राज्य सफल तभी होगा, जब

August 1956

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(डा. भगवान् दासजी)

भारतवासी आर्यों की मूल धर्मस्मृति मनुस्मृति है। उसके अंतिम (12) अध्याय के अंतिम श्लोकों में, सब कुछ कह चुकने के पीछे, यह कहा है,

मानवस्यास्य शास्त्रस्थ रहस्यमुपदिश्यते। अनाम्नातेषु धर्मेषु कथं स्यादिति चेद्भवेत्। यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रू युः स धर्मः स्यादशंकितः॥

अर्थात्, जब यह संशय उत्पन्न हो कि इस नयी अवस्था में क्या नया धर्म, क्या कायदा कानून, होना चाहिये, तो शिष्ट ब्रह्मज्ञानी लोग जो कुछ निर्णय कर दें, वही धर्म माना जाय—यही इस समस्त मानव-शास्त्र का, मानवों के हित करने वाले शास्त्र का, मनु के कहे हुए शास्त्र का, परम रहस्य है, सार है, मूलतत्व और अन्तिम सिद्धाँत है।

इस पुराने वाक्य का नये शब्दों में अर्थ खोलने का यत्न आगे किया जाता है।

“डेमाक्रेटिक सेल्फगवर्मेन्ट”, ”लोकतन्त्रात्मक स्वराज”, ”संघराज्य” का सार इतना ही है कि जनता ने स्वयं जिनका नियोजन, निर्वाचन, वरण, किया हो, वे ही सज्जन कानून बनावें, धर्म व्यवस्थापक सभा जनता की नियोजित हो। संवत् 1985 (सन् 1928) में भारतवर्ष की सर्वदल समिति ने जो स्वराज-योजना बनायी, उसका भी हृदय कहिये, सार कहिये, यही है। धर्म-व्यवस्थापक-

सभा, ”लेजिस्लेचर”, वह सभा जो उन कानूनों को बनाती है जिनके अनुसार देश में जनता को अपना जीवन चलाना पड़ता है, वही राष्ट्र की सच्ची शासक, अथवा राजा कहिए, या केन्द्रीय शक्ति कहिये, होती है और जनता के चुने हुए आदमी ही कानून बनावें, यह इच्छा की जाती है, क्योंकि यह विश्वास स्वाभाविक भी है और गहरी दृष्टि से सत्य भी है, कि जनता के चुने और माने हुए आदमी ही जनता की भलाई साधने वाले कानून बनायेंगे।

राष्ट्र की जनसमुदाय की, समाज की, समृद्धि का एक मात्र आश्रय कानूनों की उत्तमता पर है।

धर्म एव हतोर्हति, धर्मों रक्षति रक्षितः।

कानून ही उनके समग्र जीवन का नियमन-नियंत्रण करते हैं। पर अच्छे कानून तभी बन सकते हैं जब बनाने वाले अच्छे, अनुभवी, परार्थी, विवेकी, धीमान्, सुधी, तत्वज्ञ, दानिशमंद, नेकनीयत, दुनिया, दोस्त, मुहक, हो। अतः स्पष्ट है, और सब तरह के राजनीतिक विचार वाले, सभी सज्जन, इस एक बात को निर्विवाद स्वीकार कर लेंगे, कि राज और समाज की सुख-समृद्धि उनके धर्म व्यवस्था पुरोहितों की आर्यता, सद्भद्धिता, विवेकिता, परार्थिता, सज्जनता पर सर्वथा आश्रित है। उक्त सब गुण पुराने दो शब्दों में आ जाते हैं, तपस्वी और विद्वान्।

इस रीति से ‘निर्वाचित व्यवस्थापक”, “इलेक्टेड लेजिस्लेटर”, तथा “लीडर” इत्यादि शब्दों के पर्याय के रूप से प्राचीन उत्तम “पुरोहित” शब्द का प्रयोग किया जाता तो उस पर जो मल जम गया है वह हैट और उसका जौहर खुलै।

राजा प्रजानाँ स्वामी स्यात्. राज्ञः स्वामी पुरोहितः।

यह सिद्धान्त शुक्र नीति का है। इसका अर्थ यही है कि “लेजिस्लेचर” के द्वारा ‘एकसिक्यूटिव” का नियमन नियन्त्रण हो। “प्रणिधि” और “प्रतिनिधि” शब्दों का प्रयोग भी, ऐसे अवसर पर, पुराने ग्रन्थों में मिलता है।

ऐसी अवस्था में, प्रायः सब सज्जन अंगीर्काम् करेंगे कि यह प्रश्न परम गरिमा का है, कि यथासंभव परिपक्व प्रज्ञा और निःस्वार्थ हृदय के अच्छे अनुभवी सज्जनों का वरण, पुरोधान, निर्वाचन, घर सभा के लिये कैसे हो? राजनीति के समग्र शास्त्र और समग्र प्रयोग का, सब नय और सब चार, सब सिद्धान्त और सब व्यवहार, सब थियरी और सब प्रेक्टिस का सार इतना ही है। इस महाप्रश्न के ही उचित रीति से उत्तीर्ण होने पर समाज के सब विभिन्न प्रकृतियों, शक्तियों, रोजगारों, वयःक्रमों, अवस्थाओं, और साम्प्रदायिक धर्मों के मनुष्यों के सुख का आसरा है।

प्रश्न बहुत कठिन है। तो उसके समाधान में, उत्तर में, और भी अधिक जोर लगाना चाहिये। यह तो मूल सींचने की बात है, अन्य सब बातें भारतीय स्वराज-विधान की अथक अन्य सब पृथ्वी मंडल के शासन-विधानों की, केवल शाखा पल्लव धोने की बातें हैं।

पश्चिम देशों ने इस प्रश्न को अब तक पार नहीं कर पाया, तो पूर्व देश को और भी अधिक आवश्यकता है कि इसके उत्तर को अपनी प्राचनीन सूत्रात्मा के, और शास्त्रीय आगमों के, भीतर गहरा गोता लगा कर खोज निकाले।

इस्लामधर्म का इस राजनीतिक प्रश्न पर कहना है कि

खुदातर्स रा बर रअय्यत गुमार। कि मेमारि मुल्कस्त परहेजगार। ।

“खुदा को चाहने वाले, तथा खुदा से डर वाले, (फारसी के तर्स धातु का, जो संस्कृत के तृष, ष्त का ही रूपांतर जान पड़ता है, दोनों ही अर्थ हैं) धर्म-भीरु, विवेकी, त्यागी, निःस्वार्थी मनुष्य को ही प्रजा के कार्य का प्रबन्ध करने के लिये तैनात करो। क्योंकि ऐसा ही मनुष्य राष्ट्र की इमारत को बनाता है, बिगाड़ता नहीं। ”

सनातन धर्म के स्मृति ग्रन्थों में पुनः-पुनः कहा है कि जनता के हितचिन्तक, सदुपदेशक, ऋषिकल्प, तपस्वी और विद्वान्, परमार्थी और धीमान, मनुष्य ही धर्म का परिकल्पना करें। मनु के मत की सूचना ऊपर करदी गयी है। विस्तार से आगे कहा जायगा।

पूर्व देश ही में उत्पन्न जीसस क्राइस्ट के प्रवृत्त किये क्रिश्चियन धर्म के शब्दों में जिस पदार्थ को “पृथ्वी पर र्स्वगराज्य” कहते हैं, वह राजनीति की सीधी सादी सरल भाषा में “तपस्वी, निःस्वार्थी विद्वानों के बनाये धर्मों, कानूनों, के अनुसार राज्य शासन” ही है।

बहन वर्षों के पीछे सौभाग्य का अवसर आया है कि भारतवर्ष अपने स्वराज्य का विधान करने की सन्नद्ध हुआ है। बहुत अप्रमत्त और सचेत रहना चाहिये, कि ऐसा न होने पावे कि स्वराज की नींव ही अशुद्ध पड़ जाय। इसका दृढ़ और निश्चित प्रबन्ध करना चाहिये कि भारत वर्ष का स्वराज, भारत जनता के (अधम “स्व” का राजन नहीं, प्रत्युत) उत्तम “स्व” का शासन, उत्तम-धर्म-परिकल्पना द्वारा हो, पुश्त दर पुश्त भारत के सब से अधिक अनुभवी और सब से अधिक निःस्वार्थी और लोकहितैषी सपूत ही, यहाँ के धर्मों कानूनों का परि-कल्पन, व्यवसान, व्यवस्थापन करें। यदि इस गंभीर विषय के सम्बन्ध में स्वराज की नींव अशुद्ध डाल दी गयी तो फिर पीछे उसका शुद्ध करना बहुत कठिन होगा, और अशुद्ध नींव पर जो भौम (मंजिल) खड़े किये जायेंगे वे सभी अशुद्ध होंगे।

इन हेतुओं से अत्यन्त आवश्यक है कि कठिनता के कारण इस राष्ट्र प्राण-सम्बन्धी प्रश्न से मुँह न मोड़ा जाय, बल्कि इस पर बहुत ध्यान दिया जाय और परिश्रम किया जाय, और जब तक इसका उत्तर न मिले तब तक इसको छोड़ा न जाय। अन्यथा इस समय की अति-त्वरा का फल आगे चलकर अति दुःखमय चिरविलम्ब हमारे राष्ट्र की प्रगति में अवश्य होगा। बड़े खेद का स्थान है कि जितना समय आजकल निर्वाचितों के साम्प्रदायिक धर्मों और संख्याओं की बहस में गँवाया जाता है, उसका दशमाँश समय भी उनकी बुद्धि और हृदय की दिल और दिमाग की, योग्यता पर विचार करने में नहीं लगाया जाता। साम्प्रदायिक प्रणिधान (“काम्यूनल रेप्रेजेटेशन”) पर जोर देना व्यर्थ है, सर्वांगीण, आँगिक, समाज के मुख्य अंगों के, जीविकाओं, वृत्तियों, रोजगारों, व्यापारों के प्रणिधान प्रतिनिधान, (“फिकेशनल, आक्यूपेशनल, वोकेशनल, रेप्रेजेंटेशन) की फिक्र यदि ऐसा किया जाय तो साम्प्रदायिक संख्याओं के झगड़े आपसे आप सब नीरस होकर मिट जायेंगे।

यदि भारतवर्ष ने इस प्रश्न का ठीक उत्तर खोज निकाला तो वह न केवल अपने स्वराज की नींव शुद्ध और गहरी और अटल डालेगा, किंतु राजनीति-शास्त्र का संशोधन और उत्कर्ष करके पृथिवी मंडल भर के मनुष्य समुदाय की सुख वृद्धि में सहायक होगा।

महात्मा गाँधी को जो अंतर्विकास और दैवी प्रेरणा हुई उसका अनुगमन करके भारतवर्ष ने इधर के समय में संसार को राजनीतिक युद्ध के नये शान्तिमय प्रकारों के नमूने दिखाये हैं। चाहिए कि देशबंधु चित्तरंजनदास के अंतर्विकास और दैवी प्रेरणा की सहायता से अब वह संसार के राजनीतिक सिद्धान्तों में, राजनीति के शास्त्र में, एक अति प्राचीन होते हुए भी अति नवीन सिद्धान्त की वृद्धि करे। भारतवर्ष की सूत्रात्मा में जो अहिंसा और तपस्या, परहेज़ और ज़ौहद के निषेधात्मक अंश हैं, उनका विकास और प्रयोग गाँधी जी ने किया। उसी सूत्रात्मा में विद्या और लोकहित और भूतदया के, इल्म और हुब्बुल्-इन्सानी के, जो विध्यात्मक अंश हैं, उन्होंने देशबन्धु को प्रेरित किया। ये अंश साध्य स्थानी हैं, अहिंसा और तपस् साधन स्थानी हैं। अतः इस लेख के समग्र प्रतिपाद्य का मूल सूत्र इतना ही है कि धर्म परिषद् के पार्षद, कानून बनाने वाली मजलिस के मेम्बर, राजनीतिक पुरोहित, में अहिंसा बुद्धि और तपस् भी हो, तथा विद्या और लोकहितैषिता भी हो, इसके उपाय खोजना चाहिए।

भारतवर्ष की स्वराज-योजना में और जो कुछ हो या न हो, निर्वाचन के उम्मीदवारों के वरणाकाँक्षियों के, लिए कुछ विशेष गुणों की योग्यताओं की, शर्तें लगा दी जानी चाहिए।

पच्छिम के देशों में, राजनीतिक के इतिहास में, निर्वाचकों की योग्यता पर तो बहुत विचार किया गया है, पर जहाँ तक मालूम पड़ता है, निर्वाचितों की क्या विशेष योग्यता होनी चाहिए, इस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया गया है। सर्द्धम परिकल्पना का, अच्छे, कानून बनाने का काम बहुत नाजुक, बहुत कठिन, बड़ी जोखिम का है। इस काम के लिए बहुत आगे-पीछे देखने की कार्य-कारक के सम्बन्धों के बहुज्ञान की, बहुदर्शिता और दूरदर्शिता की, बहुत आवश्यकता है, यदि एक भी धर्म, एक भी प्रभूत कानून, दोषवान् बन गया, तो उसके असर से प्रभाव से, उसके कार्यरूप बहुत से दोष दूर-दूर तक पैदा होंगे। इसलिए आवश्यक है कि धर्मसभा में, “लेजिंस्लेचर” में, समाज के सब मुख्य 2 विभागों के विशिष्टतम ज्ञान और अनुभव रखने वाले मनुष्य एकत्र होकर सब विभागों के हितकारी धर्म बनावें। निर्वाचकता के अधिकार को फैलाने के लिए निर्वाचकता के अधिकार की योग्यता यहाँ तक कम की गयी है कि बहुतेरे, अन्य देशों में तथा उक्त सर्वदल समिति की बनायी भारतवर्षीय स्वराज योजना में, केवल इक्कीस वर्ष की उमर ही पर्याप्त मान ली गयी है। पर निर्वाचित की योग्यता की, जिसकी आवश्यकता निर्वाचक की योग्यता की अपेक्षा बहुत अधिक है, कुछ चर्चा ही नहीं की है। जिन कानूनों का प्रभाव दूर 2 समाज के जीवन के अंग-प्रत्यंग पर, सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल बातों में, पड़ने वाला है, उन कानूनों के बनाने वाले का चुनाव प्रायः अनभिज्ञ जनसमूह की समझ पर छोड़ दिया गया है और उस समझ को अच्छा रास्ता दिखाने का, ऐसी सलाह देने का कि जिससे अच्छे आदमी चुनने में उसको सहायता मिले, कुछ भी यत्न नहीं किया गया है। प्रत्युत अच्छी सलाह सद्दिर्ग्दशन, सन्मार्गोपदेश, के स्थान में प्रसिद्ध है कि इस महाजन-समूह को निर्वाचन के दिनों में, दुरुपदेश् दिया जाता है, साम-दान-दण्ड-भेद सभी नीतियों का प्रयोग किया जाता है झूठी बातें बतायी जाती हैं, प्रलोभन और धोखा और धमकी दी जाती है तरह-तरह का धन और शक्ति का अपव्यय और दुरुपयोग करके उनसे अयोग्य व्यक्ति चुनवाये जाते हैं, निर्वाचकों के भी और निर्वाचितों के भी स्वभाव और आचार बिगाड़े जाते है और दोनों में स्वार्थ और अनाचार की वृद्धि होती है, जिससे चिरकाल के लिए परस्पर द्रोह, आपस की दुश्मनियाँ, पैदा हो जाती हे, और वर्ग-वर्ग का घोर विरोध अधिकाधिक बढ़ता है, और दुष्ट धर्मों का नाकिस कानूनों का, परिकल्पन, धर्मसभा में होता है। सर्वदल समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में, इंगलिस्थान के निर्वाचकों के सम्बन्ध में इन महादोषों की चर्चा की है, पर भारतवर्ष में भी उसी प्रकार के निर्वाचन का प्रचार करने का परामर्श देते हुए भी, इन अति हानिकर किल्बिर्षो के प्रतीकार का कोई भी उपाय बताने का यत्न तक नहीं किया है।

इस भयंकर आपत्ति को यथाशक्ति रोकने के लिए, और स्वयं सर्वदल कमेटी के निवेदन पत्र में सूचित घोर आशा भंग से बचने के लिए, स्वराज विधान में कुछ इस प्रकार के नियम रख देना चाहिए, यथा,

1-प्रत्येक निर्वाच्य, वरणीय, पुरोधेय, योग्यता (गुण) होनी चाहिए,

(क) समाज के इन चार मुख्य धर्मों (अंगों, कार्यों) में से किसी एक का वह विशिष्ट अनुभवी हो। (1) ज्ञान-विज्ञान (2) शासन-कर्म (रक्षा और प्रबंध-कर्म), (3) धन-धान्योत्पादन, अर्थात् कृषि, शिल्प (कर्मान्त, यंत्रकर्म, कारुकर्म, उद्योग, धन्धा) वाणिज्य-व्यापारादि, (4) शरीरश्रम (श्रमजीविता, मजदूरी),

(ख) सामाजिक जीवन के किसी विभाग में उसने अच्छा काम किया हो, और सद्बुद्धिता, आर्य-बुद्धिता (ईमानदारी, नेकनीयती), और लोक-हितैषिता (लोक सेवा) का सुयश (नेकनामी) कमाया हो ।

(ग) उसके पास इतना अवकाश (फुर्सत) हो कि धर्मसभा के काम को अच्छी तरह से कर सके, और जीविकासाधन (रोटी कमाने) अथवा धनसंचयन के कार्यों से निवृत्त हो चुका हो, पर ऐसी निवृत्ति अनिवार्य न होगी।

(2) ”केन्वेसंग” वोट माँगना, साक्षात् अथवा परोक्ष रूप से (व्याज से), अयोग्यता का हेतु समझा जायगा (अर्थात् उमेदवारी से खारिज, च्युत, पतित, कर देगा), पर निर्देशकों (नामजद् करने वालों) को अधिकार होगा कि निदिष्ट (निर्वाच्य) के गुणों की घोषणा कर दें।

(3) धर्मसभा के किसी सदस्य को कोई नकदी पुरस्कार या वेतन सभा का काम करने के बदने में न दिया जायगा, उस कार्य के लिए उसका जो कुछ विशेष व्यय हो, यथा सफर-खर्च, मकान का किराया, आदि वह सब उसको सरकारी खजाने से, राष्ट्र -कोष से दिया जायगा, और विशेष सम्मान के चिन्ह भी उसको दिए जायेंगे।

इन शर्तों के हेतु तो प्रायः स्वयं प्रकाश हैं। मानव समाज मात्र के जो मुख्य चार प्राकृतिक अंग हैं। उनमें से प्रत्येक अधिकतम अनुभव रखने वाले और भद्रतम सज्जन धर्म सभा में जायँ और धन के लोभ से, ऐश्वर्य और अधिकार के लोभ से, विनोद और मन बहलाव की आशा से वर्ग प्रशंसिता और अपने ही वर्ग की वृद्धि की इच्छा से, राजनीति को एक रोजगार बना लेने के लिए, अथवा अन्य ऐसी किसी ऐषणा से प्रेरित होकर, न जायँ। किन्तु एक मात्र लोक सेवा भाव से, जनता के सब अंगों का हित साधने की इच्छा से, देश का बोझ उठाने की बुद्धि से, जायँ और इस बड़े कार्य के बदले में, वृद्धोचित विशेष आदर सम्मान, उनके हृदय के तर्पण आध्यायन के लिए, उसको अवश्य दिया जाय। यही उनको गुरु कार्यभार उठाने के लिए प्रलोभन, प्रोत्साहन, आराधन, राजी करने का उपाय है।

इस विषय में भारतवर्ष का प्राचीन विचार, निगम और आगमन, माकूलात व मनकुलात, वेद और समृति, क्या था, इसकी सूचना के लिए आर्य ग्रंथों से कुछ वाक्यों का उद्धरणा इस स्थान पर किया जाता है। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृतविचिकित्सा वा स्यात्, ये तत्र श्रेयाँसो ब्राह्मणाःअलूक्षाःसंमर्शिनः धर्मकामाः स्युः, यथा ते तत्र वर्तेरंस्तथा तत्र वर्तेथाः।

(तैत्तिरीय उननिषत्)

अर्थात् कब, क्या करना चाहिये, कैसे बरतना चाहिये, इस अवस्था में क्या धर्म है, ऐसी शंका उत्पन्न हो तो श्रेष्ठ ज्ञानवान् और सच्चरित्रवान् सज्जन, जो अलूक्ष, अरुक्ष, रूखे नहीं, आर्द्र, कोमल, अनुकम्पक हृदय वाले और अ-मर्शी (र्षी) नहीं, समर्शी (र्षी) मर्षणशील, (मर्शनशील), विचार करने वाले और सहन करने वाले, रवादार और गौरपमंद, “टालरंट” और “थाटफल” भी हों, वे जैसा ऐसे मौके पर करने को कहें और करें, वैसा ही करना चाहिये।

शाँतिपर्व के अ॰ 83-85 में विस्तार से वर्णन किया है कि सभासद्, अमात्य, मन्त्री, में कौन-कौन गुण होने चाहियें और कौन-कौन दोष न होने चाहियें।

“श्रेयसो लक्षणं चैतद् विक्रमो यस्य दृश्यते, कीर्तिप्रधानो यश्च स्यात्समये यश्चं तिष्ठति, पौरजनापदा यस्मिन् विश्वासं धर्मतो गताः, थोद्धा नयविपश्चिञ्च, स मन्त्रं श्रोतुमर्हति” इत्यादि

निष्कर्ष यह कि पुरवासी और जनपदवासी जनता में जिसकी सत्-कीर्ति हो, और जिस पर उनका विश्वास हो, और जो कीर्ति का ही विशेष अभिलाषी हो, धन का नहीं, वह मन्त्री, सभासद, होना चाहिये।

शुक्रनीति में भी श्लोक है,

“उत्तमा मानमिच्छति, धनमानौ तु मध्यमाः, अधमा धनमिच्छति, मानो हि महताँ धनम्”

‘धनमातो” के स्थान पर ‘आज्ञाशक्ति “ पढ़े, तो उपनिषदुक्त लोकेषणा, अर्थात् सम्मानेच्छा, ऐश्वर्येषणा जिसमें दारसुतैषणा अंतर्गत है, और वित्तैषणा से इस श्लोक का सामंजस्य हो जाय। संन्यासी के लिये सम्मानैषणा भी उचित नहीं। इसीलिये संन्यासी को धर्मपरिषत् में स्थान भी नहीं। पर जो व्यवहार से सर्वथा पृथक् नहीं हुआ है, उसको “यशसि चाभिरुचि” अनुचित नहीं। और भी, यदि वह स्वयं सम्मान न भी चाहे, तो भी लोग उससे काम लेते हैं, उस पर धर्म विचार का बोझ रखते हैं, उनका तो कर्तव्य है कि उसको सम्मान दें, “अवमंता विनश्यति” और उससे प्रार्थना करें कि आप हम लोगों का काम सम्हालिये। इसी में दोनों की शोभा है। न यह कि उलटे वह उनसे प्रार्थना करे कि हमको काम सौंपिये। यदि ऐसा करे तो अवश्य स्वार्थी है, और काम बिगाड़ेगा, उसकी नीयत छोटी और खराब है।


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