पथ-गीत (Kavita)

August 1956

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मैं मुसाफिर हूं मुझे क्या दूर हो या पास मंडर्षे

। 1 ।

देखता हूँ में समुन्दर की लहर में प्यास चंचल। पर रवानी में लहर की जागरित विश्वास संबल॥

घास की चादर लपेटे चल रहा है सिन्धु प्रतिपल औक्षितिज तक साथ बढ़ता जा रहा तट मौन डगमग॥

कुछ नज़र सा आ रहा क्षितिज-रेख के उस पार धूमिल॥ में मुसाफिर हूँ, मुझे क्या दूर हो या पास मंजिल॥

। 2 ।

किस उदासी की अमा में प्राणा कोकिल रो रही है। कौन बुझती सी शमा में आग जल कर सो रही है।

चाँद तारों के बयाबाँ में अकेला फूल सा हूँ। जो ज़मी से उढ़ गगन पर छा गई, वह धूल सा हूँ।

खुद समेटेगा भंवर की नाव अब बेचैन साहिल॥ मैं मुसाफिर हूँ, मुझे क्या दूर हो या पास मँजिल॥

। 3 ।

आज मचला फिर कलेजे में उभर का प्यार किसका। झूमता इन पुतलियों में शत्रु पारावार किसका।

जिन्दगी का कारवाँ हर पैग लेकर भावना की। वायु गति से बढ़ रहा है लक्ष्य पर प्रिय चाहना की॥

ढो रहा हूँ मैं किसी की याद का संसार बोझिल॥ मैं मुसाफिर हूँ, मुझे क्या दूर हो या पास मंजिल॥


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