साँस्कृतिक विद्यालय का नियमिल शुभारंभ

August 1956

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गायत्री तपोभूमि में धार्मिक शिक्षा की अपूर्व व्यवस्था भारतीय संस्कृति की सुस्थिता और अभिवृद्धि के लिए या आवश्यक है कि धर्म का तत्व समझने वाले, आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न, तपस्वी, और सुयोग्य कर्मनिष्ठ धर्म सेवियों की संख्या बढ़े। प्राचीन काल में इस मार्ग में अपना जीवन उत्सर्ग करने वाले व्यक्ति ही धर्म गुय होते थे, पर आज तो वह कार्य भी एक व्यवसाय बन गया है। अब ऐसे निस्वार्थ धर्म सेवियों की अति आवश्यकता है जो अपने आत्म कल्याण के लिए, अपने परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए तथा अवसर हो तो दूरवर्ती जनता की आध्यात्मिक सेवा करने के लिए अपना पूरा या थोड़ा समय लगा सकें। ऐसे लोगों के लिए गायत्री तपोभूमि में बहुत दिनों से एक साँस्कृतिक विद्यालय की योजना चल रही थी, प्रसन्नता की बात है कि अब उसकी तैयारी पूरी हो गई और गुरु पूर्णिमा से व्यवस्थित रीति से वह कार्य क्रम आरंभ हे गया है इस शिक्षा में सम्मिलित होने के लिए हम सभी धर्म प्रेमियों को विशेष तथा धर्म प्रचार और पौरोत्यि धार्मिक नेतृत्व करने के इच्छुकों को सादर आमंत्रित करते हैं। 16 वर्ष से अधिक आयु के सदाचारी एवं शिक्षित व्यक्ति इस में सम्मिलित हो सकते हैं। पाठ्य क्रम संक्षेप में इस प्रकार है:—

1) यज्ञों की शिक्षा

यज्ञ भारतीय विज्ञान की प्रचंड शक्ति है इस शक्ति से समुचित लाभ उठाने के लिए यज्ञों की विस्तृत एवं शास्त्रोक्त विधि व्यवस्थाओं का, पद्धतियों का जानना आवश्यक है। तपोभूमि में पौराणिक और वैदिक यज्ञों के सांगोपांग विधान समझने और उन्हें क्रियात्मक से रूप से सिखाने समझने की पूरी व्यवस्था कर ली गई है।

अब तपोभूमि में प्रति वर्ष 14 यज्ञ करते रहने का निश्चय किया गया है। जिससे संसार का हित, तपोभूमि के वातावरण का शक्ति शाली होना तथा या कर्त्ताओं को यज्ञ धूम्र से असाधारण लाभ प्राप्त होना संभव हो सके। जो व्यक्ति एक वर्ष यहाँ रहेंगे वे इन चौदहों यज्ञों को अपने हाथों करने के आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त करने के अतिरिक्त उनके विधानों को भी सीख सकेंगे। वार्षिक कार्य क्रम इस प्रकार बनाया गया है।

1— रुद्रयज्ञ- पूरे श्रावण मास में

2—यजुर्वेद या- पूरे भाद्रपद मास में

3— पितृ या- आश्विन कृष्ण पक्ष, 15 दिन में

4—शतचंडी यज्ञ-आश्विन शुक्र पक्ष, 15 दिन

5—लक्ष्मी यज्ञ-कार्तिक कृष्णपक्ष, 15 दिन में

6—विष्णु यज्ञ- कार्तिक शुक्ल पक्ष, 15 दिन में

7—अथर्ववेद यज्ञ- मार्गशीर्ष, पौष, 2 मास में

8—ब्रह्म या-माघ कृष्ण पक्ष, 15 दिन में

9—नवग्रह यज्ञ- माघ शुक्ल पक्ष 15 दिन में

10—ऋग्वेद यज्ञ- फाल्गुन चैत्र तथा बैसाख वदी 30 तक 2॥ मास में

11— महामृत्युञ्जय यज्ञ-वैशाख शुक्लपक्ष, 15 दिन में

12— शान्ति यज्ञ- जेष्ठ कृष्ण पक्ष, 15 दिन में

13—सरस्वती यज्ञ- जेष्ठ शुक्ल पक्ष, 15 दिन में

14— सामवेद यज्ञ- पूरे आषाढ़ मास में। गायत्री यज्ञ तो नित्य यथावत् चलता ही रहेगा

2- वैदिक मंत्र-विद्या

40 प्रकार विभिन्न प्रयोजनों के लिए वैदिक सूक्तों का संग्रह “ सूक्त संहिता” नाम से छापा गया है। इसमें शक्ति शाली वेद मन्त्रों के द्वारा धन, सन्तान, स्वास्थ्य, बुद्धि सफलता, विजय मैत्री अनुग्रह आदि लाभों एवं आत्मबल की प्रचंड शक्ति को प्राप्त करने तथा अनेक आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक आपत्तियों एवं कठिनाइयों को सरल करने के लिए साधन विधान बताये गये हैं। इन सूक्तों का पाठ, हवन आदि करने कि विधि व्यवस्था बताई गई है। जिस मन्त्र विद्या को लोग किसी को मरण पर्यन्त नहीं बताते उसके इस प्रकार सार्वजनिक शिक्षण का यह अपने ढंग का अपूर्व प्रयत्न है।

3— संस्कार-विज्ञान

विभिन्न आयु एवं स्थिति के व्यक्तियों पर समय समय पर अनेक शक्ति शाली संस्कार वेद मंत्रों की शक्ति से डालर उनकी मनोभूमि में महत्व पूर्ण परिवर्तन प्राचीन काल में किये जाते थे। साधारण शिक्षा-उपदेशों की अपेक्षा संस्कार पद्धति के वैज्ञानिक विधान के अनुसार मनुष्यों के जीवन में भारी हेर फेर किया जाना संभव है। इस संभावना को परीक्षणों द्वारा निश्चयात्मक रूप देकर ऋषियों ने सीमंत, जात कर्म, नामकरण, यज्ञोपवीत, आदि संस्कारों की परम्परा प्रचलित की थी। इस पद्धति को विधिवत् और वैज्ञानिक रीति से सिखा देने की तपोभूमि के सांस्कृतिक विद्यालय में व्यवस्था की गई है। इस शिक्षा को प्राप्त कर अपने परिवार को अन्य निकटवर्ती लोगों के परिवार को सुसंस्कृत बनाया जा सकता है।

5—सरल-चिकित्सा पद्धति

आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार रोगों का निदान, नाड़ी-परीक्षा, शरीर-विज्ञान, जड़ी-बूटी-परीक्षा, औषधि निर्माण, चिकित्सा, पथ्य, परिचर्या, हड्डी टूटना, चोट, विषोपचार आदि की तात्कालिक चिकित्सा आदि विषयों को सरल पद्धति से सिखाने की व्यवस्था की गई है जिसके आधार पर कोई भी व्यक्ति सफल चिकित्सा बनकर रोग पीड़ित व्यक्तियों की बड़ी सेवा कर सकता है।

5— शस्त्र-शिक्षा

लाठी, तलवार, छुरी, भाला, धनुषबाण आदि अस्त्र-शस्त्रों को चलाना सीख कर आत्म रक्षा की तैयारी, साहस की वृद्धि, आरोग्य आदि कि लाभ प्राप्त करना तथा सूर्य नमस्कार, आसन प्राणायाम, खेल- व्यायाम आदि के द्वारा स्वास्थ्य को सुधारना।

6—संगीत-गान-वाद्य-शिक्षण

अपने निज के मनः प्रमोद-स्वान्तः सुखाय गान वाद्य करके अन्तरात्मा को प्रमुदित करने के अतिरिक्त संगीत द्वारा जन साधारण की भावनाओं को सन्मार्ग की ओर अग्रसर किया जा सकता है। संगीत एवं वाद्य बड़ा ही प्रभावशाली साधन है जिसके द्वारा मनोभूमियों में बहुत कुछ बोया और उगाया जा सकता है। अच्छे शिक्षा प्रद, भजन-कीर्तनों द्वारा जन-मन में धर्म भावनायें विकसित करने के लिए संगीत गान वाद्य द्वारा की शिक्षा व्यवस्था की गई है। हारमोनियम, तबला, ढोलक, वेंजो खड़ताल, इकतारा, तम्बूरा, मजीरा, चिमटा आदि बाजे इस विभाग में कई कई जोड़ी आ गये हैं और संगीत अध्यापक नियमित रूप से आकर गाने तथा इन बाजों को बजाने की शिक्षा देते हैं। तुलसी कृत रामायण, राधेश्याम रामायण, कीर्तन, सन्तों के भजन आदि को प्रधानता दी जाती है। फिल्मी ध्वनि पर भी अनेक अच्छे धार्मिक गीत सिखाने की व्यवस्था की गई है।

7— गायत्री गीता और धर्म प्रवचन

गायत्री गीता में थोड़े से श्लोक है पर उनमें धर्म का समस्त तत्व ज्ञान सम्मिलित है। इस गायत्री गीता के धर्म को समझना साथ ही तुलसीकृत रामायण, बाल्मीकि रामायण, भागवत, महाभारत, शास्त्र उपनिषद् एवं अनेक पुस्तकों की शिक्षा प्रद कथाओं तथा उपयोगी प्रसंगों के साथ इस प्रकार कथा कहना सिखाया जाता है कि गहन धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों को भी साधारण जनता इस ओर आकर्षण पूर्वक समझ सके। भाषण देना, शंक्ता समाधान, शिक्षा, उपदेश इस कला को भली भाँति सिखाकर कर छात्रों को अच्छा वक्त बनाने का प्रयत्न किया जाता है।

देव भाषा संस्कृत का जानना, प्रत्येक भारतीय संस्कृति से प्रेम रखने वाले के लिए आवश्यक है। परन्तु संस्कृत साहित्य और व्याकरण पठन-पाठन प्राचीन पद्धति से बहुत कष्ट साध्य होने के कारण साधारण लोग उससे चकराते हैं जो कुछ साहस भी करते हैं वे थोड़े ही दिनों में याद करने की कठिनाई के कारण निरुत्साहित हो जाते हैं। इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए संस्कृत पढ़ाने की ऐसी सरल विधि व्यवस्था बनाई गई है जिसके आधार पर एक वर्ष में ही व्यर्थ समझने और परस्पर संभाषण कर सकने योग्य संस्कृत आ जाय। जो एक वर्ष संस्कृत और वैद्यक की नियमित शिक्षा प्राप्त करेंगे वे दानों विषयों में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण करने कि स्थिति में भी पहुँच जावेंगे । इन विषयों का परीक्षा केन्द्र तपोभूमि है।

उपरोक्त आठों का विषयों का भली प्रकार अध्ययन कर लेने पर सफल छात्रों को साँस्कृतिक विद्यापीठ का अत्यन्त सुन्दर तिरंगा बड़े साइज का प्रमाण पत्र भी दिया जाता है।

9— यज्ञोपवीत बनाना

शुद्ध यज्ञोपवीत बनाने की विधि जान कर जहाँ मनुष्य शास्त्रोक्त जनेऊ पहनने और पहनाने का लाभ प्राप्त कर सकता है वहाँ इस कार्य को गृह उद्योग के में लेकर एक दो रुपये रोज की आजीविका भी कर सकता है।

10— स्वाध्याय और सत्संग

गायत्री तपोभूमि के पुस्तकालय द्वारा उत्तमोत्तम सद्विचार वर्धक साहित्य का पढ़ना और आचार्यजी तथा देश भर से समय-समय पर आते रहने वाले विद्वानों के प्रवचन से दार्शनिक नैतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक समस्याओं पर महत्वपूर्ण विचारधारा प्राप्त करने का यहाँ बड़ा ही सुयोग रहता है।

व्रज यात्रा, जमुना स्नान, तीर्थ भूमि का फल, आश्रम वास का व्यवस्थित जीवन, सधी हुई दिनचर्या प्राकृतिक उपवन के निवास की ऋषि जीवन जैसी सुविधा यह सब लाभ मिलकर इतने हैं जिन्हें प्राप्त करना जीवन का एक सौभाग्य ही समझा जाना चाहिये।

साँस्कृतिक विद्यालय में जो शिक्षाएं दी जाती हैं वे स्वान्तः सुखाय तो सब प्रकार श्रेयस्कर होती ही है, भविष्य निर्माण में जीवन की गतिविधि योजना में भी वे बड़ी सहायक होती हैं। साथ ही इन शिक्षाओं को प्राप्त करे कोई व्यक्ति धर्म प्रचार के लिए उद्यत हो तो निश्चय ही वह चिकित्सा, कथा, प्रवचन, यज्ञोपवीत निर्माण आदि कार्यों के द्वारा निर्वाह के के लायक आर्थिक साधनों से रहित भी नहीं रहेगा, जिनके यहाँ पौरोहित्य वृत्ति होती है उनके लिए तो यह शिक्षा क्रम कर्त्तव्य और आजीविका की दानों ही दृष्टियों से बड़ी उपयोगी हैं।

जिन लोगों को पारिवारिक जिम्मेदारियों से छुटकारा मिल चुका है, जिनके ऊपर कमाने का बोझ नहीं है तथा जीवन को शान्तिमय बनाने के लिए परमार्थ पूर्ण वातावरण में रहना चाहते हैं। उनके लिए गायत्री तपोभूमि के समान चैतन्य तीर्थ क्षेत्र भारतवर्ष में और दूसरा नहीं मिल सकता ।

शिक्षा, साधना ओर सेवा का यह अद्भुत समन्वय जीवन को सफल बनाने के लिए परम मंगलमय हैं। जिनको अवसर तथा सुविधा हो वे यहाँ रहकर अपने समय का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करने के लिए तपोभूमि में अधिक से अधिक समय निवास करने का सौभाग्य प्राप्त करें। शिक्षा के नियम

1—शिक्षार्थी की आयु डडडड वर्ष से अधिक होनी चाहिए। उसकी योग्यता कम से कम हिन्दी मिडिल के बराबर अवश्य होनी चाहिए।

2—दूसरों पर प्रभाव डालने वाले रोगी, कर्कश, कटुभाषी, अनुशासन न मानने वाले, अशिष्ट, गन्दे, आलसी, व्यसनी, दुर्गुणी व्यक्ति भर्ती न किये जायेंगे। ऐसे किये जाने पर भी उन्हें तपोभूमि से पृथक कर दिया जायगा।

3— नर और नारी दोनों ही बिना किसी भेदभाव के इस शिक्षा क्रम का लाभ समान रूप से उठा सकते हैं।

4— अपना पूरा परिचय, नाम, पता, आयु, शिक्षा, व्यवसाय, जाति, अब तक का जीवन वृत्तान्त, भविष्य की आकाँक्षा, कोटुम्बिक विवरण यदि पूरे एक वर्ष से कम समय रहना है तो कितने दिन रहेंगे और क्या क्या सीखना चाहेंगे आदि पूरी बातें लिख कर पहले स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए, तब मथुरा आना चाहिए।

5— शिक्षा की कोई फीस नहीं, ठहरने के लिए तपोभूमि में स्थान मौजूद है। भोजन व्यय शिक्षार्थी को स्वयं ही उठाना चाहियें जो लगभग 12 ) मासिक पड़ता है।

6— पूरा पाठ्यक्रम एक वर्ष का है इतने विषयों को सीखने के लिए कम से कम इतना समय तो चाहिए ही। यह वर्ष गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ सुदी 15, ) से प्रतिवर्ष आरंभ हुआ करेगा। पर अधिक कार्य व्यस्त व्यक्तियों के लिए जो थोड़े ही समय यहाँ रहने के लिए निकाल सकते हैं, उनके लिए उनकी रुचि के अनुकूल जैसी विशेष व्यवस्था की जा सकती है।

7— भारतीय संस्कृति के अनुकूल आश्रम जीवन ही यहाँ व्यतीत करना पड़ेगा। निर्धारित दिनचर्या, अनुशासन तथा शिष्टाचार का पालन करने के लिए पूरी तरह तैयार होकर यहाँ किसी को आना चाहिए।

8— आने वाले अपने लिए पहनने, ओढ़ने तथा बिछाने के वस्त्र, थाली, कटोरा आदि पात्र तथा अन्य आवश्यक सामान साथ लेकर आवें।

9— पूरे शिक्षा क्रम में लगभग 10 ) की पुस्तकों का आवश्यकता पड़ती है। जो व्यक्ति अपनी पुस्तकें न खरीदना चाहें व 10) सुरक्षा धन जमा करदें और तपोभूमि के पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ने को लेते रहें। जाते समय अपना धन वापस ले जावें, संगीत सीखने वाले अपने निज के वाद्य खरीद सकें तो उन्हें सीखने में अधिक सुविधा रहेगी।

10-छात्रों की वेषभूषा साधारणतः सबकी एक सी रहेगी, धोती, कुर्ता, कंधों पर पीला दुपट्टा। स्त्रियों के लिए धोती, पोलका। पाजामा, पतलून आदि का उपयोग यहाँ नहीं होता। नेकर काम काज के समय नहीं केवल शस्त्र कक्षा में या सोते समय उपयोग हो सकते हैं।

प्रेमी परिजनों से:-

यह साँस्कृतिक शिक्षा व्यक्ति गत जीवन सुधार और धर्म सेवा की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्व पूर्ण है। पर चिकित्सा, संगीत, प्रवचन, यज्ञोपवीत निर्माण, पौरोहित्य से किन्हीं-किन्हीं के लिए कुछ लाभ की सम्भावना के अतिरिक्त इसमें कोई बड़े आर्थिक लाभ की गुंजाइश नहीं है। इसलिए साधारणतः इसके लिए निर्लोभ शिक्षार्थी कम ही मिलेंगे। प्रेमी परिजन अपने क्षेत्रों में इस मनोवृत्ति के लोगों को तलाश करें कि और उन्हें प्रेरणा, उत्साह एवं सहयोग देकर शिक्षा के लिये मथुरा भिजवाने का प्रयत्न करें इस विद्यालय से निकले हुए छात्र अपनी आत्मा की तथा संसार की महत्व पूर्ण धर्म सेवा कर सकेंगे इसलिए अच्छे छात्र जुटाने का प्रयत्न करना भी परोक्ष रूप से आम्र वृक्षों का बगीचा लगाने के समान एक भारी परमार्थ है।


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