परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है। आज हम संसार का जो नक्शा अपनी आँखों से देख रहे हैं वह न मालूम कितनी हलचल और उलट फेर के बाद इस रूप में उपस्थित हुआ है। यद्यपि सूक्ष्मदर्शी तत्वज्ञानियों के कथनानुसार हमारी दुनिया में प्रत्येक क्षण नये नये परिवर्तन होते रहते हैं पर कोई जमाना ऐसा आता है कि जब परिवर्तन की गति ऐसी हो जाती है कि सामान्य बुद्धि के व्यक्ति भी उसे स्पष्ट रूप से अनुभव करने लगते हैं। सौभाग्य से या दुर्भाग्य से आजकल हम ऐसे ही समय में निवास कर रहे हैं। राज्य-क्रान्ति युद्ध, नये देशों का निर्माण, राष्ट्रों की सीमाओं का बदलते रहना, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में अभूतपूर्व परिवर्तन आदि ऐसी-ऐसी घटनायें अब प्रति दिन देखने में आ रही हैं जो पहले असाधारण मानी जाती थीं और दस बीस या सौ पचास वर्षों में ही कभी-कभी दिखलाई पड़ा करती थीं।
अब से दो सौ वर्ष पहले तक दुनिया में बादशाहों और राजाओं का बोलबाला था। जनता का बड़े से बड़ा व्यक्ति उनको झुक कर सलाम करने के लिए बाध्य था। हमारे धर्म में तो राजा को ईश्वर का अंश बतला ही दिया गया था और बादशाहों के लिये भी ‘दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा’ की उक्ति प्रसिद्ध हो गई थी। पर हम लोगों के देखते देखते समय ने पलटा खाया। जो सिंहासन सैंकड़ों हजारों वर्षों से जमे हुए थे और जिन पर बैठने वालों ने अपने को ‘अजर-अमर’ समझ लिया था, वे धूल में मिलते और नष्ट-भ्रष्ट होते नजर आये और आज सभ्य जगत में शायद ही कोई वास्तविक सत्ताधारी राजा-बादशाह शेष रहा हो।
इसी तरह इन सौ वर्षों में हमने व्यवसायी-वर्ग (पूँजी-पतियों) को उठते देखा। जो लोग ‘बनिया’ के अनादृत नाम से पुकारे जाते थे, जिनको एक मामूली राजा या सरदार बेगार देने के लिए बाध्य कर सकता था, वे कुछ ही समय में समस्त साधन-सामग्री के कर्ता-धर्ता बन बैठे। वे क्रमशः व्यवसायी, उद्योगपति, पूँजीपति कहला कर समाज के कर्णधार बन गये। आज सीमित राजतन्त्र, अधिनायक-तंत्र, समाजतन्त्र कैसा भी शासन क्यों न हो राज-काज की वास्तविक बागडोर पूँजीपति-वर्ग के हाथ में ही रहती है। कम्युनिस्ट प्रणाली के शासन उनसे अपना पीछा पूर्णतः छुड़ाना चाहते हैं पर वे घुमा-फिरा कर वहाँ भी अपना प्रभाव किसी रूप में जमाते ही रहते हैं।
अब पूँजीवाद का समय भी पूरा हो चला है और पिछले तीस-चालीस वर्षों से हम एक के बाद दूसरे देश में साम्यवादी शासन की स्थापना होते देख रहे हैं, जिनका उद्देश्य पूँजीपतियों को हटा समस्त शासन सत्ता श्रमजीवियों के हाथों में रखना है। इसके फलस्वरूप इन दिनों समस्त संसार में अशाँति फैली हुई है। दूसरे महायुद्ध में जो सन् 1939 से 1945 तक लड़ा गया साम्यवादी रूस का पूरा हाथ रहा और एक दृष्टि से उसी के सहयोग से जर्मनी का पराभव सम्भव हो सका। इस समय संसार में जो अशाँति और विग्रह का वातावरण छाया हुआ है उसका मूल कारण पूँजीवाद और साम्यवाद का संघर्ष ही है। यद्यपि विकास सिद्धाँत के अनुसार पूँजीवाद अपना काम पूरा कर चुका, पर जैसे मरता हुआ व्यक्ति भी प्राण बचाने के लिए हाथ-पाँव मारता रहता है और तिनके का सहारा पाकर भी आशान्वित हो उठता है, उसी प्रकार इस समय पूँजीवाद भी अपनी रक्षा करने में संलग्न है।
इस परिवर्तन का प्रभाव सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों पर भी पड़ता है। जिन रूढ़ियों और परम्पराओं से लोग सदा से लिपटे हुये थे वे टुकड़े-टुकड़े हो रही हैं। हमारे हिन्दू समाज में विदेश यात्रा, स्त्रियों को शिक्षा न देना और उन्हें पर्दे में कैद रखना, छोटे बच्चे-बच्चियों का विवाह कर देना, विधवाओं को घोर कष्ट देना आदि बातें देखते-देखते मिट गई और अब उनकी तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं देता। अब रूढ़ियों के सबसे बड़े गढ़ जात-पाँत, विवाह-शादी, छुआछूत का नम्बर आया है और उनके विरुद्ध लोकमत दिन पर दिन जागृत और संगठित होता जाता है। अब क्रियात्मक रूप से भी इन पर आक्रमण किया जाने लगा है और अन्तर्जातीय, अन्तर्प्रान्तीय, सामूहिक विवाह आदि की चर्चा प्रायः सुनाई पड़ती रहती है। अब पुराने ढर्रे के नेता लोग भी इनका प्रभावशाली ढंग से कोई विरोध नहीं कर पाते।
धर्म सम्बन्धी मान्यतायें भी बदल रही हैं। अब से कुछ समय पहले धर्म का रूप बहुत कुछ कट्टरता और दूसरे धर्मों की निन्दा कर के अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना ही रह गया था। हिन्दू और मुसलमानों में तो सदा से ही 36 का सम्बंध रहा है, पर स्वयं हिन्दुओं के विविध सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर घोर संघर्ष हो चुके हैं। शिव और विष्णु दोनों ही हिन्दु मात्र के पूजनीय हैं, पर शैव और वैष्णव आचार्यों ने अपने-अपने अनुयायियों को भड़का कर काफी खून खराबा कराया है। अभी हाल में ही आर्यसमाजी और सनातन धर्मियों में काफी संघर्ष हो चुका है। पर इन कुछ वर्षों में लोगों का दृष्टि कोण बहुत कुछ बदला है और उनमें अन्य मजहबों और संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता और उदारता का भाव आने लगा है। यह नये युग का ही लक्षण है।
विदेशों में भी धर्म के नाम पर ऐसा ही अर्थ का अनर्थ किया गया है। अब से दो हजार वर्ष पहले यहूदियों ने एक नये धर्म का उपदेश देने के कारण ईसामसीह को सूली पर चढ़ा कर मार डाला और सैंकड़ों वर्ष तक ईसाइयों पर अमानवीय अत्याचार किये गये। उसके पश्चात जब इस्लाम धर्म का प्रचार बढ़ा तो उनमें और ईसाइयों में दो सौ वर्ष तक युद्ध होते रहे जिनमें अनगिनत व्यक्ति मारे गये। स्वयं ईसाइयों में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टैण्ट सम्प्रदायों के मतभेद के कारण स्पेन, इटली, जर्मनी आदि में निर्दोष व्यक्तियों को ऐसी यम-यातनायें दी गई कि उनका हाल पढ़ कर आज भी पाठकों को रोमाँच हो जाता है। पर अब युग के प्रभाव से वहाँ की दशा भी बदल गई है और ईसाई धर्म के दोनों सम्प्रदाय संसार-भर में दया, क्षमा और सेवा-धर्म का प्रचार करते हुये ईसा के सिद्धाँतों का प्रचार कर रहे हैं। जो काम तलवार से न हो सका वह प्रेम से कर दिखाया जा रहा है और आज संसार भर में ईसाई धर्मानुयायियों की संख्या ही सर्वोपरि है।
इन परिवर्तन का प्रभाव जन मानस पर भी कम नहीं पड़ा है। संसार के सब मजहबों और देशों में किसी धार्मिक महापुरुष या अवतार के जन्म लेने का विचार बहुत समय से फैल रहा है। अब से 25 वर्ष पूर्व भारत में कल्कि अवतार के प्रकट होने के आँदोलन ने ऐसा जोर पकड़ा कि सैंकड़ों व्यक्ति अपने को ‘अवतार’ कहने लगे, जिनमें से दस-पाँच अब भी शेष हैं। गीता के उपदेश से अधिकाँश हिन्दू धर्मानुयायियों का यह विश्वास है कि ‘जब-जब पृथ्वी पर अन्याय, अत्याचार बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तब-तब भगवान किसी रूप में प्रकट होकर उस अव्यवस्था का सुधार करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इस समय संसार ऐसी ही अवस्था में होकर गुजर रहा और है और इससे लोगों के हृदय में जगत का उद्धार करने वाले किसी महापुरुष का आविर्भाव होने की भावना बढ़ती जाती है। और यह भी एक प्राकृतिक नियम है कि जब अधिकाँश जनता कष्ट सहती हुई मन में ऐसी भावना करती है तो वह भावना अवश्य ही साकार रूप में प्रकट होती है। हमारी पौराणिक कथाओं में अवतारों के प्रकट होने का यही कारण बतलाया गया है कि जब कभी पृथ्वी अधिक भाराक्राँत हो जाती है और व्यथित होकर प्रभु की शरण में जाती है तो कोई दैवी शक्ति इस कार्य को पूरा करने के लिये विश्व रंगमंच पर आ जाती है। ‘रामायण’ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस बात को बड़े सरल और सुन्दर ढंग से कह दिया है :-
जब जब होइ धरम की हानी।
बाढ़ें असुर महा अभिमानी॥
तब तब प्रभु मनुज शरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
आज जो लोग एटम और हाइड्रोजन बम तथा प्रक्षेपणास्त्र बना कर कुछ ही घण्टों के भीतर सारी दुनिया को भस्म कर देने का भय पैदा कर रहे हैं, उनकी तुलना ‘देवताओं’ को नष्ट करने वाले ‘दैत्यों’ से ही की जा सकती है। अगर इस आतंक से विश्व की रक्षा हो सकती है तो उसके लिये किसी बहुत बड़ी दैवी विभूति का प्रकट होना अवश्यम्भावी है।
ईसाई धर्म वालों में ईसामसीह के पुनरागमन का विचार बहुत समय से फैल रहा है और इसको मानने वालों ने अपना एक नया संगठन “सैकिण्ड एडवेंटिस्ट चर्च” (द्वितीय आगमन वालों का गिर्जाघर) के नाम से स्थापित किया है। इसके मानने वाले बाइबिल की भविष्यवाणियों के आधार पर यह प्रकाशित करते रहते हैं कि अब दुनिया में स्वार्थ और असमानता के कारण लोगों के कष्ट जो बहुत बढ़ गये हैं, उसके निराकरण के लिए ‘ईसा मसीह’ फिर से प्रकट होकर धर्म की स्थापना करेंगे। इस सम्बन्ध में श्री जे. एच. कोनीवियर नामक सज्जन ने बाइबिल के ‘लूक’ नामक विभाग की निम्नलिखित भविष्यवाणी का हवाला देते हुये लिखा था-
“उस समय सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों में चिन्ह प्रकट होंगे, संसार के देशों में कष्ट व हलचल बहुत बढ़ जायगी, समुद्र और उसकी लहरें भी गर्जने लगेंगी। मनुष्य संसार में होने वाली घटनाओं को देख सकने का भी साहस न कर सकेंगे, क्योंकि उस समय आकाश की शक्तियाँ विचलित हो जायेंगी। उसके बाद ‘मनुष्य-पुत्र’ शक्ति तथा शोभा के साथ बादलों से प्रकट होकर संसार का उद्धार करेगा।”
“ईश-पुत्र ईसा ने जो बात दो हजार वर्ष पूर्व कही थी, अब उसमें बतलाये हुये चिन्ह दृष्टिगोचर होने लग गये हैं। ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता सूर्य, चन्द्रमा में होने वाले परिवर्तनों को प्रत्यक्ष देख रहे हैं। एटम और हाइड्रोजन बमों के परीक्षणों के कारण समुद्र के पानी में भी हलचल पैदा हो रही है और करोड़ों जल-जन्तु नष्ट हो जाते हैं। समस्त देशों में इतने अधिक आँदोलन और क्राँतियाँ हो रही हैं कि आकाशी-शक्तियाँ भी विचलित हो रही है और समस्त संसार पर आने वाला भयंकर परिणाम की सूचना दे रही हैं। इस घटना के बाद “मनुष्य का पुत्र” पृथ्वी पर अवतरित होगा। पहले युग में धर्मग्रन्थ में ईसा को ‘ईशा-पुत्र’ कहा गया था, पर वर्तमान विकास और विधान के युग में वह ‘मानव-पुत्र’ के रूप में ही प्रकट होगा।”
मुसलमानी धर्मग्रन्थों और उसके साधना करने वाले आत्मज्ञानी पुरुषों ने भावी घटनाओं पर विचार करते हुए एक बात विशेष रूप से कही है कि वर्तमान युग का अन्त ‘चौदहवीं सदी’ में हो जायगा और तभी इस्लाम खत्म होकर कोई अन्य मजहब संसार में फैल जायगा। इस सिद्धाँत का स्पष्टीकरण करते हुये ‘कुरान’ में कहा गया है-
“हम जिसे आयु देते हैं उसे अखीर में अन्धा कर देते हैं। यह लोग बुद्धि से काम क्यों नहीं लेते? अगर वे विचार करें तो फौरन समझ में आ जाय कि एक आदमी की तरह एक उम्मत (सम्प्रदाय या मजहब) की भी आयु निश्चित रहती है। बचपन, जवानी और बुढ़ापे की सीढ़ियाँ तय कर के जब उम्मत मर जाती है, तब खुदा नई उम्मत को पैदा करता है।”
(सूरत यासीन)
इसी प्रकार ‘हदीस दारकुतनी’ में यह बतलाया है कि वह नवयुग आगमन का समय कब तक आयेगा-
इननाले मेंहदीएना आयतैने लमत कुना।
मुँजौखल्क समाँ वातेबल अर्ज इयन्नकसे॥
फुलक्रमो ले अव्वले लैलतीम् मीर रमजाना।
वत नकसे पुशशम्सो फिनस्फीम् मिन हो॥
अर्थात्- “हमारे मेंहदी के आने के कई निशान हैं। जब से जमीन और आसमान बने यह निशान किसी और “मामूर” अथवा ‘रसूल’ के वक्त जाहिर नहीं हुए। इसमें से एक यह है कि मेंहदी मामूर का जमाना जब आने वाला होगा तो उससे कुछ पहले रमजान के ही महीने में चाँद का ग्रहण 13 वीं तारीख को होगा और सूर्य ग्रहण 28 तारीख को होगा। तब वह चौदहवीं सदी होगी।”
इस तरह के दो ग्रहण मुसलमानी सन् 1312 में पड़ चुके हैं और तभी से अनेक मुसलमान मेंहदी के आगमन की घोषणा करने लगे हैं। उनका कहना है कि अब धर्मग्रन्थों के अनुसार ‘जमाना शैतानी’ (कलियुग) खत्म होकर ‘जमाना रहमानी’ (सतयुग) शुरू होने का समय आ चुका है।
इस प्रकार समय की गति, दुनिया की हलचल और प्राचीन ग्रन्थों के कथनों के आधार पर सर्वसाधारण में पुराना युग समाप्त होकर नया युग प्रारम्भ होने की धारणा पिछले तीस-चालीस वर्ष से जोर पकड़ती जा रही है और वर्तमान घटनाओं को देख कर तो हम कह सकते हैं कि अब वह समय ठीक सिर पर आ पहुँचा है।