मानव जाति का नैतिक पतन और उसका दण्ड

July 1967

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इस समय संसार में प्रतिद्वन्द्विता, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, भय, निराशा के भाव चारों तरफ फैले दिखाई पड़ते हैं। यद्यपि पूर्व काल की अपेक्षा आजकल संपत्ति और सुख-साधनों की बहुत अधिक वृद्धि हो चुकी है। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में ऐसी अपूर्व शक्तियाँ दे दी हैं, जिससे वह अनेकाँश में प्रकृति का स्वामी ही बन बैठा है, तो भी अपनी अनैतिकतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण वह सुख और शाँति से प्रायः वंचित ही रहता है। क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि एक तरफ तो मनुष्य चन्द्रलोक तक पहुँच गया है और आकाशीय पिण्डों को अणु-शक्ति द्वारा नष्ट कर सकने का दावा कर रहा है, नवीन सृष्टि रचना करने में भी अपने को सक्षम मानता है और दूसरी ओर मानव-मात्र को जीवन के सामान्य अधिकार देकर शाँति स्थापन में अकृतकार्य हो रहा है? इसका आशय यही है कि उसने ज्ञान विज्ञान में जो प्रगति की है उसमें उसका लक्ष्य स्वार्थ-प्रधान है। परिणाम यह होता है कि प्रकट में संसार की चमक दमक और वैभव-सामग्री बढ़ने पर भी सुख-शाँति दूर भाग जाती है और ब्रह्माण्ड का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी पारस्परिक विभिन्नता और पार्थक्य की भावना ही बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे देश के विद्वानों ने प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण को उपस्थित करते हुये आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की छः त्रुटियाँ बतलाई हैं-

(1) वह भौतिक है (2) तर्क मात्र है (3) शिल्पवत् है (4) अवास्तविक है (5) केवल प्रवृत्ति प्राण है (6) यश और जीविका का साधन है। इस तथ्य को योग वसिष्ठ में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है-

आत्मज्ञानं विदुर्ज्ञानं ज्ञानान्यन्यानि यानितु।

तानि ज्ञानवभासानि सारस्यानय बोधनत् ॥

अज्ञातारं वरं मन्ये न पुनर्ज्ञान बन्धुताम्।

व्याचष्टे या पठति च शास्त्रभोगाय शिल्पिवत् ॥

“आत्मज्ञान ही सच्चा ज्ञान है अन्य ज्ञान तो ज्ञानाभास है। उस प्रकार के ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति तो ज्ञान-बन्धु या ज्ञान-शिल्पी ही माने जा सकते हैं, अर्थात् उनका ज्ञान खाने कमाने अथवा यश कीर्ति के लिए ही होता है।”

आजकल जो व्यक्ति थोड़ा भी पढ़-लिख जाते हैं उनकी दृष्टि में संसार में सबसे बड़ा पुरुषार्थ -जीवन की सफलता बँगला और मोटर आदि ही हैं। अध्यात्म तो उनके निकट हँसी की बात या दुनिया को ठगने का एक ढोंग है। सच्ची बात तो यह कि वे बेचारे आध्यात्म का केवल नाम ही सुन लेते हैं, पर उसका क-ख-ग भी नहीं जानते। उनको नहीं मालूम कि जिस भौतिकता के आधार को वे ग्रहण कर रहे हैं वह एक प्रकार की मृगमरीचिका है, जो यद्यपि दूर से बड़ी लुभावनी, सुहावनी जान पड़ती है, पर जिसका परिणाम सिवाय कष्ट के और कुछ नहीं होता। इसके मुकाबले में अध्यात्म एक गूढ़, गम्भीर और शाँत प्रकृति वाला होता है पर उससे जो सुख प्राप्त होता है वह स्थायी और प्रत्येक दृष्टि से कल्याणकारी होता है।

हम यह बलपूर्वक कह सकते हैं कि आज दुनिया की जो दुर्दशा हो रही है, खासकर जगह जगह जो युद्ध और खून-खराबे का दावानल दहक रहा है उसका मुख्य कारण अध्यात्म का अभाव ही है। अध्यात्म के अभाव से मानव ज्ञान विज्ञान को प्राप्त करके भी दानव बन जाता है और अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये किसी के सुख दुःख की कुछ परवाह नहीं करता। दूसरा दोष यह पैदा हो जाता है कि उसकी तृष्णा, कामनायें कभी शान्त नहीं होतीं। स्वार्थपरता उसमें प्रतिस्पर्धा का भाव भी उत्पन्न कर देती है और वह यही चाहता है कि मैं दूसरे लोगों के मुकाबले का या उनसे बढ़-चढ़कर रहूँ, घटकर नहीं। इसलिये वह चाहे कितना ही बढ़ जाय, पर उसके चैन नहीं पड़ता। वह अनेक व्यक्तियों को अपने से बढ़ा हुआ देखता है तो उसके हृदय में उनसे भी आगे निकल जाने की दुर्दमनीय प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, जिसके फलस्वरूप न तो वह स्वयं शान्ति से रह सकता है और न दूसरों को रहने देता है। इसका परिणाम समाज के देश के संसार के लिए अशाँति और कष्टों का वातावरण पैदा करना ही होता है।

यही प्रवृत्ति संसार में पिछले सैंकड़ों, हजारों वर्षों से छोटे-बड़े संघर्ष, गृह-कलह और युद्धों की प्रेरिका रही है। स्वार्थी प्रवृत्ति के मनुष्य अपने छोटे से आर्थिक लाभ अथवा नामवरी के लिए ऐसे-ऐसे झगड़े पैदा कर देते हैं जिनका अन्तिम परिणाम विनाशकारी युद्ध ही होता है। अब तक संसार में जितनी भयंकर लड़ाइयाँ हुई हैं, उनमें से अधिकाँश आर्थिक लाभ और नाम कमाने के लिए ही हुई हैं। आप सिकन्दर और सीजर से लेकर नैपोलियन और जर्मनी के कैसर तक के युद्धों के कारणों पर विचार कीजिये तो यही मालूम होगा कि उनमें एक या दो-चार व्यक्तियों की महत्वाकाँक्षा ही मुख्य रूप से प्रेरक थी। जब साधारण जनता अपने नेता अथवा कर्णधारों को इस नीति पर चलता देखती है तो वह भी उसी का अनुसरण करती है और इससे संसार में स्वार्थपूर्ण संघर्ष तथा चालबाजी का जोर बढ़ता है और धर्म तथा नीति का ह्रास होने लगता है। अधिकाँश मनुष्य अपना मतलब सिद्ध करने के लिये न्याय-अन्याय, सच-झूठ, हिंसा-अहिंसा का ध्यान छोड़ देते हैं और एक की देखा-देखी दूसरा और तीसरा उसी मार्ग पर दौड़ने लगते हैं। इस प्रकार भ्रष्टाचार बढ़ने लगता है, लोगों की निगाह में धर्म और नीति का मूल्य घटने लगता है और मानवता का स्तर दिन पर दिन दूषित बनने लगता है।

जब मनुष्य धर्म को भूल कर अधर्म और अनीति के मार्ग को अपना लेते हैं और उनका स्वभाव अपना हित और दूसरों को अनहित करना बन जाता है तो अपने पड़ोसियों तथा समाज के अन्य सदस्यों के कष्ट, हानि अथवा बर्बादी का उनको कुछ ख्याल नहीं होता। वे अपने छोटे से तुच्छ स्वार्थ के लिये समाज या देश का बड़े से बड़ा अनहित करने में नहीं हिचकिचाते। ऐसी ही मनोवृत्ति के लिए ‘रेबड़ी के लिए मस्जिद को ढहाना’ की कहावत प्रसिद्ध हो गई है। यह प्रत्यक्ष ही है कि इस दशा में कभी शाँति, सुख, उन्नति, प्रगति की आशा नहीं की जा सकती। यद्यपि ये स्वार्थान्ध व्यक्ति जो कुछ करते हैं उसका उद्देश्य स्वयं सुख प्राप्त करना ही होता है, पर ‘बबूल का पेड़ बोकर आम किस प्रकार खाया जा सकता है।’ फलतः जहाँ वे संसार के लिए शूल (काँटे) बोते हैं वहाँ उनके लिए भी त्रिशूल तैयार मिलते हैं।

भारत के प्राचीन ऋषि मुनि इस तथ्य को खूब अच्छी तरह समझते थे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बार बार यह समझाया है कि मनुष्यों को साँसारिक व्यवहारों का निर्वाह करते हुए लौकिक जीवन को सुखी बनाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये,पर साथ ही आत्म-कल्याण का ध्यान भी कभी नहीं भुलाना चाहिये। हमको सदैव यह स्मरण रखना आवश्यक है कि लौकिक-सुख सदैव अस्थाई और किसी भी क्षण नाशवान रहेगा, जबकि आत्म कल्याण स्थायी ही नहीं शाश्वत सिद्ध होगा। इसलिये जो लोग आत्म-हित के उच्च मार्ग को त्याग कर सर्वथा लौकिक कामनाओं की पूर्ति में ही संलग्न हो जायेंगे वे कभी सुख नहीं पा सकते, सदा अवनति के गर्त में ही पड़े रहेंगे। ‘भगवद् गीता’ में ऐसे नीच प्रवृत्ति वालों के अभिशप्त जीवन का वर्णन करते हुये कहा है-

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता।

मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्ततेऽशुचिव्रताः॥

चिन्तामपरिमेयाँ च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।

इसमस्तीदमपि में भविष्यति पुनर्धनम्॥

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥

(अध्याय 16)

“ऐसे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी भी प्रकार पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर तथा अज्ञान से मिथ्या सिद्धाँतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त संसार में व्यवहार करते हैं। वे मरण काल तक रहने वाली अनन्त चिन्ताओं को आश्रय किये हुये और विषय भोगों के भोगने में तत्पर हुये और ‘यही एकमात्र आनन्द है’ ऐसा मानने वाले होते हैं। उनके विचार इस प्रकार के होते हैं कि-”मैंने आज यह प्राप्त कर लिया, कल उसे पा जाऊँगा-अभी मेरे पास इतना धन है, आगे इसमें इतनी वृद्धि और हो जायेगी। आज मेरे द्वारा वह शत्रु मारा गया फिर दूसरे शत्रुओं को भी मारूंगा। मैं ईश्वर के तुल्य ऐश्वर्य का उपभोग करने वाला हूँ, सब सिद्धियों से युक्त, बलवान् और सुखी हूँ।”

पर इसका परिणाम उनके और दूसरों के लिये भी सदैव अनिष्टकारी ही निकलता है। इसमें तो सन्देह नहीं कि ऐसे महत्वाकाँक्षी व्यक्ति प्रायः कर्मठ और दुस्साहसी होते हैं, इसलिये वे एक बार प्राणपण से यत्न और परिश्रम करके अपने उद्देश्य में थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त कर ही लेते है। पर चूँकि उनकी भावनायें दूषित और लोक विरोधी होती हैं इसलिये अन्त में उनको असफलता का ही मुख देखना पड़ता है। इसीलिये गीताकार ने स्वार्थान्ध व्यक्तियों के उपरोक्त लक्षण बतलाने के साथ यह भी कहा है-

एताँ दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मनोऽल्प बुद्धयः।

प्रववन्त्युग्र कर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥

(16-9)

“इस तरह जो लोग झूठ-मूठ की कामनाओं को बढ़ाकर अपने स्वभाव को नष्ट और बुद्धि को भ्रष्ट कर लेते हैं, वे अपकार करने वाले क्रूर कर्मी केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं।”

पर जब वे स्वार्थ बुद्धि से जगत का अपकार करते हैं तो सम्भव नहीं कि वे प्रकृति और ईश्वर के दण्ड से बच सकें। ‘गीता’ में ऐसे व्यक्तियों के दुर्भाग्य का वर्णन करते हुये कहा है-

अनेक चित्त विभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।

प्रसक्ताः काम भोगेषु पतन्तो नरकेऽशुचो॥

“इसलिये वे अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मूढ़-जन जाल में फँसे हुये एवं विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त हुये महान अपवित्र नरक में गिरते हैं अर्थात् अत्यन्त कष्टों से पीड़ित होते हैं।”

अन्य ग्रन्थों में भी यही कहा गया है कि जब स्वभाववश, परिस्थितियों के कारण मनुष्यों में अनैतिकता, चरित्रहीनता, स्वार्थान्धता की प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक बढ़ जाती हैं, या जब लोग समाज के हित अनहित का ख्याल छोड़ कर मनमाना आचरण करने लगते हैं, तो व्यक्तियों को ही नहीं समस्त समाज को भी उसके भीषण परिणाम सहन करने पड़ते हैं। महर्षि वसिष्ठ ने एक स्थान पर यह सम्मति दी है कि-”जब किसी देश पर जनसंख्या का भार अत्यधिक बढ़ जाता है तो वहाँ महामारी, अकाल, युद्ध और भूकम्प आदि के द्वारा प्रकृति मनुष्यों का संहार करती है।” वेदान्त सूत्र में दो प्रकार की सृष्टि बतलाई गई है-एक क्रमोन्नति वाली और दूसरी क्रमावनति वाली। पहली योरोप की है जो क्रम से उन्नति करती हुई शिखर पर पहुँच चुकी है और अब अवनति की तरफ झुकने वाली है। दूसरी क्रमावनति वाली भारतवर्ष की है जो सतयुग से कलियुग तक पहुँच कर अब फिर उन्नति की तरफ अग्रसर होने वाली है।

इसका तात्पर्य यही है कि हिन्दू धर्म में अवतार का जो सिद्धाँत माना गया है उसका सम्बन्ध मानव समाज में होने वाली विशेष हलचल और महान परिवर्तनों से है। जब कभी समाज का एक बड़ा भाग सही रास्ते को त्याग कर गलत मार्ग को अपना लेता है, सहयोग सहायता, उदारता, परोपकार के धार्मिक आदेशों की अवहेलना करने लगता है तो वह मानव नाम का अधिकारी नहीं रहता, वरन् दानव दैत्य या असुर बन जाता है। भगवान को यह अभिप्रेत नहीं कि पृथ्वी पर ऐसे लोगों की संख्या इतनी बढ़ जाय कि जिससे सज्जन पुरुषों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाय। अतः जब कभी संसार में धर्म और नीति का उच्छेद होने लगता है तभी दैवी रूप से कोई ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाती है जिससे दुष्टता का विनाश होकर सत्कर्मों की रक्षा हो सके।

जिस तरह हिन्दू शास्त्रों में मनुष्यों के दुष्कर्मों और अनीति के फल से व्यक्ति और समाज के नष्ट-भ्रष्ट होने की चेतावनी दी गई है उसी प्रकार ईसाइयों के धर्मग्रन्थ बाइबिल में मनुष्य जाति के पापों के फलस्वरूप लोगों की घोर दुर्दशा का वर्णन किया है। दोनों में इतना अन्तर अवश्य है कि जहाँ हिन्दू शास्त्रकारों ने इस सम्बन्ध में शाश्वत सिद्धाँतों को ही उपस्थित किया है ‘बाइबिल’ के लेखकों ने अधिकाँश में सामयिक घटनाओं का उल्लेख किया है। वास्तव में यह एक विशेष महत्व की बात है कि ईसाई योगियों ने दो हजार वर्ष पूर्व संसार के भावी इतिहास की जिन घटनाओं का वर्णन किया है उनमें से अनेक इस समय प्रत्यक्ष सिद्ध होती दिखाई पड़ती हैं। यद्यपि ‘बाइबिल’ में इनके घटित होने का समय संकेत रूप से लिखा है, पर उनके व्याख्याकारों ने आज से सौ वर्ष पूर्व प्रमाणों के साथ यह घोषित किया था कि ये भविष्यवाणियाँ बीसवीं शताब्दी में चरितार्थ होती नजर आयेंगी।

ऐसी एक पुस्तक ‘चालीस भविष्यत् आश्चर्य’ (स्नशह्ह्लब् स्नह्वह्ह्वह्द्ग ख्शठ्ठस्रद्गह्ह्य) है जिसे इंग्लैंड के विद्वान पादरी मि. बैक्सटर ने सन् 1866 में प्रकाशित कराया था। इसमें उन्होंने ‘बाइबिल’ के उद्धरण देकर और उनकी व्याख्या करके यह बतलाया है कि बीसवीं शताब्दी में दस-पाँच वर्ष बीत जाने पर ही समस्त योरोप में घोर राजनीतिक हलचल, राज्यक्राँतियाँ, युद्ध आदि फैल जायेंगे जिनके फल से कुछ वर्षों में वहाँ राष्ट्रों की कायापलट हो जायगी और शासन पद्धति में क्राँतिकारी परिवर्तन हो जायेंगे। अन्त में ऐसा समय आयेगा कि मनुष्यों के दुष्कर्मों के फलस्वरूप उनके ऊपर दैवी प्रकोप फट पड़ेंगे जिससे असंख्यों व्यक्ति नष्ट होंगे और उनके पापों का प्रायश्चित्त हो जाएगा।

इस सम्बन्ध में एक प्रभावशाली उद्धरण इस प्रकार है-

च्च्ंखड्डह्ह्य ड्डठ्ठस्र ह्ह्वद्वशह्वह्ह्य शद्ध ख्ड्डह्ह्य द्धशह् ठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठ ह्यद्धड्डद्यद्य ह्द्बह्यद्ग ड्डद्दड्डद्बठ्ठह्यह्ल ठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठ, ड्डठ्ठस्र द्मद्बठ्ठद्दस्रशद्व ड्डद्दड्डद्बठ्ठह्यह्ल द्मद्बठ्ठद्दस्रशद्व, ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्गह्द्ग ह्यद्धड्डद्यद्य ड्ढद्ग द्धड्डद्वद्बठ्ठद्गह्य ड्डठ्ठस्र श्चद्गह्यह्लद्बद्यद्गठ्ठष्द्गह्य ड्डठ्ठस्र द्गड्डह्ह्लद्धह्नह्वड्डद्मद्ग द्बठ्ठ स्रद्बक्द्गह्ह्यद्ग श्चद्यड्डष्द्गह्य. ञ्जद्धद्गह्यद्ग ड्डह्द्ग ह्लद्धद्ग ड्ढद्गद्दद्बठ्ठठ्ठद्बठ्ठद्द शद्ध ह्लद्धद्ग ह्यशह्ह्शख्, ड्ढह्वह्ल ह्लद्धद्ग द्गठ्ठस्र द्बह्य ठ्ठशह्ल ब्द्गह्ल.ज्ज्

(द्वड्डह्लह्लद्धद्गख् गंगढ्ढंक)

“उस काल में हर जगह युद्ध होने लगेंगे और युद्धों की अफवाहें सुनाई देने लगेंगी। एक जाति दूसरी जाति के मुकाबले में और एक राज्य दूसरे राज्य के विरुद्ध खड़ा हो जायगा। जगह-जगह अकाल पड़ेंगे, भयंकर बीमारियाँ फैलेंगी और भूकम्प आयेंगे। इस प्रकार की घटनाओं से इस शोकपूर्ण युग का आरम्भ होगा और आगे चल कर इससे भी कहीं भयंकर आपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।

(मैथ्यू अध्याय 24)

‘बाइबिल’ का यह भविष्य कथन ‘योगवसिष्ठ’ के उपरोक्त सिद्धाँत के अनुकूल ही है कि जब पृथ्वी पर मनुष्यों और उनके पाप कर्मों का भार बढ़ जाता है तब दैवी कोप के रूप में उनको युद्ध, अकाल, महामारी और भूकम्प आदि की भीषण आपत्तियाँ सहन करनी पड़ती हैं। बाइबिल में इन चारों दण्डों का जो वर्णन आलंकारिक भाषा में किया है वह बड़ा रोमाँचकारी है। ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करके, धर्म को त्याग कर अधर्म मार्ग पर चलने वालों की कैसी दुर्दशा होती है, इसका जो ज्वलन्त चित्र ईसा के शिष्य महात्मा जन ने खींचा है वह अपने ढंग का अपूर्व ही है-

्नठ्ठस्र ख्द्धद्गठ्ठ द्धद्ग द्धड्डस्र शश्चद्गठ्ठद्गस्र ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्शठ्ठस्र ह्यद्गड्डद्य ढ्ढ द्धद्गड्डह्स्र ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्शठ्ठस्र ड्ढद्गड्डह्यह्ल ह्यड्डब्, ष्शद्वद्ग ड्डठ्ठस्र ह्यद्गद्ग. ्नठ्ठस्र ह्लद्धड्डह्ल ह्लद्धद्गह्द्ग ख्द्गठ्ठह्ल शह्वह्ल ड्डठ्ठशह्लद्धद्गह् द्धशह्ह्यद्ग ह्लद्धड्डह्ल ख्ड्डह्य ह्द्गस्र ड्डठ्ठस्र श्चशख्द्गह् ख्ड्डह्य द्दद्बक्द्गठ्ठ ह्लश द्धद्बद्व ह्लद्धड्डह्ल ह्यड्डह्ल ह्लद्धद्गह्द्गशठ्ठ ह्लश ह्लड्डद्मद्ग श्चद्गड्डष्द्ग द्धह्शद्व ह्लद्धद्ग द्गड्डह्ह्लद्ध ड्डठ्ठस्र ह्लद्धड्डह्ल ह्लद्धद्गब् ह्यद्धशह्वद्यस्र द्मद्बद्यद्य शठ्ठद्ग ड्डठ्ठशह्लद्धद्गह् ड्डठ्ठस्र ह्लद्धद्गह्द्ग ख्ड्डह्य द्दद्बक्द्गठ्ठ ह्वठ्ठह्लश द्धद्बद्व ड्ड द्दह्द्गड्डह्ल ह्यख्शह्स्र. (क्रद्गक्.6)

“जब उसने दूसरी मुहर को तोड़ा तो उसमें से दूसरा जानवर निकला। यह लाल रंग का घोड़ा था। जो उस पर बैठा था उसको इस बात की शक्ति दी गई थी कि संसार की शाँति को भंग कर दे और युद्ध आरम्भ करा दे। उस सवार के हाथ में एक बहुत बड़ी तलवार दी गई थी।”

(रिवेलेशन अ. 6)

लाल रंग का आशय युद्धों से तो होता ही है, पर इन दिनों जो कम्यूनिस्ट दल संसार में उथल-पुथल कर रहा है वह विशेष रूप से लाल (रेड) कहा जाता है। इस समय हम चीन के लाल-रक्षकों की जो करतूतें सुनते रहते हैं उससे स्पष्ट प्रकट होता है कि उनका मुख्य उद्देश्य संसार-भर में युद्ध भड़का कर वर्तमान समाज-संगठन को नष्ट करना ही है। रूस का बोलशेविक दल भी ‘रेड’ ही कहलाता था और उसकी लाल-सेना संसार भर में प्रसिद्ध है।

्नठ्ठस्र ख्द्धद्गठ्ठ द्धद्ग शश्चद्गठ्ठद्गस्र ह्लद्धद्ग ह्लद्धद्बह्स्र ह्यद्गड्डद्य, ढ्ढ द्धद्गड्डह्स्र ह्लद्धद्ग ह्लद्धद्बह्स्र ड्ढद्गड्डह्यह्ल ह्यड्डब्, ष्शद्वद्ग ड्डठ्ठस्र ह्यद्गद्ग. ्नठ्ठस्र ढ्ढ ड्ढद्गद्धद्गद्यस्र ड्डठ्ठस्र द्यश, ड्ड ड्ढद्यड्डष्द्म द्धशह्ह्यद्ग, ड्डठ्ठस्र द्धद्ग ह्लद्धड्डह्ल ह्यड्डह्ल शठ्ठ द्धद्बद्व द्धड्डस्र ड्ड श्चड्डद्बह् शद्ध ड्ढड्डद्यड्डठ्ठष्द्गह्य द्बठ्ठ द्धद्बह्य द्धड्डठ्ठस्र. ्नठ्ठस्र ढ्ढ द्धद्गड्डह्स्र ड्ड क्शद्बष्द्ग द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग द्वद्बस्रह्यह्ल शद्ध द्धशह्वह् ड्ढद्गड्डह्यह्ल ह्यड्डब्, ड्ड द्वद्गड्डह्यह्वह्द्ग शद्ध ख्द्धद्गड्डह्ल द्धशह् ड्ड श्चद्गठ्ठठ्ठब् ड्डठ्ठस्र ह्लद्धह्द्गद्ग द्वद्गड्डह्यह्वह्द्गह्य शद्ध ड्ढड्डह्द्यद्गब् द्धशह् ड्ड श्चद्गठ्ठठ्ठब्.

(क्रद्गक्.6)

“जब उसने तीसरी मुहर को तोड़ा तो उसमें से तीसरा जानवर निकला। वह एक काले रंग का घोड़ा था और उसके ऊपर जो बैठा उसके हाथ में एक तराजू थी। मैंने एक आवाज सुनी कि एक पैमाना गेहूँ एक सिक्के को मिलेगा और तीन पैमाने जौ का दाम एक सिक्का होगा।”

(रिवेलेशन अध्याय)

यद्यपि इस समय खाद्य पदार्थों का भाव बहुत बढ़ गया है और भारतवर्ष में अन्न की कमी भी अनुभव की जा रही है, पर यह अकाल जब पूर्ण रूप में आयेगा तब की हालत कल्पनातीत होगी। ‘बाइबिल’ की ‘लैमेनटेशन’ नामक पुस्तक में इसका वर्णन करते हुये लिखा है-

“लोगों के चेहरे कोयले की तरह काले हो जायेंगे। वे गलियों में मारे-मारे फिरेंगे। उनकी खाल हड्डियों से अलग होकर लटक पड़ेगी और शरीर सूख कर लकड़ी की तरह हो जायगा। जो लोग तलवार से मारे जाते हैं वे उन भूख से मरने वालों की अपेक्षा सुख में रहेंगे।”

बाइबिल की ‘इरास’ नामक पुस्तक में इस युग-परिवर्तन की घटना का वर्णन करते हुये कहा गया है -

“संसार के और संसार में रहने वाले मनुष्यों के नाश का समय आ गया। एक ऐसी आग लगाई गई है जो उस समय तक शाँत न होगी, जब तक वह पृथ्वी की जड़ तक न पहुँच जाय। संसार के पापी मनुष्यों को दण्ड देने के लिये ईश्वर अकाल, प्लेग, युद्ध और भयंकर बीमारियाँ भेजेगा। पर लोग फिर भी पापों से मुख न मोड़ेंगे। एक मनुष्य दूसरे को मारने की तैयारी करेगा। तमाम संसार में विद्रोह फैल जायगा और लोग एक दूसरे पर हमला करने लगेंगे। बादशाहों और राजाओं की कोई इज्जत न करेगा और उनके अधिकार छीन लिये जायेंगे। गाँवों के निवासी भाग कर शहरों में जाना चाहेंगे पर खुद शहर ही बड़ी मुसीबत और झगड़ों के घर बने होंगे। तमाम मानव नष्ट हो जायेंगे और लोग भयभीत होंगे। मनुष्य अपने पड़ोसियों की सहायता करना और प्रेम रखना छोड़ देंगे और एक दूसरे का घर लूटने लगेंगे। क्योंकि उस समय चारों ओर घोर अकाल होगा और मनुष्य हर तरह से पेट भरने की कोशिश करेंगे।”

इस समय संसार में जनसंख्या जितनी अधिक बढ़ गई है और तरह-तरह के व्यसनों वाले पदार्थों के कारण अन्न की पैदावार में कमी पड़ती जाती है, उससे अन्न-संकट दिन पर दिन बढ़ता जाता है और अमरीका तथा योरोप के अर्थ-शास्त्री ही नहीं भारत के खाद्य विशेषज्ञ भी निश्चित रूप से यह कह रहे हैं कि संसार एक बहुत बड़े अकाल के द्वार पर खड़ा है। विशेषज्ञों ने इस अकाल की भयंकरता का समय 1970 से 1980 तक बतलाया है।

(3) “जब उसने चौथी मुहर को तोड़ा तो उसमें से चौथा जानवर निकला। वह एक पीले रंग का घोड़ा था। उस पर मृत्यु का देवता बैठा था। इस देवता को इस बात की ताकत दी गई थी कि वह पृथ्वी के एक चौथाई भाग में तलवार, प्लेग, अकाल और जंगली जानवरों आदि के द्वारा मनुष्यों का नाश करे।”

(रिवेलेशन अ. 6)

(4) “जब उसने छठी मुहर को तोड़ा तो मैंने एक महाभयंकर भूकम्प देखा। उस समय सूर्य काले कपड़े की तरह प्रकाश रहित हो गया और चन्द्रमा खून की तरह लाल। आसमान के तारे (उल्का) इस तरह टूटने लगे जिस प्रकार किसी पेड़ को हिलाने से पके फल गिरने लगते हैं। हर एक पहाड़ और टापू हटने लगा। राजा बादशाह से लेकर गरीब आदमी तक ईश्वर के इस भयंकर कोप से घबड़ा कर पहाड़ों की गुफाओं और चट्टानों में जा छुपे।”

यह भूकम्प प्राकृतिक और राजनीतिक दोनों तरह का हो सकता है। क्योंकि जब कोई छोटा या बड़ा राज्य नष्ट होता है तो उस घटना से उत्पन्न होने वाली भयंकर गड़बड़ी और विश्रृंखलता किसी भूकम्प से कम नहीं होती। उस समय न किसी के मरने-जीने का पता रहता है न किसी पदार्थ या संस्था की रक्षा का। पर यदि यह प्राकृतिक भूकम्प हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं। हम जापान के 1923 के भूकम्प का वर्णन पढ़ कर सहज में अनुमान लगा सकते है कि यह कहाँ तक भयंकर हो सकता है।

जैसा हम लिखे चुके हैं ‘बाइबिल’ का भविष्य-वर्णन प्राचीन धर्म ग्रंथों की तरह रूपक और अलंकार युक्त भाषा में लिखा गया। इसलिए उसकी बातें अनेक व्यक्तियों को चमत्कार और असम्भव-सी जान पड़ेगी। पर जब कभी संसार में युद्ध, विद्रोह और क्रान्ति होकर युग परिवर्तन होगा तो उसका रूप बहुत कुछ ऐसा ही होगा। एक तो ऐसे समय जनसंख्या की अधिकता से खाद्य सामग्री की पहले ही कमी होती है। फिर युद्ध द्वारा उत्पन्न अव्यवस्था के कारण पैदावार और भी घट जाती है। ऐसी अवस्था में अकाल का भीषण रूप धारण कर लेना स्वाभाविक ही है।


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