दिव्य शक्तियों का उद्भव प्राणशक्ति से

अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति

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अतीन्द्रिय ज्ञान—एक्स्ट्रा आर्डिनरी सेन्स परएप्शन—की प्राप्ति में यों मस्तिष्क के अचेतन भाग के अन्य केन्द्र भी काम करते हैं, पर आज्ञाचक्र का उपयोग सबसे अधिक होता है। धूमिल स्थिति में तो दर्पण पर अपनी आकृति तक देखना सम्भव नहीं होता, फिर धूमिल आज्ञाचक्र क्या काम करेगा। कैमरे के लैन्स पर धूलि जम रही हो तो साफ फोटो कहां आता है? आंखें दुखने आ जायं या पट्टी बांध ली जाय तो दृश्य कहां दिखाई देते हैं। इसी प्रकार धूमिल आज्ञाचक्र अपनी क्षमता का प्रकटीकरण प्रसुप्त स्थिति में नहीं कर सकता। सक्षम बनाने के लिए उसे स्वच्छ एवं जागृत बनाने की आवश्यकता होती है। इस विभाग को अध्यात्म की भाषा में तृतीय नेत्र कहा जाता है। उसमें दिव्य दृष्टि का अस्तित्व पाया जाता है, दिव्य दृष्टि का अर्थ है वह देख पाना जो नेत्र गोलकों की सामर्थ्य से आगे की बात है।

प्रसिद्ध जादूगर गोगियापाशा और प्रो. सरकार नेत्रों से कड़ी पट्टी बंधवाकर धनी आबादी की भीड़ भरी सड़कों पर मोटर साइकिल दौड़ाने के अपने करतब दिखा चुके हैं। इन प्रदर्शनों से पहले विशेषज्ञों ने अनेक प्रकार से यह परीक्षा कर ली थी कि इस स्थिति में आंखों से देख सकने की किसी प्रकार कोई गुंजाइश नहीं है प्रदर्शनों के समय दुर्घटना घटित न होने देने के यों सरकारी प्रबन्ध भी थे, पर वैसा अवसर ही नहीं आया। प्रदर्शन पूरी सफलता के साथ सम्पन्न हुए और दर्शकों में से सभी को यह विश्वास करना पड़ा कि बिना आंखों की सहायता के भी बहुत कुछ देखा जाना सम्भव हो सकता है।

इसी से मिलती-जुलती एक घटना अमेरिका की भी है। पोद्देशिया नामक महिला घोर अंधेरे में आंखों से पट्टी बांधकर दृश्य देखने और रंग पहचानने का दावा करती थी। उसकी परीक्षा बर्नार्ड कालेज न्यूयार्क की वैज्ञानिक मण्डली ने की। परीक्षा समिति के अध्यक्ष ‘डा. रिचर्ड यूटस’ ने घोषित किया है—वस्तुतः महिला में वैसी ही क्षमता है जैसा कि उसका कथन है। ‘तन्त्र विद्या के विश्व कोश’ ‘एनसाइक्लोपीडिया आफ दि आकल्ट’ ग्रन्थ में ऐसे ढेरों उदाहरणों का वर्णन है जिनमें मनुष्य में पाई जाने वाली अतीन्द्रिय क्षमताओं का उल्लेख है। फ्रान्सीसी नाविक फोन्टान जन्मान्ध था, पर वह अपनी उंगलियों से छूकर सब कुछ उसी तरह जान लेता था जैसा कि आंखों वाले नेत्रों से देखकर जानते हैं। फ्रान्सीसी कवि और वैज्ञानिक ‘जूल्स रोमेन्स’ ने परोक्ष दृष्टि विज्ञान में गहरी दिलचस्पी ली थी और अपने शोध प्रयासों से सिद्ध किया था कि नेत्रों के द्वारा मस्तिष्क में दृश्य सूचना पहुंचाने वाले ज्ञान तन्तुओं के समान ही सम्वेदना वाहक धागे शरीर के अन्य अंगों में भी मौजूद रहते हैं। यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो दृष्टि प्रयोजन अन्य अवयवों की सहायता से भी पूरा किया जा सकता है।

चैकोस्लोविया के परामनोविज्ञान संस्थान के प्राध्यापक ‘मैलिन रिज्ल’ और लैनिनग्राड विश्व विद्यालय के प्राध्यापक ‘वेलिलियेव’ अपनी शोध समीक्षा में उस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मनुष्य में अतीन्द्रिय क्षमता का अस्तित्व मौजूद है। किन्तु वह क्यों विकसित होती है और किस प्रकार उसे बढ़ाया जा सकता है, यह अभी भी रहस्य का विषय है।

गेविन मैक्सवेल ने दिव्य दृष्टि के अस्तित्व को खोजने में गहरी दिलचस्पी ली है और उन्होंने लम्बी जांच पड़ताल के बाद यह पाया है कि बहुतों में सहज ही दृष्टि होती है। लगातार प्रयत्न और अभ्यास करने पर उसे बढ़ाया जा सकता है। किन्तु कितने ही बिना किसी अभ्यास के भी उस क्षमता से सम्पन्न पाये जाते हैं, किन्तु वे अपनी अनुभूतियों को प्रकट करने में प्रायः डरते रहते हैं। ढोंगी समझे जाने, किसी को बुरा लगने, सही न होने पर खिल्ली उड़ने, अपनी अनुभूति पर पूर्ण विश्वास न होने जैसे कारणों से भीतर से जो आभास मिलता है उसे प्रकट नहीं कर पाते और छिपाये ही रहते हैं। यदि पूर्वाभासों के प्रकटीकरण की परम्परा चल पड़े तो फिर प्रतीत होगा कि मनुष्यों में बुद्धिमत्ता की ही तरह अपरात्मानुभूति का अस्तित्व भी बड़ी मात्रा में मौजूद है। प्रयत्न पूर्वक विकसित करने पर तो उसे और भी अधिक सक्षम बनाया जा सकता है। अशिक्षितों को शिक्षित बनाकर जिस प्रकार बुद्धि वैभव बढ़ाया जाता है उसी प्रकार यह भी सम्भव है कि जन साधारण में सामान्यतया और कुछ विशिष्टों में विशेषतया पाई जाने वाली दिव्य दृष्टि को समर्थ बनाना और उससे लाभ उठाना सम्भव हो सके।

गेविन मैक्सवेल ने अपने अनुसन्धानों में एक अस्सी वर्षीय अन्धे का वर्णन किया है जिसने समुद्र में डूबी हुई एक मछुआरे की लाश का सही स्थान बताने और उसे बाहर लाने में सहायता की थी। उन्होंने पश्चिमी पठार के द्वीप समूहों के लोगों में यह क्षमता विशेष रूप से पाये जाने का उल्लेख किया है। शमूस फियारना द्वीप में एक मछुआ मछली पकड़ते समय गांव के समीप की खाड़ी में डूब गया। उसकी लाश निकालने और विधिवत् दफनाने के लिये सारा गांव उत्सुक था। सभी नावें कई दिन तक लगातार खाड़ी में चक्कर काटती रहीं पर किसी के कांटे में लाश फंसी नहीं। निराशा छाई हुई थी। तभी एक 80 वर्षीय अन्धे कैलम मेकिनन ने कहा, आप लोग मुझे नाव में बिठा कर ले चलें और खाड़ी में घुमाते रहें। सम्भवतः में लाश को तलाश करा दूंगा। वैसा ही किया गया। सही जगह मिलने पर बुड्ढा चिल्लाया, कांटा डालो लाश ठीक नीचे है। वैसा ही किया गया। फलतः मृतक को बाहर निकाल लिया गया और उसे विधिवत् दफनाया गया।

यह दिव्य दृष्टि भौतिक क्षेत्र में अदृश्य को देखने और अविज्ञात को जानने में काम आती है और आध्यात्मिक जगत में दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता को विकसित करती है। ऐसे दिव्यदर्शी, तत्वदर्शी कहलाते हैं उन्हें जो सूझता और दीखता है वह बहुत ही उच्च स्तरीय होता है। पदार्थों में चेतना और प्राणियों में आत्मा को देख पाना इसी तत्वदर्शी दृष्टि के लिए सम्भव है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से यही प्रख्यात है, गायत्री महामन्त्र में इसी की आराधना है। इसकी उपलब्धि होने पर सर्वत्र अपना ही आत्मा बिखरा दीखता है और अन्यान्यों के सुख-दुःख अपने ही प्रतीत होते हैं। इन्हीं से आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन का परम लक्ष्य प्राप्त होता है। दिव्यदर्शी भगवान बुद्ध ने कहा था, ‘जब करुणा के नेत्र खुलते हैं तो मनुष्य अपने में दूसरों को और दूसरों में अपने को देखने लगता है। करुणा की दृष्टि से ही माया का उच्छेद होता है और उसके पार पूर्णता की परम ज्योति का दर्शन होता है।’ इसी परम ज्योति को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है।

कई वर्ष पूर्व अप्रैल में मास्को से टेलीविजन पर एक अत्यन्त आश्चर्यजनक कार्यक्रम प्रसारित किया गया। निजनी तगिन की एक 22 वर्षीया तरुणी रोसा कुलेशोवा ने अपने दाहिने हाथ की तीसरी और चौथी उंगलियों से स्पर्श करके अखबार का एक लेख पढ़ा और फोटो चित्रों को बिना किसी की मदद से देखकर पहचाना। इस कार्यक्रम को हजारों रूसियों और दूसरे देशवासियों ने देखा और बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया।

रोसा निजनी के एक अन्ध विद्यालय में अध्यापन का कार्य करती है। एक दिन जब वह पढ़ा रही थीं, तब एकाएक उसने अनुभव किया कि वह बिना आंखों की सहायता के उंगलियों के पोरों से देख सकती है। उसने धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाया। स्पर्श से ही वह अंक पहचानने लगी। कुछ दिन में तो वह कागजों पर हुए रंग को भी केवल स्पर्श से जानने लगी। दिसम्बर 62 को उसने सोवियत संघ, मनोवैज्ञानिक संघ की यूराल शाखा के सदस्यों के सामने प्रदर्शन किया। तुरन्त प्रेस से आये अखबार को उंगलियों की मदद से पढ़ कर सुना दिया। यही नहीं अखबार पर जहां चित्र थे, उनके पोज और वह चित्र कैसे कपड़े पहने थे, यह सब अत्यन्त सूक्ष्म विभाजन तक उसने केवल स्पर्श से बता दिये, स्पर्श से वह किस प्रकार अक्षर, रंग या चित्रों को पहचान लेती है, उसका कोई निश्चित उत्तर रोसा नहीं दे सकती किन्तु उसने इतना अवश्य बताया कि कोई भी वस्तु छूने से कुछ तरंग जैसी लाइनें मस्तिष्क तक दौड़ने लगती हैं और सब कुछ स्पष्ट होने लगता है।

वैज्ञानिक बहुत हैरान हुए, खारकोव विश्वविद्यालय के एक मनोविज्ञानशास्त्री ने कहा, ‘सम्भव है वस्तुओं से इन्फ्रारेड किरणें निकलती हों और उनके स्पन्दन से पता चलता हो, इसलिये रोसा पर कुछ प्रयोग किये गये। पालिस किये हुए कांच के पार से वस्तुयें दिखाई गईं। अब इन्फ्रारेड किरणों की सम्भावना को रोक दिया गया था तो भी रोसा ने पहले की तरह ही सब कुछ बता दिया। यही नहीं उसे एक लम्बी नली के पार से रंग दिखाये, तब उसने नली के मुंह पर उंगली रखकर सब कुछ सही-सही बता दिया। वैज्ञानिक कोई कारण समझ न सके, अन्त में रूसी अखबार ‘इजवेस्तिया’ ने स्वीकार किया, यह किसी दिव्य-दृष्टि का चमत्कार है।

टेलीविजन पर हुए कार्यक्रम को देखने के बाद खार्कोव के एक डॉक्टर ओल्गा ब्लिजनोव ने अपनी पुत्री पर भी इस तरह का प्रयोग किया और देखा कि रोसा कुलेशोवा की तरह नीले, काले, हरे, लाल सब रंगों को केवल स्पर्श से जान लेती है। उसका भी परीक्षण किया गया। लेना ब्लिजनोव के सामने चौकोर कागजों का पूरा बंडल रखा गया और उसके नीचे एक कागज में कुछ लिखकर छुपा दिया गया। आश्चर्य कि उसने बण्डल के ऊपर वाले कागज को छूकर यह बता दिया कि सबसे नीचे वाले कागज में क्या लिखा हुआ है। इतना ही नहीं वह दो-ढाई इन्च दूर उंगलियां रखकर भी फोटो, चित्र, रंग और अक्षर पहचान लेती है, जबकि उसकी आंखों में मजबूत पट्टी बंधी होती है। प्रोफेसर अलेक्जेंडर स्मिर्नोव ने इस विद्या का गहन अध्ययन किया। उन्होंने ऐसी क्षमता के कुछ लड़के भी खोज निकाले पर इस रहस्य का सही पता न लगा सके। इन चर्चाओं को न्यूयार्क में बारनार्ड कालेज के प्रोफेसर डा. रिचार्ड पी. यूज से भी सुना तो उन्होंने बताया कि 1939 में कैन्टकी के हाईस्कूल में पेट्रीशिया आइन्सवर्स नाम की एक लड़की भी इस तरह की दिव्य-दृष्टि रखती है। अब तक वह स्त्री कई बच्चों की मां हो चुकी थी, इसलिये श्री डा. यूज ने कालेज के लड़कों पर प्रयोग दोहराये और बाद में उन्होंने बताया कि 135 विद्यार्थियों में से 15 प्रतिशत छात्रों में इस तरह की क्षमता पाई गई, जो अभ्यास के द्वारा अपनी दिव्य-दृष्टि बढ़ा सकते हैं। इस घोषणा से सिद्ध है कि आंखों से ही सब कुछ नहीं देखा जाता उसके अतिरिक्त अंगों में भी देखने समझने की क्षमता मौजूद है। मस्तिष्क, नेत्र गोलकों का फोटोग्राफी कैमरे जैसा प्रयोग करता है और पदार्थों के जो चित्र आंखों की पुतलियों के लेंस से खींचता है वे मस्तिष्क में जमा होते हैं। इनकी प्रतिक्रिया के आधार पर मस्तिष्क के ज्ञानतन्तु जो निष्कर्ष निकालते हैं उसी का नाम ‘दर्शन’ है। आंख इसके लिए सबसे उपयुक्त माध्यम है। मस्तिष्क के रूप दर्शन केन्द्र के साथ नेत्र गोलकों के ज्ञान तन्तुओं का सीधा और समीपवर्ती सम्बन्ध है इसलिए आमतौर से हम नेत्रों से ही देखने का काम लेते हैं और मस्तिष्क उन्हीं के आधार पर अपनी निरीक्षण क्रिया को गतिशील देखता है।

पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि दृष्टि शक्ति केवल नेत्रों तक ही सीमित है। अन्य अंगों के मस्तिक के साथ जुड़े हुए ज्ञान तन्तुओं को विकसित करके भी मस्तिष्क बहुत हद तक उस प्रयोजन की पूर्ति कर सकता है। समस्त विश्व का हर पदार्थ अपने साथ ताप और प्रकाश की विद्युत किरणें संजोये हुए है। वे कम्पन लहरियों के साथ इस निखिल विश्व में अपना प्रवाह फैलाती हैं। ईथर तत्व के द्वारा वे दूर-दूर तक जा पहुंचती हैं और यदि उन्हें ठीक तरह से पकड़ा जा सके तो जो दृश्य बहुत दूर पर अवस्थित है—जो घटनायें सुदूर क्षेत्रों में घटित हो रही है। उन्हें निकटवर्ती वस्तुओं की तरह देखा जा सकता है। इन दृश्य किरणों को पकड़ने के लिये नेत्र उपयुक्त हैं। समीपवर्ती दृश्य वही देखते हैं और दूरदर्शी दृश्य देखने के लिए—तृतीय नेत्र की भ्रूमध्य में अवस्थित आज्ञाचक्र को प्रयुक्त किया जा सकता है। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिये कि रूप तत्व का सम्बन्ध नेत्रों से ही है। अग्नि तत्व की प्रधानता से ‘रूप’ कम्पन उत्पन्न होते हैं। शरीर में अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व नेत्र करते हैं, पर ऐसा नहीं मानना चाहिये कि अग्नि तत्व अन्यत्र शरीर के अन्य अंगों में नहीं है। समस्त शरीर पंचतत्वों के गुम्फन से बना है। यदि किसी अन्य अंग का अग्नि तत्व अनायास ही विकसित हो जाएगा या साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा विकसित कर लिया जाय तो नेत्रों की बहुत आवश्यकता उनके माध्यम से भी पूरी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों के कार्य एक सीमा तक दूसरे अंग कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किये गये पौहारी बाबा प्रत्यक्षतः वायु ही ग्रहण करते थे। अन्न, जल सेवन नहीं करते थे पर शरीर के अन्य अंगों द्वारा अदृश्य जगत से उन्हें सूक्ष्म आहार बराबर मिलता रहता था इसके बिना किसी के लिए भी जीवन धारण किये रहना असम्भव है।

वेधक दृष्टि भी असम्भव नहीं

मानवी शरीर की विलक्षणताओं की चर्चा करते हुए उन प्रामाणिक घटनाओं का उल्लेख अक्सर किया जाता रहा है जिनकी यथार्थता सुविज्ञ लोगों ने पूरी जांच पड़ताल के बाद घोषित की है। मनुष्य शरीर में यान्त्रिकी बिजली की आश्चर्यजनक मात्रा हो सकती है, इसके कितने ही उदाहरण सर्वविदित हैं। कोलोराडी प्रान्त के लेडीवली नगर में के.डब्ल्यू.पी. जोंस नाम का एक ऐसा व्यक्ति हुआ है जो जमीन पर चलकर यह बता देता था कि जिस भूमि पर वह चल रहा है उसके बीच किस धातु की, कितनी गहरी तथा कितनी बड़ी खदान है। उसे जमीन में दबी भिन्न धातुओं का प्रभाव अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से होता था। अनुभव से उसे यह सिखा दिया था कि किस धातु का स्पन्दन कैसा होता है। अपनी इस विशेषता का उसने भरपूर लाभ उठाया। कइयों को खदानें बताकर उसने हिस्सा लिया और कुछ खदानें उसने अपने धन से खरीदीं और चलाईं अमेरिका का यह बहुत धन सम्पन्न व्यक्ति इसी अपनी विशेषता के कारण बना था।

आयरलैंड के प्रो. वैरेट इस बात के लिए प्रख्यात थे कि वे भूमिगत जलस्रोतों तथा धातु खदानों का पता अपनी अन्तःचेतना से देखकर बता देते थे। इस विशिष्टता से उन्होंने अपने देशवासियों को बहुत लाभ पहुंचाया था। आस्ट्रेलिया का एक किसान भी पिछली शताब्दी में इस विद्या के लिए प्रसिद्धि पा चुका है, वह दो शंकु वाली टहनी हाथ में लेकर खेतों में घूमता फिरता था और जहां उसे जलस्रोत दिखाई पड़ता था वहां रुक जाता था। उस स्थान पर खोदे गये कुओं में प्रायः पानी निकल ही आता था। भारत के राजस्थान प्रान्त में एक पानी वाले महाराज जिन्हें माध्वानन्द जी कहते थे अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कितने ही सफल कुंए बनवा चुके थे।

भूमिगत अदृश्य वस्तुओं को देख सकने की विद्या को रेब्डोमेन्सी कहते हैं। इस विज्ञान की परिधि में जमीन में दबे खनिज रासायन, जल, तेल, आदि सभी वस्तुओं को जाना जा सकता है। किन्तु यदि केवल जल तलाश तक ही वह सीमित हो तो उसे ‘वाटर डाउनिंग’ कहेंगे।

आयरलैंड के विकलो पहाड़ी क्षेत्र में दूर-दूर तक कहीं पानी का नामो-निशान नहीं था। जमीन कड़ी, पथरीली थी। प्रो. वेनेट ने खदान विशेषज्ञों के सामने अपना प्रयोग किया। वे कई घण्टे उस क्षेत्र में घूमे अन्ततः वे एक स्थान पर सके और कहा—केवल 14 फुट गहराई पर यहां एक अच्छा जलस्रोत है। खुदाई आरम्भ हुई और पूर्व कथन बिलकुल सच निकला। 14 फुट जमीन खोदने पर पानी की एक जोरदार धारा वहां से उबल पड़ी।

इन सबके पीछे उसी प्राण शक्ति का आधार सन्निहित है। बिजली एक ही होती है पर हीटर में वही कार्य गर्मी पैदा करने का करती है तो रेफ्रीजरेटर में ठंडक का। दोनों तथ्य एक दूसरे से विपरीत किन्तु एक ही शक्ति के उपादान। मानव-शरीर में विद्यमान प्राण भी एक ऐसी ही विद्युत है जिससे भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेकों तरह के कार्य किये जा सकने नितान्त सम्भव हैं।

मानवी शरीर के शोध इतिहास में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिनसे यह सिद्ध होता है कि किन्हीं-किन्हीं शरीरों में इतनी अधिक बिजली होती है कि उसे दूसरे लोग भी आसानी से अनुभव कर सकें। यों हमारा नाड़ी संस्थान पूर्णतया विद्युत धारा से ही संचालित होता है। मस्तिष्क को जादुई बिजलीघर कह सकते हैं, जहां से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंगों की गतिविधियों का नियन्त्रण एवं संचालन होता है पर यह बिजली ‘जीव विद्युत’ वर्ग की होती है और इस तरह अनुभव में नहीं आती जैसी कि बत्ती जलाने या मशीनें चलाने वाली बिजली। शरीर में काम करने वाली गर्मी से विभिन्न अवयवों की सक्रियता रहती है और वे अपना-अपना काम करते हैं यह कायिक ऊष्मा वस्तुतः एक विशेष प्रकार की बिजली ही है। इसे मानवी विद्युत कह सकते हैं। इसी का सम्मिलित स्वरूप ही सूक्ष्म शरीर कहलाता है।

भारतीय दर्शन ने आत्मा की अमरता, अलौकिक जगत की विभूतियों का चित्रण, जीवन लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणाएं इस तत्व दर्शन की अनुभूति के बाद ही दी हैं इसीलिये हमारे धर्म की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है।

प्राण के नियन्त्रण के चमत्कार

भारतीय योगियों द्वारा परकाया प्रवेश को विज्ञान के तर्कवादी व्यक्ति अतिरंजित कल्पना कहकर टाल देते हैं। वस्तुतः मनुष्य के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके प्राण शरीर की महत्ता असंख्य गुनी अधिक है। जीवन के सत्य, शरीर और ब्रह्माण्ड की अन्तर्वर्ती रचना, विज्ञान और क्रिया का ज्ञान जिस शरीर और माध्यम द्वारा सम्भव है वह प्राण शरीर ही है। स्थूल शरीर की अपेक्षा प्राण शरीर कहीं अधिक सशक्त और आश्चर्यजनक काम कर सकने की सामर्थ्य से ओत-प्रोत होता है।

प्रशान्त महासागर में समाओ द्वीप के निकट एक जीव पाया जाता है उसे पैलोलो कहते हैं। यह जल में छिपी चट्टानों में घर बनाकर रहता है और वर्ष में दो बार अक्टूबर तथा नवम्बर के उन दिनों में, जब चन्द्रमा आधा होता है और ज्वार अपनी छोटी अवस्था में होता है, यह बाहर निकल कर पानी की सतह पर आता है और सतह पर आकर अण्डे देकर फिर वापस चला जाता है।

अण्डा देने आने और वापस चले जाने में कोई विचित्र बात नहीं है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि पैलोलो जब अपने घर से चलता है तो अपना आधे से अधिक शरीर वह घर में ही सुरक्षित छोड़ आता है। अण्डा देने और तैरने के लिये जितना शरीर आवश्यक होता है उतने से ही वह अपना सतह में आने का अभिप्राय पूरा कर जाता है। इस बीच उसका शरीर मृत ढेले मिट्टी की तरह निष्क्रिय पड़ा रहता है। घर लौटकर पैलोलो फिर से अपने उस छोड़े हुये अंग को फिट कर लेता है। उसके बाद उस शरीर में भी रक्त संचार, प्राण संचार की गतिविधियां प्रारम्भ हो जाती हैं। यह एक उदाहरण है जो यह बताता है कि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक उन्नति शरीर के बिना भी चला सकता है शरीर से तो उसका सम्बन्ध कुछ वर्षों का अधिक से अधिक एक शताब्दी का ही होता है पर प्राण-शरीर उसकी जीवन धारण करने की प्रक्रिया से लेकर मुक्ति पर्यन्त साथ-साथ रहता है।

बालक गर्भ में आता है तब वह किसी प्रकार की श्वांस नहीं लेता फिर भी उसके शरीर में आक्सीजन की पर्याप्त मात्रा पहुंचती और शरीर के विकास की गति चलती रहती है। उस समय बच्चे की नाभि का सम्बन्ध मां की नाभि से बना रहता है। नाभि सूर्य का प्रतीक है। प्राणायाम द्वारा वस्तुतः सूर्य चक्र का ही जागरण किया जाता है जिससे आत्मा अपना सम्बन्ध सीधे सूर्य से जोड़कर प्राणाग्नि का विकास करती रहती है। प्रारम्भ प्राणायाम की क्रियाओं से होती है और चरम विकास ध्यान धारणा और समाधि अवस्था में मुक्ति और कुछ नहीं प्राणमय शरीर को सूर्य के वृहद् प्राण में घुलाकर स्वयं आद्य शक्ति के रूप में परिणत हो जाना होता है जिस प्रकार नदी से एक लोटा जल लेने से लोटे के जल की सत्ता अलग हो जाती है पर नदी में उड़ेल देने के बाद वह जल फिर नदी हो जाता है वैसी ही गति प्राणों की भी होती है।

शरीर के न रहने पर भी प्राणों में गति बनी रहती है। प्रसिद्ध तिब्बती योगी लामा श्री टी. लाबसांग रम्पा ने अपनी पुस्तक ‘‘यू फार एवर’’ (आप अमर हैं) पुस्तक में मनुष्य का तेजोवलय (चतुर्थ अध्यात्म) में एक घटना का वर्णन करते हुये लिखा है कि—फ्रांस क्रांति के समय एक देशद्रोही का सिर काट दिया गया। धड़ से शीश अलग हो जाने पर भी उसके मुंह से स्फुट बुदबुदाहट की क्रिया होती रही ऐसा जान पड़ा कि वह कुछ कहना चाहता है इस घटना को फ्रांसीसी शासन ने सरकारी पुस्तकों में रिकार्ड करवाया जो अभी तक विद्यमान है।’’

कर्नल टाउन सेंड ने प्राणायाम के अभ्यास से प्राणमय शरीर के नियन्त्रण में सफलता प्राप्त की थी। सुप्रसिद्ध अमरीकी अणु-वैज्ञानिक श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट की भांति उन्होंने भी प्राण सत्ता के अद्भुत प्रयोगों का प्रदर्शन किया था। एक बार सैकड़ों वैज्ञानिकों व साहित्यकारों से खचाखच भरे हाल में उन्होंने प्रदर्शन किया। स्वयं एक स्थान पर बैठ गये। ब्लैकबोर्ड के साथ खड़िया बांध दी गई। इसके बाद उन्होंने अपना प्राण शरीर से बाहर निकल कर अदृश्य शरीर से ब्लेकबोर्ड पर बोले हुये अक्षर लिखे सवाल हल किये। बीच-बीच में वे अपने शरीर में आ जाते और वस्तु स्थिति भी समझाते जाते। इस प्रदर्शन ने लोगों को यह सोचने के लिये विवश किया कि मनुष्य शरीर जितना दिखाई देता है वहीं तक सीमित नहीं वरन् वह जो अदृश्य है इस शरीर से कहीं अधिक उपयोगी व मार्मिक है।

डा. वानडेन फ्रेंक ने इस सम्बन्ध में व्यापक खोज की थी और यह पाया था कि सिर के उस स्थान का जहां हिन्दू लोग चोटी रखते हैं प्राण शरीर से सम्बन्ध रखता है यहीं से हृदय और रक्त-विसरण की क्रियायें भी सम्पन्न होती हैं उन्होंने शरीर के विकास में इन्हीं खोजों के आधार पर मानसिक क्रियाओं का बहुत अधिक महत्व माना था। वायु मिश्रित आक्सीजन, प्राण अग्नि स्फुल्लिंग सब एक तत्व के नाम हैं इस पर नियन्त्रण करके योगीजन शरीर न रहने पर भी हजारों वर्ष तक संसार में बने रहते हैं उसे न जानने वाले संसारी लोग अपने इस महत्वपूर्ण शरीर को भी उसी तरह नष्ट करते रहते हैं जिस तरह इन्द्रियों द्वारा शरीर की क्षमताओं को। प्राण शरीर का विकास किये बिना जीवन के रहस्यों में गति असम्भव है। आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन नामुमकिन है।

गुरुत्वाकर्षण से मुक्त प्राण चेतना

योग सिद्धियों में वर्णित आकाश गमन जैसी सिद्धियों की चर्चा को दन्त कथा नहीं मान लिया जाना चाहिए। मानव शरीर में भौतिक उपकरण में प्रयुक्त होने वाले सारे आधार बीज रूप में मौजूद हैं उन शक्ति बीजों को विकसित करके शरीर के कणों को इतना हलका बनाया जा सकता है जिन पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव न पड़े और मनुष्य का आकाश में उड़ सकना सम्भव हो सके। प्रयोग की बात आगे की है। पर सिद्धान्त रूप में उसे अब असम्भव नहीं कहा जा सकता। मनोबल की प्रचण्ड क्षमता का, शारीरिक विद्युत का मस्तिष्कीय कंप्यूटर का कायिक रेडियो सक्रियता का वैज्ञानिकों ने जो परिचय पाया है उससे वे आश्चर्य चकित रह गये हैं।

पानी की सतह के ऊपर एक अदृश्य झिल्ली होती है। जिसे सतह की तनाव शक्ति—सरफेस टेनशन भी कहते हैं। यह परत कई बार घनी भी होती है। उसके ऊपर कोई हलकी चीज इस तरह धीरे से तैराई जाय कि उस झिल्ली को आघात न लगे तो वह पानी पर तैरती रहेगी। हजामत बनाने का ब्लेड यदि होशियारी के साथ इस परत के ऊपर छोड़ दिया जाय तो वह तैरता रहेगा, डूबेगा नहीं।

मृत सागर डैड सी—में क्षार आदि बहुत हैं, उसका पानी भारी है इसलिए उसमें कोई मनुष्य डूबना चाहे तो डूब नहीं सकेगा। कारण कि मनुष्य शरीर के कण उस पानी की तुलना में हलके हैं। हलकी चीज भारी द्रव में नहीं डूब सकती।

जल कणों से जो भी चीज हलकी होगी आसानी से तैरने लगेगी। लकड़ी हलकी होती है। हवा भरे गुब्बारे, रबड़ के ट्यूब हलके होते हैं और वे पानी पर तैरते हैं। शरीरगत कणों के भार में न्यूनता करना और उन्हें जल कण की तुलना में हलके बना लेना योग साधनाओं द्वारा सम्भव है। स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर की सत्ता यदि प्रखर हो उठे तो उतना हलकापन देह में उत्पन्न किया जा सकता है कि वह जल पर बिना डूबे चल सके एवं आकाश में बिना गिरे उड़ सके। प्राणों के नियन्त्रण द्वारा यौगिक जगत में भी वैसा ही सिद्धान्त कार्य करता है जिसमें न केवल सूक्ष्म शरीर को स्थूल से पृथक् कर परकाया प्रवेश किया जा सके अपितु सदेह भी उड़ा जा सकता है। हनुमान जी प्राणायाम की शक्ति से ही समुद्र लांघते और हवा में उड़कर संजीवनी बूटी लाये थे।

जोसेफ की मृत्यु 1663 में हुई। जब वह मरणासन्न था जो प्रसिद्ध चिकित्सक फ्रांसेस्को थिरयोली को चिकित्सा के लिए बुलाया गया। डाक्टर ने अपने संस्मरण में लिखा है—मैं देखभाल कर ही रहा था कि जोसेफ ने मेरा हाथ पकड़ा और हवा में तैरने लगा। उस से जकड़ा हुआ में भी उड़ रहा था। इसके बाद वह मुझे भी उड़ाते हुए फ्रांस के गिरजे तक ले गया और वहीं बैठकर प्रार्थना करने लगा। मुझसे कहा, आपके इलाज की जरूरत नहीं रही। मुझे भगवान ने बुलाया है सो मैं जल्दी ही परलोक जा रहा हूं।’ डाक्टर सन्न रह गया और बिना इलाज किये ही वापिस लौट गया। दूसरे दिन उसकी मृत्यु हो गयी।

इटली के सरकारी कागजों में जोसेफ के हवा में तैरने के कितने ही प्रसंग हैं जो पुलिस तथा दूसरे अफसरों ने तथ्य का पता लगाने के लिए जांच पड़ताल के सम्बन्ध में संग्रह किये थे। किंवदन्तियों से ले कर प्रत्यक्ष दर्शियों तक के ऐसे अनेकानेक प्रसंग इटली की जनता में प्रचलित हैं जिनसे पता चलता है कि वह पादरी ऊंची रखी हुई ईसा की मूर्तियों तक उछल कर जा पहुंचता था और ऐसे ही कुछ देर अधर में लटका रहता था। लोग उसे अलौकिक क्षमताओं से सम्पन्न सिद्ध पुरुष मानने लगे थे। पादरी जोसेफ का पिता इटली के फेलिक्स डोला नामक गांव में रहता था और बढ़ई का काम करता था। गरीबी और बेकारी से दुःखी होकर वह अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर कहीं गुजारे का आसरा ढूंढ़ने के लिए चल पड़ा। सन् 1603 की बात है रास्ते में ही इस लड़के का जन्म हो गया। वह बहुत ही दुर्बल हड्डियों का ढांचा मात्र था। जन्म से ही बीमार रहने लगा और थोड़े दिनों में ही पेट की भयंकर व्यथा में ग्रसित हो गया। इलाज के लिये पैसा न होने से बाप ने एक साधु की शरण ली। साधु ने कहा, ‘इसका शरीर मर चुका केवल आत्मा ही धरती पर बाकी है।’ इतने पर भी उसने कहा वह बचा लिया जायगा और पादरी होकर जीयेगा। सचमुच ही वह बच गया और बचपन से ही साधुओं जैसा पूजा-पाठ का जीवन यापन करने लगा। उसकी उपासना चलती रही और चमत्कारी ख्याति बढ़ी। उसकी विशेषताओं में प्रार्थना के अवसरों पर हवा में तैरने लगने की प्रसिद्धि सर्वत्र फैली हुई थी।

लार्ड अडारे ने अपनी आंखों देखा ऐसा विवरण ‘रिपोर्ट आफ दि डायलोक्टिकल सोसायटी आन स्प्रिच्युलिज्म’ में प्रकाशित कराया था जिसके अनुसार एक व्यक्ति को उन्होंने हवा में पक्षी की तरह उड़ते और तैरते देखा था। उनके इस विवरण की यथार्थता के लिए दी रायल एस्ट्रोनोमिकल सोसायटी के अध्यक्ष की साक्षी भी जोड़ी गयी थी। इस विवरण में होम नामक एक ऐसे अद्भुत व्यक्ति का उल्लेख है जिसे कितनी ही तरह की चमत्कारी सिद्धियां प्राप्त थीं। वह हवा में उड़ सकता था। जलते हुए अंगारे बहुत देर तक हाथों पर रखे रहता था।

इन सिद्धियों की चर्चा हुई तो बहुतों ने अविश्वास किया और इसे अफवाह फैलाकर धोखाधड़ी करने की संज्ञा दी। फलतः प्रख्यात और प्रामाणिक विज्ञानवेत्ता सर विलियम क्रुक्स की अध्यक्षता में एक शोध समिति इसके परीक्षण के लिए बनाई गई। समिति इतना ही बताने में समर्थ हुई कि होम के बारे में जो कहा गया है वह सही है। उसमें कोई चालाकी नहीं है। किन्तु यह बता सकना कठिन है कि यह सब होता कैसे है? ब्रिटिश सोसायटी फार साइकिक रिसर्च के प्रतिनिधि एफ.डब्ल्यू. मेयर्स से इस सम्बन्ध की भेंट वार्ता में प्रो. क्रुक्स ने अपने परीक्षण, अनुभव और निष्कर्ष का विस्तार पूर्वक वर्णन सुनाया और कहा, चालाकी जैसी कोई बात इसमें नहीं है। अस्तु इस प्रकार की घटनाओं को विज्ञान की नई शोध का विषय माना जाना चाहिये और उन्हें अविश्वस्त न मानकर नये सिरे से खोज का प्रबन्ध करना चाहिये। क्रुक्स ने अपने परीक्षण के समय होम में ऐसी विलक्षण शक्ति भी पाई कि वह अपने प्रभाव से, दूर रहते हुए भी बिना छुये वस्तुओं को इधर से उधर हटा सकता था और ऐसी वस्तुयें प्रस्तुत कर सकता था जो वहां पहले से कहीं भी नहीं थीं।

अगस्त 62 की अन्तरिक्ष उड़ान में वोस्तोक—3 यान की यात्रा करने वाले निकोलायेव ने अन्तरिक्ष की स्थिति का कुछ विवरण सुनाते हुए कहा था—अन्तरिक्ष में फर्श, जमीन, दीवार आदि छू कर चलने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती है। खाली पोल में आदमी सहज ही चल सकता है। यान की दीवार से उंगली छूकर एक छोटा धक्का देना काफी है। इतने भर में चलने की गति उत्पन्न हो जायेगी। फिर मजे में चलते रहिये। हाथ और पैरों की सहायता से किसी भी दिशा में बढ़ा चला जा सकता है। चल ही नहीं वहां पानी की तरह तैर भी सकते हैं। तैराक पानी को हाथ पैरों का धक्का देकर अपनी गति बढ़ाता है। अन्तरिक्ष के शून्य में भी उसी तरह तैरा जा सकता है।

गुरुत्वाकर्षण की परिधि से बाहर जाकर स्थूल शरीर का अंतरिक्ष की पोल में कितनी ही दूरी तक चलना, दौड़ना, तैरना सम्भव है। उसमें आरम्भ में एक छोटे झटके की और पीछे संकल्प शक्ति के आधार पर हाथ पैरों की थोड़ी हरकत करने भर की जरूरत पड़ेगी। इस स्थिति को प्राप्त कर लेना अब अधिक कष्ट साध्य नहीं रहा। सिद्धान्ततः तो वह स्वीकार ही कर लिया है और अन्तरिक्ष में तथा धरती पर भारहीनता की स्थिति में मनुष्य का आकाशगमन प्रत्यक्ष करके देख लिया गया है।

गुरुत्वाकर्षण से रहित कमरे पृथ्वी पर बनाये गये हैं। भारहीनता की स्थिति का अभ्यास कराने के लिये अन्तरिक्ष यात्रियों को उन्हीं कमरों में रखकर उस तरह की स्थिति का अनुभव कराया जाता है। अस्तु अब वह भी आवश्यक नहीं रहा कि गुरुत्वाकर्षण की परिधि में ऊपर उठने के बाद ही आकाशगमन किया जा सके। पृथ्वी के किसी कमरे में विज्ञान ने इस तरह का वातावरण उत्पन्न करके यह सिद्ध कर दिया है कि गुरुत्वाकर्षण के रहित अन्तरिक्ष की स्थिति गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के भीतर भी पैदा की जा सकती है। न्यूट्रिनो, फोटोन व ग्रेविटोन परमाणु कणों में ग्रैविटेशन अर्थात् गुरुत्वाकर्षण बल कार्य नहीं करता—इसे सर जान एक्लिस (नोबुल पुरस्कार विजेता 1933) तथा एड्रियन डाव ने अनेक खोजों से सिद्ध कर दिखाया है। यह कण प्रकाश जैसी सत्ता के ही अनुकण हैं। प्राण के अनुकणों में भी ऐसी क्षमता होती है जो स्थूल कणों को भी गुरुत्वाकर्षण युक्त कर सकती है उस स्थिति में आकाश-गमन की सिद्धि को असत्य नहीं कहा जा सकता है।

यह साधनायें यद्यपि कठिन होती हैं पर असाधारण मनस्वी लोग इन्हें सम्पन्न कर सकते हैं। सच पूछा जाय तो प्राण साधना से इस शक्ति का भी स्वतः विकास होता चलता है।
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