दिव्य शक्तियों का उद्भव प्राणशक्ति से

प्राण की अजस्र धारा हमारे लिये

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
यह शरीर विद्युत जिसके शरीर में जितनी अधिक मात्रा में संचित होती है वह उतना ही अधिक तेजस्वी, सुन्दर, सक्रिय, स्फूर्तिवान, ओजस्वी, प्रतिभावान दिखाई पड़ता है। शरीर की रोग निरोधक शक्ति एवं मस्तिष्क की सूक्ष्मदर्शिता, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता इसी विद्युत पर निर्भर है।

स्वभाव के मिठास को आमतौर से आकर्षण कहा जाता है। अंगों की कोमलता में भी जिस सौन्दर्य की झांकी होती है, उनमें भी शरीर शास्त्रीय दृष्टि से विद्युत कम्पन की ही विशेष थिरकन समाई रहती है। किसी की आंखों में—किसी के होठों में—किसी की ठोड़ी आदि में विशेष मनमोहकता रहती है, इसका तात्विक विश्लेषण करने पर मानवी शरीर की बिजली ही लहराती सिद्ध होती है। इसमें जब कमी होने लगती है तो शरीर रूखा, नीरस, कुरूप, शिथिल, निस्तेज, दिखाई पड़ने लगता है। आंखों में दीनता, चेहरे पर उदासी छाई रहती है, इस विघटन को देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि तेजस्विता की तरंगें शिथिल हो गईं और अभीष्ट ऊर्जा का अभाव हो गया। शरीर में रक्त मास की वृद्धि के लिए उपाय किये जाते हैं। पर इस तथ्य पर पहुंचने में भूल की जाती है कि आग मन्दी पड़ जाने पर पकने और पचने की क्रिया ही नहीं, उमंग और उत्कर्ष का प्रत्येक पक्ष शिथिल पड़ जाता है। यह अभाव समस्त शरीर की दुर्बलता अथवा अंग विशेष की अशक्तता के रूप में प्रकट होकर मनुष्य को रुग्ण बनाता है। बीमारों में रोग कीटाणुओं की खोज की जाती है। इनकी उपस्थिति कारण नहीं लक्षण मात्र है। जिस तरह निर्जीव प्राण रहित मांस में कीड़े पड़ जाते हैं उसी प्रकार देह में विद्युत की अभीष्ट मात्रा में जहां कमी आई वहां उस अर्धमृत काया पर तुच्छ से कीटाणु अपना अड्डा जमाते और वंश बढ़ाते चले जाते हैं। यदि शरीर में गर्मी की—बिजली की आवश्यक मात्रा विद्यमान हो तो उसके प्रचण्ड तेज में किसी विजातीय द्रव को, रोक कीटक को जीवित रहने का अवसर नहीं रहता। बाहर के आक्रमणकारी कीटाणु उसमें प्रवेश करते ही जल भुनकर नष्ट हो जाते हैं। किन्तु प्राण की मात्रा विद्यमान रहने पर असाधारण कार्य सम्भव होते हैं।

शरीर विज्ञानियों का मत है कि सामान्यतया किसी मनुष्य की मृत्यु जब घोषित की जाती है तब भी उसकी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। रक्त प्रवाह रुक जाने के बाद प्रायः 5 मिनट के बाद अपना काम करना बन्द करता है। इसीलिये कृत्रिम श्वास-प्रश्वास क्रिया करके मृत तुल्य व्यक्ति के हृदय की भांति पुनः आरम्भ कराने का प्रयत्न किया जाता है। मृत्यु क्रमिक होती है पहले मस्तिष्क मरता है, फिर अन्य अवयव मरते हैं। सबसे अन्त में बाल तथा नाखून मरते हैं। फ्रांस राज्य क्रान्ति के समय एक विद्रोही का सिर काटा गया। सरकारी रिकार्ड में उल्लेख है कि कटा हुआ सिर बहुत देर तक इस तरह होठ और मुंह चलाता रहा मानो वह कुछ कह रहा हो। पुराने जमाने में जब तलवारों से लड़ाइयां लड़ी जाती थीं, कटे हुए सिर वाले धड़ उठ खड़े होते थे और हाथ में लगी तलवारों को हवा में चलाते थे। इसी प्रकार कटे हुए सिर भी उछलते देखे गये हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कानूनी मृत्यु के बाद भी किसी रूप में देर तक जीवन बना रहता है। मरणोपरान्त भी क्रिया-कलाप चलते रहने वाली इस सत्ता को आत्मवादी तेजोवलय ही मानते रहते हैं।

वस्त्रों तथा अन्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं के बारे में भी यही बात है। भली या बुरी प्रकृति के मनुष्य उन वस्तुओं पर अपना प्रभाव अधिक छोड़ते हैं जिन्हें वे अधिक रुचिपूर्वक प्रयोग करते हैं। सच्चे साधु सन्तों की माला, जनेऊ, खड़ाऊं, लंगोटी आदि को कोई व्यक्ति उपहार आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं और उनके प्रभाव से देर तक लाभान्वित होते रहते हैं। कलम, घड़ी, अंगूठी, बटन जैसी वस्तुओं का भी ऐसा ही महत्व है। भगवान बुद्ध का एक दांत लंका में सुरक्षित है। हजरत मुहम्मदसाहब का एक बाल काश्मीर की किसी मस्जिद

में रखा है। शरीर के साथ जुड़े हुए अवयव, बाल या नाखून अपना महत्व रखते हैं। उनके माध्यम से तान्त्रिक लोग भले-बुरे प्रयोग करते पाये जाते हैं। व्यक्तित्व पर तेजोवलय की भारी छाप रहती है। प्रायः यह जन्म-जन्मान्तरों के अभ्यास, प्रयास एवं संस्कार के आधार पर विनिर्मित होता है पर मनुष्य अपनी स्वतन्त्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल भी सकता है। सामान्य स्तर के लोग इस बने बनाये तेजोवलय के अनुसार अपना स्वभाव और कर्म बनाये रहते हैं। पर मनस्वी लोग अपनी सुदृढ़ संकल्प शक्ति से अपनी अभ्यस्त आन्तरिक एवं बाह्य स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन भी कर सकते हैं। तब विनिर्मित तेजोवलय में भी वैसा ही परिवर्तन हो जाता है। उसके रंगों में कम्पनों की जाल में इस परिवर्तन का हेर-फेर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। सुकरात कहते हैं—‘प्रकृतितः मैं कुख्यात हत्यारा ही हो सकता था, पर मैंने प्रयत्नपूर्वक अपने को बदलने में सफलता प्राप्त की।’

कभी-कभी जलयानों पर समुद्र और जलयान के सम्मिलित प्रभाव से एक शीतल अग्नि उत्पन्न होती है और वह जहाज के मस्तूल, रस्से तथा प्रत्येक भाग पर चमकती दिखाई देती है। यों यह एक प्रकार से विद्युत ही है पर हानि रहित है। इससे किसी वस्तु या व्यक्ति को हानि नहीं पहुंचती। पुराने लोग इसे ‘संत एल्यो की अग्नि’ कहते थे और समझते थे कि यह जहाज पर कोई सृजनात्मक वरदान बरस रहा है। अब उसे ‘जलयान का प्रेत’ कहा जाता है। वैज्ञानिक विश्लेषण यह समुद्रीय रासायनिक पदार्थ, लहरों की तरंगें तथा जहाज की हलचलें सब मिलाकर इस ज्योति का सृजन करते हैं और उस सूक्ष्म उत्पादन से सब मिलाकर जलयान की मजबूती को बल ही मिलता है। कोहरे भरी रातों में आकाशस्थ तारागणों के इर्द-गिर्द एक धुंधली नीली झलक लिये हुए सफेद रोशनी का तेज मण्डल छाया रहता है। कभी-कभी वर्षा ऋतु में चन्द्रमा के चारों ओर भी प्रकाश का एक गोल घेरा दिखाई पड़ता है। इंजीनियर की भाषा में इसे ‘कोरोना’ कहते हैं। इसका कारण उन प्रकाश पुंज तारकों के उच्च तनाव का विकरण अवरोध है। जलबिन्दु जब उनके प्रकाश ऊर्जा के क्रमबद्ध विज्ञान में अवरोध उत्पन्न करते हैं तो इस प्रकार का चमकदार घेरा बन जाता है।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य के चारों ओर एक तेजोवलय छाया रहता है। इसमें विद्युतकण, चुम्बकत्व, रेडियो विकरण, चेतनायुक्त ऊर्जा भरी रहती है। इसे यन्त्रों से भी जाना व नापा जा सकता है और समीपवर्ती लोग इसे अपने शरीर और मन पर पड़ने वाले अदृश्य प्रभाव के आधार पर अनुभव कर सकते हैं। कई व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी सुखद, प्रेरणाप्रद और हितकर होती है, कइयों का सान्निध्य अरुचिकर और कष्टकर प्रतीत होता है इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली इस ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण विकर्षण ही होता है। समान प्रकृति के लोगों की ऊर्जा घुलती मिलती है और सहयोग प्रोत्साहन प्रदान करती है पर यदि समीपवर्ती व्यक्तियों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकराकर वापिस लौटेगी और घृणा, अरुचि, अप्रसन्नता, खीज जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करेगी।

देखा गया है कि कई व्यक्तियों में रास्ता चलते मित्रता हो जाती है। अपरिचित होते हुए भी वे ऐसा अनुभव करते हैं मानो चिर परिचित हों और पास आये, बात किये बिना रह ही नहीं सकते। इस अनायास आकर्षण के पीछे पूर्व जन्मों का सम्बन्ध परिचय भी हो सकता है पर प्रत्यक्ष कारण दोनों के तेजोवलय की समानता है जो एक दूसरे को समीप खींचती रहती हैं। बात की बात में वे परस्पर परिचित, घनिष्ठ और विश्वस्त बन जाते हैं। तर्क के आधार पर यह आकर्षण भावुकता मात्र प्रतीत होता है और ऐसी जल्दबाजी में खतरे की आशंका की जा सकती है। पर तथ्य इतने प्रबल होते हैं कि इन सम्भावनाओं को निरस्त करते हुए घनिष्ठता उत्पन्न कर ही देते हैं, उसी प्रकार यह भी देखा जाता है कि स्वजन सम्बन्धी से भी अकारण अरुचि रहती है और उसकी समीपता में कष्टकर अनुभूति ही होती रहती है। ढूंढ़ने पर वैसा कुछ कारण प्रतीत नहीं होता तो भी ऐसी विषमता बनी ही रहती है। इसमें तेजोवलय के कम्पनों की गति में ऐसी असाधारण विपन्नता ही प्रधान अवरोध होती है। इसी को कवियों ने ‘प्रकृति मिले मन मिलता है, अनमिल से न मिलाय’ की उक्ति के साथ चित्रित किया है। यह ‘प्रकृति’ मात्र आहार-विहार वेश-भूषा आदि की समानता पर निर्भर नहीं रहती वरन् कारण गहरा होता है, इसे तेजोवलय के स्तर की समानता में ही खोजा जा सकता अनुशासन के पालन एवं उल्लंघन में प्रायः इसी समानता असमानता के कारण उत्तेजना उत्साह मिलता है। श्मशानों में कई बार धुंधले प्रकाश की गोलियां लहरें अथवा धुंध उड़ती देखी जाती है। शरीर के जल जाने पर मृत व्यक्ति का तेजोवलय किसी रूप में विद्यमान बना रह सकता है। कब्र में गाढ़े गये व्यक्ति की लाश सड़ जाने पर भी उसका तेजोवलय उस क्षेत्र में उड़ता रह सकता है इसे कभी-कभी आंखों से देखा जाता है और कभी उधर से निकलने वालों को रोमांच, कंपकंपी, धड़कन के रूप में इसका असुखद अनुभव होता है और वहां से जल्दी भाग जाने की इच्छा होती है ऐसी अनुभूतियां भय और आशंका का भी कारण हो सकती हैं। पर कितनी ही बार पूर्ण निर्भय और मरणोत्तर सत्ता को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी उस तरह की अनुभूति करते हैं और कहते हैं उन्हें उस क्षेत्र में कुछ अदृश्य हलचल का आभास होता है।

मरघट में तांत्रिक साधनायें करने, कापालिकों के मृतकों की खोपड़ी को साफ करने, उससे जल पीने जैसी अघोर क्रियाओं के पीछे मृतकों की अवशिष्ट वलय ऊर्जा का उपयोग करने का सिद्धान्त ही कार्यान्वित होता है। तन्त्र साधना में साधक न केवल अपने ही मनोबल को उपयोग करते हैं वरन् किन्हीं अन्यों के शरीरों की ऊर्जा का दोहन भी करते हैं। पशुबलि जैसे घृणित कर्म इसी स्तर का लाभ उठाने के लिये किये जाते हैं।

मनुष्य की अन्तरंग प्राणशक्ति का बाह्य परिचय उसके तेजोवलय के आकार-विस्तार एवं सघनता एवं चुम्बकीय प्रखरता के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है। संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के इस बाहर फैले हुए अन्तरंग व्यक्तित्व को आसानी से परख सकते हैं और उसके स्तर का पता लगा सकते हैं। कई बार यह बल्ब इतना तेजस्वी होता है कि समीपवर्ती क्षेत्र को अपने प्रभाव से भर देता है, इस सीमा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति इसी प्रवाह में बहने लगते हैं।

मनुष्य की तेजस्विता का अन्तर्निहित भण्डार

मानवीय चुम्बकत्व को तेजोवलय के रूप में अनुभव किया जा सकता है। यों समस्त शरीर में उसकी यात्रा रहती है और वह आवाज की तरह दूर क्षेत्र में जाते-जाते हल्का पड़ता जाता है। शरीर से मिलते ही यह विद्युतधारा तीव्र होती है इसलिए स्पर्श का अधिक प्रभाव पड़ता है। जिनके शरीर में अधिक प्रखर तेजोवलय होता है उनकी समीपता उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है। यह ‘वलय’ भला भी हो सकता है और बुरा भी। अपने-अपने ढंग का आक्रमण एवं प्रभाव दोनों में रहता है, इसी के कारण आमतौर से समीपवर्ती व्यक्ति अथवा पदार्थ प्रभावित होते रहते हैं।

यह तेजोवलय चेहरे पर सबसे अधिक मात्रा में रहता है। देवताओं के चित्रों में उनके चेहरे के आस-पास सूर्य जैसा चमकदार एक घेरा चित्रित किया जाता है वह इसी अदृश्य तेजोवलय का चित्रण है। आंखों से इसकी लपटें उठती रहती हैं जीभ भी जब शब्दोच्चार करती है—विशेषतया किसी भावावेश में तब भी इस तेजस के स्फुल्लिंग उड़ते देखे जा सकते हैं। ज्ञानेन्द्रियों का जमघट तथा मस्तिष्क का विद्युत भण्डार एक ही जगह है इसलिये चेहरा सबसे अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली रहता है। मोटे तौर पर चेहरे को देखकर दूसरे लोग बहुत कुछ जानने समझने में सफल होते हैं। आकृति देखकर मनुष्य की पहचान करने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान आदि की बनावट को नहीं वरन् चेहरे के इर्द-गिर्द उमड़ते घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते हैं और उसी के आधार पर व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व का प्रभाव परिचय प्राप्त करते हैं।

चेहरे की ही तरह तेजोवलय का एक केन्द्र जननेन्द्रिय क्षेत्र में छाया रहता है। पर चूंकि उसमें प्रजनन सम्बन्धी आकर्षण अधिक रहता है इसलिए इस वलय का प्रभाव यौवन आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है भिन्न लिंग की समीपता ही उस वलय में अधिक उभार करती है। समलिंग की समीपता में वह तेजस उत्तेजित नहीं होता। इन अड़चनों को देखते हुए ही कटि क्षेत्र को ढका रखा जाता है। विद्युत प्रवाह की दृष्टि से वहां भी चेहरे की अपेक्षा मात्रा कम नहीं होती। पर उपरोक्त बाधाओं ने उसे सीमित प्रयोजन के लिये ही उपयोगी रहने दिया है, दाम्पत्य स्तर पर भी उसका लाभ मिलता है, इस असुविधा के कारण ही उसे ढका हुआ, केवल प्रणय प्रयोजन के लिए ही सीमित अवरुद्ध किया गया है। यदि यह दोष न होता तो यह तेजोवलय चेहरे पर छाये रहने वाले तेजोवलय से न्यून नहीं अधिक ही प्रभावशाली सिद्ध होता। चेहरे का तेजोवलय इस प्रकार के बन्धन प्रतिबन्ध से मुक्त है। वह जैसा भी भला-बुरा होगा अपने निकटवर्ती क्षेत्र को—सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों तथा स्पर्श व्यवहार में आने वाले पदार्थों को प्रभावित करता है। जिस प्रकार जीवाणु एक से दूसरे शरीर में प्रवेश करते रहते हैं उसी प्रकार यह तेजोवलय विद्युत मण्डल समीपवर्ती क्षेत्र में अपनी मानसिक एवं आत्मिक स्थिति का प्रकाश प्रभाव फैलाता रहता है।

चुम्बक का स्पर्श करने से साधारण लोहे में भी चुम्बक की विशेषता उत्पन्न हो जाती है। प्रचण्ड प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्वों में भी ऐसी ही मानवी विद्युत भरी पड़ी रहती है। उनके परामर्श ज्ञान सहयोग का भी समीपवर्ती लोगों को लाभ मिलता है पर सबसे बड़ा लाभ उस तेजोवलय का होता है जो अपनी शक्तिशाली क्षमता को निरन्तर निसृत करता रहता है और जो भी उस सम्पर्क सान्निध्य की लपेट में आता है उसे देखते-देखते बदलने में, प्रभावित करने में सफल होता है। महामानवों के दर्शन, चरण स्पर्श, आशीर्वचन, दृष्टिपात में जो सत्परिणाम विद्यमान रहते हैं उसमें उनका प्रकाश पुंज तेजोवलय ही काम करता रहता है। दूसरे शब्दों में इस सूक्ष्म सत्ता को ही अदृश्य व्यक्तित्व कह सकते हैं। दृश्य व्यक्तित्व शरीर के रंग, रूप, सुडौलता, अंगों की बनावट आदि पर निर्भर रहता है, पर अदृश्य व्यक्तित्व पर इस दृश्य स्थिति का कोई प्रभाव नहीं होता है। कोई काला, कुरूप, दुर्बल, वृद्ध व्यक्ति भी अत्यन्त तेजस्वी और प्रतिभा का धनी हो सकता है। जबकि वह बाहर से उपहासास्पद ही लगेगा। इसके विपरीत सुन्दर और आकर्षक नवयौवन सम्पन्न काया का व्यक्ति हेय और हीन स्तर का हो सकता है। आंखों को आरम्भिक दर्शन में काय कलेवर के अनुरूप किसी की वस्तुस्थिति समझने में भ्रम हो सकता है पर जैसे ही उसकी यथार्थता अनुभव की जायगी वह भ्रम दूर हो जायेगा और वास्तविक व्यक्तित्व के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

साधारणतया रंग रूप का आकर्षण हर किसी को मुग्ध मोहित करता है पर यदि तेजोवलय तदनुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्यांकन बदल जाता है। रूपवान काया में विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो जाती है और कुरूपों को अष्टावक्र, सुकरात, गान्धी की तरह सिर आंखों पर बिठाया जाने लगता है। शरीर की कुरूपता सज्जा-साधना से एक हद तक छिपाई भी जा सकती है, पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता। जितना अन्तःकरण थोड़ा जागृत हो चला है और किसी की भीतरी स्थिति समझने देखने योग्य जिनकी सूक्ष्म दृष्टि जागृत हो गई है वे रंग रूप की उपेक्षा करके तेजोवलय में संव्याप्त सुन्दरता एवं कुरूपता को देख सकते हैं और उसी के अनुरूप किसी के प्रति श्रद्धालु अश्रद्धालु होने की आवश्यकता अनुभव कर सकते हैं। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी-गर्मी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किये रहना ही है। भीतर की शक्ति बाहर निकल कर बिखरने न पाये इसके लिये वस्त्रों का आवरण चढ़ाया जाता है। नग्न शरीर रहने वाले साधु संन्यासी भी शरीर पर भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाये रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इसका कारण सामाजिक मान्यता भी है पर आत्मिक कारण यह है कि कोई शरीर नग्न होने की दशा में अपनी शक्ति तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बखेरता रहेगा, साथ ही दूसरों के भले बुरे प्रबल प्रभावों से अपने को बचा भी न सकेगा नग्न शरीर पर धूप का प्रभाव अधिक पड़ता है उसी प्रकार दूसरों का चुम्बकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है। रेशम एवं ऊन में शारीरिक विद्युत पर आवरण डाले रहने की क्षमता अधिक होती है इसलिए प्रायः पुरश्चरण परक प्रबल साधना प्रयोजनों में सूती वस्त्रों की अपेक्षा ऊनी या रेशमी कपड़ों को अधिक महत्व दिया जाता है। यहां एक बात और नोट कर ली जानी चाहिए कि वध करने के उपरान्त भेड़ों की उतारी हुई ऊन अथवा कीड़ों को उबाल कर उन्हें मार डालने के उपरान्त पाया जाने वाला रेशम आत्मिक प्रयोजनों में काम आने लायक नहीं रह जाता। वध के समय निकला हुआ चीत्कार उनकी सूक्ष्म स्थिति को आसुरी प्रकृति का बना देता है। शरीरगत विद्युत के आवागमन में प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमता तो ऐसे ऊन या रेशम में हो सकती है पर उनसे उच्च आध्यात्मिक प्रयोजन में तो उलटी बाधा ही पड़ेगी। उससे तो धुला हुआ सूती वस्त्र ही अच्छा है।

भारत के अध्यात्मवेत्ता किसी समय इस दिशा में बहुत बड़ी सेवा करने और सफलता प्राप्त करने में कृत कार्य हो चुके हैं। बुद्ध की प्रचण्ड विचारधारा ने अपने समय में लगभग ढाई लाख व्यक्तियों को अपनी विलासी एवं भौतिक महत्वाकांक्षी गतिविधियां छोड़कर उस कष्टकर प्रयोजन को अपनाने के लिए खुशी-खुशी कदम बढ़ाया जो प्रचण्ड मानवीय विद्युत से सुसम्पन्न बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान राम ने रीछ वानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए भावावेश में संलग्न कर दिया जिससे किसी लाभ की आशा तो थी नहीं उलटे जीवन संकट स्पष्ट था। भगवान कृष्ण ने महाभारत की भूमिका रची और उसके लिये मनोभूमियां उत्तेजित कीं। पाण्डव उस तरह की आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहे थे और न अर्जुन की उस संग्राम में रुचि थी तो भी अभीष्ट प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए मानसिक क्षमता के धनी कृष्ण ने उस तरह की उत्तेजनात्मक परिस्थितियां उत्पन्न कर दीं। गोपियों के मन में सरस भावाभिव्यंजनाएं उत्पन्न करने का सूत्र संचालन कृष्ण ही कर रहे थे।

ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथुस्त आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं, पर उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं उस मनोबल की कमी ही कारण है जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना सम्भव न हो सका। नारद जी जैसे मनस्वी ही, अपने स्वल्प परामर्श से लोगों की जीवनधारा बदल सकते थे। बाल्मीक, ध्रुव, प्रहलाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।

समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गुरु गोविन्द सिंह, दयानन्द, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने समय के लोगों को उपयोगी प्रेरणाएं दी हैं और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पन्न किया है। गांधीजी की प्रेरणा से स्वतन्त्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति त्याग, बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आये यह पिछले ही दिनों की घटना है।

शक्ति इसी स्तर की प्रक्रिया है जिसमें मानुषी विद्युत से सुसम्पन्न व्यक्ति का तेजस् दूसरे अल्प तेजस् व्यक्तियों में प्रवेश करके उन्हें देखते-देखते समर्थ बनाकर रख देती है। दीपक से दीपक जलने का—पारस स्पर्श से लोहा सोना होने का उदाहरण इसी प्रकार के सन्दर्भ में दिया जाता है।

इस ओजस् ब्रह्म वर्चस आत्मबल का ही एक छोटा स्वरूप मानवी विद्युत है। व्यक्तित्व की प्रखरता होने पर यह प्राण शक्ति बनकर निखरती-उभरती है। ऐसे व्यक्ति बाहर से प्रभावशाली भले ही दिखाई न पड़ें, पर उनका आन्तरिक तेजस् असाधारण होता है। इस शक्ति को धन वैभव, विद्या, शरीर बल, शस्त्र बल आदि भौतिक साधनों की तुलना में असंख्य गुना महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

इसी ओजस् धारा के अनेक शक्ति संस्थान सूक्ष्म शरीर में भरे पड़े हैं। वे यदि जागृत किये जा सकें तो अपने भीतर से ही देवता प्रकट होते देखे जा सकते हैं। कुछ समय पूर्व बम्बई के एक विद्वान् बी.जे. रेले ने एक पुस्तक लिखी थी—दी वैदिक गार्डस एस. फिगर्स आफ बायोलॉजी। उसमें उसने सिद्ध किया था कि वेदों में वर्णित आदित्य, वरुण, अग्नि, मारुत, मित्र, अश्विन, रुद्र आदि मस्तिष्क के स्थान विशेष में सन्निहित दिव्य शक्तियां हैं जिन्हें जागृत करके विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनाया जा सकता है।

ग्रान्ट मेडीकल कालेज के अतारभी प्राध्यापक वाई.जी. नाडगिर और एडगर जे टामस ने संयुक्त रूप में पुस्तक की भूमिका लिखते हुए कहा है कि वैदिक ऋषियों के शरीर शास्त्र सम्बन्धी गहन ज्ञान पर अचम्भा होता है कि उस साधनहीन समय में किस प्रकार उन्होंने इतनी गहरी जानकारियां प्राप्त की होंगी आंख की सीप से ऊपर के मस्तिष्क का भाग वृहत मस्तिष्क कहलाता है यही सेरिब्रलम ब्रह्म चेतना शक्ति का केन्द्र है। इन्द्र और सविता यहीं निवास करते हैं। नाक की सीध में सिर के पीछे वाला भाग सेरिबेलम अनुमस्तिष्क रुद्र देवता का कार्य क्षेत्र है। मस्तिष्क का ऊपरी भाग रोटसी मध्य भाग अन्तरिक्ष और निम्न भाग पृथ्वी बतलाया गया है। रोटसी से दिव्य चेतना का प्रवाह—अन्तरिक्ष में ग्रह नक्षत्रों वाला ब्रह्माण्ड और पृथ्वी में अपने लोक में काम कर रही भौतिक शक्तियों का सूत्र सम्बन्ध जुड़ा रहता है। सप्तधार सोम अग्नि, स्वर्ग द्वार, द्रौण, कलश एवं अश्विनी शक्तियों का सम्बन्ध रोटसी क्षेत्र से है।

अग्नि से नीचे वाले भाग को स्वर्ग द्वार और उससे नीचे वाले भाग को द्रौण कलश कहा गया है। जहां से सप्त सरितायें सात नदियां बहती हैं। द्रौण कलश में सोम रस भरा रहता है। जिसके आधार पर स्नायु केन्द्रों की शक्ति प्राप्त होती है। मेरु रज्जाओं के साथ बंधे हुए दो ग्रन्थि गुच्छक अश्वनीकुमार बताये गये हैं। मस्तिष्क की परिधि को घेरे हुए एक विशेष द्रव सम्पूर्ण मस्तिष्क की चेतना प्रदान करता इसी को वरुण कहते हैं, इसी केन्द्र में अग्नि देवता का ज्ञानकोश है। मस्तिष्क के पिछले भाग में अवस्थित ‘‘टेपोलर लीव’’ प्राचीनकाल का शंख पालि है। इसके नीचे की पीयूष ग्रन्थियां जिन्हें मेदुला भी कहते हैं अश्वमेध यज्ञ की वेदी है। अश्वमेध अर्थात् इन्द्रिय परिष्कार इसके लिए पीयूष ग्रन्थि वाला क्षेत्र ही उत्तरदायी है।

सुषुप्ति को जागृति में परिणित करने के लिए ही अपने आप को तपाना पड़ता है। तपश्चर्या के फलस्वरूप सिद्धियां मिलने के जो प्रमाण उदाहरण मिलते हैं। उनके पीछे प्राण तत्व का विकास और आन्तरिक परिष्कार का लक्ष्य ही सन्निहित रहता है। बाहर से कोई देवता हमारी सहायता करने के लिए दौड़ा नहीं आता वरन् तप साधना से उत्पन्न आन्तरिक प्रखरता ही देव शक्ति बनकर हमें आत्म सम्पदा से ओत-प्रोत करती है। यह सम्पत्ति जिनके पास है उसे सुखी और समुन्नत रहने तथा दूसरों को महत्वपूर्ण अनुदान देते रहने का श्रेय मिलता है।

शरीर, मन और अन्तःकरण में काम करने वाली विद्युतशक्ति के अभिवर्धन और सदुपयोग का विधान प्रक्रिया का नाम ही योग-साधना है। विभिन्न प्रकार के तप साधन इसी प्रयोजन के लिए किये जाते हैं। प्राणवान व्यक्तियों के समीप रहकर उनके विद्युत-प्रवाह का लाभ उसी प्रकार उठाया जा सकता है जैसा कि चन्दन वृक्ष के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धि युक्त होने का लाभ उठाते हैं। मौन, एकान्त सेवन और ब्रह्मचर्य जैसी साधनाएं इसीलिए हैं कि वह विद्युत भण्डार निरर्थक कार्यों में खर्च न होकर संग्रहीत रखा जा सके और उसे अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में खर्च किया जा सके। महान् व्यक्तित्वों का सान्निध्य सम्पर्क अपने आप में एक बड़ा लाभ है। बिना सत्संग और परामर्श के भी ऐसा सम्पर्क स्वल्प प्राण व्यक्तियों के लिए अमृत वर्षा जैसा अति महत्वपूर्ण अनुदान प्रस्तुत करता है। स्पष्ट है कि आग और बिजली के सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं में यदि ग्रहण करने की शक्ति हो तो वे भी उसी स्तर की बन जाती हैं।

प्रयत्न करने पर यही चेतन चुम्बकत्व के—आत्मबल के रूप में विकसित हो सकता है और आगे चलकर योग-साधना की सिद्धियों और देव अनुग्रह से मिलने वाली विभूतियों के रूप में सामने आता है। तपश्चर्या तितीक्षा और कष्टसाध्य साधना पथ पर दूर तक चल सकना, इस आत्मबल के सहारे ही सम्भव होता है। विकसित स्तर का यही आत्म तेजस् सूक्ष्म जगत में काम करने वाली दिव्य शक्तियों को खींच लाता है और उस व्यक्ति की हथेली पर लाकर रख देता है।

गायत्री उपासना—प्रकाश की साधना

अध्यात्म विज्ञान में स्थान-स्थान पर प्रकाश की साधना और प्रकाश की याचना की चर्चा मिलती है। यह प्रकाश बल्ब, बत्ती अथवा सूर्य, चन्द्र आदि से निकलने वाला उजाला नहीं वरन् वह परम ज्योति है जो इस विश्व में चेतना का आलोक बनकर जगमगा रही है। गायत्री का उपास्य सविता देवता इसी परम ज्योति को कहते हैं। इसका अस्तित्व ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण-कण में संव्याप्त जीवन ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने भी देख सकता है। इसकी जितनी मात्रा जिसके भीतर विद्यमान हो समझना चाहिए कि उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।

मस्तिष्क के मध्य भाग से प्रकाश कणों का एक फव्वारा सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है, ब्रह्मरन्ध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव स्थिति को विश्व-ब्रह्माण्ड में ईथर कम्पनों द्वारा प्रवाहित करती रहती है, इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। फुहारे की लौटती हुई धाराएं अपने साथ विश्व-व्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक तथा भावनात्मक जानकारियां लेकर लौटती हैं यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, ग्रहण किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्तमान काल की अत्यन्त सुविस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह गृहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है उसका माध्यम यह ब्रह्मरन्ध्र अवस्थित ध्रुव संस्थान ही है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएं अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान-प्रदान का कार्य ध्रुव केन्द्रों द्वारा सम्पन्न होता है। शरीर के भी दो ध्रुव हैं—एक मस्तिष्क, दूसरा जनन गह्वर। चेतनात्मक विकरण मस्तिष्क से और शक्ति परक ऊर्जा प्रवाह जनन गह्वर से सम्बन्धित है। सूक्ष्म आदान-प्रदान की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से संचालित होती है।

शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगे तो प्रकाश पुंज की स्थिति भी बदल जायगी। इतना ही नहीं समय-समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिन्तन स्तर के अनुरूप उसमें सामयिक होते रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शान्ति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जायेगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार कुशल स्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी और मूर्ख मनुष्य लाल वर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं। हरा रंग सृजनात्मक एवं कलात्मक प्रकृति का द्योतक हैं। गहरा बैंगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक ईश्वर भक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केसरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता। बदलती हुई मनोवृत्ति प्रकाश पुंज के रंगों में परिवर्तन कर देती है। यह रंग स्वतन्त्र रूप से कुछ नहीं। मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन, शरीर से निसृत होते रहने वाले ऊर्जा कम्पनों की घटती-बढ़ती संख्या के आधार पर आंखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक इन्हें ‘फ्रीक्वेन्सी आव दी वेयस’ कहते हैं।

दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स), दिव्य अनुभव (साइको मैन्ट्री) प्रभाव प्रेषण (टेलीपैथी), संकल्प प्रयोग (सजेशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्म-शक्ति विकसित होते ही आसानी से किये जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोध कार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी निष्कर्ष सामने आये हैं। परा मनोविज्ञान, अतीन्द्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्यायें भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रोनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के सम्बन्ध में जैसे-जैसे रहस्यमय जानकारियों के पर्त खुलते हैं, वैसे-वैसे स्पष्ट होता जाता है कि न पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनन्त क्षमताओं का भण्डार है, कठिनाई इतनी भर हैं कि उसकी अधिकांश विकृतियां प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में पड़ी हैं।

प्रकाश रश्मियों की लम्बाई एक इंच के सोलह से 30 लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुनी जाने वाली ध्वनि तरंगों की गति एक सैकिण्ड में एक लाख, छियासी हजार मील की होती है, वे एक सैकिण्ड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं। शब्द और प्रकाश की तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि उन्हें बिना सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता से हमारी इन्द्रियां अनुभव नहीं कर सकती हैं।

डा. जे.सी. ने ‘अणु और आत्मा’ ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि मानव अणुओं की प्रकाश वाष्प न केवल मनुष्यों में वरन् अन्य जीवधारियों, वृक्ष वनस्पति, औषधि आदि में भी होती है, यह प्रकाश अणु ही जीवधारी के यथार्थ शरीरों का निर्माण करते हैं खनिज पदार्थों से बना मनुष्य या जीवों का शरीर तो तभी तक स्थिर रहता है, जब तक यह प्रकाश अणु शरीर में रहते हैं। इन प्रकाश अणुओं के हटते ही स्थूल शरीर बेकार हो जाता है, फिर उसे जलाते या गाढ़ते ही बनता है। खुला छोड़ देने पर तो उसकी सड़ांद से उसके पास एक क्षण भी ठहरना कठिन हो जाता है।

स्वभाव, संस्कार, इच्छायें, क्रिया शक्ति यह सब इन प्रकाश अणुओं का ही खेल है। हम सब जानते हैं कि प्रकाश का एक अणु (फोटोन) भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बना होता है। मनुष्य शरीर की प्रकाश आभा भी कई रंगों से बनी होती है। डा. जे.सी. ट्रस्ट ने अनेक रोगियों, अपराधियों तथा सामान्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके बताया है कि जो मनुष्य जितना श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है, उसके मानव अणु दिव्य तेज और अभाव वाले होते हैं, जबकि अपराधी और रोगी व्यक्तियों के प्रकाश अणु क्षीण और अन्धकारपूर्ण होते हैं। उन्होंने बहुत से मनुष्यों के काले धब्बों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर उनके रोगी या अपराधी होने की बात को बताकर लोगों को स्वीकार करा दिया था कि सचमुच रोग और अपराधी वृत्तियां काले रंग के अणुओं की उपस्थिति का प्रतिफल होते हैं, मनुष्य अपने स्वभाव में चाहते हुए भी तब तक परिवर्तन नहीं कर सकता, जब तक यह दूषित प्रकाश अणु अपने अन्दर विद्यमान बने रहते हैं।

यही नहीं जन्म-जन्मान्तरों तक खराब प्रकाश अणुओं की यह उपस्थिति मनुष्य से बलात्, दुष्कर्म कराती रहती है, इस तरह मनुष्य पतन के खड्डे में बार-बार गिरता और अपनी आत्मा को दुखी बनाता रहता है। जब तक यह अणु नहीं बदलते न निष्क्रिय होते तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपनी दशा नहीं सुधार पाता। यह तो है कि अपने प्रकाश अणुओं से यदि तीव्रता है तो उस से दूसरों को आकस्मिक सहायता दी जा सकती है। रोग दूर किये जा सकते हैं। खराब विचार वालों को कुछ देर के लिये अच्छे सन्त स्वभाव में बदला जा सकता है। महर्षि नारद के सम्पर्क में आते ही डाकू बाल्मीकि के प्रकाश अणुओं में तीव्र झटका लगा और वह अपने आपको परिवर्तित कर डालने को विवश हुआ। भगवान बुद्ध के इन प्रकाश-अणुओं के निकलने वाली विद्युत विस्तार सीमा में आते ही डाकू अंगुलिमाल की विचारधारायें पलट गई थीं। ऋषियों के आश्रमों में गाय और शेर एक घाट पानी पी आते थे, वह इन प्रकाश-अणुओं की ही तीव्रता के कारण होता था। उस वातावरण के निकलते ही व्यक्तित्वगत प्रकाश अणु फिर बलवान हो उठने से लोग पुनः दुष्कर्म करने लगते हैं; इसलिए किसी को आत्म-शक्ति या अपना प्राण देने की अपेक्षा भारतीय आचार्यों ने एक पद्धति का प्रसार किया था, जिसमें इन प्रकाश-अणुओं का विकास कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार कर सकता था। देव उपासना उसी का नाम है।

उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें हम अपने भीतर के काले, मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश अणुओं को दिव्य तेजस्वी, सदाचरण और शान्ति एवं प्रसन्नता की वृद्धि करने वाले मानव-अणुओं में परिवर्तित करते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में किसी नैसर्गिक तत्व, पिण्ड या ग्रह-नक्षत्र की साझेदारी होती है—उदाहरण के लिये जब हम गायत्री की उपासना करते हैं तो हमारे भीतर के दूषित प्रकाश अणुओं को हटाने और उसके स्थान पर दिव्य प्रकाश अणु भर देने का माध्यम ‘गायत्री’ का देवता सविता अर्थात् सूर्य होता है।

वर्ण रचना और प्रकाश की दृष्टि से यह मानव-अणु भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है, वह इन्हीं अणुओं की उपस्थिति के कारण होता है, यदि इस विज्ञान को समझा जा सके तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्विक, सफल रोग मुक्त बनाया जा सकता है, वरन् औरों को भी प्रभावित और इन लाभों से—लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति के आधार भी यह प्रकाश-अणु या मानव अणु ही हैं।

वस्तुयें हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं। किंतु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोश (सैल) को देखना चाहें तो वह इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें देख नहीं सकते। इलेक्ट्रानों को जब 50000 वोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है तो उनकी तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में 1/10000 भाग सूक्ष्म होती हैं, तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है, उससे भी 42.4वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहां की गतिविधियां दिखा सकती हैं। उदाहरण के लिये यदि मनुष्य की आंख एक इंच घेरे को देख सकती हैं तो उससे भी 500 अंश कम को प्रकाश सूक्ष्मदर्शी और 10000 अंश छोटे भाग को सूक्ष्मदर्शी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य शरीर के कोश (सेल्स) का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिये। इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया तो उसमें भी एक टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया। चेतना या महत्तत्व इस प्रकार प्रकाश की ही अति सूक्ष्म स्फुरणा है, यह विज्ञान भी मानता है।

भारतीय योगियों ने ब्रह्मरन्ध्र स्थिति जिन षटचक्रों की खोज की है, सहस्रार कमल उनसे बिल्कुल अलग सर्वप्रभुता सम्पन्न है। यह स्थान कनपटियों से दो-दो इंच अन्दर भृकुटि से लगभग ढाई या तीन इंच अन्दर छोटे से पोले में प्रकाश पुंज के रूप में है। तत्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्वों से बना होता है, देखने में मरकरी लाइट के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि पांच अक्षरों में इस तरह प्रतिपादित की ‘तस्य सर्वेषु कामचारी भवति’ अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला योगी सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहां से मस्तिष्क शरीर का नियन्त्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उनका सम्पादन करता है।

आत्मा या चेतना जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्ति करती है, वह यह प्रकाश अणु ही है, जबकि आत्मा स्वयं उससे भिन्न है। प्रकाश-अणुओं को प्राण, विधायक शक्ति, अग्नि, तेजस कहना चाहिये, वह जितने शुद्ध दिव्य तेजस्वी होंगे, व्यक्ति उतना ही महान तेजस्वी, यशस्वी, वीर, साहसी और कलाकार होगा। महापुरुषों के तेजोवलय उसी बात के प्रतीक है जबकि निकृष्ट कोटि के व्यक्तियों में यह अणु अत्यन्त शिथिल मन्द और काले होते हैं। हमें चाहिए कि हम इन दूषित प्रकाश अणुओं को दिव्य अणुओं में बदलें और अपने को भी महापुरुषों की श्रेणी में ले जाने का यन्त करें।

ब्रह्म विद्या का उद्गाता ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की प्रार्थना में इस दिव्य प्रकाश की याचना करता है। इसी की प्रत्येक जागृत आत्मा को आवश्यकता अनुभव होती है। अस्तु गायत्री उपासक अपने जप प्रयोजन में इसी ज्योति को अन्तः भूमिका में अवतरण करने के लिए सविता देवता का ध्यान करता है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118