दिव्य शक्तियों का उद्भव प्राणशक्ति से

दूर-दर्शन के छिपे सत्य

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कुछ दिन पूर्व अणुव्रत संघ के तत्वावधान में एक योग प्रदर्शन कार्यक्रम रखा गया था, उसमें अणुव्रत आन्दोलन के एक मुनि ने ऐसे चमत्कार दिखाये थे। तमाम देशों के राजदूत उसमें सम्मिलित थे। योगी ने अरब के राजदूत की धर्मपत्नी के बटुये में कितने नोट थे, बताये थे।

मास्को न्यूज के 22 अगस्त अङ्क में एक वोल्दया देन्शिक नामक आठ वर्षीय बालिका का विवरण छपा है। यह बालिका अंधेरे में भी अपने आठों से देख लेती है। अत्यन्त सूक्ष्म लिखे कागज के ऊपर पच्चीसों कागज ढक देने पर भी वह सब कुछ बता देती है कि नीचे वाले कागज में क्या लिखा है।

शिकागो अमेरिका के एक हिप्नोटिस्ट डा. स्टेनली मिशल ने दावा किया कि टेड सेरियस नाम का उनकी पहचान का एक ऐसा व्यक्ति है, जो बिना बिम्ब के भी केवल मानसिक कल्पना द्वारा संसार के किसी भी दूरवर्ती स्थान का चित्र कैमरे में उतार सकता है। यह आवश्यक नहीं था कि वह वर्तमान समय के ही हों, वह भूतकाल के भी, जबकि कैमरे का आविष्कार भी नहीं हुआ था, चित्र खींच देने की क्षमता रखता है। उदाहरण के लिये यदि वह चाहे तो सिकन्दर के युद्ध, ईसा मसीह के क्रूस के समय वहां कौन-कौन उपस्थित थे, मिस्र के पिरामिड बनाते समय मजदूर जैसे काम करते थे, वह सब दृश्य, वह कैमरे में उतारकर दिखा सकता है।

इस तरह का समाचार सुनकर अमेरिका की विश्व विख्यात पत्रिका ‘लाइफ’ के सम्पादक पाल बेल्च और उनके साथियों को बड़ी उत्सुकता हुई। उन्होंने ‘लाइफ’ कार्यालय का ही कैमरा लिया। रील भी अपने हाथ से भरी और डा. मिशल के दफ्तर में जा पहुंचे।

टेड सेरियस एक कुर्सी पर बैठ गया। फिर उस कैमरे को गोद में लेकर इस तरह फिट किया कि उसका चेहरा लेंस के सामने आ गया। अब वह भूतकाल की कोई घटना याद करता-सा जान पड़ा। मस्तिष्क में ध्यानावस्थित-सा होकर उसने कैमरे का बटन दबाया। पहले दो-तीन चित्र तो अस्पष्ट से उतरे पर एक चित्र जो बिलकुल स्पष्ट उतरा, वह यूनान की किसी अति प्राचीन मूर्ति का चित्र था। हजारों मील दूर, बिना चले, वह भी अतिभूत की वस्तु का फोटो निकाल देना सचमुच एक बड़ा आश्चर्य था। चूंकि श्री मिशल महोदय सम्मोहन विद्या (हिप्नोटिज्म) के ज्ञाता थे, इसलिये श्री पाल बेल्च को आशंका हुई कि सम्भव है उनके सम्मोहित करने के फलस्वरूप यह फोटो आई हो, इसलिये उन्होंने दुबारा फिर अकेले टेड सेरियस को ‘लाइफ’ पत्रिका के कार्यालय में बुलाया। कैमरा लाइफ की फिल्म भी ‘लाइफ’ कार्यालय द्वारा भरी गई। पाल बेल्च ने कहा, इस बार वह किसी 17 मंजिल की इमारत का ऐसा चित्र चाहते हैं, जिसकी खिड़कियां स्पष्ट दिखाई देती हों। सेरियस फिर पहले की तरह बैठा। वैसा ही चित्र मानसिक कल्पना द्वारा उसने कैमरे में उतार दिया। किस शहर की यह इमारत हो सकती है, इसका तो कुछ पता नहीं चल सका पर वह चित्र ‘लाइफ’ पत्रिका में छपा था। लोगों को टेड सेरियस की इस विलक्षण क्षमता पर बड़ा आश्चर्य हुआ। टेड का यह भी कहना है कि आज तो लोग मुझे केवल कौतूहल से देखते हैं, पर मैं शीघ्र ही प्रमाणित कर दूंगा कि शरीर में एक प्रकाशपूर्ण सामर्थ्य है और वह एक स्थान पर बैठे हुए संसार भर को देख सकती है। टेड ने प्रथम विश्व-युद्ध और अमेरिका स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाहियों के ऐसे चित्र भी उतारे हैं, जो तत्कालीन परिस्थितियों के हूबहू चित्रण हैं और इस बात के प्रमाण भी। किसी एक बिन्दु पर हम भूत और भविष्य को एक ही दृश्य में देख सकते हैं।

दरअसल समय कोई वस्तु नहीं वह तो ब्रह्माण्ड अथवा आत्मा का विस्तार मात्र है, यदि हम उस मूल-प्रकाश-बिन्दु को प्राप्त कर लेते हैं तो हम त्रिकालदर्शी, सर्वव्यापी सब कुछ बन सकते हैं। चलने-फिरने अनुभव करने के लिये आंख, कान, नाक और इन्द्रियां आवश्यक नहीं आत्मा का प्रकाश रूप अपने आप ही इन क्षमताओं से भरपूर है। अभी तक माना जाता था कि कोई वस्तु देखनी हो तो प्रकाश और आंखें दो ही वस्तुयें आवश्यक है। प्रकाश जब आंखों की रैटिना से टकराता हैं तो आंखों को तन्त्रिका-तन्त्र (ज्ञान-कोष) एक विशेष प्रकार की रासायनिक क्रिया करके सारी सूचनायें मस्तिष्क को देता है। मन एक तीसरी वस्तु है, जो प्रकाश और आंखों के क्रिया-कलाप को अनुभव करता और नई तरह की योजनायें, आदेश, अनुभूतियां तैयार करके शरीर के दूसरे अवयवों में विभक्त करता है अर्थात् मानसिक चेतना न हो तो प्रकाश और आंखों के होते हुये भी देखना सम्भव नहीं।

1967 में आंखों पर शोध के लिए जिन तीन वैज्ञानिकों को सम्मिलित नोबुल पुरस्कार प्रदान किया गया था, उनमें से एक डा. बाल्ड भी थे। उन्होंने ‘रेटिना’ (नेत्र का मध्य बिन्दु) स्थित अणुओं की संरचना बताते समय एक ‘विजुअल पर्पिल’ (रोडोप्सिन) नामक विलक्षण तत्व की बात बताई और कहा कि वास्तव में यही प्रकाश कणों को विद्युत तरंगों में बदलता है, यह विद्युत तरंगें ही मस्तिष्क में जाकर छायांकन करती हैं, इससे एक बात और भी मालूम होती है कि प्रकाश सीधे वस्तु दिखा सकने में सक्षम नहीं, जब तक उसे विद्युत् आवेग की क्षमता में न बदला जाये।

मन प्रकाश ही नहीं, एक प्रकार की विद्युत तरंग जैसा है, इसलिये यदि वह वस्तुओं का दृश्य बनाने में सीधे सक्षम हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। ऐसे भी अनेक उदाहरण दिखाई देते हैं, जब प्रकाश को ‘रेटिना’ (पुतली का केन्द्र बिन्दु) द्वारा विद्युत आवेग में बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती और कुछ लोग केवल त्वचा, गाल अथवा शरीर के और किसी भाग से ही देख लेते हैं।

‘ब्रिटिश जनरल आफ मेडिकल हिप्नोटिज्म’ ने एक ऐसा ही समाचार छापकर बताया कि बैंकाक में तो एक संस्था ही काम करती है जो अन्धों को गालों से देखने का प्रशिक्षण देती है। उसके संचालकों का दावा है कि मनुष्य के गाल शरीर भर के समस्त अंगों की अपेक्षा अति संवेदनशील हैं और उनमें सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्तियों का प्रचुर प्रवाह विद्यमान रहता है। चुम्बन का महत्व और निर्देश इसीलिये है कि इस संवेदनशील अंग का उपयोग केवल उचित प्रयोजन के लिए और व्यक्ति की सूक्ष्म क्षमताओं का सदुपयोग करने के लिये ही किया जा सके।

सन् 1954 में बैंकाक के एक डॉक्टर ने मनोविज्ञान की सहायता से एक प्रयोग 13 वर्ष के लड़के पर किया। उल्लेखनीय है कि उसे मनोविज्ञान की ट्रेनिंग के साथ ही ध्यान और समाधि लगाना भी बताया जाता था। ध्यान में उसे गाल में चित्त एकाग्र करने को भी कहा जाता है। 9 महीने के इलाज के बाद उसमें गालों से देखने की क्षमता आ गई, इसके बाद दस और अन्धों पर प्रयोग किया गया जिनमें से 6 इस प्रयोग में पूर्ण सफल रहे। अब वे गालों से बजे में देख लेते हैं।

यह उदाहरण बताते हैं कि संसार में कोई ऐसा महत्तत्व है, जिसकी सीमित मात्रा विकसित करके भी विलक्षण शक्तियों का जागरण किया जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्राणी के अन्दर तन्तुओं का ऐसा जाल फैला है कि कैसी भी नई समस्या आये, उसका भी निराकरण प्रस्तुत कर देने की उनमें क्षमता है। चमड़े की आंखों से जो दिखता है जो देखा जा सकता है वह बहुत स्वल्प है। यदि इतनी ही परिधि तक देख सकना सम्भव हो सके तो उसे बहुत ही नगण्य उपलब्धि कहा जा सकेगा।

यों देखने का काम आंखों के लेंस ही करते हैं। पर उनकी सीमा बहुत छोटी है। कुछ ही दूरी पर उनकी सीमा समाप्त हो जाती है। स्पष्ट दीखने वाली वस्तुयें ही उनकी परख पकड़ में आती हैं पर यह संसार बहुत विस्तृत है। सब पदार्थों के स्वरूप दृश्यमान नहीं हैं। जो दीखता है उससे अनदेखा बहुत ज्यादा है। अणुओं की गतिविधियों को ही लें, वे आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों से भी अधिक संख्या में और उन से भी अधिक सक्रिय हैं। अपने शरीर में काम करने वाले परमाणुओं जीवाणुओं, शक्तिघर के विद्युत प्रवाहों एवं क्रिया-कलापों को देख सकना, समझ सकना सम्भव हो सके तो वह इतना ही विस्तृत, अद्भुत एवं अन्वेषण योग्य प्रतीत होगा जितना कि यह विराट्-विश्व ब्रह्मांड। आंखें वह सब कहां देख पातीं हैं।

प्रत्यक्ष जगत में भी—दृश्य पदार्थों में भी हमारी दृष्टि में एक छोटा-सा क्षेत्र ही आता है। जाननी तो आगे की बातें भी पड़ती हैं। वह प्रयोजन चिट्ठियों से, अखबारों, तार, टेलीफोन, रेडियो आदि से पूरा होता है। आंखों की क्षमता से काम चलता न देखकर हमें जानकारी के क्षेत्र दूसरे साधनों से बढ़ाने पड़ते हैं। जिसके पास यह साधन जितने अधिक होते हैं वह उतना ही अधिक लाभान्वित होती है।

स्थूल दृष्टि की समीपता से आगे असीम तक विस्तृत होने वाला एक और नेत्र हमारे पास है जिसे सूक्ष्म दृष्टि या दिव्य दृष्टि कहते हैं। योग साधना द्वारा कोई चाहे तो इस नेत्र को विकसित कर सकता है और चर्म चक्षुओं की परिधि से बहुत आगे की परिस्थितियों एवं घटनाओं को भली प्रकार देख सकने में समर्थ हो सकता है।

टेलीफोन के माध्यम से आवाज को सुदूर प्रदेशों तक पहुंचाने की विद्या बहुत पहले ज्ञान हो गई थी। इसके बाद रेडियो प्रणाली से परस्पर बैठे हुए व्यक्तियों का, बिना तार के ही, केवल ध्वनि कम्पनों की सहायता से वार्तालाप करना सम्भव हुआ। टेलीविजन प्रणाली में चित्रों को दूर-दूर तक भेजना सम्भव हुआ। अब उसमें एक कदम और आगे बढ़ा है। फोटोग्राफी भी इसी संचार प्रक्रिया के साथ जुड़ गई है। इसे ऐसे मानना चाहिए जैसे दर्पण और फोटो कैमरा, दर्पण के सामने खड़े होने पर चित्र दीखता है पर हटते ही वह चित्र गायब हो जाता है। कैमरे की बात दूसरी है। उसके सामने खड़े होकर फोटो उतारा जाय तो वह स्थायी बना रहेगा। टेलीविजन को दर्पण कहा जाय तो इस ‘विद्युत आवृत्ति संचार व्यवस्था’ को कैमरे की फोटोग्राफी मानना पड़ेगा जो क्षण भर में एक स्थान का फोटो पृथ्वी के इस छोर से उस छोर पर भेज देती है। आजकल अखबारों में जो विश्व भर की महत्वपूर्ण घटनाओं के फोटो दूसरे ही दिन छप जाते हैं इसका कारण यही प्रणाली है। ‘टेलिक्स’ प्रणाली से भी यह अधिक बारीकियों से भरी हुई है। भारत में ऐसा संचार केन्द्र पूना के पास ‘आर्वी’ में छोटी पहाड़ियों के बीच बना हुआ है। इसे ‘इन्टेल्साट-3’ कहते हैं। इसकी संचार तरंगें बम्बई के स्टील टावर में पहुंचती हैं। वहां फ्लोरा फाइण्डेशन के निकट बना हुआ अठारह मंजिल वाला संचार भवन उन तरंगों को ग्रहण करता है और फिर शक्तिशाली उपकरणों के माध्यम से अभीष्ट स्थानों पर भेज देता है। प्रेषण जैसा ही ग्रहण व्यवस्था भी इन संयन्त्रों में है विदेशों से आने वाले फोटो यही ग्रहण किये जाते हैं और उनकी अनेक प्रतियां छापकर तत्काल अखबारों को अथवा सम्बन्धित सरकारी विभागों को भेज दिये जाते हैं। फोटो ही नहीं—महत्वपूर्ण नक्शे, कागजात, पत्र आदि भी तत्काल इसी पद्धति के माध्यम से भेजे और ग्रहण किये जाते हैं।

अन्यत्र भेजे जाने वाले फोटो एक बड़े बेलन पर चिपका दिये जाते हैं। यह बेलन 60 चक्कर प्रति मिनट के हिसाब से घूमता है। साथ ही प्रति इंच सौ रेखायें भी गतिशील करता है। प्रकाश को एक केन्द्रित पुंज उस फोटो पर डाला जाता है, परावर्तित प्रकाश एक लेंस की सहायता से प्रकाश कोशिका पर केन्द्रित होता है। यहां प्रकाश की विविधता—विविध विद्युत कम्पनों में बदल जाती है रंगों के उतार-चढ़ाव के हिसाब से इन विद्युत कम्पनों में अन्तर हो जाता है। सफेद रंग के लिए 1500 साईकल, काले रंग के लिए 2300, भूरे रंग के लिए 800 साईकल प्रति सेकिंड आवृत्ति होती है। अब इन कम्पनों को दुनिया के किसी भी कोने में रेडियो संचार प्रणाली के अनुसार विश्व के किसी भी कोने पर भेज दिया जा सकता है। जहां इन चित्रों को पकड़ा जाता है वहां भी रेडियो ध्वनि ग्रहण करने जैसे यन्त्र लगे रहते हैं। वे यन्त्र उन विद्युत कम्पनों को पकड़ कर उन्हें चित्र रूप में पुनः परिवर्तित कर लेते हैं। अपने देश में ऐसे चौबीस रेडियो फोटो चैनल हैं, जिनका सम्बन्ध संसार के चौंतीस प्रमुख देशों से है।

इस संचार उपग्रह पद्धति की रूसी प्रणाली ‘डार्विटा’ कहलाती है। अमेरिका की अपनी प्रणाली है। सन् 69 से लेकर अब तक अमेरिका ने लगभग 600 से अधिक अन्तरिक्ष यान छोड़े जिनमें से 550 से अधिक अभी भी पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में घूम रहे हैं। रूस में हर साल 50 और 100 के बीच में इस प्रकार के उपग्रह भेजते रहे हैं। यह कृत्रिम अन्तरिक्ष उपग्रह मौसम शोध से लेकर खगोलीय परिस्थितियों की जानकारी अपने मूल केन्द्र को भेजते रहे हैं। ऐसे ही उपग्रह इस रेडियो फोटो संचारी पद्धति को संचालित रखने में सहायता करते हैं। इस ‘इन्टेसाल्ट’ उपग्रह पद्धति का विकास करके शब्द संचार की तरह चित्र संसार की सुविधा भी सरल बनाई जा सकती है और हम घर बैठे विश्व की महत्वपूर्ण घटनाओं को सिनेमा के पर्दे पर देखी जाने वाली फिल्मों की तरह प्रत्यक्ष देख सकते हैं। टेलीविजन में अभी जो छोटे दायरे से ही काम करने की कठिनाई है वह भी इस प्रणाली में भी दूर की जा सकती है।

यह दूरदर्शन का कार्य टेलीविजन यन्त्र करते हैं। चित्रों को दूर तक भेजने वाली यह रेडियो फोटोग्राफी भी काम में आ रही है। टेलिस्कोप, माइक्रोस्कोप आदि सूक्ष्मदर्शी और सुदूरदर्शी यन्त्र भी नेत्रशक्ति की समीपता को बढ़ाकर विस्तृत और व्यापक बनाते हैं। यह साधन जिनके पास हैं वे इन यन्त्रों की मर्यादा के अनुरूप लाभ उठा लेते हैं। भगवान का दिया हुआ एक ऐसा ही यन्त्र मनुष्य के पास भी है जिसे दृष्टिवर्धन के अद्यावधि आविष्कारों की सम्मिलित उपलब्धियों से भी कहीं अधिक समर्थ और व्यापक कहा जा सकता है। न इसे खरीदना पड़ता है और न इसके संचालन की कोई बड़ी शिक्षा लेनी पड़ती है। भ्रूमध्य भाग में अवस्थित आज्ञा चक्र अपना तीसरा नेत्र है। इसे खोलने की साधना करने से वह अन्तर्ज्योति विकसित हो सकती है जिसके माध्यम से लोक-लोकान्तरों को, भूगर्भ को, पंच भौतिक परिस्थितियों को देखा और समझा जा सके। इतना ही नहीं इस तीसरे नेत्र में वह शक्ति भी है कि जीवित प्राणियों की मनःस्थिति, भावना, कल्पना, योजना, इच्छा, आस्था एवं प्रकृति को भी समझा जा सके। इस आज्ञाचक्र को विकसित करने की साधना हमें दृष्टि की प्रखरता और व्यापकता का अनुपम उपहार दें सकती है। यह उपहार न केवल वर्तमान का ही परिचय प्राप्त करने में समर्थ है वरन् चिर अतीत में जो घटित हो चुका और निकट भविष्य में जो होने जा रहा है उसका पूर्वाभास भी जाना जा सकता है।

आज्ञा-चक्

र शिव और पार्वती के चित्रों में उनका एक पौराणिक तीसरा नेत्र भी दिखाया जाता है। कथा के अनुसार शंकर भगवान ने इसी नेत्र को खोलकर उसमें से निकलने वाली अग्नि से कामदेव को भस्म किया था। यह दिव्य दृष्टि का केन्द्र है। इससे टेलीविजन जैसा कार्य लिया जा सकता है। दूर-दर्शन का दिव्य यन्त्र यहीं लगा हुआ है। महाभारत के सारे दृश्य संजय ने इसी के माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र को सुनाये। चित्रलेखा द्वारा प्रद्युम्न प्रणय इस दिव्य-दर्शन का ही परिणाम था।

यह तीसरा नेत्र अति प्रभावशाली है इससे दूर-दर्शन ही नहीं, अदृश्य और अप्रत्यक्ष भी देखा, समझा जा सकता है। एक्स-रे की किरणें जिस तरह ठोस पदार्थों में होकर भी पार चली जाती हैं और आंखों से न दीख पड़ने वाली वस्तुओं के भी चित्र खींचती हैं, उसी प्रकार यह आज्ञाचक्र का कैमरा अदृश्य को देख सकता है। इसके माध्यम से न केवल पदार्थों को देखने का प्रयोजन पूरा होता है वरन् जीवित प्राणियों की मनःस्थिति को समझना भी सम्भव होता है। देखने समझने से ही बात पूरी नहीं होती आज्ञाचक्र की क्षमता इससे भी आगे है वह दूसरों को प्रभावित परिवर्तित भी कर सकती है। मेस्मरेजम हिप्नोटिज्म में इसी दिव्य क्षमता को स्थूल नेत्रों के माध्यम से प्रयोग किया जाता है।

यह आज्ञा-चक्र और कुछ नहीं पर्याप्त मात्रा में अर्जित प्राणों को कपाल के मध्य पर्दे पर—भूमध्य में केन्द्रित करना (फोकस) और फिर उसके निक्षेप द्वारा तरह-तरह की जानकारियां एकत्र कर लेना है। यह उक्त विज्ञान की तरह ही नितान्त प्रायोगिक तथ्य है मात्र कल्पना या अतिरंजन नहीं।

विचार सम्प्रेषण विज्ञान

विचार एक प्रकार से प्राणों पर सवार विद्युत चुम्बकीय स्पंदन ही है। गायत्री उपासकों को कई बार अपने स्वजनों से ऐसे संदेश अनायास मिलते देखे गये हैं जिन्हें मानो बेतार के तार द्वारा सम्प्रेषित किया गया हो गायत्री जप और कुछ नहीं प्राणों के संचय की ही साधना है। विश्व प्राणों की इतनी मात्रा अपने में भरी जा सकती है जो ठीक ट्रान्समीटर का कार्य करने लगे अगले अध्यायों में इस साधना के स्वरूप पर प्रकाश डाला जा रहा है। संक्षेप में यह समझ लेना आवश्यक है कि विचारों की तीक्ष्णता या निर्बलता और कुछ नहीं प्राणों का ही अल्प या अत्यधिक होना है।

शरीर में काम करने वाली विद्युत शक्ति से ही दैनिक जीवन के विभिन्न क्रिया-कलाप पूरे होते हैं। इस संयंत्र के विभिन्न कलपुर्जे इसी शक्ति से प्रेरित होकर अपने-अपने काम करते हैं। इसकी अधिक मात्रा उत्पन्न की जा सके तो उसका लाभ दूसरों को भी दिया जा सकता है। धन-दान, रक्त-दान, अंग-दान आदि के द्वारा एक मनुष्य दूसरे को लाभान्वित कर सकता है। ठीक इसी प्रकार प्राण-दान भी सम्भव हो सकता है। अपनी जीवनी शक्ति का एक अंश दूसरों को देकर उनमें नव-जीवन का संचार अमुक मात्रा में किया जा सकता है। मैस्मरेज्म विद्या द्वारा शारीरिक और मानसिक चिकित्सा की जाती है और उसका लाभ औषधि उपचार से कम नहीं, वरन् अधिक ही मिलता है। मनुष्य शरीर में रहने वाली विद्युत शक्ति का परिचय अब साधारण यन्त्र उपकरणों से जांचा-परखा जा सकता है। वह एक अच्छा-खासा जनरेटर है। किसी-किसी में तो अनायास ही यह विद्युत प्रवाह बड़ी-चढ़ी मात्रा में होता है। कई उसे प्रयत्नपूर्वक बढ़ा सकते हैं। बिजली से अनेकों प्रकार के प्रयोजन पूरे होते हैं। उसका उपयोग करके कई तरह के उपकरण क्रियाशील होते और लाभ उत्पन्न करते हैं। शरीरगत विद्युत से सम्पर्क क्षेत्र को किसी विशेष दिशा में उत्तेजित किया जा सकता है। किन्हीं व्यक्तियों को प्रभावित करके उनके चिन्तन एवं चरित्र को मोड़ा जा सकता है। इतना ही नहीं उन्हें स्वास्थ्य, बल, ज्ञान, पराक्रम जैसी विभूतियों से लाभान्वित किया जा सकता है। सूक्ष्म जगत में काम कर रही शक्तियां स्थूल पदार्थों को किस प्रकार प्रभावित करती हैं इसके उदाहरण आये दिन दीखते हैं। आकाश में उष्णता बढ़ते ही हमारे बर्तन गरम और ठण्डक का मौसम आते ही वे ठण्डे रहने लगते हैं। वर्षा ऋतु में हवा की नमी मात्र से घास-पात में हरियाली दौड़ जाती है। रेडियो और टेलीविजन के उपकरण अन्तरिक्ष में चल रहे सूक्ष्म प्रवाहों से प्रभावित होते और अपने काम करते देखे जाते हैं। इसी सिद्धान्त के आधार पर मनोबल की शक्ति तरंगें आकाश में उड़ाई जा सकती हैं और उससे निकटवर्ती एवं दूरवर्ती व्यक्तियों तथा पदार्थों को प्रभावित किया जा सकता है।

मनुष्यों एवं प्राणियों की तरह ही मनोबल के द्वारा पदार्थों को भी प्रभावित किया जा सकता है। उन्हें हटाया, उठाया, हिलाया, गिराया जा सकता है। उनमें अन्य प्रकार की हलचलें एवं विशेषतायें पैदा की जा सकती हैं। उनका स्वरूप तक बदला जा सकता है और गुण भी। आग और बिजली की सहायता से पदार्थों के आकार प्रकार में परिवर्तन हो सकता है, ऐसा मनोबल के उपयोग से भी सम्भव है। कई चमत्कार प्रदर्शनों में ऐसी घटनाएं प्रयत्नपूर्वक प्रत्यक्ष की जाती हैं, जिनमें मनोबल ने जड़ पदार्थों में अस्वाभाविक हलचलें पैदा कर दीं अथवा उनके सामान्य क्रिया-कलाप को अवरुद्ध कर दिया। बिना प्रदर्शन के भी ऐसे घटना-क्रम सामान्य जीवन-क्रम में भी घटित होते रहते हैं, जिनमें व्यक्ति विशेष के सम्पर्क अथवा संकल्प के कारण वस्तुओं के स्वरूप एवं क्रिया-कलाप में आश्चर्य जनक परिवर्तन हो गया। विद्युत प्रवाह की तरह ही यदि मनोबल को भी एक शक्तिधारा माना जा सके तो फिर उसके द्वारा सम्पन्न होने वाले क्रिया-कलापों को भी आश्चर्यजनक नहीं, वरन् सामान्य ही माना जायगा।

आग और गर्मी का अन्तर स्पष्ट है। आग प्रत्यक्ष है—स्थूल है। इसलिए उसे आंखों से देखा जा सकता है और इधर से उधर हटाया, जलाया, बुझाया जा सकता है। गर्मी सूक्ष्म है, व्यापक है। इसलिए उसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर देखा नहीं जा सकता। उसे हम पकड़ भी नहीं सकते और न धकेल सकते हैं। अधिक से अधिक कूलर आदि के द्वारा अपना कमरा ठण्डा रख सकते हैं, पर गर्मी की ऋतु ही बदल देना सम्भव नहीं। आग स्थूल है, इसलिए उसे जलाया भी जा सकता है और बुझाया भी। बिजली, भाप एवं ईंधन आदि के माध्यम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का प्रत्यक्ष प्रयोग रोज ही होता है। इसलिये उसे हम सहज ही पहचानते हैं। मनोबल का सामान्य प्रयोग एक-दूसरे को प्रभावित करने भर में होता है, पर यदि उसे विकसित एवं व्यवस्थित स्थिति में किसी विशेष लक्ष्य के लिए प्रयुक्त किया जा सके तो प्रतीत होगा कि वह भी कितना शक्तिशाली है। उसके आधार पर व्यक्ति को ही नहीं पदार्थों और परिस्थितियों को भी प्रभावित किया जा सकता है।

एलेग्जेडिर राल्फ ने ‘द पावर आफ माइंड’ नामक पुस्तक में विभिन्न प्रमाण देते हुए लिखा है कि—‘‘प्रगाढ़ ध्यान-शक्ति द्वारा एकाग्र मानव-मन शरीर के बाहर स्थित सजीव एवं निर्जीव पदार्थों पर भी इच्छानुकूल प्रभाव डाल सकता है।’’ राल्फ का कहना है कि यह एक निर्विवाद तथ्य है कि इच्छा-शक्ति द्वारा स्थूल जगत पर नियन्त्रण सम्भव है। इलेक्ट्रानिक ब्रेन के निर्माण की प्रक्रिया में ज्ञात तथ्यों द्वारा वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अचेतन मन एक सशक्त कम्प्यूटर की तरह कार्य करता है और जिस तरह एक कम्प्यूटर की गई ‘फीडिंग’ के अनुसार ही क्रियाशील होता है, उसी तरह अवचेतन भी अपना आहार हमारे विचारों तथा संकल्पों से प्राप्त करता है। इस तरह अवचेतन की दिशा मनुष्य की इच्छाओं से ही प्रभावित होती है। स्पष्ट है कि इस अवचेतन पर व्यक्ति प्रयास द्वारा पूर्ण नियन्त्रण पा सकता है और तब अभी अलौकिक लगने वाले काम कर सकता है।

व्यक्ति स्वयं अपना विद्युत-चुम्बकीय बल-क्षेत्र या गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र विकसित कर सकता है, ऐसा वैज्ञानिक मानने तो लगे पर उसका आधार एवं प्रक्रिया अभी तक नहीं जान पाये हैं। मनुष्य चलता-फिरता बिजलीघर है। उसका भीतरी समस्त क्रिया-कलाप स्नायु जाल में निरन्तर बहते रहने वाले विद्युत प्रवाह से ही सम्पादित होता है। बाह्य जीवन में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंद्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती हैं उनमें खर्च होने वाली ऊर्जा वस्तुतः मानवी विद्युत-शक्ति ही होती है। रक्त जैसे रासायनिक पदार्थ तो मात्र उसके निर्माण में ईंधन भर का काम देते हैं।

रूसी सेना की सार्जेण्ट नेल्या मिरवाइलोवा अपनी इच्छा-शक्ति से स्थिर रखे जड़-पात्रों को गतिशील कर देती हैं, चलती घड़ी को रोक सकती है और पुनः चला सकती है। उसके द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले इन चमत्कारों को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा प्रामाणिक ठहराया जा चुका है।

शक्ति के बिजली, भाप, तेल जैसे साधनों में ही अब विचार-शक्ति को भी स्थान मिलने जा रहा है। अध्यात्म शास्त्र में तो आरम्भ से ही विचारों को ऐसा समर्थ तत्व माना है जो न केवल अपने उद्गमकर्त्ता को वरन् पूरे सम्पर्क क्षेत्र को भी प्रभावित करता है। इतना ही नहीं उससे दूरवर्ती एवं अपरिचित प्राणियों तथा पदार्थों तक को प्रभावित किया जा सकता है।

टेलीपैथी के एक प्रयोगकर्त्ता इंग्लैण्ड के ए.एन. क्रीरी ने बहुत समय तक यह प्रयोग चलाया कि बन्द कमरे में क्या हो रहा है इसकी जानकारी प्राप्त की जाय। इस प्रयोग में एक महिला अधिक दिव्यदृष्टि सम्पन्न सिद्ध हुई।

क्रीरी ने अपने प्रयोगों की सचाई जांचने के लिए अनेक प्रामाणिक व्यक्तियों से अनुरोध किया। जांचने वालों डवलिन में विश्व-विद्यालय के प्रो. सर विलियम वैरट, इंग्लैण्ड की सोसाइटी फार साइकिकल रिसर्च के प्रधान प्रो. सिजविग जैसे मूर्धन्य लोग थे। उन्होंने कई तरह से उलट-पुलटकर इन प्रयोगों को देखा और उन प्रयोगों के पीछे निहित सचाई को स्वीकारा। इन प्रयोगों की जांच का विवरण ‘विचार संप्रेषण समिति’ ने प्रकाशित किया है।

दूरवर्ती लोगों के मस्तिष्कों को प्रभावित करने और उनमें अभीष्ट परिवर्तन लाने की दिशा में आस्तिकों और नास्तिकों को समान रूप से सफलता मिली है। इन प्रयोगों में रूसी वैज्ञानिक भी योग-साधकों के पद-चिह्नों पर चल रहे हैं। लेनिनग्राड विश्व-विद्यालय के शरीर विज्ञानी प्रो. लियोनिद वासिलयेब ने दूर संचार क्षमता का प्रयोग एक शोध कार्यों में निरत मण्डली पर किया। उसने अपने प्रयोगों द्वारा चालू शोध के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होने और उसे छोड़कर अन्य शोध में लाने का प्रयोग चालू रखा और उसके सफल परिणाम पर सभी को आश्चर्य हुआ। लियोनिद ने अपना अभिप्रायः गुप्त कागजों में नोट करके साथियों को बता दिया था कि वे अमुक शोध मंडली की मनःस्थिति में उच्चाटन उत्पन्न करके अन्य कार्य में रूचि बदल देंगे। कुछ समय में वस्तुतः वैसा ही परिवर्तन हो गया और उस मण्डली ने बड़ी सीमा तक पूरा किया गया अपना कार्य रद्द करके नया कार्य हाथ में ले लिया।

इतिहास, पुराणों की बात छोड़ दें तो भी प्रत्यक्षदर्शियों की प्रामाणिक साक्षियों के आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि विचार और शब्द के मिश्रण से बनने वाले मन्त्र प्रवाह का प्रयोग करके वातावरण तक में हेर-फेर करने की सफलता मिल सकती है।

अफ्रीकी जन-जातियों की तरह ही मलाया में भी मन्त्र विद्या के प्रयोग और चमत्कार बहुत प्रस्तुत होते रहते हैं। वहां के मान्त्रिक ऋतु परिवर्तन को भी प्रभावित करते देखे गये हैं।

विचारों की शक्ति का सामान्य जीवन में भी महत्वपूर्ण उपयोग होता रहता है। उन्हीं के आधार पर क्रिया-कलाप बनते हैं और तद्नुरूप परिणाम सामने आते हैं। बहिरंग व्यक्तित्व वस्तुतः मनुष्य के अन्तरंग की प्रतिक्रिया भर ही होता है। विचारों से समीपवर्ती लोग सहयोगी विरोधी बनते हैं। निन्दा और प्रशंसा के आधारों की जड़ें अन्तःक्षेत्र में ही गहराई तक धंसी होती हैं। सामान्य स्तर की विचार-शक्ति भी जीवन का क्रम बनाती है; तो फिर विशेष स्तर की विचार-शक्ति जो योगाभ्यास के साधना विज्ञान के आधार पर तैयार की जाती है, चमत्कारी परिणाम उत्पन्न कर सके तो इसे अबुद्धिसम्मत नहीं कहा जा सकता। मन्त्र शक्ति के प्रयोगों में जहां दम्भ और बहकावे की भी भरमार रहती है वहां ऐसे प्रामाणिक प्रसंगों की भी कमी नहीं होती जिनके आधार पर इस अलौकिकता का आधार समझ में न आने पर भी उसे अविश्वस्त नहीं कहा जा सकता।

कई बार ऐसा भी देखा गया है कि किन्हीं व्यक्तियों में वस्तुओं की विचार-शक्ति से प्रभावित करने की क्षमता अनायास ही पाई जाती है। उन्होंने कोई योगाभ्यास नहीं किया तो भी वे अदृश्य को देख सकने—अविज्ञात को जान सकने में समर्थ रहे। ऐसी विलक्षणता हर मनुष्य के अचेतन मन में मौजूद है। मानवी विद्युत सामान्यतया दैनिक क्रिया-कलापों में ही खर्च होती रहती है पर यदि उसे बढ़ाया जा सके तो कितने ही विलक्षण कर्म भी हो सकते हैं। साधना से दिव्य क्षमता बढ़ती है और उससे कितने ही प्रकार के असामान्य कार्य कर सकना सम्भव होता है। यह अध्यात्मिक उपलब्धियां अगले जन्मों तक साथ चली जाती हैं। ऐसे लोग बिना साधना के भी पूर्व संचित सम्पदा के आधार पर चमत्कारी आचरण प्रस्तुत करते देखे गये हैं।
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