इस दीनता को त्यागिए

August 1956

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( दौलतराम कटरहा, दमोह )

शास्त्रकारों और साहित्य कारों ने ‘दीन’ शब्द का प्रयोग दो भिन्न-दृष्टि कोणों से किया है। एक दृष्टि कोणों से किया है। एक दृष्टि से दीन बने बिना भक्ति सुलभ नहीं है और मुक्ति सम्भव नहीं है और दूसरी दृष्टि से दीनता भक्ति —विरोधी है और जीव को गिराने वाली है। एक ओर महात्माओं ने भगवान को ‘गरीब-निवाज’ और ‘दीन-दयालु’ कहा है तो दूसरी ओर ‘दीन न होना’ भक्ति का लक्षण बताया है; यथा रामचन्द्र जी ने शबरी के प्रति जिस नवधा—भक्ति का वर्णन किया है उसमें दीन न होना नवमी प्रकार की भक्ति है।

नवम सरल सब सन छल हीना, मम भरोस हिय हरष न दीना।

वेदों में भी जो प्रार्थना है उसमें “अदीनाः स्याम् शरदःशतम्” अर्थात् हम सौ वर्ष तक अदीनाः रहते हुए जीवन धारण करें आदि वाक्य आये हैं। वाल्मीकि रामायण में भी रामचन्द्र जी के लिए “अदीनः सत्यवागृजुः आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। अर्जुन के लिए भी कहा गया है कि उनका व्रत था कि न तो दैन्य प्रदर्शित करेंगे और नहीं युद्ध क्षेत्र से भागेंगे। “अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वेन देन्यं न पलायनम्”। कहने का प्रयोजन यह कि दीनता एक अर्थ में वरणीय है और दूसरे अर्थ में त्याज्य है। संसार का अवलम्ब छोड़ कर ईश्वर का अवलम्ब ग्रहण करने के अर्थ में दीनता वरणीय है और कठिन समय में भी शास्त्र, कुल, धर्म तथा आत्म-सम्मान के विरुद्ध कार्य करने के अर्थ में दीनता त्याज्य है। धन, विद्या गुण, आयु, बल

की दृष्टि से दूसरों को अपने से श्रेष्ठ पाकर और उनसे आक्रान्त होकर अपने को छोटा मानना, अपने को हीन-वीर्य मानना, अपने को दीन मानना, बुरा है और इस अर्थ में दीनता त्याज्य हैं। भौतिक समृद्धियों के कारण अपने को अल्प मानना बुरा है। प्रयोजन यह है कि यदि हम लौकिक पदार्थों को मनुष्य के माप का पैमाना मानकर उससे दूसरों और अपने को नापें और कदाचित् अपने को छोटा पावें अथवा कदाचित् लौकिक पदार्थों के कारण दूसरों से पराजित हो जावें तो हमें अपने आपको हीन न मानना चाहिए। हमें साँसारिक पदार्थों को मनुष्य को नापने का माप-दण्ड न बनाना चाहिए बल्कि अपनी दृष्टि को ऊँचा उठाना चाहिए। यहाँ पर लक्ष्य को ऊंचा रखने की ओर संकेत है। हम यदि धन को अपने जीवन का लक्ष्य बनायेंगे तो धन-हीनता के कारण निश्चय ही अपने आपको दीन व दुःखी समझेंगे, धन-हीनता के कारण दीन न होने का अर्थ है, धन को जीवन का लक्ष्य न बनाना। उसी तरह विद्या, गुण, शारीरिक बल आदि के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। कहने का प्रयोजन यह है कि हम इन्हें अपने जीवन का लक्ष्य न बनावें प्रत्युत हमारी दृष्टि और भी अधिक ऊंची हो पार-गामी हो, इनको भेद जावे, और इनको भेद कर आत्मा की निर्विकल्प स्थिति की ओर ही हमारा लक्ष्य हो।

धन विद्या, गुन, आयु, बल यह न बड़प्पन देत। नारायण सोई बड़ा, जाको हरि सों हेत॥

दीनता त्यागने का अर्थ है आत्म-हीनता (इन-फीरियाँरिटी काम्प्लेक्स) का विसर्जन करना और अपने पुरुषार्थ को जाग्रत करना। वही व्यक्ति कभी दीन न होगा, न अपने को दीन-हीन समझेगा, जो यह मानेगा कि मैं शुद्ध आत्म-चैतन्य हूँ। जो आत्मौपम्य दृष्टि रखेगा, जो सम बुद्धि होगा। अतएव दीन न होने का लक्ष्यार्थ है आत्म-भावस्थ होना, साम्यबुद्धि योग प्राप्त करना और ब्रह्म-निष्ठ होना। अपने आपको निर्मल, नित्य, स्वप्रकाश, निश्चल निर्द्वन्द्व, निरंजन, परिपूर्ण और सच्चिदानन्द स्वरूप जाने बिना दीन न होना सम्भव नहीं, अतएव हमें, ब्रह्म में ही रमी हुई बुद्धि वाला, ब्रह्म में ही प्रवेशित आत्मा वाला, ब्रह्म को ही परम आधार, परम स्थिति, परम गति, परम निवास, परम शरण मानने वाला, ब्रह्मपरायण बनना है। ऐसों के लिये ही भगवान् कृष्ण ‘गच्छन्त्यपुनरावृति ज्ञान—निर्धूत कल्षाः, कहते हैं अर्थात् ऐसे ही निष्पाप, ज्ञान—पूत पुरुष आवागमन-हीन स्थिति को प्राप्त करते हैं। विद्या-परायण, धन-परायण, गुण-परायण और बल-परायण न होकर हमें आत्म-परायण, कृष्ण-परायण या ब्रह्म-परायण बनना है। दीन न होने का वाच्यार्थ यदि यह नहीं है तो लक्ष्यार्थ अवश्य ही यही है। अतएव भगवान् के वचनों को हम सदा हृदय में रख दीन न होने का ब्रत लें।

मर्त्कमकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाँडव॥

गीता 11। 55

जब तक हम यह न समझेंगे कि जैसा मैं हूँ वैसा दूसरा भी है अर्थात् जब तक हम में आत्मौपम्य दृष्टि न होगी, हमारी बुद्धि में समता न आएगी तब तक हमारी बुद्धि की दीनता न जायगी, हमारे हृदय का दीन-भाव दूर न होगा। जब तक साँसारिक वस्तुओं द्वारा लुभाये हुए चित्त वाले हम लोग, लोभ से उपरत नहीं होयेंगे, लाभ रूपी चश्मे को आँखों पर से नहीं हटायेंगे तब तक हम दर-दर दीन बने डोलते ही रहेंगे। हमारे लिए दूसरे के द्वारे दीनता प्रकट करना उचित नहीं अतएव अपने अन्तिम लक्ष्य (आत्मा की निष्पाप अन्तिम अवस्था) पर ही दृष्टि जमाये रहने पर ही दीनता दूर होना सम्भव है। अन्तिम लक्ष्य पर दृष्टि रखने का अर्थ है, (परमात्मा-परायण या आत्म-परायण होना। एतदर्थ भगवान कृष्ण ने भी कहा है कि तू सर्वात्मा मेरी शरण में आ मुझमें ही अचल मन व बुद्धि वाला बन, मुझे ही भजने वाला व मुझे ही पूजने वाला बन;

मन्मना भव मद्भक्तो, मद्याजी माँ नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥

गीता 9। 34


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