श्वेत जातियों का भविष्य संकटपूर्ण है।

July 1967

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रोमा रोलाँ यद्यपि फ्राँस के निवासी थे, पर उनमें विश्व बन्धुत्व की भावना की इतनी वृद्धि हो चुकी थी कि उनको मानव मात्र अपने भाई की तरह प्रतीत होते थे। वे रंग, जाति, मजहब और राष्ट्रीयता को उतना महत्व नहीं देते थे जितना कि मानवता को। यही कारण है कि भारतवर्ष को अपने न्यायपूर्ण अधिकारों- स्वाधीनता के लिये संघर्ष करते देख कर उनको यहाँ वालों से सहानुभूति हो गई। यद्यपि भारतवासियों की गिनती काली जातियों में की जाती थी और उनके स्वामी गोरे थे, पर रोमा रोलाँ ने इस बात पर ध्यान न देकर सदैव भारत का पक्ष समर्थन किया और अंग्रेजों को उनके अन्यायों, दमन नीति और स्वार्थपरता के लिए फटकारा। वे एक सच्चे दार्शनिक थे और आत्मा की सत्ता में विश्वास रखते हुए सुख-दुख को समान मानते थे और निर्माण तथा नाश को प्रकृति की लीला समझ कर कभी क्षुब्ध नहीं होते थे। इन गुणों के कारण उनको ऋषियों जैसी दूर-दृष्टि भी प्राप्त हो गई थी जिससे वर्तमान घटनाओं के आधार पर आगामी संभावनाओं का ठीक अनुमान लगा सकते थे। इसी शक्ति से उन्होंने अबसे पचास-साठ वर्ष पहले योरोपियन सभ्यता के रुख को देख कर जो भविष्यवाणी की थी वह हमको आज ज्यों की त्यों यथार्थ होती जान पड़ती है। उन्होंने लिखा था-

ढ्ढ ड्ढद्गद्यद्बद्गक्द्ग ह्लद्धड्डह्ल ख्द्ग ड्डह्द्ग ड्ढह्वह्ल ड्डह्ल ह्लद्धद्ग ड्ढद्गद्दद्बठ्ठठ्ठद्बठ्ठद्द शद्ध ड्ड द्दह्द्गड्डह्ल ष्ड्डह्लड्डह्यह्लह्शश्चद्धद्बष् द्गह्ड्ड द्बठ्ठ ख्द्धद्बष्द्ध ह्यद्धड्डद्यद्य स्रद्बह्यड्डश्चश्चद्गड्डह् ड्ड द्दह्द्गड्डह्ल श्चड्डह्ह्ल शद्ध शह्वह् शद्यस्र ख्द्धद्बह्लद्ग ष्द्बक्द्बद्यद्बभ्ड्डह्लद्बशठ्ठ ख्द्बह्लद्ध द्बह्लह्य क्द्बह्ह्लह्वद्गह्य, द्बह्लह्य ड्ढद्गड्डह्वह्लब्, द्बह्लह्य ह्वद्दद्यद्बठ्ठद्गह्यह्य, ड्डठ्ठशह्लद्धद्गह् ड्डद्दड्डद्बठ्ठ ह्यद्धड्डद्यद्य द्धद्यशह्वह्द्बह्यश्च, ड्ड ठ्ठद्गख् शह्स्रद्गह् ह्यद्धड्डद्यद्य ह्लड्डद्मद्ग ड्ढद्बह्ह्लद्ध. ढ्ढ ड्डद्व ठ्ठशह्ल ड्डठ्ठफ्द्बशह्वह्य द्धशह् ह्लद्धद्ग स्रद्गह्यह्लद्बठ्ठद्बद्गह्य शद्ध द्यद्बद्धद्ग. ञ्जद्धद्गब् ड्डह्द्ग द्बठ्ठद्धद्बठ्ठद्बह्लद्ग. क्चह्वह्ल ह्लद्धशह्यद्ग शद्ध शह्वह् श्वह्वह्शश्चद्ग ड्डह्द्ग ठ्ठशह्ल ह्यश. ्नठ्ठस्र ह्लद्धशह्यद्ग ह्लद्धड्डह्ल ड्डह्द्ग ह्लड्डद्मद्बठ्ठद्द ड्ढद्बह्ह्लद्ध ड्डह्ल श्चह्द्गह्यद्गठ्ठह्ल ह्यद्धड्डद्यद्य द्धड्डक्द्ग ह्लश द्धड्डष्द्ग द्धद्बद्गह्ष्द्ग ड्डह्यह्यड्डह्वद्यह्लह्य.

(क्रशद्वड्डद्बठ्ठ क्रशद्यद्यड्डठ्ठस्र)

“मेरा विश्वास है कि एक महा-भयंकर युग का आरम्भ हो रहा है जिसमें हमारी प्राचीन ‘श्वेत सभ्यता’ का एक बड़ा भाग उसके गुणों और अवगुणों सहित नष्ट हो जायगा। फिर एक नई सभ्यता का उदय होगा, एक नये समाज की रचना होगी। मुझे जीवन के बनने और बिगड़ने की चिन्ता नहीं है, क्योंकि वह अविनाशी है। पर हमारे अन्य योरोपियन भाई इस प्रकार का विचार नहीं रखते। इसलिए जो लोग इस समय जन्म ले रहे हैं उनको भीषण विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।”

जिस समय ये शब्द लिखे गये थे उस समय योरोप समस्त संसार का स्वामी बना हुआ था। अंग्रेजों का साम्राज्य पृथ्वी भर में फैला हुआ था। फ्राँस, जर्मनी, हालैंड आदि ने भी अन्य महाद्वीपों में अपने देशों से कई-कई गुने बड़े उपनिवेशों पर अधिकार जमा रखा था। समस्त उद्योग-धन्धे योरोपियनों के अधिकार में ही थे और इसलिये संसार-भर की दौलत उनके यहाँ खिंची जा रही थी। वे ही विद्या, ज्ञान-विज्ञान में अग्रगामी माने जाते थे और इस आधार पर एशिया, अफ्रीका के निवासियों को ‘सभ्य’ बनाने, उनका मार्गदर्शन करने का दावा करते थे। उन्होंने नये-नये आविष्कारों द्वारा अपने सैनिक शक्ति बहुत बढ़ा रखी थी और उनके बल पर वे दूरवर्ती देशों और जातियों को अपने अंकुश में रख सकने में समर्थ थे। पर अपने ही दोषों के कारण स्थिति बदल गई और योरोप का पतन होने लग गया।

ज्ञानी लोगों का कथन है कि किसी का समय एक सा नहीं रह सकता। संसार परिवर्तनशील है और जो व्यक्ति या समाज कालचक्र के अनुकूल व्यवहार करने को तैयार रहता है वही पर्याप्त समय तक उच्च पद पर टिक सकता है। पर जो कोई शक्ति, सम्पत्ति, सम्मान को पाकर अहंकार या स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है वह शीघ्र ही नीचे गिरता दिखाई पड़ता है। यही बात योरोप के साथ हुई। उसने श्वेत जातियों के अतिरिक्त काली, पीली, भूरी लाल सभी जातियों को अपने से नीचा और अपना शिकार समझा और उनकी भलाई, सुख-दुःख का ख्याल न करके अपने स्वार्थ को ही प्रधान रखा। नतीजा यह हुआ कि जैसे-जैसे उन जातियों में जागृति आती गई, वे संगठित और शक्तिसम्पन्न बनती गई, वैसे-वैसे ही योरोपियनों के विरुद्ध उनका विरोध भाव प्रकट होने लगा। दूसरी बात यह कि- जिन लोगों में स्वार्थ की भावना बढ़ जाती है और जो दूसरों को लूटमार कर पेट भरने को अपना उद्देश्य बना लेते हैं उनमें आपस में कलह उत्पन्न हो जाती है और वे परस्पर में ही टकराने लगते हैं। इस प्रकार एक तरफ तो योरोप के विभिन्न देश आपस में लड़-झगड़ कर अपनी शक्ति नष्ट करने लगे और दूसरी तरफ उनके अधीन देशों की प्रजा विरोधी बन कर उनसे संघर्ष करने लगी। परिणाम यह हुआ कि उनका विस्तार और अधिकार दिन पर दिन कम होने लगा और अधिकाँश अधीनस्थ देश और उपनिवेश स्वाधीन हो गये। इस बात की भी चेतावनी विद्वान उसी समय देने लग गये थे। एक प्रसिद्ध दार्शनिक पाल रिचार्ड ने एशिया की समस्या पर विचार करते हुये सन् 1915 के लगभग लिखा था-

ञ्जद्धद्गह्द्ग द्बह्य ठ्ठश द्यशठ्ठद्दद्गह् ड्डठ्ठब् स्रशह्वड्ढह्ल ह्लद्धड्डह्ल ्नह्यद्बड्ड ख्द्बद्यद्य ह्यशशठ्ठ द्धह्द्गद्ग द्धद्गह्ह्यद्गद्यद्ध द्धह्शद्व ह्लद्धद्ग ख्द्गड्डद्मठ्ठद्बठ्ठद्द ष्द्यड्डख्ह्य शद्ध श्वह्वह्शश्चद्ग. ञ्जद्धद्ग शठ्ठद्यब् ह्नह्वद्गह्यह्लद्बशठ्ठ द्बह्य, ख्द्धड्डह्ल द्मद्बठ्ठस्र शद्ध द्धह्द्गद्गस्रशद्व ख्द्बद्यद्य ह्यद्धद्ग द्दद्गह्ल-ह्लद्धद्ग द्धह्द्गद्गस्रशद्व ख्द्धद्बष्द्ध ह्लद्धद्ग ह्लद्बस्रद्ग ड्ढह्द्बठ्ठद्द ड्डठ्ठस्र ह्लड्डद्मद्गह्य ड्डख्ड्डब्, शह् ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्ह्वह्द्ग, श्चद्गह्द्वड्डठ्ठद्गठ्ठह्ल शठ्ठद्ग ख्द्धद्बष्द्ध ष्शद्वद्गह्य द्धह्शद्व ह्लद्धद्ग ह्यशह्वद्य, द्धह्शद्व ह्लद्धद्ग ह्यद्गद्यद्ध स्रद्गह्लद्गह्द्वद्बठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठ, ह्लद्धद्ग ह्द्गड्डद्य द्धह्द्गद्गस्रशद्व शद्ध द्दह्द्गड्डह्लठ्ठद्गह्यह्य.

(क्कड्डह्वद्य क्रद्बष्द्धड्डह्स्र)

“अब इस बात में कुछ भी सन्देह नहीं कि एशिया शीघ्र ही योरोप के दिन पर दिन कमजोर होते जाने वाले पंजों से अपने को छुड़ा लेगा। प्रश्न केवल यही है कि वह किस तरह की स्वाधीनता प्राप्त करेगा? क्या वह स्वाधीनता ऐसी होगी जो ज्वार के साथ आती है और उसी के साथ पीछे लौट जाती है। अथवा ऐसी स्थायी और मजबूत स्वाधीनता होगी जो कि आत्मा से, अपने आँतरिक दृढ़ निश्चय से प्राप्त होती है और वास्तविक स्वतन्त्रता और महानता के नाम से पुकारी जाती है।”

भारतवर्ष के स्वाधीनता संघर्ष को देख कर भी उन्होंने ऐसा ही सांत्वना पूर्ण सन्देश दिया था। भारतवर्ष को संबोधित करके उन्होंने कहा था-

॥शख् ख्द्बद्यद्य ह्लद्धब् द्धद्गह्लह्लद्गह्ह्य ड्ढद्ग ड्ढह्शद्मद्गठ्ठ? ञ्जद्धद्गब् ख्द्बद्यद्य द्धड्डद्यद्य शद्ध ह्लद्धद्गद्वह्यद्गद्यक्द्गह्य ख्द्धद्गठ्ठ ह्लद्धद्ग द्धड्डठ्ठस्रह्य शद्ध ह्लद्धब् द्वड्डह्यह्लद्गह्ह्य ख्द्धश द्वड्डस्रद्ग ह्लद्धद्गद्व ह्यश द्धद्गड्डक्ब्, ड्ढद्गष्शद्वद्ग ह्लशश ख्द्गड्डद्म ह्लश ह्द्गह्लड्डद्बठ्ठ ह्लद्धद्गद्व.

“तेरे बन्धन किस प्रकार टूटेंगे? जब कि तेरे मालिकों के हाथ, जिन्होंने उन्हें इतना भारी बनाया है, बहुत कमजोर हो जायेंगे और उनको सँभाल न सकेंगे तो अपने आप टूट कर गिर जायेंगे।”

जैसा इन उद्धरणों से प्रकट होता है- योरोप के कमजोर पड़ने और उच्च पद से पतित होने का मुख्य कारण स्वार्थपरता की दूषित भावना ही है। भगवान ने उसे जो उच्च पदवी प्रदान की थी यदि उसका सदुपयोग करता और पिछड़े हुये अथवा किसी कारणवश निर्बल देशों को प्रगतिशील बना कर संसार में साम्यावस्था लाने की कोशिश करता तो वह और भी उत्कर्ष को प्राप्त हो सकता था। पर उसने विज्ञान के प्रकाश से आलोकित इस युग में भी वही नीति अपनाई जो मिस्र, चैल्डिया, बैबिलोनिया, यूनान, रोम, टर्की आदि के साम्राज्यवादियों ने प्राचीन काल में अपनायी थी। ये सब देश समय-समय पर संसार के प्रधान पद पर विराजमान हुये और कुछ समय पश्चात किसी विशेष शक्तिशाली के आक्रमण से पराभूत होकर नीचे गिर पड़े। उनके पतन का कारण भी यही था कि उन्होंने अपने उत्थान काल में दूसरों को लूटने-खसोटने, दास बनाने, अपनी शान शौकत बढ़ाने में ही अपनी शक्ति खर्च की। सबको अपने समान ही मनुष्य समझ कर उनके कल्याण की चेष्टा कभी नहीं की। यही नीति इस समय के साम्राज्यवादियों ने अपनायी है। उन्होंने कभी इस ढंग से काम नहीं किया जिससे उनके अधीनस्थ लोग उन्हें अपना सच्चा हितैषी समझें और उनके साथ हृदय से सहयोग करें। यही कारण है कि जब उन पर किसी प्रकार की आपत्ति आई, किसी बलवान शत्रु ने आक्रमण किया तो बजाय इसके कि उनका अपने अधीनस्थ देशों से सहायता मिलती उल्टा उसके विरोध का खटका बना रहा और बहुत सी शक्ति उसमें भी फँसी रही।

इन सब बातों का यही परिणाम हुआ कि आज हम रोमा रोलाँ की इतने वर्ष पहले की गई भविष्यवाणी को कार्यरूप में परिणत होता देख रहे हैं। इस बीच में दो बार महायुद्ध में करोड़ों यूरोपवासी अकाल में ही मारे गये और दस-बीस करोड़ ने घायल होकर अथवा सर्वस्व नष्ट हो जाने से तरह तरह के कष्ट सहे। ऐसे ही आचरणों के फलस्वरूप हिटलर जैसे दानवी स्वभाव वाले का प्रादुर्भाव हुआ जिसने समस्त महाद्वीप में उथल-पुथल मचा दी और स्वयं नष्ट होकर भी बड़े-बड़े साम्राज्यों की कब्र खोद दी।

अब योरोप और अमरीका ने एटम और हाइड्रोजन बम के रूप में ऐसा हथियार खोज निकाला है जो उनके ही नाश करने के लिये मुँह फाड़े खड़ा है। जिस समय यह अस्त्र निकाला गया था और इसका प्रयोग करके दो दिन में ही जापान को पदावनत कर लिया था, उस दिन तो गोरे लोग बड़े प्रसन्न थे कि अब तो हमने समस्त संसार को अपनी मुट्ठी में कर लिया और इशारे पर नचाने का उपाय प्राप्त कर लिया। पर आज सब राष्ट्र उसके भय से काँप रहे हैं। एटम शक्ति का सदुपयोग कर के अपरिमित लाभ भी उठाया जा सकता है और दुरुपयोग द्वारा अपना गाल खुद ही काटा जा सकता है। इसी तथ्य को समझ कर इंग्लैंड के प्रसिद्ध साम्यवादी नेता श्री बरट्रैण्ड रसल ने एक विशाल जन समुदाय के सामने कहा था -

ढ्ढ ड्डश्चश्चद्गड्डद्य ड्डह्य ड्ड द्धह्वद्वड्डठ्ठ ड्ढद्गद्बठ्ठद्द ह्लश द्धह्वद्वड्डठ्ठ ड्ढद्गद्बठ्ठद्दह्य: ह्द्गद्वद्गद्वड्ढद्गह् ब्शह्वह् द्धह्वद्वड्डठ्ठद्बह्लब् ड्डठ्ठस्र द्धशह्द्दद्गह्ल ह्लद्धद्ग ह्द्गह्यह्ल. ढ्ढद्ध ब्शह्व ष्ड्डठ्ठ स्रश ह्यश, ह्लद्धद्ग ख्ड्डब् द्बह्य शश्चद्गठ्ठ ह्लश ड्ड ठ्ठद्गख् श्चड्डह्ड्डस्रद्बह्यद्ग, द्बद्ध ब्शह्व ष्ड्डठ्ठ ठ्ठशह्ल , ठ्ठशह्लद्धद्बठ्ठद्द द्यद्बद्गह्य ड्ढद्गद्धशह्द्ग ब्शह्व ड्ढह्वह्ल ह्वठ्ठद्बक्द्गह्ह्यड्डद्य स्रद्गड्डह्लद्ध.

“मैं एक मानव की हैसियत से अन्य मानवों से वह कहना चाहता हूँ कि अपने मनुष्यत्व को याद रखो और सब कुछ भूल जाओ। अगर तुम ऐसा कर सके तो तुम्हें एक नये स्वर्ग का मार्ग मिल जायेगा, अगर तुम ऐसा न कर सके तो तुम्हारे सामने विश्वव्यापी मृत्यु-प्रलय के सिवाय और कुछ नहीं है।

यह बरट्रैण्ड रसल की प्रथम चेतावनी नहीं है। वह गत 50 वर्ष से निरन्तर योरोपियन सरकारों को इस प्रकार के सर्वनाश की चेतावनी देते आये हैं और इसके लिये तरह तरह के कष्ट, जुर्माना, जेल की सजा आदि सहन कर चुके हैं। 10 जुलाई सन 1923 को उन्होंने अमरीका के ‘नेशन’ नामक पत्र में प्रकाशित कराया था-

“जब से संसार में सभ्यता का उदय हुआ है, तब से कला कौशल और साहित्य की जितनी उन्नति हुई है उसका मुख्य उत्पत्ति स्थान मैडीटेरेनियन (भूमध्य सागर ) के आस पास का प्रदेश (यूनान, इटली मिस्र आदि )रहा है। पर मालूम पड़ता है कि योरोप ने इस दशा को बदलने का निश्चय कर लिया है और वह चाहता है कि सभ्यता का यह प्राचीन घर असभ्य और जंगली लोगों का निवास स्थान बन जाय। इस इरादे के साथ योरोप बराबर अपने सर्वनाश की ओर बढ़ रहा है। उसके भाग्य में ऐसा ही लिखा हुआ है और किसी की शक्ति नहीं जो उसे इस रास्ते से लौटा कर नष्ट होने से बचा सके।”

इस समय योरोप के ऊपर जो संकट के बादल घहरा रहे हैं और उसकी समस्त महानता के नष्ट-भ्रष्ट होने के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। उसका कारण उसके भीतर उत्पन्न हो गये अहंकार, फूट, स्वार्थपरता के दोष ही हैं। उन्होंने अपनी सामयिक सफलता से घमण्ड में आकर के अन्य देशों को तुच्छ समझ लिया, इससे आज स्वयं उनको तुच्छ बनना पड़ रहा है। इसी अहंकार के कारण वे आपस में भी अपने को दूसरे से बड़ा मानने लगे, जिससे उनमें कलह होने लगी और जो शक्ति निर्माणकारी कार्यों में खर्च होती वह आपस की बर्बादी में लगने लगी। इसी प्रकार यदि वह एशियाई और अफ्रीकी देशों के साथ इतनी अधिक स्वार्थपरता का व्यवहार न करता तो अभी सौ-पचास वर्ष और अपने प्रधान पद पर कायम रह सकता। उन्होंने विज्ञान की उन्नति को भी संसार की सच्ची प्रगति में लगाने के बजाय धन कमाने और नाश के उपाय ढूँढ़ने में लगा दिया। इस प्रकार एक नहीं अनेक कारण इस समय योरोप को निगल जाने के लिये तैयार बैठे हैं और जैसा बरट्रैण्ड रसल ने कहा है उसके नाश होने को कोई रोक नहीं सकता।


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