(श्री सत्यभक्त जी ‘संपादक’ सतयुग)
प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति और अभ्युदय के लिये नैतिकता की शिक्षा और उसका पालन अत्यावश्यक है। जब तक हम पारस्परिक व्यवहारों में न्याय और नीति का ध्यान नहीं रखेंगे किसी भी प्रकार की उन्नति और सुख शान्ति की प्राप्ति संभव नहीं। जिस देश या समाज में एक व्यक्ति को दूसरे पर विश्वास नहीं; जहाँ एक दूसरे को झूँठा, बेईमान, दगाबाज बतलाते हैं, वहाँ संगठित जीवन का कार्य कभी सुचारु रूप से नहीं चल सकता और इसके बिना समाज का अग्रसर हो सकना संभव नहीं। इसके विपरीत पारस्परिक अविश्वास के परिणाम स्वरूप फूट, वैमनस्य, अनैक्य आदि अनेक दुर्गुणों की वृद्धि स्वाभाविक हैं और अन्त में उस समाज का पतन भी अवश्यम्भावी है।
भारतवर्ष में किसी समय नैतिकता का बड़ा मान था। कहा जाता है कि अब से हजार वर्ष पूर्व लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे और लेन-देन की कोई लिखा-पढ़ी नहीं होती थी। किस्से तो यहाँ तक मशहूर हैं कि अमुक सौदागर ने अपनी मूँछ का एक बाल दस बीस हजार रुपया देकर छुड़ा लिया। संभव है यह केवल मनोरंजन के लिये किस्सा ही बना लिया गया हो, पर इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन काल में लेन-देन में लिखा-पढ़ी या तो बिल्कुल हो न होती थी या बहुत कम होती थी और फिर भी ऋण चुकाने में बेईमानी करने वाला शायद ही कभी कोई निकलता था।
पर आज कल की स्थिति देखिये। दस-दस बीस-बीस रुपये का सरकारी स्टाम्प लगाकर लिखा पढ़ी की जाती है, अनेकों प्रतिष्ठित, मात वर गवाही कराई जाती हैं, बड़े लेन देन में सरकार में रजिस्ट्री भी कराई जाती है तो भी कुछ ही समय बाद बेईमानी प्रकट होने लगती है, लड़ाई झगड़े हो जाते हैं अन्त में मुकदमेबाजी आरम्भ होकर सैकड़ों हजारों रुपये बर्बाद हो जाते हैं। अनेक बार तो लेन देन के पहले ही लोगों की नीयत खराब होती और ले तरह-तरह के छल
फरेबों से या ठगी का कोई जाल रच कर ही रुपया या कोई अन्य सम्पत्ति प्राप्त कर लेते हैं। वे समझते हैं कि जहाँ एक बार रुपया हाथ में आया फिर वापस लेने वाला कौन है?
खरीद फरोख्त में भी ऐसी ही बुरी दशा है। लोगों को एक दुकान पर माल और भाव देख कर कभी विश्वास नहीं होता और विवश होकर उनको बर्बाद करना पड़ता है। चलते पुर्जा लोग तो इस प्रकार कुछ लाभ उठा भी सकते हैं, पर सीधे सादे व्यक्ति प्रायः मूँडे ही जाते हैं। आज कल प्रश्न केवल मूल्य का ही नहीं रहता वरन् अब सभी चीजें नकली बनने लग गई हैं और दुकानदार अपनी होशियारी इसी में समझता है कि बातों के जोर से असली के बजाय नकली चीज ग्राहक के मत्थे मढ़ दे। इसके फल स्वरूप आजकल लोगों को शुद्ध दूध के बजाया मखनिया दूध अथवा दूध के पाउडर से बनी चीजों, घी से स्थान पर वनस्पति तेल, गेहूँ के आटे के बजाय ज्वार मिला हुआ आटा आदि खाकर अपना स्वास्थ्य खराब करना पड़ता है। और तो क्या बीमारी को दूर करने के उद्देश्य से जो औषधियाँ खरीदी जाती हैं, वे भी प्रायः नकली दे दी जाती हैं और फिर कहा जाता है कि देशी औषधियाँ विदेशी औषधियों की तरह शीघ्र प्रभावशाली सिद्ध नहीं होतीं।
असली नकली से भी बढ़ कर आजकल एक व्याधि चोर बाजारी की चल गई है। जीवन निर्वाह की आवश्यक सामग्री को गुप्त से गोदामों में बन्द करके बाजार में खूब महंगी कर देनी और बाद में सरकार द्वारा नियत भाव से कहीं अधिक मूल्य में छुपे तौर से उसे बेचना। कन्ट्रोल के जमाने में तो यह घृणित तरीका बेहद बढ़ गया था और इसके कारण न जाने कितने लोगों को भूखा नंगा रह कर कष्ट उठाना पड़ा। पर अब भी जहाँ किसी चीज को कुछ कमी नजर आई कि
फौरन उसे ताले के भीतर बन्द करने का विचार कर लिया जाता है। जिससे बाद में लोग कष्ट पाकर उसे दूना ड्यौढ़ा मूल्य देकर खरीदें।
हर एक सरकारी विभाग में घूस खोरी भी इसी अनैतिकता का परिणाम है। हर एक सरकारी नौकर को अपने कार्य के लिए वेतन मिलता है। यह वेतन कम ज्यादा पर वह उससे सन्तुष्ट नहीं होता और सदा इसी फिक्र में रहता है कि ‘ऊपरी’ आमदनी की जाय। जब नीयत खराब हो गई तो इनसाफ की गुंजाइश ही कहाँ रही। जिसने घूस दी उसका काम तुरन्त हो गया और जिसने नहीं दी उसके काम में तरह-तरह के झगड़े लगा दिए। रेल-अदालत, पुलिस आदि में तो रिश्वत इस तरह ली जाती है जैसे वह उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो जिसमें न किसी तरह का संकोच है न लज्जा। लोग भी अड़चन से बचने के लिए उनका बंधा हुआ ‘हक’ चुपचाप दे आते हैं। अन्य सब महकमों में भी घूस देने वाले का काम ही पहले होता है इससे गरीबों को, जिनके पास घूस देने के लायक पैसा नहीं है, कितनी हानि और अपमान उठाना पड़ता है यह प्रत्यक्ष है।
यह व्यापार-प्रधान युग है और जनता की आवश्यकता की सब वस्तुयें और साधन व्यापारियों के ही हाथ में रहते हैं। रोटी कपड़े से लगाकर हवाई जहाज के यात्रा तक की बागडोर बड़े मालदारों के हाथ रहती है और उनका मल मन्त्र होता है अधिक से अधिक फायदा उठाना। जनता को इसके कारण कितनी असुविधा उठानी पड़ती है-अनेक बार लाखों व्यक्तियों को प्राण भी गँवाने पड़ते हैं पर इसकी उनको कोई चिन्ता नहीं। गत महायुद्ध के समय बंगाल में पड़ने वाला अकाल घूस का एक बहुत स्पष्ट उदाहरण है। नफा कमाने के लिए बड़े व्यापारियों ने वहाँ के मुख्य खाद्य पदार्थ चावल को गोदामों में बन्द कर दिया जिससे उसका दाम बढ़ते-बढ़ते 2 रु॰ सेर तक पहुँच गया लाखों व्यक्ति भूखों मर गये। पेट की खातिर लोगों ने अपने लड़के-लड़कियों को दस-दस पाँच-पाँच
रुपये में बेच दिया। पर व्यापारियों ने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उन्होंने कोई नीति विरुद्ध कार्य किया था। वे तो इसे ‘व्यापार’ समझते और बतलाते हैं।
इसी प्रकार का दूसरा कुत्सित उदाहरण बुखार की दवा कुनैन के व्यापारियों का देखने में आया। महायुद्ध के समय कुनैन का मूल्य 15-20 रु॰ प्रति पौण्ड से गढ़ कर 400-500 रु॰ पौण्ड तक पहुँच गया था। इस लिए अनेक गरीब व्यक्ति ज्वराक्रान्त होने पर भी असमर्थता के कारण इतनी महंगी औषधि नहीं खरीद सकते थे और रोगवश काल कवलित हो जाते थे। उधर कुनैन की फसल पहले से कहीं अधिक हो रही थी और वह बाजार में सस्ते दामों में बेची जा सकती थी, पर उसके उत्पादक व्यापारी हजारों मन कुनैन के पौधों को खेतों में ही जला कर नष्ट कर देते थे जिससे कुनैन की कमी बनी और उसका भाव नीचे उतरने न पावे। धन की लालसा की पूर्ति के लिए नीति ही नहीं, मनुष्यता को भी ठुकरा देने का कितना जघन्य नमूना है?
अब प्रश्न यह है कि इस बढ़ती हुई अनैतिकता की प्रवृत्ति का प्रतिकार कैसे किया जाय? यहाँ तो व्यापारियों और सरकारी नौकरों में ही नहीं सौ में से निन्यानवे व्यक्तियों में यह प्रवृत्ति घर कर गई है कि “दूल्हा मरे चाहे दुल्हन, पंडित जी को अपने टके से काम। ” नकली खाद्य सामग्रियों के कारण जनता का स्वास्थ्य चौपट हो रहा है, नये-नये रोग फैलते जाते हैं शारीरिक शक्ति का ह्रास हो, रहा है पर व्यवसाइयों को इससे कोई मतलब नहीं। घूसखोरी के कारण जनता में सरकार की बदनामी हो रही है और शासन-तन्त्र निर्बल और निकम्मा बनता जाता है जो राष्ट्र-रक्षा की दृष्टि से घोर विपत्ति सूचक है, पर कोई इस कुप्रवृत्ति को स्वयं छोड़ने को राजी नहीं। ऐसी अवस्था के कारण चोर और डाकू भी बढ़ते जाते हैं और जहाँ पहले जमाने में डकैती एक बहुत भारी आकस्मिक घटना समझी जाती थी, आज वह प्रतिदिन की बात हो गई है। लोगों के जान माल की सुरक्षा का भाव दिन पर दिन नष्ट हो रहा है और समाज पतन की तरफ असर होता जाता है।
इस अनैतिकता पूर्ण घोर अव्यवस्था को रोकने का सीधा सादा उपाय तो कठोर शासन बतलाया जाता हैं। अन्याय के शिकार होने वाले व्यक्तियों की तो यही माँग होती है कि मिलावट करने वालों को सरे बाजार कोड़े लगाये जायें और चोर बाजारी करने वाले फांसी पर लटका दिये जायं। घूस लेने वाले कर्मचारियों को काला मुँह करके देश निकाला दे दिया जाय। लोगों की ऐसी मनोवृत्ति अस्वाभाविक नहीं है। जिन गरीबों के पुत्र, भाई अथवा अन्य प्रिय सम्बन्धी ऐसे अन्यायों अथवा भ्रष्टाचार के कारण प्राणान्त रोग अथवा सरकारी कर्मचारियों की क्रूरता का शिकार बनकर सदा के लिए बिछुड़ गये हैं, वे भाई मन में बदले की ऐसी भावना का पोषण करते हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनकी ही क्या बात प्रधान मंत्री श्री नेहरू ने एकाध बार इन लोगों के कारनामों को सुनकर कह डाला था कि—मेरा वश चले तो चोर बाजारी करने वालों को फांसी पर लटका दूँ।
जो लोग अपने स्वार्थ—साधन के लिए दूसरों का अनहित करने में संकोच नहीं करते और अपने थोड़े से लाभ के लिए सैकड़ों-हजारों व्यक्तियों का सर्वनाश करने में किसी प्रकार की ग्लानि या मनो वेदना का अनुभव नहीं करते, वे निश्चय ही मनुष्य रूप में पशु हैं अथवा दानव हैं। ऐसे लोगों को समाज में रहने का अधिकार कदापि नहीं और सरकार ही नहीं जनता का भी कर्तव्य और अधिकार है कि वह संगठित होकर ऐसे नर पशुओं या दानवों का संहार कर दे। जो मनुष्य साँप और भेड़िये की तरह स्वभाव से ही अन्य निर्दोष व्यक्तियों को हानि पहुँचाने वाले बन गए हैं उनके सुधार का निष्फल प्रयत्न करने के बजाय उनको मृत्यु की गोद में सुला देना ही सबके हित की दृष्टि से उचित है।
पर हम यह भी जानते हैं यह उपाय थोड़ी देर के लिए मन का समाधान करने वाला होने पर भी वास्तविक रूप से कारगर नहीं है। यह व्याधि का ऊपरी उपचार मात्र है, जब कि उसका मूल कारण दूषित तत्व नीचे दबा पड़ा रह जाता है और कुछ समय बाद फिर उमड़ कर कष्ट पहुँचाने लगता है। एक समय था कि इंग्लैंड में सौ से अधिक अपराधों के लिए मृत्यु का दण्ड दिया जाता था और वह भी बराबर अपराध होते थे और अपराधियों को जनता के सम्मुख प्रदर्शन करके तड़पा-तड़पा कर मार डालने का भी कोई खास असर नहीं होता था, इसके विपरीत अब इंग्लैंड में दो—चार प्रकार के अपराधों पर ही मृत्यु दण्ड दिया जाता है, पर अब वैसे अपराध बहुत कम होते हैं और मृत्यु दण्ड पाने वालों की संख्या पहले की अपेक्षा नाम मात्र को ही रह गई है। कारण यही है कि वहाँ की सरकार और जनता ने मिलकर देश और समाज में ऐसे सुधार कर दिये हैं जिससे अपराधों की दुनिया का वातावरण ही बदल गया है।
इसलिए अगर हम अपने यहाँ से अनैतिकता से होने वाले चोर बाजारी, घूस खोरी, मिलावटी पदार्थों की बिक्री, असत्य व्यवहार, चोरी, दगाबाजी, ठगी आदि दोषों को दूर करना चाहते हैं तो हमको उनके वास्तविक कारणों को ही मिटाना होगा, और वह कारण है अनुचित अर्थ—लोभ। आजकल जितने दुष्कर्म होते दिखलाई पड़ते हैं उनमें 100 में से 90 का कारण धन का लालच ही होता है। व्यापार सम्बन्धी अनैतिकता और घूस खोरी तो स्पष्ट रूप से रुपये के लिए ही की जाती है। अन्य दुर्गुणों में भी लोभ या लालच का ही ज्यादातर हाथ रहता है। इसलिये अगर हमको इन दोषों का निराकरण करना है उसके लिए लोगों की धन-लिप्सा को रोकने या घटाने का ही कोई उपाय करना होगा।
इसके लिए एक प्राचीन उदाहरण देना अप्रासंगिक न होगा। यूनान के स्पार्टा राज्य में अब से ढाई तीन हजार वर्ष पूर्व घूस खोरी और भ्रष्टाचार की ऐसी ही बाढ़ आ गई थी जैसी कि आज हम अपने देश में देख रहे हैं। सभी सरकारी कर्मचारी और बड़े लोग अनैतिकता की कमाई करते थे और इसके फल से जन साधारण की अकथनीय दुर्दशा हो गई थी। तब वहाँ ‘लाइकगरस’ नामक शासक हुआ उसने इस दुरवस्था को सुधारने का निश्चय किया और इसका उपाय ढूंढ़ने के लिए वह कई वर्षों तक विदेशों की यात्रा करके वहाँ की अवस्था और नियमों का अध्ययन करता रहा। अन्त में उसने अपने देश में लौट कर कुछ नये शासन सुधार किए। उनमें मुख्य यह था कि स्पार्टा में सोने-चाँदी के सिक्कों का चलना एक दम बन्द कर दिया गया और उनके स्थान में लोहे के बने पैसे चलाये गये। इन पैसों के सिवाय उस राज्य में कोई सिक्का नहीं चल सकता था। इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही समय में वहाँ से चोरी, घूस खोरी और धन को जमा करके रखने की प्रवृत्ति जाती रही और अन्य दोषों का अन्त हो गया। क्योंकि जब एक रुपये के मूल्य में लगभग एक सेर पैसे आते थे तो चोर कहाँ तक उनको उठा कर ले जाते और रिश्वत देने वाले भी किस प्रकार छुपा कर उन पैसों की गठरी घूस खाने वाले को दे सकते थे। फिर अगर कोई अधिक वैसा जमा भी कर लेता तो ज्यादा समय बीतने पर जंग लग कर उनके नष्ट होने का भी भय था। वे तो बराबर चलने रहने से ही ठीक रहते थे। लाइक गरस ने दूसरा नियम यह बनाया कि विलास और सजावट की सब चीजों का निर्माण बन्द करके आज्ञा दी कि अगर अपने कमरों को सजाना है तो हथियारों और कुल्हाड़ी, आरा, बसूला औजारों से सजाओ जो समय पड़ने पर काम भी दे सकते हैं। इस प्रकार के नियमों से कुछ समय में स्पार्टा की काया पलट हो गई और वहाँ के निवासी ऐसे देश भक्त, सत्य व्यवहार वादी और वीर बन गये कि बड़े बड़े देश भी उन पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकते थे।
कोई ऐसा उपाय ही हमारे देश की व्याधि को दूर कर सकता है। हम जानते हैं कि तीन हजार वर्ष पूर्व और आज के देश—काल में पृथ्वी-आकाश का सा अन्तर है और अब सब सिक्कों को मिटा कर लोहे का पैसा जारी कर सकना किसी प्रकार सम्भव नहीं। तो भी ऐसे कई उपाय हो सकते हैं जिनसे इन दोषों का बहुत कुछ प्रतिकार हो सकता है। उदाहरण के लिए अगर यह नियम बना दिया जाय कि जो नोट देश में चलते हैं वे केवल एक वर्ष के लिए होंगे और प्रत्येक वर्ष नये नोट निकाले जाये करेंगे, जिन लोगों के पास पुराने वर्ष के नोट बच रहें वे उनको व्यर्थ समाप्त हो जाने पर एक महीने के भीतर नये नोटों से बदल लें। ऐसे नियम चोर बाजारी और घूस लेने वालों का अनेक अंशों में भण्डाफोड़ कर देगा। क्योंकि जब वे अपनी सामान्य दिखलाई पड़ने वाली आमदनी से कहीं अधिक तादाद में नोट बदलने लायेंगे तो स्वभावतः यह प्रश्न होगा कि यह रकम कहाँ से आयी? सम्भव है कि एकाध वर्ष झूठे सच्चे बहाने बनाकर कोई काम निकाल ले पर जब प्रति वर्ष यही समस्या सामने आयेगी तो लोगों की बेईमानी, अनीति से रुपया प्राप्त करने की प्रवृत्ति पर एक बड़ा अंकुश अवश्य लग जायगा।
दूसरा उपाय यह भी आवश्यक है कि लोगों में से विलासिता और फिजूल खर्ची की प्रवृत्ति को मिटाया जाय और विलासिता के साधनों को जहाँ तक संभव हो घटाया जाय, क्योंकि विलासिता नैतिकता की विरोधी है और विलास प्रिय व्यक्ति से नैतिक आचरण की विशेष आशा नहीं रखी जा सकती। विलासिता और फिजूल खर्ची के साधनों की पूर्ति के लिए ही अनेक भ्रष्टाचार में फंस जाते हैं और अपना नैतिक पतन कर लेते हैं।