चार आर्य-सत्य

August 1956

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(ले. आचार्य चम्मानन्द कोलम्बी)

एक समय भगवान् बुद्ध कौशांबी के सिंसपा वन में विहरण करते थे।

एक दिन भगवान् ने हाथ में कुछ सिंसप-पत्तों को लेकर भिक्षुओं से पूछा, “भिक्षुओं! क्या समझते हो? जो सिंसप-पत्ते मेरे हाथ में हैं सो अधिक हैं या जो पेड़ों पर हैं सो अधिक हैं।

भिक्षुओं ने कहा, “भन्ते! आपके हाथ में थोड़े ही पत्ते हैं; इनकी अपेक्षा पेड़ों के पत्ते अधिक हैं। ”

भगवान्—“इस प्रकार, भिक्षुओं! मेरी कहीं हुई बातें थोड़ी हैं; वैसी बातें अधिक हैं, जिनको कि मैंने जानते हुए भी नहीं कहा। मैंने उनको क्यों नहीं कहा? इसलिए कि वे अर्थयुक्त नहीं और न वे आदि ब्रह्मचर्य, निर्वेद, वैराग्य, निरोध, उपशम, अभिज्ञा, तथा निर्वाण का कारण हो सकती हैं।

“तब फिर, भिक्षुओं! मैंने क्या बताया है? मैंने दुःख को बताया है; मैंने दुःख का कारण बताया है; मैंने दुःख का निरोध बताया है; मैंने दुःख-निरोध का मार्ग बताया है।

भिक्षुओं! मैंने इनको क्यों बताया है? इसलिये कि ये अर्थयुक्त हैं। ये ही आदि ब्रह्मचर्य, निर्वेद, वैराग्य, निरोध, उपशम, अभिज्ञा तथा निर्वाण का कारण हो सकते हैं।

“इसलिये, भिक्षुओं! दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निरोध और दुःख-निरोध का मार्ग—इन बातों को जान कर निर्वाण के लिये प्रयत्न करना चाहिए। ”

इस उपदेश को लेकर कुछ पण्डित यह अर्थ लगाते हैं कि भगवान बुद्ध बहुत-सी बाते जानते थे। लेकिन सभी शिष्य उनका अर्थ समझने में असमर्थ थे। इसलिये उन्होंने आम बातों के विषय में साधारण शिष्यों से कहा और गूढ़, गुप्त बातों के बारे में थोड़े से बुद्धिमान् शिष्यों को सिखाया, लेकिन यह धारणा गलत है। अन्य प्रसंग में भगवान् बुद्ध का ही कथन इस प्रकार है:—

“तीन बातें, भिक्षुओं! प्रकट-रूप से नहीं चलती। कौन सी तीन बातें?”

स्त्रियाँ, भिक्षुओं! प्रकट-रूप से नहीं चलती। ब्राह्मणों के मन्त्र, भिक्षुओं! प्रकट-रूप से नहीं चलते। मिथ्या-दृष्टि, भिक्षुओं! प्रकट-रूप से नहीं चलती। ये तीनों बातें, भिक्षुओं! प्रकट-रूप से नहीं चलती।

“भिक्षुओं! तीन, प्रकट-रूप से चमकने वाली बातें हैं। कौन-सी तीन बातें?”

“चन्द्र मण्डल, भिक्षुओं! प्रकट रूप से चमकता है। सूर्य-मण्डल भिक्षुओं! प्रकट-रूप से चमकता है। तथागत (बुद्ध) का उपदेशित धर्म-विनय, भिक्षुओं। प्रकट-रूप से चमकता है।

“ये तीनों बातें भिक्षुओं! प्रकट-रूप से चमकने वाली हैं।

इस सम्बन्ध में एक दूसरी जगह भी भगवान् ने कहा है, “आनंद! भिक्षु-संघ मुझसे क्या प्रतीक्षा करता है? आनन्द! मैंने धर्म को प्रकट-रूप से बताया है, आनन्द! तथागत के धर्म में आचार्य-मुष्टि नहीं है। ”

इसके पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि भगवान् बुद्ध ने किसी को गूढ़ उपदेश नहीं दिया था। जो उपदेश ऊपर दिया गया है उसमें भगवान् इतना ही कहते हैं, ‘मैं इस दुनिया की बहुत सी बातों को जानता हूँ; लेकिन उनकी चर्चा करना निरर्थक है। मैंने जो कुछ तत्व जान लिया है उसका समावेश चार आर्य सत्यों में होता है। इसलिये इसी बात को मैं बार बार दुहराता हूँ। ’

गृहस्थाश्रम में बोधिसत्व ने युद्ध-कला, कृषिविद्या आदि बहुत बातें अवश्य सीखी होंगी। गृह-त्याग करने के बाद श्रमणों और ब्राह्मणों के आत्मवाद, आचरण आदि बातों को बोधिसत्व ने अच्छी तरह समझ लिया था। इन वादों और आचरणों का वर्णन दीर्घ निकाय के ब्रह्मजालादि-सूत्रों में आता है। जो अनेक-विधतपश्चर्या श्रमणों में चालू थीं, उनका भी पूरा पूरा अनुभव बोधिसत्व ने किया था। यह सब करने के बाद उनको मालूम हुआ कि आत्मवाद, तपश्चर्या इत्यादि बातें फिजूल हैं। उन्होंने उन बातों में कुछ तथ्य नहीं पाया। अपने उस अनुभव को भगवान् ने इस उपदेश में कहा है। वे जानते तो थे बहुत कुछ लेकिन आर्य-सत्यों के सिवाय और सब उनको वृथा मालूम हुआ।

आजकल के जमाने में हम लोग भी इसकी पुनरावृत्ति कर सकते हैं। भगवान के जमाने से भी अधिक ज्ञान के साधन आज हमारे पास उपलब्ध हैं। अखबारों को लीजिये। इनसे सारी दुनिया भरी है। एक अमेरिका में लगभग कोई सोलह हजार पत्र पत्रिकाएं-दैनिक, साप्ताहिक, मासिक तथा त्रैमासिक निकलती है। हमारे देश में तो इतने नहीं हैं। फिर भी हम लोग काफी अखबार पढ़ सकते हैं। इसके सिवाय रेडियो तो है ही। छपाई की कला के अवगत होने के बाद छोटी, बड़ी पुस्तकें हजारों की संख्या में निकल रही हैं। लेकिन कहिये तो इन सब साधनों से दुनिया का दुःख कितना कम हो गया है!

जिस विज्ञान के ऊपर मनुष्य-जाति मुग्ध हो गई थी, उसका उपयोग आजकल किस प्रकार हो रहा है। विमान की कला के विषय में हम लोग केवल पुराणों में पढ़ते थे। आज तो कोई भी विमान में बैठकर देशाटन कर सकता है। दूर का शब्द ज्ञान योग-सिद्धि समझी जाती थी। आज कोई भी अमेरिका में दिया हुआ प्रेसिडेन्ट रुजवेल्ट का भाषण उसी समय यहाँ से सुन सकता है। लेकिन इस सब ज्ञान का उपयोग ज्यादा से ज्यादा आत्मनाश के लिए हो रहा है। जिन इमारतों और जहाजों के निर्माण में अनेक वर्ष लगते हैं, वे वैज्ञानिक साधनों द्वारा ही एक क्षण में नष्ट किये जाते हैं। आदमी इसमें बड़ा गर्व मानता है। जर्मन कहते हैं कि हम लोगों ने रूस के बड़े-बड़े शहरों को नष्ट कर दिया और उसके बहुत से जहाजों को डुबा दिया। दूसरे भी बड़े अभिमान के साथ यही बात कहते हैं। रेडियो पर जो प्रचार चल रहा है, उसमें सत्य का अंश कितना है, सब कोई जानते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वैज्ञानिक उपलब्ध साधन मनुष्य की उन्नति के बदले अवनति का कारण हो गये हैं।

ऐसा क्यों हुआ? मनुष्य ने इन सब साधनों को चार आर्य-सत्यों में लाने का प्रयत्न नहीं किया। सारी दुनिया का दुख एक है। अब तक बहुत थोड़े लोगों ने इस बात को जान पाया है।

एवं चे सत्ता जानेय्युँ, दुक्खाँय जातिसम्भवो। न पाणो पाणिन हन्ते, पाणघाती हि सोचति॥ दुःख को जानता तो एक प्राणी दूसरे की हत्या न करता।

दुःख मनुष्य जाति की तृष्णा से बढ़ता है, यह दूसरा आर्य-सत्य अब तक हमारी समझ में नहीं आया। पहले जमाने में बहुत लोग केवल आत्म हित को देखते थे। वे अपनी तृष्णा बढ़ाकर दूसरों के नाश के लिए प्रवृत्त हो जाते थे। इससे समाज में अव्यवस्था पैदा होने के कारण सारा समाज दुख पाता था। तदनन्तर मनुष्य अपनी जाति और धर्म के लिए लड़ने लगे। एक जाति के लोग दूसरी जाति पर स्वामित्व प्राप्त करने के लिए युद्ध करने लगे। इस प्रकार अपने धर्म के प्रचार के लिए मुसलमान और ईसाई लोग आपस में लड़ने लगे। आजकल व्यक्ति गत तृष्णा कुछ हद तक कानून से रुक गयी। धर्म में उतनी आसक्ति न रहने से धर्म युद्ध की सम्भावना भी नहीं है। लेकिन वह पुरानी तृष्णा अब राष्ट्रीयत्व में अत्यन्त प्रबलता से परिणित हुई है। अपने राष्ट्र के लिए किसी प्रकार का अत्याचार कर्तव्य समझा जाता है। जापानियों का दावा है कि ‘हमारी सन्ततः बढ़ रही है और उसके लिए दुनिया में जगह खोजनी पड़ती है। अतः हम लोग लोग चीन तथा दूसरे देशों पर आक्रमण कर रहे हैं’ लेकिन चीन की भी तो सन्तति बढ़ रही है। इसका विचार जापान नहीं करता। इससे युद्ध का प्रसंग उपस्थित होता है। सारी दुनिया का दुःख एक है, और इसका कारण हमारी व्यक्ति गत, जातिगत अथवा राष्ट्रगत तृष्णा है। तब तो आजकल के युद्धोद्योग से सारी दुनिया दुःख पा रही है। हमें यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए।

दुःख नाश का उपाय युद्ध तो नहीं हो सकता। इसका एक ही उपाय, सारी दुनिया में आत्मबल से शान्ति स्थापित करना है। हमारे वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ तथा लेखक लोग अपना सब प्रयत्न इस दिशा में लगा दें तो यह बात अल्प श्रम से साध्य है। विश्व-शान्ति कोई काल्पनिक बात नहीं; वह प्रयत्न साध्य है और वही तीसरा आर्य-सत्य है।

शान्ति का रास्ता बुद्ध-प्रणीत आर्य- अष्टाँगिक मार्ग ही हो सकता है; दूसरा नहीं। संक्षेप में वह इस प्रकार है:—सम्यक् दृष्टी, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वचा, सम्यक्-स्मृति तथा सम्यक्-समाधि।

चार आर्य-सत्यों का यथार्थ ज्ञान सम्पादन करना सम्यक् दृष्टि है। यदि आपका विज्ञान मनुष्य-जाति का नाश करने का साधन उत्पन्न करने वाला हो तो यह सम्यक् दृष्टि में नहीं आ सकता। विज्ञान से मनुष्य को सुख देने वाली बहुत सी चीजें पैदा की गई हैं। वैधक-शास्त्र को लीजिए। प्राचीन काल में जिन रोगों का शमन सुगमता से हो रहा है। इससे मनुष्य का दुःख घट रहा है। लेकिन इसी शास्त्र ने हैजा, प्लेग आदि भयानक रोगों के कीटाणुओं को शत्रु के देश में सुगमता से फैलाने का तरीका भी निकाला है। आजकल बम-वर्षा से जितनी हानि होती है, उससे कई गुना इन कीटाणुओं से हो सकती है और मनुष्य-जाति का दुःख अमर्यादित बढ़ सकता है। तब फिर इस तरह का वैज्ञानिक शोध सम्यक् दृष्टि में किस प्रकार आ सकता है? हर एक शास्त्रज्ञ को ख्याल रखना चाहिए कि अपना शोध मनुष्य-जाति का दुःख हटाये, न कि उसको बढ़ावे।

सम्यक् संकल्प आर्य-अष्टाँगिक मार्ग की दूसरी सीढ़ी है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य को यह संकल्प करना चाहिए कि अपनी कामतृष्णा न बढ़े, अन्य जाति या राष्ट्र के प्रति द्वेष-भाव न रहे और उपद्रव न करे।

असत्य भाषण न करना, गाली न देना, चुगली न करना और बकवाद न करना सम्यक् वाचा है। जब कोई व्यक्ति इस चार प्रकार की वाणी का उपयोग करता है तो उसका समाज में मान नहीं रहता। लेकिन जब वह इस प्रकार के वचन का अपने राष्ट्र के प्रचार-कार्य में प्रयोग करता है, तब वह बड़ा नीतिज्ञ समझा जाता है। सबको मालूम है कि हमारे राजनीतिज्ञ सच और झूठ का कैसा मिश्रण करते हैं। हमारे अखबारों द्वारा प्रति-पक्षियों को कैसी गाली दी जाती है! -इसके कहने की जरूरत ही नहीं। जो विज्ञापन अखबारों में निकलते हैं या तो वे झूँठे हैं, या उनमें अधिकाँश बकवाद ही है। आजकल के अखबारों से असत्य, गाली-चुगली और बकवाद हटा दी जाय तो उनका कलेवर संघटित और छोटा होगा। इससे लाखों मन कागज और पाठकों का बहुत सा समय बच जायेगा।

हत्या, व्यभिचार और चोरी न करना सम्यक् कर्मान्त है। ये सब दुष्कर्म लड़ाई में होते हैं। लोग युद्ध में परस्पर की हत्या, स्त्रियों पर जबरदस्ती और लूट पाट करते हैं। जब तक मनुष्य जाति युद्ध का त्याग न करेगी, तब तक वह सम्यक् कर्मान्त का आचरण नहीं कर सकेगी।

अपनी जीविका करने में दूसरे की हानि न करना सम्यक् आजीव है उदाहरणार्थ गृहस्थों के लिए पाँच प्रकार की सौदागिरी मना है, शस्त्र, प्राणी, माँस, मद्य और विष। आज-कल के जमाने में शस्त्रवाणिज्य प्रमुख राष्ट्रों का एक बड़ा रोजगार हो गया है। मद्य से तथा-कथित सभ्य देशों की सरकार बहुत फायदा उठाती है। अतः वह भी राष्ट्र का एक रोजगार हो गया है। जब तक सभ्य राष्ट्र इस प्रकार की मिथ्या जीविका से निवृत्त न होंगे, तब तक दुनिया का दुःख कैसे कम होगा?

सम्यक् व्यायाम चार प्रकार का है 1- अनुत्पन्न अकुशल विचारों का उत्पादन न करना। 2-उत्पन्न अकुशल विचारों का नाश करना। 3- अनुत्पन्न कुशल विचारों का बढ़ाना। यह तो व्यक्ति के लिए बताया गया है, किन्तु जाति अथवा राष्ट्र, व्यक्तियों के समूह से बना है। अतः राष्ट्रों के हित के लिये भी सम्यक् व्यायाम की अत्यन्त आवश्यकता है। जिन छोटे-बड़े राष्ट्रों को युद्ध-प्रियता की नौबत अब तक नहीं आई, उनको चाहिए कि इससे अलिप्त रहने का प्रयत्न करें। जिनमें अपने और दूसरे की उन्नति के विचार न उठे हों, उन्हें उत्पन्न करना चाहिए। सार्वजनिक शिक्षा द्वारा किसी एक राष्ट्र में अभिमान और आक्रमण के विचारों का प्रचार होने लगेगा, तब पड़ोसी राष्ट्रों के सज्जनों का कर्तव्य है कि वहाँ जाकर अपने उन भाइयों को उन आहिकारी विचारों से निवृत्त कर दें। उनको इस प्रकार समझना चाहिए, देखो भाइयों! आप लोग युद्धोद्योग को बढ़ा कर दूसरे देशों पर आक्रमण करना चाहते हैं। क्या हुआ, रोमन साम्राज्य कहाँ से कहाँ चला गया, स्पेन की क्या दशा हुई और फ्रांस पर क्या बीत रही है। इसलिए इस उद्योग से हट जाइए। इस प्रकार की शिक्षा से सारी दुनिया में सम्यक् व्यायाम का प्रचार किया जाय तो मानव जाति का कल्याण होगा, मानवजाति दुःख से मुक्त होगी।

स्मृति का अर्थ है चित्त की जागृति। इस जागृति के बिना कोई मनुष्य न तो अकुशल को हटा सकता है और नहीं कुशल को बढ़ा सकता है। आजकल युद्ध प्रिय राष्ट्रों में शत्रु के प्रहार से बचने और शत्रु पर आक्रमण करने के लिए बड़ी सावधानी हो रही है। यह सम्यक् स्मृति नहीं है। अपने और परराष्ट्र का समान कल्याण करने के लिए तैयार रहना ही सम्यक् स्मृति होगी।

बुद्धघोषाचार्य ने कुशल चित्त की एकाग्रता को समाधि कहा है। इसका तात्पर्य है अपने मन को अकुशल विचारों से हटा कर स्थिर रखना। सिनेमा देखने और निशाना मारने में भी तो एक प्रकार की समाधि लगती है। लेकिन वह सम्यक् समाधि नहीं कही जाती। मनुष्योपयोगी साधनों के शोध करने में जो समाधि लगती है, वही सम्यक्-समाधि है। अमेरिका जैसे देशों के अधिकाँश लोग स्थिरचित्तता से बहुत दूर हैं। सुबह से लेकर शाम तक वे कार्य-व्यस्त रहते हैं। वे चित्त शान्ति का विचार बिल्कुल नहीं करते। प्रोफेसर लानमन कहा करते थे “हमारे देश वाले एक घंटे में अस्सी मील की चाल चलने वाली रेलगाड़ी को पकड़ना चाहते हैं (उस समय हवाई जहाज नहीं थे) । लेकिन बहुत कम लोग यह सोचते हैं कि गन्तव्य स्थान पर पहुँच कर क्या करना है” इस प्रकार की भ्राँचित्तता से व्यक्ति तथा समाज का हित नहीं हो सकता। अतः सम्यक्-समाधि का अभ्यास सार्वजनिक होना चाहिए।

उपर्युक्त कथन से पाठक समझेंगे कि चार आर्य-सत्यों का जो छोटा सा तत्वज्ञान बताया गया है, वह दुनिया के लिए कितना उपयुक्त है। इसलिए भगवान् कहते हैं, “भिक्षुओं! मैंने चार आर्य-सत्यों को क्यों बताया? इसलिए कि वे अर्थयुक्त हैं और वैराग्य, निरोध, उपशम, अभिज्ञा तथा निर्वाण का कारण हो सकते हैं। ”


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