दिव्य शक्तियों का उद्भव प्राणशक्ति से

मानवी विद्युत अति प्रचण्ड शक्ति

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वातावरण प्रभावित करना विज्ञान घटनायें

आग जिस कमरे में जलती है वह पूरा का पूरा गरम हो जाता है। आग रहती तो ईंधन की सीमा में ही है पर उसकी गर्मी और रोशनी दूर-दूर तक फैलती है। सूरज बहुत दूर होते हुए भी धरती तक अपना प्रकाश और ताप पहुंचाता है। बादलों की गर्जना दूर-दूर तक सुनाई पड़ती है। प्राणवान् व्यक्ति अपने प्रचण्ड व्यक्तित्व का प्रभाव सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचाते हैं और व्यक्तित्वों को ही नहीं परिस्थितियों को बदलते हैं। वातावरण उनसे प्रभावित होता है यह प्रभाव उत्पन्न करने वाली क्षमता प्राण शक्ति ही है भले ही वह किसी भी रूप में काम कर रही हो। वह देव और दैत्य दोनों स्तर की हो सकती है। उसके अनुचित प्रयोग से वैसा ही विनाश भी होता है। जैसे कि उचित प्रक्रिया से सत्परिणाम उत्पन्न होते हैं। दैवी, आसुरी शक्तियों के बीच संघर्ष होते रहने के सूक्ष्म कारणों में यह प्राण प्रक्रिया का टकराव ही मुख्य कारण होता है।

ताप का मोटा नियम यह है कि अधिक ताप अपने संस्पर्श में आने वाले न्यून ताप उपकरण की ओर दौड़ जाता है। एक गरम दूसरा ठण्डा लोहखण्ड सटाकर रखे जायं तो ठण्डा गरम होने लगेगा गरम ठण्डा। वे परस्पर अपने शीत ताप का आदान-प्रदान करेंगे और समान स्थिति में पहुंचने का प्रयत्न करेंगे।

बिजली की भी यही गति है। प्रवाह वाले तार को स्पर्श करते ही सारे सम्बद्ध क्षेत्र में बिजली दौड़ जाएगी। उसकी सामर्थ्य उस क्षेत्र में बंटती जायगी। प्राण विद्युत का प्रभाव भी शीत ताप के सान्निध्य जैसा ही होता है। प्राणवान् व्यक्ति दुर्बल प्राणों को अपना बल ही नहीं स्तर भी प्रदान करते हैं। ऋषियों के आश्रमों में सिंह और गाय के प्रेमपूर्वक निवास करने का तथ्य इसीलिये देखा जाता था कि प्राणवान् अपनी सद्भावना से उन पशुओं को भी प्रभावित कर देते थे। बिजली लोहे, सोने में, सन्त, कसाई में कोई भेद नहीं करती। वह सब पर अपना प्रभाव समान दिखाती है जो भी उससे जैसा भी काम लेना चाहे वैसा करने में उसकी सहायता करती है, पर मानव शरीर में संव्याप्त विद्युत की स्थिति भिन्न है। उसमें चेतना और संवेदना के दोनों तत्व विद्यमान हैं। वह समस्त शरीर पर शासन करती है—मस्तिष्क उसका केन्द्र संस्थान है। इतने पर भी उसे शरीर शक्ति नहीं कह सकते। बल्ब में जलने वाली बिजली उसी में से उत्पन्न नहीं होती, वरन् अन्यत्र से आती है, वहां तो वह चमकती भर है। मानव शरीर में पाई जाने वाली बिजली वस्तुतः चेतनात्मक है। उसे प्राण प्रतिमा कहा गया है वह शक्ति ही नहीं संवेदना भी है। विचारशीलता उसका विशेष गुण है। वह नैतिक और अनैतिक तथ्यों को अनुभव करती है और उस आधार पर भौतिक बिजली की तरह समस्वर नहीं रहती वरन् अपना प्रभाव औचित्य के पक्ष में और अनौचित्य के विरोध में प्रस्तुत करती है।

इतनी छोटी-सी खोपड़ी में इतना बड़ा कारखाना किस प्रकार संजोया जमाया हुआ है, इसे देखकर बनाने वाले की कारीगरी पर चकित रह जाना पड़ता है। यदि इतना साधन सम्पन्न इलेक्ट्रानिक मस्तिष्क बनाकर खड़ा करना हो तो संसार भर के समस्त विद्युत उपकरणों के लिये बनाये गये कारखानों जितनी जगह घेरनी पड़ेगी।

निःसन्देह मनुष्य एक जीता-जागता बिजलीघर है, किन्तु झटका मारने वाली बत्ती जलाने वाली सामान्य बिजली की तुलना उससे नहीं हो सकती। जड़ की तुलना में चेतन की जितनी श्रेष्ठता है उतना ही भौतिक और जीवन विद्युत में अन्तर है। प्राणि विद्युत असंख्य गुनी परिष्कृत और संवेदनशील है।

जीव भौतिकी के नोबुल पुरस्कार प्राप्त विज्ञानी हाजकिन हक्सले और एकल्स ने मानवी ज्ञान तंतुओं में काम करने वाले विद्युत आवेग इम्पल्स की खोज की है। इनके प्रतिपादनों के अनुसार ज्ञान तन्तु एक प्रकार के विद्युत संवाही तार हैं जिनमें निरन्तर बिजली दौड़ती रहती है। पूरे शरीर से इन धागों को समेटकर एक लाइन में रखा जाय तो उनकी लम्बाई एक लाख मील से भी अधिक बैठेगी। विचारणीय है कि इतने बड़े तन्त्र को विभिन्न दिशाओं में गतिशील रखने वाले यन्त्र को कितनी अधिक बिजली की आवश्यकता पड़ेगी।

शरीर के एक अवयव मस्तिष्क का स्वतन्त्र रूप में विश्लेषण करें तो उसमें लगभग दस अरब नस कोष्ट न्यूरान हैं। उनमें से हर एक का सम्पर्क लगभग पच्चीस हजार अन्य नस कोष्टों के साथ रहता है।

मानव शरीर के इर्द-गिर्द छाये रहने वाले प्रभा मण्डल के सम्बन्ध में परा मनोविज्ञानी महिला एलीन गैरेट की पुस्तक ‘अवेयरनेस’ में अनेकों शोध विवरण छपे हैं, जिसमें उन्होंने शरीर के इर्द-गिर्द एक विद्युतीय कुहरे का चित्रांकन किया है। वे इस कुहरे के रंगों एवं उभारों में होते रहने वाले परिवर्तनों को विचारों के उतार चढ़ाव का परिणाम मानती हैं। इस प्रभा मण्डल के चित्र सोवियत विज्ञानी ‘कीरलिएन’ ने भी उतारे हैं और उनमें परिवर्तन होते रहने की बात कही है। इन प्रभा परिवर्तनों को मात्र विचारों का ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतीक भी माना गया और उसके आधार पर शरीर के अन्तराल में छिपे हुए रोगों के कारण भी परखे गये। इस प्रकार के परीक्षणों में मास्को मेडीकल इन्स्टीट्यूट के अध्यक्ष पावलेव कोण ने विशेष ख्याति प्राप्त की है और उन्होंने रोग निदान के लिए प्रभामंडल के अध्ययन को बहुत उपयोगी माना है। इस प्रभा मण्डल को प्रत्यक्ष सूक्ष्म शरीर की संज्ञा दी गई है। उसका वैज्ञानिक नामकरण ‘दी बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ किया गया है। कजाकिस्तान के किरोव विश्वविद्यालय की शोधों में कहा गया है कि यह प्रभामण्डल के ऊर्जा शरीर को उत्तेजित विद्युत अणुओं का समूह मानने में हर्ज नहीं, पर उसमें इतना और जोड़ा जाना चाहिए कि उसमें जीवाणुओं का भी होना है साथ ही उसकी सत्ता मिश्रित होने पर एक व्यवस्थित एवं स्वचालित इकाई है। उसमें अपनी उत्पादन, परिग्रहण एवं परिप्रेषण क्षमता मौजूद है।

एक बार बोलोन के एक भौतिकशास्त्र के वैज्ञानिक ने प्रयोग के दौरान देखा कि एक मेढ़क के पांव से बिजली का प्रवाह निकल रहा है उससे उस मेढ़क की मांसपेशियां उत्तेजित हो रही हैं। इस जानकारी के आधार पर फोर्ली निवासी डा. मेटूची ने कई नई जानकारियां हासिल करके बताया कि मांसपेशियों के सिकुड़ने फैलने से विद्युत धारायें उत्पन्न होती हैं इससे पता चला कि शरीर के आन्तरिक संस्थानों में विद्युत के छिपे खजाने हैं इस पर अंगरेज वैज्ञानिक वाल्टर ने बहुत खोजें कीं और उन खोजों का लाभ चिकित्सा जगत को प्रदान किया।

मनुष्य शरीर में विद्युत की तेज तरंगें विद्यमान हैं यह बात 1869 में सर्वप्रथम फ्रांस के निकलने वाले ‘मेडिकल टाइम्स एण्ड गजेट’ के अप्रैल अंक में डाक्टरों द्वारा निरीक्षण के एक ताजे बयान के रूप में सामने आई। लियोन्स में एक गृहस्थ के घर एक बच्चा पैदा हुआ। बच्चा सात महीने का हुआ तभी से घर वालों को शिकायत होने लगी कि बच्चे के शरीर को स्पर्श करने से बिजली का झटका लगता है। दसवें महीने तक स्थिति यह हो गई कि बच्चे के पास जाना भी कठिन हो गया। कई लोग हिम्मत करके उसके पलने के पास गये भी पर उसके झटके को सहन न कर सके। वे झटका खा कर नीचे गिर गये। अन्ततः बच्चे की मृत्यु हो गई। मरने से 10 सेकिण्ड पूर्व उसके शरीर से हल्का नीला प्रकाश प्रस्फुटित हुआ, डाक्टरों ने उसके फोटो भी लिये पर वे उसका कुछ विश्लेषण न कर सके। बच्चा मर गया तब न उसके शरीर में गर्मी थी न कोई झटका इससे यही तो साबित हुआ कि मनुष्य को प्राण विद्युत जैसी ही कोई शक्ति है चाहे वह ग्रहण किये हुए अन्न से उत्पन्न होती हो या किन्हीं और आकाशस्थ माध्यमों से पर यह निश्चित है कि यह विद्युत ही जीवन गति और चेतना को धारण करने वाली है उसकी जानकारी न हो तब तक मनुष्य जीवन की यथार्थता नहीं जानी जा सकती विज्ञान चाहे कितना ही प्रगति क्यों न करले।

येल विश्वविद्यालय की न्यूरोडेमी के प्रो. हेराल्डवर ने प्रमाणित किया है प्रत्येक प्राणी एक ‘इलेक्ट्रो डायनेमिक’ आवरण से घिरा है। उसकी चेतनात्मक क्षमता को इसी क्षेत्र के कारण बाहर भगाने और दूसरे प्रभावों को पकड़ने की सुविधा होती है। इस विद्युतीय आवरण की शोध में आगे चलकर विज्ञानी लियोनाई रोविंग्स ने यह प्रमाणित किया कि वह लोह कवच नहीं है वरन् मस्तिष्क के प्रभाव से उसे हल्का-भारी उथला और गहरा किया जा सकता है। उसकी कार्य क्षमता घटाई या बढ़ाई जा सकती है। विश्व ज्ञान की असीम सम्पदा को ‘यूनिवर्सल मेमोरी आफ नेचर’ कहा जाता है। इसी की चर्चा ‘बुक आफ लाइफ’ के नाम से भी होती है। इस पुस्तक में विश्व चेतना का आरम्भ से अब तक का इतिहास अंकित है। माइक्रो फिल्मों की विशालकाय लाइब्रेरी की तरह इसे समझा जा सकता है। मोटे रूप में तो पता नहीं चलता कि कहां क्या-क्या अभिलेख अंकित हैं, पर विशेषज्ञ यह तलाश कर सकते हैं कि इस संग्रहालय की अलमारी के किस खाने में किस स्थान पर क्या रखा हुआ है? इस कला में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए मस्तिष्कीय विद्या की साधना की जाती है। इस प्रक्रिया को पदार्थ वैज्ञानिक अपने ढंग से और आत्म विज्ञानी अपने ढंग से विकसित कर सकते हैं ध्यान धारणा एवं तप साधना से भी यह सम्भव है और उन परामनोविज्ञानी प्रयोगों से भी जो इस क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा इन्हीं दिनों अपनाये जा रहे हैं।

भौतिक क्षेत्र में विद्युत की अनेकानेक विदित एवं अविदित धाराओं की महत्ता को समझा जा रहा है। उसके प्रभाव से जो लाभ उठाया जा रहा है उससे भी अधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियां अगले दिनों मिलने की अपेक्षा की जाती है। ठीक इसी प्रकार मानवी विद्युत के अनेकानेक उपयोग सूझ पड़ने की सम्भावना सामने है। विज्ञान इस क्षेत्र में तत्परतापूर्वक संलग्न है और विश्वासपूर्वक कई उपलब्धियां प्राप्त करने की स्थिति में है।

चेकोस्लेविका—पोलेण्ड-बुलगारिया के जीवशास्त्री मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमताओं के बारे में विशेष रूप से दिलचस्पी ले रहे हैं। उनने पिछले तीस वर्षों में आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त की हैं। दूरदर्शन, विचार संग्रहण, भविष्य कथन अब शोध के पुराने विषय हो गये। उसमें नई कड़ी ‘सायकोकिनेसिस’ की जुड़ी हैं। इस लम्बे शब्द का संक्षिप्त संकेत है (पी.के.) इसके अर्थ है विचार शक्ति में वस्तुओं को प्रभावित एवं परिचालित करने की सामर्थ्य। जिस प्रकार आग या बिजली के सहारे वस्तुओं का स्वरूप एवं उपयोग बदला जा सकता है, उन्हें स्थानान्तरित किया जा सकता है वैसी ही सम्भावना इस बात की भी है कि मानव शरीर में पाई जाने वाली विशिष्ट स्तर की विद्युत धारा से चेतना स्तर को प्रभावित किया जा सकेगा। इससे न केवल अतीन्द्रिय क्षमता के विकसित होने से मिलने वाले लाभ मिलेंगे वरन् शारीरिक और मानसिक रोग निवारण में भी बहुत सहायता प्राप्त होगी।

एक रूसी परामनोविज्ञानी कामेंस्की और कार्ल निकोलायेव ने अपनी शोधों के अनेक विवरणों का हवाला देते हुए बताया है कि दूरस्थ अनुभूतियां यों यदा-कदा लोगों को अनायास भी होती रहती है किन्तु उसके लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित करने पर इस अनुभूति को और भी अधिक स्पष्ट एवं विकसित किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में हुए परीक्षणों का विस्तृत विवरण कोंसोमोल्स काया प्रावदा पत्र में प्रकाशित हुआ था।

मनुष्य की शारीरिक संरचना अन्य प्राणियों की तुलना में विचित्र और अद्भुत है। कर्मेन्द्रियों में हाथों की बनावट ऐसी है जिस के सहारे अनेकों शिल्पों कौशलों में प्रवीणता प्राप्त हो सके। आंखें मात्र देखने के ही काम नहीं आती वरन् उनसे निकलने वाला तेजस दूसरों को प्रभावित आकर्षित करने के भी काम आता है।

मस्तिष्क तो अपने आप में असाधारण विद्युत संस्थान है। अब तक बुद्धिबल, मनोबल की ही प्रशंसा थी। अब उन प्रवाहों का भी पता चला रहा है जो व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने और उसकी खोज खबर लाने में समर्थ हैं। आत्मसत्ता की गरिमा को यदि समझा जा सके और उसकी खोजबीन में उत्पादन अभिवर्धन में लग जाया जाय तो इतना कुछ प्राप्त किया जा सकता है जो अब तक की भौतिक उपलब्धियों की तुलना में हल्का नहीं भारी ही बैठेगा।

तपस्वियों के आश्रमों में हिंसक और अहिंसक प्राणी बैरभाव भूलकर प्रेम भाव से रहते देखे गये हैं। नेताओं में इस प्रकार की विशेषता प्रायः पाई जाती है। उनका आकर्षण लोगों को प्रभावित सहमत करता है और अनुयायी बनने के लिए विवश करता है। यदि यह प्रभाव उथला है तो सम्मोहित व्यक्ति थोड़े ही समय में उस प्रभाव से मुक्त होकर पूर्व स्थिति में आ जाते हैं पर यदि उसमें सघनता हुई तो प्रभाव भी स्थायी बना रहता है। यह प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हर क्षेत्र में पाये जाते हैं और साथियों को प्रभावित करते हैं। डाकुओं तक को साथी मिल जाते हैं और सामने आने पर प्रतिशोध करने वालों की घिग्घी बंध जाती है। रूप और सौन्दर्य में शरीर की गति सुकोमल ऊंची रहती है, रुचिर लगती है और उस आकर्षण पर दूसरे अनायास ही मोहित होते हैं नर्तकियां बार वधुओं से लेकर छोटे बालकों की सुकोमलता में ऐसा आकर्षण पाया जाता है जो सम्पर्क में आने वालों का मन बरवस अपनी ओर खींचें। इस आकर्षण के पीछे कोई गहरा कारण नहीं है मात्र तेजोवलय की वह प्रभावशाली शक्ति ही काम करती है जिसके आगे दूसरे अनायास ही झुकते खिंचते चले जाते हैं। इस मानवी चुम्बकत्व को वैज्ञानिकों की भाषा में ‘क्लेयर वाएन्स’ कहते हैं।

तेजोवलय सम्पूर्ण शरीर के इर्द-गिर्द छाया रहता है। पैरों की ओर उसका घेरा कम होता है, क्रमशः वह अधिक चौड़ा होता जाता है और मस्तिष्क तक पहुंचते-पहुंचते उसकी चौड़ाई प्रायः ड्योढ़ी हो जाती है। बेर का फल जैसे नीचे पतला नोकदार होता है और उसका सिरा मोटा होता है लगभग इसी प्रकार से आस पास यह प्रकाश पुंज फैला रहता है। इसकी चौड़ाई शरीर से बाहर 3 से 7 फुट तक की पाई जाती है।

खगोल वेत्ता जानते हैं कि आकाश में अनेकों तारे ऐसे हैं, जिनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। हो सकता है कोई तारा हजारों वर्ष पूर्व मर गया हो पर उसका प्रकाश अपनी चाल से चलता हुआ अब पृथ्वी पर आना आरम्भ हुआ हो और आगे हजारों वर्ष तक चमकता रहे। जब कि उसकी मृत्यु चिरकाल पूर्व ही हो चुकी है। प्रकाश की गति प्रति सैकिंड 1 लाख 86 हजार मील है। इस चाल से अधिक उसकी दौड़ नहीं पर मनुष्य मन इससे भी अधिक द्रुतगामी है। राकेटों को चन्द्रमा तक पहुंचने में कई दिन लग जाते हैं पर मन तो वहां एक क्षण में पहुंच सकता है। यह ध्यान रखने की बात है कि मन मात्र कल्पना ही नहीं है, वरन् इसके साथ चेतनात्मक ऊर्जा जुड़ी हुई हो तो वह प्रकाश की तरह ही एक सशक्त तथ्य बन जाती है और वही कार्य करती है जो अन्तरिक्षव्यापी ताप, चुम्बकत्व जैसी शक्तियां काम करती हैं।

यदि प्रकाश की गति उल्लंघन करके अपनी चेतनात्मक ऊर्जा आगे निकल जाय और वहां जा पहुंचे जहां अभी हजार वर्ष पूर्व निसृत हुई प्रकाश तरंगें नहीं पहुंच पाई हैं तो निस्संदेह इस समय की समस्त घटनाएं इस प्रकार प्रत्यक्ष देखी जा सकती हैं मानो अभी-अभी ही वे घटित हो रही हैं। यदि हमारी शक्तिशाली अचेतन विद्युत संस्थान ध्यान चेतना को इतना सक्षम बनायें कि प्रकाश की गति पिछड़ जाये तो कोई कारण नहीं कि हम चिर अतीत की घटनाओं, व्यक्तियों को देख समझ न सकें। इतना ही नहीं जो महामानव हजारों लाखों वर्ष पूर्व दिवंगत हो गये उनके अन्तरिक्ष में उड़ते हुए तेजोवलय के साथ सम्बन्ध बना सकते हैं और वही लाभ ले सकते हैं जो उनके पास बैठने या उनका प्रभाव ग्रहण करने से सम्भव हो सकता है। उपरोक्त सफलता प्राप्त करने वाला व्यक्ति श्री कृष्ट जी के मुख से निकली हुई गीता उसी तरह सुन सकता है जिस तरह अर्जुन ने समीप बैठ कर सुनी थी। शुकदेव जी द्वारा परीक्षत को सुनाई गई भागवत को ज्यों का त्यों सुना जा सकता है। वशिष्ठ जी द्वारा राम को सुनाई गई योग वशिष्ठ को अभी भी इसी रूप में श्रवण कर सकना कठिन न रहेगा राम चरित्र और कृष्ण चरित्र की सारी घटनाएं यथा क्रम देखी जा सकेंगी। त्रिकाल दर्शी ऋषि इस विद्या में पारंगत हो चुके थे और उनके हाथ में बहुत कुछ—सब कुछ जानने की शक्ति था। इतनी ही नहीं वे भावी घटना क्रम की सम्भावनाओं को मोड़ बदल भी सकते थे। इसके प्रमाणों से अनेक शास्त्र पुराण भरे पड़े हैं। वे उपलब्धियां भविष्य में भी प्राप्त की जा सकती हैं।

वर्तमान में विभिन्न स्थानों में घटित हो रहे घटना क्रमों को दिव्यदर्शी व्यक्ति देख या जान सकता है। परस्पर सम्वादों और सन्देशों का विनिमय कर सकता है। इतना ही नहीं अपनी यदि उसके पास कोई प्रेरक एवं उपयोगी क्षमता होगी तो उसे किसी दूसरे के लिए प्रेरित करके उसे लाभान्वित भी कर सकता है। किन्तु इसके लिए तप साधना द्वारा उपार्जित आत्मबल का सम्पादन नितान्त आवश्यक है। हम चाहें तो शरीर बुद्धि और धन जैसी सम्पदाओं की तरह आत्म शक्ति की विभूतियां भी सम्पादित कर सकते हैं और इसके आधार पर हमारा मानवी चुम्बकत्व—तेजोवलय—इतना प्रचण्ड हो सकता है कि व्यक्तियों तथा वस्तुओं को अभीष्ट मात्रा में प्रभावित किया जा सके और अपने आपको हर क्षेत्र में समर्थ सफल सिद्ध किया जा सके।

शक्ति का विपुल भंडार अपनी मुट्ठी में

यों शरीर को हाड़-मांस का पुतला—मिट्टी का खिलौना और पंचतत्वों का वे मेल खेल कहा जाता है। पानी के बबूले से उपमा देकर क्षण भंगुर बताया जाता है। इस कथन में इतना ही सार है कि यह विपत्ति टूट पड़ने पर नष्ट भी हो सकता है, पर जैसी भी कुछ इसकी सत्ता है उस पर दृष्टिपात करने से वह परमाणु भट्टियों जैसा शक्तिशाली संयंत्र सिद्ध होता है। उसकी संभावनाएं अनन्त हैं। ब्रह्माण्ड का बीज इस पिण्ड को सही ही बताया गया है। जो शक्तियां ब्रह्मांड में देखी गई हैं या भविष्य में देखी जायेंगी उनका बीज इस पिण्ड में इस प्रकार मौजूद है कि यदि कोई उसे सींच सके तो देखते-देखते विशाल काय वृक्ष के रूप में परिणत हो सकता है।

मांस पेशियों में भरी हुई कोशिकाओं में छलकती हुई त्वचा में चमकती हुई ऊर्जा दियासलाई की तरह छोटी है पर यदि ठीक तरह जला दिया जाय और अभीष्ट आधार के साथ नियोजित कर दिया जाय तो उसे प्रचण्ड दावानल के रूप में संव्याप्त भी देखा जा सकता है। नन्हें से परमाणु को जब अपनी शक्ति प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है तो वह धरती को हिला देता है और आसमान को कंपा देता है। मानव शरीर की ऊर्जा में भौतिक जगत में काम करने वाली ऊर्जा के अतिरिक्त चैतन्य तेजस भी विद्यमान है अस्तु इसकी सामर्थ्य और भी अधिक बढ़ जाती है। यदि उसका प्रकटीकरण एवं प्रस्फुरण किया जा सके तो उसका चमत्कार देखते ही बने। मनुष्य में ऋद्धि सिद्धियों का भंडार भरा पूरा परिलक्षित हो।

शरीर पर लिपटे हुए सीधे साधे त्वचा परिधान को ही गंभीरता पूर्वक देखिये। उसकी रचना और प्रक्रिया कितनी सम्वेदनशील, सूक्ष्म, जटिल और सशक्त है। एक वर्ग फुट त्वचा में लगभग 72 फुट लम्बी तंत्रिकाएं जाल की तरह बिछी हुई हैं। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई लगभग 12 फुट बैठती है। शरीर की गर्मी को जब बाहर निकलना आवश्यक होता है तो वे फैल जाती और जब ठण्ड लगती है तो भीतर की गर्मी बाहर न निकलने देने से शरीर को गरम बनाये रखने के लिए वे सिकुड़ जाती हैं। सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में लगभग दो लाख स्वेद ग्रन्थियां हैं इनमें से पसीने के रूप में शरीर के हानिकारक पदार्थ बराबर बाहर निकलते रहते हैं। यदि स्नान करने में आलस बरता जाय तो चमड़ी पर पसीने सूख कर एक परत जैसी बन जाती है और उसके विषैलेपन से बदबू ही नहीं आती वरन् खुजली, दाद, फुन्सियां जैसी बीमारियां भी पैदा हो जाती हैं। चमड़ी की बीमारियों में कोढ़ मुख्य है। संसार में एक करोड़ पांच लाख कोढ़ी हैं जिनमें से 26 लाख तो केवल भारत में ही हैं।

यों चमड़ी सीधी सफाचट दीखती है पर उसमें इतने छोटे-छोटे भेद-प्रभेद भरे होते हैं कि आश्चर्य करना पड़ता है कि किस प्रकार उसमें इतनी चीजें भरी हुई हैं। एक वर्ग सेन्टीमीटर चमड़ी में 5 तेल ग्रन्थियां, 10 रोंए, 3 लाख कोशिकाएं, 4 ताप सूचक तंत्र, 200 दर्द सूचक स्नायु छोर, 25 स्पर्शानुभूति तन्त्र, 4 गंज स्नायु, 3 हजार संवेदना ग्राहक कोशिकाएं, 100 स्वेद ग्रन्थि, 3 फुट रक्त वाहिनियां। इन सब का अपना अपना अनोखा कर्तव्य है, और वह ऐसा अद्भुत है कि मानव कृत समस्त संयंत्रों को इस त्वचा प्रक्रिया के सम्मुख तुच्छ ठहराया जा सकता है।

त्वचा के भीतर भरी हुई मांस पेशियों को देखिये। यों वे घिनौनी लगती हैं पर उनका प्रत्येक कण कितनी ऊर्जा सम्पन्न है इसे देखते हुए अवाक रह जाना पड़ता है। ताकत का लेखा जोखा लिया जाता है, खेलों में युद्धों में, प्रतियोगिताओं में काम के मूल्यांकन में ताकत की परख होती है। कौन कितना ताकतवर है कौन कितना कमजोर इस बात का लेखा जोखा लिया जाता है। यह ताकत कहां रहती है? कहां से आती है?

शारीरिक शक्ति का स्रोत हमारी मांस पेशियां, लचक, स्फूर्ति आकुंचन प्रकुंचन सब कुछ उन्हीं के ऊपर निर्भर रहती है। जब उनमें समर्थता भरी रहती है तो मनुष्य को वज्रअंगी, लौह पुरुष आदि विशेषणों से सम्बोधित किया जाता है। कुश्ती, दौड़, भारोत्तोलन, छलांग, दबाव आदि के अवसरों पर जो करामात शरीर दिखाता है उसे स्वस्थ मांस पेशियों का चमत्कार ही कहना चाहिए यदि वे ढीली पड़ जायें, क्षमता खो बैठें तो फिर चलना, खड़ा होना और भोजन पचाना तक कठिन हो जाय।

मांस पेशियों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं (1) बहुत बारीक तन्तुओं से बनी हुई—जो गति पैदा करती हैं—चलने, खाने, हंसने आदि में इन्हीं का उपयोग होता है। मस्तिष्क की आज्ञा इच्छा होने पर ही इनमें सक्रियता आती है (2) जो स्वतः निरन्तर कार्य करती हैं। पाचन क्रिया, श्वांस प्रश्वांस, रक्त संचालन, पलक झपकना, पसीना निकलना आदि कार्य वे स्वतः सम्पन्न करती रहती है (3) वे जिनमें दोनों विशेषताएं हैं और शरीर के भीतर की रासायनिक क्रिया से प्रभावित रहती हैं। इन तीनों का ही अपना महत्वपूर्ण उपयोग है। इन्हीं के सम्मिश्रित प्रयत्नों के फलस्वरूप हम स्वस्थ और बलिष्ठ दिखाई पड़ते हैं। यदि इनमें कमजोरी आने लगे तो दर्द होने लगेगा। पैरों की भड़कन, पीठ दर्द, और कमर का दर्द, जैसी शिकायतें मांस पेशियों में अकड़न, कठोरता बढ़ने के कारण ही इस तरह के दर्द होते हैं।

मांस पेशियों का काम देखने में सरल सा लगता है। पर वस्तुतः उनकी संरचना और कार्य पद्धति इतनी अधिक जटिल हैं कि अन्वेषक चकित रह जाते हैं। अणु विज्ञान को उसके क्रिया-कलाप को, अणु यंत्रों को जटिल माना जाता है मांस पेशियों को इच्छित या अनिच्छित क्रिया कलाप करने में कितनी जटिल क्रिया पद्धति का सहारा लेना पड़ता है उसका विश्लेषण करते हुए कारीगर की अद्भुत कारीगरी को चकित रहकर ही देखना पड़ता है।

हाथ पैर सबके पास हैं। फिर किसी में क्षमता कम किसी में अधिक क्यों होती है? समझा जाता है यह अभ्यास से घटती बढ़ती हैं। वेशक इच्छा शक्ति और अभ्यास भी सहायक होता है पर मूल बात मांस पेशियों की सशक्तता ही मनुष्य की बलिष्ठता और कोमलता का मुख्य कारण है।

भोजनालय में जो कार्य चूल्हे का है—कारखानों में जो कार्य वायलर या इलेक्ट्रिक मोटर का है वही कार्य मांसपेशियां करती हैं। गर्मी पैदा करना उन्हीं का काम है। इस गर्मी के बल पर ही अन्य सब अंग गतिशील रहने में समर्थ होते हैं मांसपेशियां सारे शरीर को गरम रखती हैं और स्वयं गरम रहती हैं उन्हें एक प्रकार के हीटर भी कह सकते हैं। शरीर और मन का सम्बन्ध बनाये रखने में इनकी भूमिका अद्भुत है। ज्ञान तन्तु समूह इन्हीं में ओत-प्रोत होता है। हंसने से लेकर रोने, नृत्य से लेकर भाग खड़े होने तक, सोने से लेकर जगने तक के समस्त मनोभावों का प्रकटीकरण शरीर द्वारा तभी सम्भव होता है जब यह मांसपेशियां ठीक से काम करें। रक्त चाप, हृदय रोग जैसे जटिल रोगों में वस्तुतः उन स्थानों की मांसपेशियां ही दुर्बल हो जाती हैं। यह दुर्बलता जितनी बढ़ेगी रुग्णता और मृत्यु का प्रकोप उसी अनुपात से होता चला जायगा।

नोबुल पुरस्कार विजेता आकार जे-ज्योगी ने मांसपेशियों की सक्रियता के पीछे दो रासायनिक तत्व खोजे हैं। (2) प्रोटोन सार्क्टन (2) मायोसिन। वे कहते हैं इन दोनों का संयोग मांसपेशियों में सक्रियता उत्पन्न करता है। यह दोनों प्रोटीन कहीं बाहर से नहीं आते। स्वतः ही पैदा होते हैं और उनके उत्पादन में इच्छा शक्ति का बहुत योगदान रहता है।

आहार शास्त्र की दृष्टि से प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट की उपयुक्त मात्रा मांसपेशियों के पोषण के लिए आवश्यक है। पर साथ-साथ इस खुराक को ग्रहण करने और आत्मसात करने की मौलिक क्षमता तो पहले से ही मांसपेशियों में होनी चाहिये यदि वह न हो तो ऐसी खुराक भी कुछ विशेष कारगर नहीं होती।

अधिक काम करने से यह मांसपेशियां ही थक जाती हैं। उन्हें समुचित विश्राम न मिले तो अधिक दौड़ने पर थककर गिर पड़ने वाले घोड़े की तरह वे भी गड़बड़ाने लगती हैं और अधिक काम करने की उतावली, सोने का अण्डा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे एक साथ निकाल लेने वाले लालची की तरह घाटे में ही रहता है काम करने और विश्राम देने के सन्तुलन का ध्यान रखकर ही पेशियों को स्वस्थ और सक्रिय रखा जा सकता है।

कुछ पेशियां कभी भी विश्राम नहीं लेतीं। हृदय, मस्तिष्क, पाचन यन्त्र, फुफ्फुस आदि का काम दिन-रात निरन्तर चलता रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कभी भी इनको छुट्टी नहीं मिलती। यह थकान भी मौत का कारण है। यदि बीच-बीच में उन्हें विश्राम मिल जाया करे तो आयुष्य बढ़ाने में मांसपेशियों का वह पुनः शक्ति संचय बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

गहराई में क्यों जाया जाय, शक्ति के चेतना स्तर को अभी क्यों छुआ जाय। त्वचा और मांसपेशियों की सम्मिलित शक्ति का ही विवेचन किया जाय तो प्रतीत होगा कि इनका सम्मिलित स्वरूप ही किसी बड़े बिजलीघर से कम नहीं है।

शक्ति का मूल स्रोत है ऊर्जा। बिजली का उत्पादन ऊर्जा से ही होता है। भाप द्वारा, कोयला जलाकर, तेल-पेट्रोल से, पानी को ऊंचे से गिराकर उसके वेग द्वारा और अब अणु-शक्ति से बिजली पैदा की जाती है। यह ऊर्जा की ही विविध प्रतिक्रिया है।

विद्युत उत्पादन का एक आधार रासायनिक क्रिया भी है। बैटरी इसी आधार पर बनती है। वोल्टा, एम्पीयर, आरस्टेड, फैराडे वैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में नये आविष्कार किये हैं।

किसी तन्त्र के कार्य करने की क्षमता ऊर्जा कहलाती है। ऊर्जा के अनेक स्तर हैं। पदार्थों की गति के कारण उत्पन्न होने वाली, गति ऊर्जा, रासायनिक सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाली रासायनिक ऊर्जा, वस्तुओं की स्थिति के कारण उत्पन्न स्थितिज ऊर्जा कही जा सकती है। कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जिनमें अधिक मात्रा में ऊर्जा तत्व विद्यमान रहते हैं उन्हें ईन्धन कहते हैं। ऊर्जा एक से दूसरे रूप में रूपान्तरित तो होती रहती है पर उसका नाश कभी नहीं होता। यह रूपान्तरण प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। रासायनिक पदार्थ जलते हैं और बैटरी की विद्युत उत्पन्न होती है। पैरों द्वारा घुमाये जाने पर साइकिल चलती है यह पैरों की ऊर्जा का साइकिल की गति में रूपान्तरण है। परमाणु ईन्धन विखण्डित होकर ही परमाणु शक्ति उत्पन्न होती हैं। बायलर के नीचे कोयला जला और ज्वलनशीलता ने ताप के रूप में ऊर्जा उत्पन्न की। भाप बनी उससे रेल चली। गैस बनी उससे प्रकाश की बत्तियां जलीं। भाप टरवाइन, फोरेसेन्ट लेम्प, हीटर रासायनिक मिश्रण विद्युत जनरेटर की प्रक्रिया में ऊर्जा की शक्ति क्षमता को विविध प्रयोजनों के लिए विविध रूपों में कार्यान्वित किया जाता है। आजकल प्रोपेज गैस से चलने वाले ताप विद्युत उत्पन्न करने वाले हल्के जनरेटर टेलीविजन आदि छोटे कामों के लिए खूब प्रयोग होते हैं।

दो विभिन्न प्रकार के धातुओं अथवा धातु मिश्रणों के तारों के सिरे यदि पिघलाकर जोड़ दिये जायं और उनके सिरों को विभिन्न तापमान पर रखा जाय तो उनमें विद्युत धारा प्रवाहित होने लगेगी यह तार विद्युत है।

कुछ धातुयें गरम होने पर अपनी सतह में इलेक्ट्रोन उभारती हैं। पास में कोई ठण्डी वस्तु हो तो यह उत्सर्जित इलेक्ट्रान उस पर जमा हो जाते हैं। इस स्थानान्तरण से विद्युत प्रवाह आरम्भ हो जाता है। स्थानान्तरण के मध्य भाग में धनावेश युक्त कणों वाली कोई गैस भर दी जाती है, इस प्रकार प्लाज्मा बनता है। प्लाज्मा की उपस्थिति इलेक्ट्रानों के आवेश को सन्तुलित करने के लिए आवश्यक है।

इन दिनों मैक्नटो हाइड्रो डायमिक—चुम्बकीय द्रव गतिज पद्धति विद्युत-निर्माण में सबसे अधिक प्रयुक्त होती है। इसका आधार यह है कि धात्विक चालकों के चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाकर विद्युत वाहक बल इलेक्ट्रोमोटिव फोर्स पैदा की जाय। इसके स्थान पर यदि दूसरा प्रयोग किया जाय तो भी यही फोर्स पैदा होगी। धात्विक चालकों के स्थान पर यदि गैसीय चालक ‘प्लाज्मा’ का प्रयोग किया जाय और उस गैस को चुम्बकीय क्षेत्र में होकर निकाला जाय तो विद्युत उत्पादन का वही प्रयोजन पूरा होगा। एक जस्ते की छड़, एक तांबे की छड़ यदि नीबू के रस में डाली जाय तो उनके बीच एक विभावान्तर पैदा होता है और उससे उपकरणों में विद्युत प्रवाह चल पड़ता है। रासायनिक बैटरियां इसी पद्धति से बनती हैं।

ईन्धन सेल की पद्धति को न समाप्त होने वाली बैटरी पद्धति कहा जा सकता है। प्रयुक्त रसायनों की शक्ति जब समाप्त हो जाती है तब बैटरी अपना काम बन्द कर देती है। पर ईन्धन सेल का प्रवाह क्रम बन्द नहीं होता। हाइड्रोजन-ऑक्सीजन के मेल से पानी की उत्पत्ति होती है। यदि वे दोनों गैसें लगातार मिलती रहें तो पानी का निर्माण अनवरत रूप से होता रहेगा। इसमें बाहरी और किसी ईन्धन की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसी आधार पर यह शोध चल रही है कि हाइड्रोजन ऑक्सीजन के सम्मिश्रण की भांति या कोयला, हवा अथवा पेट्रोलियम हवा के सम्मिश्रण से क्या ईन्धन सैल बन सकते हैं।

अन्तरिक्ष यात्रा में यह ईन्धन सेल ही काम आता है। भारी चीजों की बड़ी दूरी तक उड़ान सम्भव ही नहीं हैं। ईन्धन सेल का एक और स्रोत ढूंढ़ा जा रहा है वह है सूर्य-ताप। साधारणतया सूर्य से गरमी और रोशनी प्राप्त की जाती है। यों साधारणतया वह भी काम की चीज है, पर उसमें जो अगली सम्भावनायें विद्यमान हैं उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अणु भट्टियां और अणु रसायन बनाने के महंगे और खतरनाक झंझट में पड़ने की अपेक्षा, सूर्य से शक्ति प्राप्त करके बिजली की आवश्यकता पूरा कर सकना शक्य हो जायेगा। सूर्य की ऊर्जा पृथ्वी पर एक वर्ग मीटर जगह में 1400 वाट के करीब बिजली बखेरती है। इस शक्ति का उपयोग जिस दिन मनुष्य के हाथ में होगा उस दिन ऊर्जा का विपुल भंडार उसकी मुट्ठी में आ जायेगा।

बैटरी क्षेत्र में एक नया प्रयोग न्यूक्लाय बैटरियों का अब जल्दी ही बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होने लगेगा। एक खोखला बेलन चारों ओर रहेगा। बीच में छड़ रहेगी। उस छड़ पर बीटा किरणों का उत्सर्जन करने वाले रेडियो आइसोटोप्स चढ़ा दिये जायेंगे। बेलन की सतह पर इलेक्ट्रोन जमा होंगे। छड़ और बेलन को तार से जोड़ दिया जायेगा और विद्युत धारा प्रवाहित होने लगेगी।

लोह विद्युत का रूपान्तर और ताप चुम्बकीय विद्युत का रूपान्तरण सैद्धान्तिक रूप से सम्भव मान लिया गया है अब उसके सरलीकरण के प्रयोग चल रहे हैं। देरियम टाइटेनेट के रबे को यदि 120 डिग्री से0 से अधिक गरम किया जाय तो उसकी आन्तरिक संरचना में परिवर्तन उपस्थित होता है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को यन्त्रों द्वारा विद्युत में रूपान्तरण किया जा सकता है। चुम्बक रूपांतरण का भी यही आधार है।

शरीर को रासायनिक आधार पर विनिर्मित होने वाली बैटरी के समकक्ष रखा जा सकता है। इसके घटक ईन्धन सेल कहे जा सकते हैं जो मरण पर्यन्त सूक्ष्म बने रहते हैं। जब तक जीवन है तब तक इस बैटरी की क्षमता समाप्त नहीं हो सकती। अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए यही ईन्धन उपयुक्त समझा गया है। मनुष्य भी एक अन्तरिक्ष यात्री है। वह अपने पिता के घर से इस मर्त्यलोक में महत्वपूर्ण शोध अथवा प्रयोजन पूरे करने आया है उसे अपनी जीवन यात्रा के लिये ईन्धन चाहिये वह त्वचा और मांसपेशियों के रूप में स्पष्टतः मिला हुआ है। इतना ही नहीं उसके पास और भी अधिक गहरे शक्तिस्रोत हैं पर ऊर्जा के स्थूल रूप में इस मांस त्वचा मिश्रित कलेवर को भी अति महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

इस शरीर गत ऊर्जा का चैतन्य प्राणियों पर प्रत्यावर्तन करके उन्हें लाभान्वित किया जा सकता है। इसका एक छोटा सा प्रयोग जर्मन के डा. मैस्मर ने किया और उसे मैस्मरेजम नाम दिया।

मैस्मरेजम के आविष्कर्ता है—जर्मनी के डा. फ्रासिस्कम एन्टोनियस मैस्मर। वियना में उन्होंने चिकित्साशास्त्र पढ़ा और उपाधि प्राप्त की। उन्होंने एक महत्वपूर्ण शोध निबन्ध प्रस्तुत किया था जिस में बताया गया था कि अविज्ञात नक्षत्रों में एक तरल चुम्बकीय पदार्थ इस धरती पर आता है और उससे हम सब प्रभावित होते हैं। इस पदार्थ का सन्तुलन यदि शरीर में गड़बड़ाने लगे तो शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। यदि किसी प्रकार यह चुम्बकीय सन्तुलन ठीक कर दिया जाय तो बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य फिर ठीक हो सकता है।

इसका प्रयोग भी उन्होंने रोगियों पर किया और सफलता तथा ख्याति भी अर्जित की वे लोह चुम्बक को अपने शरीर की विद्युत से प्रभावित करते थे और फिर उस चुम्बक को रोगी के शरीर से स्पर्श कराके उस अभाव की पूर्ति करते थे जो रोग का कारण थी। इसके लिये वे अपनी संकल्प शक्ति की साधना द्वारा अपना मनोबल तथा आवश्यक चुम्बकीय विद्युत की मात्रा बढ़ाते थे। उनकी चिकित्सा प्रणाली में दूर से आने वाली मधुर और मादक संगीत का प्रयोग किया जाता था ताकि रोगी को मानसिक एकाग्रता और भाव सान्त्वना का लाभ मिले। अपने में शारीरिक विद्युत की मात्रा बढ़ना और उस लौह चुम्बक के माध्यम से रुग्ण व्यक्ति को लाभान्वित करना यही उनका चिकित्सा क्रम था। लाभान्वित रोगियों के मुंह से प्रशंसा सुनकर कष्ट पीड़ितों की संख्या दिनोदिन बढ़ने लगी यह हर रोज सैकड़ों तक पहुंचती।

अमेरिका में इन दिनों सत्रह चोटी के शल्य चिकित्सक इस प्रणाली का प्रयोग कर रहे और सम्मोहन विज्ञान के आधार पर रोगियों को सेवा सहायता पहुंचा रहे हैं। महिलाओं की प्रसव पीड़ा कम करने में तो इन प्रयोगों को शत-प्रतिशत सफलता मिली है दर्द न होने के इन्जेक्शन लगाने की अपेक्षा सम्मोहन प्रक्रिया द्वारा कष्टमुक्त स्थिति का लाभ देना उचित और हित कर समझा गया है। प्रसूताओं को भी यही उपचार अधिक उपयुक्त लगा है।

डा. हार्थसेन बेहोशी की आवश्यकता की आधी मात्रा दवा को देकर और आधा सम्मोहन का उपयोग करके अपना काम चलाता है। शल्य चिकित्सा के समय आवश्यक एनेस्थिशिया की मात्रा उन्होंने 50 प्रतिशत घटा दी है। इससे रोगी अर्ध मूर्छित भर रहता है। सम्मोहन के प्रभाव से उसे कष्ट बिलकुल नहीं होता।

कैडर्स अस्पताल में एक 4 वर्षीय लड़की का कान का आपरेशन होना था उसमें 5 घण्टे लगने थे। इतने लम्बे समय दवाओं की बेहोशी पीछे घातक सिद्ध हो सकती थी इसीलिये सम्मोहन के आधार पर आपरेशन करने का निश्चय किया गया। यह आपरेशन सफल रहा। इतनी देर तक इतना गहरा आपरेशन करने की इस सफलता ने इस विज्ञान की महत्ता को अब असंदिग्ध रूप से स्वीकार कर लिया है।

मस्तिष्कीय चोट, अम्बुद सूजन, रक्तचाप, हृदयशूल, उन्माद जैसे कष्टों में सम्मोहन का उपयोग निरापद समझा गया है। कमजोर हृदय वालों पर क्लोरोफार्म जैसी दवाओं की हानिकारक प्रतिक्रिया होती है, इसीलिए उनके आपरेशनों में भी सम्मोहन ही ठीक समझा गया है।

डा. हार्थमैन ने इस उपचार से न केवल रोगी अच्छे किये हैं वरन् व्यसनी और बुरी आदत वालों की कुटेवें भी छुड़ा दी हैं। नशेबाज जो अपने को आदत से लाचार मानते थे इस व्यसन से छुटकारा पा सके। बिस्तर में पेशाब कर देने वाले बड़ी उम्र के बच्चे भी इस व्यथा से छूटे।

हृदय के संकुचन के समय यदि रक्तचाप 160 एम-एम से अधिक हो और प्रकुंचन के समय वह 90 एम.एम. से अधिक हो तो रक्त चाप बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में वायु क्षेपक कोष्ठ पर अधिक दबाव पड़ता है—रक्त संचार से अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। यह क्रम कैसे रोका जाय, इसके लिए अन्य चिकित्सा इतनी उपयोगी सिद्ध नहीं हुई जितना कि सम्मोहन सफल रहा।

मांस पेशियों द्वारा उत्पादित और त्वचा तन्तुओं द्वारा संचारित शरीर गत ऊर्जा को संकल्प शक्ति द्वारा एकत्रित करना और उससे किसी के कष्ट निवारण करना यही मैस्मरेजम का प्रचलित प्रयोग है। पर यह आरम्भ है अन्त नहीं। यह एक छोटा सा उपचार मात्र है। योग की तंत्र शाखा में इस शरीर गत ऊर्जा का उच्चस्तरीय उत्पादन और प्रयोग का विधान भरा है। यदि इस आधार इस शक्ति स्रोत से लाभ उठाया जा सके तो मनुष्य अपना और दूसरों का असीम हित साधन कर सकता है।

शरीर के अवयवों के कार्यरत रहने से जीवन प्रक्रिया का संचालन होता है, इस मोटे तथ्य को सभी जानते हैं। शरीर शास्त्र के विद्यार्थियों को यह भी पता है कि—नाड़ी संस्थान के संचालन में अचेतन मस्तिष्क की कोई सूक्ष्म प्रक्रिया काम करती है। उसी के आधार पर रक्त संचार श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन के क्रिया-कलाप अनायास ही चलते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता और पलक झपकने—पाचन तन्त्र चालू रहने जैसे अगणित कार्यों की अति सूक्ष्म कार्य पद्धति अपने ढर्रे पर स्वसंचालित रीति से चलती रहती है।

मस्तिष्क का चेतन मस्तिष्क तो जागृत स्थिति में कोई आवश्यकता उत्पन्न होने पर ही कुछ महत्वपूर्ण निर्देश देता है अन्यथा वह ऐसे ही पूर्व स्मृतियों में—भावी कल्पनाओं में उलझा रहता है। यों विद्या, बुद्धि—कुशलता, चतुरता आदि में शिर के अग्र भाग में अवस्थित चेतन मस्तिष्क ही काम आता है, पर शरीर की समस्त क्रिया के संचालन, यहां तक कि मस्तिष्क की गतिविधियों को भी गतिशील रखने में यह अचेतन ही काम करता है।

अचेतन की वह कार्य पद्धति जो स्वसंचालित रूप से शरीर और मस्तिष्क को गतिशील रखती है—उसे ‘नाड़ी शक्ति’ (Vital Evergy) कहते हैं। यह एक रहस्य है कि शरीर को सक्रिय रखने वाली इस दिव्य शक्ति का स्रोत कहां है? चेतन और अचेतन मस्तिष्क तो उसके वाहन मात्र हैं। इन उपकरणों को प्रयोग करने के लिये जो यह क्षमता उपलब्ध होती है उसका भण्डार उद्गम कहां है। शरीर शास्त्री इस प्रश्न का उत्तर कुछ भी दे सकने में समर्थ नहीं हैं। नाड़ी शक्ति तक ही उनकी पहुंच है। यह कहां से आती है, कैसे काम आती है, घटती बढ़ती क्यों है? इस रहस्यमय तथ्य के अन्वेषण को वे अपनी शोध परिधि से बाहर ही मानते हैं। वस्तुतः जहां भौतिक विज्ञान अपनी सीमा समाप्त कर लेता है—अध्यात्म विज्ञान उसके आगे आरम्भ होता है।

‘जीवन तत्व’ यों शरीर में ओत-प्रोत दिखाई पड़ता है और उसी के आधार पर जीवित रहना सम्भव होता है, पर यह जीवन तत्व शरीर का उत्पादन नहीं है। यह अदृश्य और अलौकिक शक्ति है, जिसमें से उपयोगी और आवश्यक अंश यह कार्य कलेवर अन्तरिक्ष से खींचकर अपने भीतर धारण कर लेता है और उसी से अपना काम चलाता है। इस विश्वव्यापी जीवन तत्व का नाम ‘प्राण’ है।

प्राण व्यक्ति के भीतर भी विद्यमान है पर वह विश्व व्यापी महाप्राण का एक अंश ही है। बोतल के भीतर भरी हवा की सीमा की नाप-तौल की जा सकती है और मोटी दृष्टि से उसका पृथक—स्वतन्त्र अस्तित्व भी माना जा सकता है। पर वस्तुतः वह विश्वव्यापी वायु तत्व का एक अंश मात्र ही है। इसी प्रकार विश्वव्यापी महाप्राण का एक छोटा सा अंश मानव शरीर में रहता है—उसी अंश को ‘जीवन तत्व’ के रूप में हम देखते अनुभव करते हैं। यह जब न्यून पड़ता है तो व्यक्ति हर दृष्टि से लड़खड़ाने लगता है और जब वह सन्तुलित रहता है तो समस्त क्रिया-कलाप ठीक चलता है। यह जब बढ़ी हुई मात्रा में होता है तो उसे बलिष्ठता, समर्थता, तेजस्विता, मनोबल, ओजस प्रतिभा आदि में देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति ही ‘महाप्राण’ कहलाते हैं वे अपना प्राण असंख्यों में फूंकने और विश्व का मार्ग दर्शन कर सकने में भी समर्थ होते हैं। ‘प्राण’ को ही जीवन का आधार माना जाना चाहिए। शरीर शास्त्री जिस शक्ति स्रोत की व्याख्या ‘नाड़ी शक्ति’ कहकर समाप्त कर देते हैं वह वस्तुतः प्राण तत्व की एक लघु तरंग मात्र ही है।

मानव शरीर में विद्यमान प्राण शक्ति से ही समस्त अन्तः संचालन (Afferment) और नाड़ी समूह (Nerves System) इसी से अनुप्राणित हैं। मस्तिष्क की कल्पना, धारणा, इच्छा, निर्णय, नियन्त्रण, स्मृति, प्रज्ञा आदि समस्त शक्तियों का उत्पादन—अभिवर्धन तथा संचालन का मर्म जानना हो तो कुण्डलिनी विद्या का आश्रय लेना चाहिए। अचेतन मन अजस्र संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य कहा जाता है और उसे योग की समस्त सिद्धियों का केन्द्र बिन्दु माना जाता है।

विश्वव्यापी प्राण जब शरीर में प्रवेश करता है तो उसका प्रवेश दो छिद्रों के माध्यम से होता है जिन्हें ‘मूलाधार’ और ‘सहस्रार’ कहते हैं। सूर्य की शक्ति जब पृथ्वी पर आती है तो उसके माध्यम दोनों ध्रुव होते हैं। विद्युत भण्डार को जब छोटे यन्त्रों में लाना होता है तब भी प्लग के दो छेदों में दो हूक फंसाने पड़ते हैं। विश्व विद्युत महाप्राण का—शरीर विद्युत—कायप्राण में अवतरित करने के लिये भी उपरोक्त मूलाधार और सहस्रार छिद्र ही माध्यम होते हैं। कुण्डलिनी इस शक्ति सन्तुलन का नाम है। आत्म-विज्ञान प्राण की मात्रा आवश्यकतानुसार घटाने बढ़ाने के लिये इन्हीं छिद्रों का प्रयोग करता है इस विज्ञान के समझने से जीवन तत्व के मूल उद्गम का पता ही नहीं लगता वरन् उसकी मात्रा में न्यूनाधिक करके अभीष्ट सन्तुलन बनाने का भी लाभ मिलता है।

‘‘इस संसार में दिखाई पड़ने वाली और न दीखने वाली जितनी भी वस्तुएं तथा शक्तियां हैं उन सबके सम्पूर्ण योग का नाम ‘प्राण’ है। इसे विश्व की अति सूक्ष्म और अति उत्कृष्ट सत्ता (Vital Evergy) कह सकते हैं। श्वास-प्रश्वास क्रिया तो उसकी वाहन मात्र है जिस पर सवार होकर वह हमारे समस्त अवयवों और क्रिया-कलापों तक आती जाती और उन्हें समर्थ, व्यवस्थित एवं नियन्त्रित बनाये रहती है। भौतिक जगत में संव्याप्त गर्मी—रोशनी, बिजली, चुम्बक आदि को उसी के प्रति स्फुरण समझा जा सकता है। वह बाह्य और अन्तर्मन से सम्बोधित होकर इच्छा के रूप में—इच्छा से भावना के रूप में—भावना से आत्मा के रूप में परिणत होती हुई, अन्ततः परमात्मा से जा मिलने वाली इस विश्व की सर्व समर्थ सत्ता है। एक प्रकार से उसे परमात्मा का कर्तव्य माध्यम या उपकरण ही माना जाना चाहिए।’’
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