हमारे बन्धन ढीले कीजिये

August 1956

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्रीमती सरला देवी उपाध्याय)

संसार का आधा भाग नारी में और आधा नर में बँटा हुआ है। इन दोनों आधे-आधे भागों का जोड़ ही एक पूर्ण इकाई बनाता है। शरीर में जिस प्रकार दो हाथ, दो पैर, दो नेत्र, दो कान है उसी प्रकार सृष्टि पुरुष के भी दो अंग नर और नारी है। उन दोनों भागों से समान स्वस्थ, और पुष्ट विकास होने से एक ही सृष्टि की एक स्वस्थ इकाई बनती है।

सृष्टि के आरम्भ काल में अन्य सभी जीव-जन्तुओं की भाँति मनुष्य प्राणी के अंतर्गत भी नर और नारी के दोनों भाग आनन्द पूर्वक प्रकृति माता के आँगन में स्वच्छंद किलोल करते थे। एक दूसरे के सान्निध्य में सुख अनुभव करते थे, एक दूसरे के लिए सेवा और सहयोग की तत्परता प्रकट करते थे। किसी का किसी पर कोई बन्धन न था। स्वेच्छा स्नेह एवं कर्त्तव्य धर्म के बन्धनों को छोड़ कर और जितने प्रकार के बन्धन है वे जीवात्मा की मूल प्रकृति के विरुद्ध है इसलिए विवशता में वह सबसे अधिक दुख अनुभव करता है।

जेलखाने में किसी व्यक्ति को घर की अपेक्षा कम काम करना पड़े, भोजन भी अच्छा मिले, चिकित्सा सुरक्षा, वस्त्र मकान आदि की भी वह बन्दी बनना पसन्द न करेगा। शुक आदि पक्षी और सिंह आदि पशु जब पिंजड़े में बन्द हो तो दुख मानते हैं और वहाँ कितनी ही सुख सामग्री होने पर भी उन बन्धनों को दुख मानते हैं। धर्म का तत्व जानने वाले व्यक्ति भव बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए घोर तप साधन करते हैं क्योंकि मुक्ति के बिना—स्वाधीनता के सुख नहीं, चैन नहीं, आनन्द नहीं। जीवन मुक्त होकर आत्माएं संसार की अधिक सेवा करती है, बन्धन काल में तो उनका अन्तःकरण रोया करता है। राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए संसार के विविध भागों में समय-समय पर बहुत त्याग और बलिदान होता रहा है। पराधीनता में सुरक्षा और स्वाधीनता में अरक्षा का खतरा होते हुए भी समाज ने सर्वदा स्वतंत्रता का अनुमोदन किया है क्योंकि पराधीनता वस्तुतः एक अनात्म तत्व है, जिसे कभी कोई प्राणी स्वेच्छा पूर्वक सहन करने को तैयार नहीं होता। मुक्ति की आकाँक्षा आत्मा की शाश्वत आकाँक्षा है, इसे प्राप्त किये बिना बंधन ग्रस्त जीव बाह्य दृष्टि से सुविधा में रहते हुए भी आन्तरिक दृष्टि से खिन्न ही रहता है।

इस महान् तथ्य से भली प्रकार परिचित होने के कारण हमारे पूर्वजों ने समाज की रचना इस प्रकार की कि कोई किसी को पराधीन न बना सके स्नेह और कर्तव्य के बन्धन इतने मजबूत हैं कि मनुष्य एक दूसरे के साथ अपनी सहज प्रकृति के साथ सहज ही बंध जाता है और परस्पर एक दूसरे के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार हो जाता है। माता अपने बालक के लिए बड़े से बड़ा त्याग कर सकती है। अपनी जान को भी जोखिम में डाल सकती है पर नौकरानी से वैसी आशा कितना ही लोभ और भय दिखाने पर भी नहीं की जा सकती।

नर और नारी के सहयोग से सृष्टि के आरम्भ काल में परिवार बने और समाज की रचना की व्यवस्था करने वालों ने यह पूरा ध्यान रखा कि यह दोनों ही सहयोगी एक दूसरे के लिए अधिक से अधिक सहायक हों, एक दूसरे को पराधीन बनाने का अनैतिक प्रयत्न न करे। उसी दृष्टिकोण के अनुसार जन समाज की रचना हुई। नर नारी लाखों-करोड़ों वर्षों तक एक दूसरे के सहायक, मित्र और स्वेच्छा सहयोगी बनकर जीवन व्यतीत करते रहे, इससे स्वस्थ समाज का विकास हुआ। उन्नति, प्रगति, प्रसन्नता और सुख शान्ति के उपहार ही इस व्यवस्था ने दिया।

विश्व के विशेषतया भारत के, प्राचीन इतिहास पर दृष्टि पात करने से यह स्पष्ट प्रकट है कि नारी के नर के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया है और जीवन की अनेक समस्याओं को सरल करने में, ज्ञान और विज्ञान की महत्वपूर्ण प्रगति में भारी योग किया है। एक ने दूसरे को अपनी अपेक्षा अधिक सम्माननीय समझा और घनिष्ठता के आत्मीय बन्धनों को दिन-दिन मजबूत बनाते हुए हर लौकिक दृष्टि से एक दूसरे पर कोई पराधीनता लादने का प्रयत्न नहीं किया। स्वस्थ विकास और सच्चे प्रेम भाव का तरीका भी इसके अतिरिक्त और कोई न था। भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर नर और नारी, निश्छल शिशुओं की तरह किलकारियाँ मारते हुए परस्पर खेलते कूदते दीखते हैं। विश्व का अधिक विकास इन्हीं मंगलमयी भावनाओं के साथ हुआ है।

देवगण, ऋषि और राजाओं से लेकर साधारण गृहस्थ और दीन-हीनों के जीवन में नर और नारी की एकता और समता ऐसी गुथी पड़ी है कि यह निर्णय करना कठिन पड़ता है कि दोनों पक्षों में से किसे प्रथम माना जाय और किसे गौण कहा जाय। देव वर्ग में लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती आदि को जो स्थान है उसे किसी पुरुष देवता से किसी भी प्रकार कम नहीं कहा जा सकता। देवताओं के साथ भी कम नहीं कहा जा सकता। देवताओं के साथ भी नारी असाधारण रूप से गुथी हुई है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि किसी भी देवता को ले उनकी धर्म पत्नियाँ उनके समकक्ष ही कार्य और उत्तरदायित्व सँभालती दीखती है। सीता, और राधा को राम, कृष्ण के जीवन में से अलग नहीं किया जा सकता। अनुसूया, अरुन्धती गार्गी मैत्रेयी, शतरूपा, अहिल्या मदालसा आदि ऋषिकाओं का महत्व भी उनके पतियों जैसा ही है। गान्धारी, सावित्री, शैव्या, आदि असंख्यों महिलाएं योग्यता और महानता की दृष्टि से अपने पतियों से किसी भी प्रकार पीछे नहीं थीं। वैदिक काल में ऋषियों की भाँति अनेक ऋषिकाओं में उनका समुचित स्थान रहा है। यज्ञ में तो नारी की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है।

नर और नारी समान रूप से अपना विकास करते हुए आगे बढ़ी है। और संसार को आगे बढ़ाया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि नर ने कदापि कहीं भी यह प्रयत्न नहीं किया है कि नारी को अपने से पिछड़ी हुई, दुर्बल, अविश्वस्त माने और उसके साधनों को शोषण करके, उसे अपंग बनाकर अपनी मनमर्जी पर चलने के लिए विवशता एवं पराधीनता को लादें। यदि ऐसी बात रही होती तो इतिहास के पृष्ठ दूसरी ही तरह लिखे गये होते—जगद्गुरु कहलाने, विश्व का नेतृत्व करने और विश्व में सर्वत्र आशा और प्रकाश की किरणें फैलाने में जो श्रेय भारत को प्राप्त हुआ था वह कदापि न हुआ होता।

आज भारतवर्ष में स्त्री जाति का सामाजिक स्थान बहुत पिछड़ा हुआ है। उसके व्यक्तित्व को इतना अविकसित बना दिया गया है कि वह सब प्रकार परमुखापेक्षी और लुञ्ज पुञ्ज हो गई है। रसोई और प्रजनन इन दो कार्यों को छोड़कर किसी क्षेत्र में उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। शहरों में अब कन्याओं को लोग थोड़ा सा इसलिये पढ़ाने लगे हैं कि पढ़े लिखे लड़कों के साथ उसकी शादी करने में सुविधा हो। विवाह होते ही वह शिक्षा समाप्त हो जाती है और फिर जीवन भर और आगे की पढ़ाई तो दूर जो कुछ पढ़ा था उसका उपयोग करने का भी अवसर नहीं आता। आर्थिक दृष्टि से नारी सर्वथा परावलम्बी है। जब कोई वैधव्य आदि की दुर्घटना घटित हो जाती है और कोई उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति नहीं होती तो बालकों का पालना कठिन हो जाता है। यदि सन्तान न हुई तो भी उस बेचारी को घर भर का कोप भाजन बनना पड़ता है कई बार तो उसी अपराध में पतिदेव दूसरा विवाह कर लेते है और उसे विधवा जैसा दुख सधवा होते हुए भी सहना पड़ता है। इसी प्रकार घर के पिंजड़े में, बन्द बाह्य क्षेत्रों से सर्वथा अपरिचित होने के कारण उसे इतना भी ज्ञान नहीं होता कि जीवन धारण करने की आवश्यक समस्याओं को सुलझाने में भी समर्थ हो सके। जीवन को सफल या समुन्नत बनाने वाली कोई पुरुषार्थ कर सकना तो उसके लिये असंभव ही है।

यह विपन्न अवस्था आज की नारी के लिए एक दुर्भाग्य ही है कि वह व्यक्ति गत और सामूहिक जीवन के विकास में अपनी शक्ति, सामर्थ्य और प्रतिभा का कोई उपयोग नहीं कर सकती, आपत्ति आने पर अपना और अपने बच्चों के सम्मान पूर्ण जीवन रक्षा भी नहीं कर सकती। एक और भारी लाँछन उस पर यह है कि वह चरित्र की दृष्टि से सर्वथा अविश्वस्त समझी जाती है। उसके ऊपर कम से कम एक पहरेदार हर समय रहना चाहिये। अपनी पुत्रियों, बहिनों और माताओं के प्रति ऐसी अविश्वास की भावना रखना, पुरुषों की अपनी नैतिक दुर्बलता का चिह्न है, ’चोर की दाढ़ी में तिनका’ वाली कहावत के अनुसार वे अपनी चरित्र हीनता का आरोपण नारी में देखते हैं जो कि वस्तुतः पुरुष की अपेक्षा स्वभावतः अनेक गुनी चरित्रवान होती है।

नारी पर नाना प्रकार के बन्धन लगाकर उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थ उपार्जन, सामाजिक ज्ञान, लोक सेवा आदि की योग्यताओं से वंचित रखना, एक ऐसी बुराई है जिससे आधे राष्ट्र को लकवा मार जाने जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। अविकसित पराधीन और अयोग्य नारी का भार पुरुष को वहन करना पड़ता है फलस्वरूप उसकी अपनी उन्नति भी रुद्ध हो जाती है। यदि नारी को सभ्य बनने दिया जाय तो वह पुरुष के ऊपर भार न रहकर उसके स्वास्थ्य, अर्थ व्यवस्था, शिशु विकास से लेकर अनेक अन्य कार्यों में भी सहायक होकर उन्नति के अनेक द्वार खोल सकती है। पर्दे में—पिंजड़े में बन्द रखकर पुरुष यह सोचता है कि इस प्रकार उसे व्यभिचार से रोका जा सकेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि नारी इतनी पतित है कि बन्धन के बिना वह सदाचारिणी रह ही नहीं सकती। यह मान्यता भारतीय नारी का भारी अपमान है और इन आदर्शों एवं भावनाओं के सर्वथा प्रतिकूल है जो अनादिकाल से भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति समाहित की गई है।

अनेक नारियाँ ऐसी है जिनके पास पर्याप्त समय है, पर उन्हें अवसर नहीं दिया जाता जिसमें वे अपने जीवन को बन्दी से अधिक कुछ बना सकें। विधवाएं और परित्यक्त ऐं घर वालों के लिये एक भार रहती हैं पर वे उन्हें शिक्षा, उद्योग, लोक सेवा आदि किसी भी क्षेत्र में बढ़ने देने के लिये बन्धन ढीले नहीं करते। यदि इन्हें अवसर दिया जाय तो अपने समय का सदुपयोग करके अपने व्यक्ति गत जीवन में भारी उत्कर्ष करके नारी रत्नों की श्रेणी में पहुँच सकती है और अपनी योग्यता से संसार को वैसा ही लाभ पहुँचा सकती है जैसा अनेक नर रत्न, महापुरुष पहुँचाते हैं।

भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान की पुनीत बेला में महिलाओं की न्याय पुकार भी सुनी जानी चाहिये। नारी चाहती है कि उसके बन्धन ढीले किये जायं, उसे बिना पहरेदारों के भी सदाचारिणी रह सकने जितना विश्वासी माना जाय, उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय ताकि वह मनुष्यता की जिम्मेदारी को समझ सके, उसे जानकारी प्राप्त करने दी जाय ताकि वह पुरुष की परेशानी को सरल करने और उन्नति की प्रगति में सहायक हो सके, उसे योग्य बनने दिया जाय ताकि वह अपने परिवार की आर्थिक सुस्थिरता में हाथ बँटा सके। बदलते हुए युग में नारी अपने को एक जीवित लाश मात्र की स्थिति में रखे जाने से असंतुष्ट है वह भी आगे बढ़कर राष्ट्र निर्माण और समाज में कुछ योग देना चाहती है। भारतीय संस्कृति में इन सहज आकाँक्षाओं के प्रति समुचित सहानुभूति एवं प्रेरणा का तत्व मौजूद है। वर्तमान के अनेक संस्कारों में से ही एक बुराई नारी की अनावश्यक पराधीनता है। अपने पुत्रों, भाइयों, पतियों और पिताओं से आज की नारी-युग की पुकार के साथ अपनी फरियाद उपस्थित करती है कि उसके बन्धन ढीले किये जायं, उसे किसी योग्य बनने दिया जाय। रसोई और प्रजनन इन दो कार्यों के अलावा भी उसे कुछ और करने दिया जाय।

कोटि-कोटि नारी हृदयों की यह एक फरियाद आज अन्तरिक्ष में गूँज रही है। असंख्य आंखें यह देखने के लिये और असंख्य कान यह सुनने के लिए उत्कंठित हो रहे हैं कि उनकी न्याय पुकार, फरियाद किन्हीं के द्वारा सुनी गई या नहीं?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: