात को खण्डित कर दें तो कुछ आश्चर्य नहीं। प्राण या जीवन शक्ति एक सनातन तत्व है जो विस्फोट के कारण ब्रह्माण्ड के किसी केन्द्र पिंड से बहता हुआ सारे विश्व में नाना प्रकार की रचनाओं के रूप में व्यक्त हो रहा है।

कुत्ते, बिल्लियां, बैल एक बार जिस रास्ते को देख लेते हैं दुबारा उधर कभी जाना हो तो वे उधर से आसानी से लौट आते। इनके सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वे प्राकृतिक चिन्हों की मदद से यात्रायें कर लेते होंगे पर कुछ पक्षी, मछलियां हजारों मील लम्बी यात्रायें करती हैं, रात में करती हैं, विभिन्न ऋतुओं में करती हैं तो भी नियत स्थानों में ही पहुंचती हैं यह एक आश्चर्य है कि वे बिना किसी दिशा निर्देश के अन्तवृत्ति द्वारा किस प्रकार इतनी लम्बी यात्रायें समाप्त कर लेते हैं।

योरोपीय सारस ठण्डक के दिनों में योरोप से उड़ती हैं और अफ्रीका जा पहुंचती हैं। काले सिर वाले कौए (हूडेड क्रो) अबाबीलें 6000 मील यात्रायें करके एक स्थान से दूसरे स्थानों तक पहुंच जाती हैं। उन्हें कोई दिशा ज्ञान न होने पर भी व नियत स्थानों में कैसे पहुंच जाते हैं यह आश्चर्य का विषय था। यात्रायें अधिकांश रात में होती हैं। तारों का कोई ज्ञान हो, पक्षियों के बारे में ऐसे भी कोई तथ्य प्रकट नहीं अतएव आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है। जीवशास्त्रियों ने खोज की और पाया कि रहस्य कुछ भी हो पर एक बात निश्चित रूप से साफ हो जाती है वह यह कि सभी पक्षी पृथ्वी की चुम्बकीय रेखाओं के समानान्तर प्रवास करते हैं प्रयोगों से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। एक बार कुछ कौओं को पकड़कर उनके शरीर में कुछ चिन्ह बांध दिये गये। यह कौए उत्तर पूर्व दिशा में प्रवास के आदी थे। इस बार उन्हें प्रशा (जर्मनी) में पकड़ा गया और वहां से 500 मील पश्चिम ले जाकर कील नहर के किनारे छोड़ा गया। इस बार उन्होंने उड़ान भरी और स्कैंडेनेविया में जाकर उतरे। पहली उड़ान वाले मार्ग से इस मार्ग की तुलना की गई तो स्पष्ट ज्ञात हो गया कि यह यात्रा पथ पहले प्रवाह पथ से ठीक समानान्तर और पृथ्वी की चुम्बकीय रेखा के भी ठीक समानान्तर था। ह्वेल और सालोमन मछलियों के प्रयोग से भी यही बात सामने आई और उससे एक बात पूर्ण स्पष्ट हो गई कि जीव-जन्तुओं का जीवन चुम्बक-शक्ति से प्रभावित और प्रेरित होता है। इन प्रयोगों में शियर-वाटप (जल में तैरने वाले पक्षी) का उदाहरण सर्वाधिक आश्चर्य जनक था। इसे अटलांटिक महासागर के एक किनारे पर छोड़ा गया वहां से वे 3050 मील लम्बी यात्रा सम्पन्न कर स्कोरवोम द्वीप के अपने निवास स्थान पर जा पहुंचे।

जीव-जगत चुम्बकीय शक्ति से बहुत अधिक प्रभावित पाया जाता है। टरमाइट कीड़ा अपना घर ठीक पृथ्वी चुम्बकीय रेखाओं के समानान्तर बनाता है। पृथ्वी पर कभी चुम्बकीय आंधियां आती हैं तो दीमक, चींटियां तक विक्षुब्ध हो उठती हैं। यहां तक कि जीव कोशों (लाइफ सेल्स) का सूत्र विभाजन भी अपनी प्रारम्भिक और मध्य अवस्था में चुम्बकीय शक्ति से प्रभावित होता है। क्रामोजोम हमेशा सेलों के ध्रुवों की ओर ही चलते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि जीवनी-शक्ति विद्युत चुम्बकीय क्षमता से ओत-प्रोत अथवा वैसी ही कोई शक्ति है।

जीव जन्तु ही नहीं मनुष्यों के जीवन भी चुम्बकीय शक्ति से प्रभावित होते हैं। 1845 में डा. रीचेनबैक ने अनेक लोगों पर उनके स्वप्नों का अध्ययन कर बताया कि पूर्व की ओर सिर और पश्चिम की ओर पैर करके सोने में बड़ी बेचैनी होती है। जबकि उत्तर-दक्षिण सोने में सुखद अनुभूतियां होती हैं। डा. क्लैरिक तथा डुरविले के प्रयोग भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं और बताते हैं कि स्वप्नों में दिखाई देने वाले दृश्यों का सम्बन्ध कैसे भी हो चुम्बकीय शक्ति से ही है। डा. रेगनाल्ट, अम्ब्रास मुलर, लैंप्रिस आदि ने भी उक्त मान्यताओं की पुष्टि की है।

पृथ्वी की चुम्बक शक्ति के बारे में यद्यपि वैज्ञानिक अभी कल्पनायें ही करते हैं और अनुमान लगाते हैं कि पृथ्वी के गर्भ में मैगनेटाइट या फेरस ऑक्साइड की विशाल राशि संग्रहीत है उसी के फलस्वरूप पृथ्वी एक विशाल चुम्बक की तरह काम करती है। मानवीय जीवन या जीव जन्तुओं का चुम्बकीय धाराओं से प्रभावित होने का कारण उनके शरीर में लौह युक्त होमोग्लोबिन का होना बताते हैं पर वस्तुतः यह दोनों ही कारण सूर्य के प्रकाश कणों की विद्युत चुम्बक मयता के कारण हैं। पृथ्वी को चुम्बक बनाने का काम सूर्य करता है। पिछले पृष्ठों में ध्रुव प्रभा के निर्माण की व्याख्या करते समय यह बात प्रकट हुई है। सूर्य के प्रकाश कण (फोटोन्स) ही जीवन का आधार भूत तथ्य हैं। पुरुष के शरीर में पाया जाने वाला ‘‘हीमोग्लोबिन’’ यह प्राण ही है जो सूर्य से निःसृत होता है और वायु द्वारा इच्छा शक्ति द्वारा तथा अन्न द्वारा हमारे शरीरों में पहुंचता रहता है। स्त्री के शरीर में इसे ही ‘‘रयि’’ कहते हैं विपरीत ध्रुव संचय होने के कारण ही स्त्री-पुरुषों में परस्पर आकर्षण का स्वभाव पाया जाता है।

डा. मैरिनेस्को ने तो कई प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि चुम्बकत्व हमारे मानसिक संस्थान को भी प्रभावित करते हैं वे मस्तिष्क की तीसरी वेन्ट्रिकल में धन विद्युत प्रविष्ट कर निद्रा ला देते थे। विद्युत और चुम्बक लगभग एक जैसी ही शक्तियां और परस्पर परिवर्तनीय हैं। उन्होंने यह भी दिखाया कि स्वप्न की अनुभूतियां भी चुम्बकीय क्षेत्र से प्रभावित होती हैं हम ऐसे सैकड़ों उदाहरण दे चुके हैं कि कई बार मनुष्य के स्वप्न नितान्त सत्य पाये जाते हैं इससे प्रतीत होता है कि मानवीय चुम्बक शक्ति में ही विचार, सर्वज्ञता, सर्व व्यापकता के सारे लक्ष्मण विद्यमान हैं यदि ऐसा ही है ध्रुव प्रभावों (अरोरल लाइट) द्वारा जीवात्मा के ऊर्ध्व या अधोगामी लोकों में प्रस्थान की भारतीय मान्यतायें भी गलत नहीं होनी चाहिये। पुराणों में वर्णन आता है—

नाथवीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम । उत्तर सवितुः पन्था देवयान इति स्मृतः ।।
उत्तरं यदि गस्तस्य अजबीथ्याश्च दक्षिणम् । पितृयानः स वै पन्था वैश्वानर पथाद् बहिः ।।

अर्थात्—नाथ बीथी से उत्तर और सप्तर्षि से दक्षिण सूर्य का जो उत्तर की तरफ का मार्ग है उसे देवयान कहते हैं। अगस्त के तारे से जो उत्तर और अजवीथी दक्षिण है वह वैश्वानर मार्ग से बाहर पितृयान का मार्ग है।

यह मार्ग पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति और सूर्य के प्रकाश कणों के सम्मिलित रूप से बनते हैं उनका स्वरूप विद्युत चुम्बकीय ही होता है जैसा कि पिछले ध्रुव प्रभा वाले लेख में दिया है। धन और ऋण विद्युत कणों का एक दूसरी ओर आना-जाना ही विद्युत या चुम्बक शक्ति का क्रम है वैदिक भाषा में इसे ही ‘‘एति च प्रेति च’’ कहा है इसे ऋग्वेद में—

अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणद पानती, व्यख्यनमहिषो दिवम् (ऋग्वेद 10।189।2)

अर्थात्—प्राण अपान रूप में स्पन्दित यह शक्ति ही जीवन का आधार है।

आकृष्णैन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यच । हिरण्य येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ।।

अर्थात्—काले वर्ण के लोकों से विचरता हुआ मृत्यु और अमृत अर्थात् प्रकृति और प्राण (धन और ऋण या उत्तरी ध्रुव चुम्बकत्व व दक्षिणी ध्रुव चुम्बकत्व) दोनों सुव्यवस्थित करता हुआ सुवर्णमय रथ से सविता (आदित्य प्राण) समस्त लोकों को देखता हुआ, दर्शन देता हुआ आ रहा है।

जहां अब यह सिद्ध होता जा रहा है कि जीवनी शक्ति विद्युत चुम्बकीय तत्व है वहां उसके सूर्य लोक से निसृत होने का प्रमाण भी वैज्ञानिकों को मिल रहे हैं सूर्य में काले धब्बों का वैज्ञानिकों द्वारा अंकन इस बात की पुष्टि करता है कि सूर्य लोक का सम्बन्ध किसी और भी सुविशाल बीज ग्रह से अथवा ब्रह्माण्ड से है। इस सम्बन्ध में आगे की खोजें स्वर्ग मुक्ति और एक विश्व-व्यापी सत्ता के अस्तित्व और उसकी प्राप्ति की आवश्यकता का ही बोध करायेंगी।

इससे यह भी सुनिश्चित है कि गायत्री उपासना के समय सविता के ध्यान से हमारे मस्तिष्क का चुम्बकत्व सूर्य के प्रकाश कणों के चुम्बकत्व को आकर्षित करता और ग्रहण करता हुआ हमारी जीवनी शक्ति प्राण को बढ़ाता रहता है।

मनुष्य एक प्रकार का अण्डा है जिसके भीतरी केन्द्र में जर्दी रहती है और चारों ओर सफेद मांसल पदार्थ। मनुष्य के शरीर को जर्दी कह सकते हैं और उसके चारों ओर फैले हुए तेजोवलय को सफेदी कह सकते हैं। इस दृश्य और अदृश्य दोनों को मिलाकर एक पूर्ण व्यक्तित्व बनता है। असल में यह व्याख्या भी त्रुटि पूर्ण है। मनुष्य जितने क्षेत्र में अपना प्रभाव फेंक सकता है और जितने क्षेत्र से प्रभाव ग्रहण कर सकता उतने को मनुष्य का सम्बन्ध क्षेत्र भी कहा जायगा। यह परिधि असीम है इसलिए मनुष्य को भी असीम या अनन्त ही माना गया है।

पृथ्वी का दृश्य पिण्ड छोटा है पर उसका वायुमण्डल चुम्बकत्व रेडियो क्षेत्र, अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान की परिधि को मिलाकर देखा जाय तो लगेगा कि ब्रह्माण्ड परिवार की विशालकाय मशीन का वह एक सुसम्बद्ध पुर्जा मात्र है। विश्व परिवार से प्रथक होकर पृथ्वी का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी विश्व चेतना की शृंखला की एक कड़ी मात्र ही है। घड़ी का छोटा पुर्जा तभी तक उपयोगी है जब तक वह घड़ी के साथ जुड़ा है, अलग रहकर वह कूड़ा कचरा मात्र है। मनुष्य अपने को एकाकी मानता भले ही रहे पर तथ्य यह है कि उसका वैभव, सुख एवं प्रगति प्रयास विश्व चेतना पर ही पूर्णतया निर्भर हैं। आत्मा—उसका कलेवर शरीर—शरीर के इर्द-गिर्द छाया हुआ तेजोवलय तेजोवलय में सन्निहित सूक्ष्म शक्तियों की हलचलों की अकल्पनीय परिधि यह सब मिलकर ही मनुष्य की विशालता समझी जानी चाहिए। काय-कलेवर की ससीमता और विश्व ब्रह्माण्ड की असीमता के बीच की कड़ी यह तेजोवलय ही है जो मनुष्य के चारों ओर छाया रहता है। आंखों सी दीखते हुए भी उसकी भूमिका इतनी आश्चर्यजनक है कि उसे दृश्य काया से भी अधिक महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। शरीर मर जाता है पर यह तेजोवलय फिर भी विद्यमान रहता है। भूत-प्रेतों के रूप में उसी की हलचलें देखी जाती हैं। हो सकता है कोई व्यक्ति कहीं जनम ले चुका हो और उसका तेजोवलय स्वतन्त्र रूप से काम कर रहा हो प्रेतात्मा की भूमिका निवाह रहा हो।

धरती और आकाश में काम करने वाली दृश्य एवं अदृश्य शक्तियां अपने आप में एकाकी अथवा पूर्ण नहीं हैं। वे दूसरों के अनुदान, संयोग, समन्वय से बनी हैं। अणु की सत्ता जिस रूप में सामने आती है वह उसकी अपनी एकाकी कमाई नहीं है, उसमें भूतल ही नहीं अन्य अन्य लोकों का भी अद्भुत अनुदान जुड़ा होता है अन्यथा आणविक गतिविधियां मात्र हलचल बनकर रह जायें, उनके द्वारा कोई उत्साह वर्धक प्रयोजन पूरा न हो सके।

यही बात मानवी व्यक्तित्व के बारे में भी है। जीव कोषों से विनिर्मित यह घटक यदि अनेकों दूरवर्ती सत्ताओं का कृपा पात्र न हो तो सम्भवतः वह क्षुद्र जीवधारी से अधिक कुछ भी न बन पाता।

जड़ अणुओं की गति एक प्रकार की विद्युत उत्पन्न करती है, उसमें जब चेतन सत्ता का समावेश होता है तो जीवन का—जीवधारियों का आविर्भाव होता है। ध्रुवों के क्षेत्र में चुम्बकीय तूफान उठते रहते हैं, जिनका प्रकाश ‘अरोरा बोरीलिस’ तेजोवलय के रूप में छाया रहता है। इसे पृथ्वी के साथ अन्य ग्रहों की सूक्ष्म हलचलों का मिलन स्पन्दन कह सकते हैं। यही है वह पृथ्वी का ग्रहों के साथ प्रणय परिणय जिसके फलस्वरूप कुन्ती के पांच पुत्रों की तरह पांच की विविध विध हलचलें जन्म लेती हैं और उनके क्रिया कलाप एक से एक बढ़कर अद्भुत और शक्तिशाली बने हुए सामने आते रहते हैं।

समुद्र का खारा जल जब धातु विनिर्मित नौकाओं तथा जलयानों से टकराता है तो उससे विद्युत तरंगें उत्पन्न होती हैं। नौका विज्ञानी इस अनायास होते रहने वाले विद्युत उत्पादन से परिचित रहते हैं और उसकी हानिकारक—लाभदायक प्रतिक्रिया से सतर्क रहते हैं।

ठीक इसी प्रकार शरीरगत जीवाणु भी ईथर एवं वायुमण्डल में भरे विद्युत प्रवाह से टकराते हैं और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीव कोषों में उन धातुओं तथा रसायनों की समुचित मात्रा रहती है जो आघातों से उत्तेजित होकर विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर सके। यही कारण है हर मनुष्य में गर्मी ही नहीं रहती वरन् विद्युत प्रवाह की अनेक स्तरों की धाराएं भी बहती रहती हैं। इन्हें यन्त्रों द्वारा भली प्रकार परखा जाना जा सकता है।

मानवी चुम्बकत्व विश्वव्यापी ब्रह्मसत्ता के साथ एक तन्तु नाल द्वारा जुड़ा रहता है। विष्णु की नाभि में से कमल का उत्पन्न होना और उसके पुष्प पर ब्रह्मा जी का अवतरण परमात्मा और आत्मा के बीच में सम्बन्ध सूत्र की इसी शृंखला का अलंकारिक चित्रण है। गर्भस्थ बालक माता के साथ इसी नालतन्तु द्वारा जुड़ा रहता है। नाभि को मध्य केन्द्र माना गया है। नवजात शिशु का नाभि नाल प्रसव के उपरान्त ही बाहर आता है और उसे काट कर दोनों को प्रथक करना पड़ता है।

मनुष्य के कान सीमित स्तर के ध्वनि प्रवाह को ही सुनते हैं किन्तु पशुओं में ऐसी चेतना पाई जाती है जिसके आधार पर वे उन ध्वनियों को भी सुन सकें जिन्हें सुनने में मनुष्य असमर्थ रहता है। यन्त्रों द्वारा ऐसी सीटी बजाई जा सकती है जिसे मनुष्य तो अनुभव न करें पर कुत्ता आसानी से सुन सके और उसकी बुलाहट पर दौड़ा आवे। मालिक की आ

मेज पर एक कोरा कागज बिछाइए। उसके ऊपर एक चुम्बक रखिए। एक फुट ऊंचाई से लोहे का बुरादा धीरे धीरे बरसाइये देखा जायगा कि लोहकण एक विशिष्ट क्रम के अनुसार गिर रहे हैं। यह क्रम चुम्बक की बल रेखाओं के अनुरूप होगा। कागज पर चुम्बक की अन्तःस्थिति कागज पर गिरे लोहे के बुरादे से भली प्रकार स्पष्ट हो रही होगी। मनुष्य भी एक प्रकार का चुम्बक है वह अन्तरिक्ष से बरसने वाले अनेक भले बुरे अनुदानों को अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार अस्वीकार करता है। वह जैसा कुछ स्वयं है उसी का चुम्बकत्व उसे इस विश्व ब्रह्माण्ड में अपनी जैसी सूक्ष्म धारा प्रवाह से अनायास ही सम्पन्न सज्जित करता रहता है।
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