साँस्कृतिक निष्ठा की आवश्यकता

November 1955

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आचार ओर विचार का आपस में अत्यन्त ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। जो व्यक्ति जिस परिस्थिति में, वातावरण में कार्यक्रम में, अपना अधिक समय बिताता है उसके विचार और मनोभाव उसी ढाँचे में ढल जाते हैं। संस्कृतियों का यही रहस्य है। जिस संस्कृति के भाषा, वेष, भाव, रहन-सहन, रीति-रिवाज आचार व्यवहार को हम अपनाते हैं, विचार धारा भी निश्चित रूप में उसी प्रकार की बनती जाती है। अंग्रेजियत की नींव बहुत गहरी पहुँचा दी जायं इस आकाँक्षा से प्रेरित अंग्रेजों ने सब से अधिक जोर इस बात पर दिया कि अंग्रेजों की संस्कृति को भारतीय अपना लें। उन्होंने सरकारी नौकरियों में स्कूलों में इस बात का पूरा-पूरा प्रयत्न किया कि लोगों का रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार भाषा भेष, अंग्रेजों जैसा ही बने। वे इस दिशा में डेढ़ दो-सौ वर्षों में जितने सफल हुए, उतनी ही उनकी नींव गहरी हो गई। आज अंग्रेजी हुकूमत भले ही चली गई हो, पर उनकी संस्कृति दिन दूनी रात चौगुनी फल फूल रही है। राजनैतिक दृष्टि से हम स्वतन्त्र हो गये पर साँस्कृतिक दृष्टि से गुलामी के बन्धनों में हम तेजी से बँधते जा रहे हैं। अमेरिका जितना खर्च कर रहा है। कारण यह है कि समान संस्कृति के लोग आपस में मानसिक दृष्टि से अधिक संबद्ध हो जाते हैं चाहें वे राजनैतिक या भौगोलिक दृष्टि से दूर ही क्यों न हों।

मुसलमानी हुकूमत के जमाने में भी यही सब होता रहा। लोगों को नृशंस यातनाएं और भारी प्रलोभन भरी सुविधाएं केवल इसी दृष्टि से दी जाती रही कि वे भय या लोभ से प्रेरित होकर मुसलमानी संस्कृति अपनालें। उनका विचार ठीक ही था वस्तुतः ऐसा ही सिद्ध भी हुआ । जिन लोगों ने हिन्दू धर्म छोड़ा और इस्लाम स्वीकार किया, उन्होंने भारतीय भी छोड़ दी और मध्य पूर्व को-मक्का मदीना को अपना उद्गम केन्द्र मान लिया। भारतीय मुसलमानों द्वारा परिस्थान प्राप्त करने के लिए क्या क्या किया गया? और अब वे अपने लाखों वर्षों के रक्त सम्बन्धी हिन्दुओं के प्रति कैसे मनोभव रखते हैं और मुसलमानी राष्ट्र जिनसे उनके रक्त का कोई सम्बन्ध नहीं-किस प्रकार का सम्बन्ध रख रहे हैं इस तथ्य को हर कोई आँखों वाला देख समझा सकता है।

कुछ ही दिन पूर्व दिल्ली में एक पादरी ने ईसाई धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म में प्रवेश किया था। वह सज्जन जन्मतः भारतीय हैं, पर बहुत लम्बे समय से ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने इस धर्म परिवर्तन का कारण बताते हुए एक बड़े ही महत्व की बात कही, जो हम सब को बहुत गम्भीरता से समझ लेने की है-उन्होंने कहा-“मैंने अपने लम्बे अनुभव काल में यह भली प्रकार देख लिया कि ईसाई होने के बाद मनुष्य की मनोभावना किसी अन्य देश के साथ जुड़ जाती है और वह उसी रंग में रंग जाता है।” वस्तुतः किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीयता उसकी प्राचीन संस्कृति के साथ जुड़ी रहती है। लगभग एक हजार वर्षों के विदेशी आक्रमणों के बाद भी भारत-भारत ही बना रहा इसका कारण यहाँ के लोगों की गहरी साँस्कृतिक निष्ठा ही थी। इतिहास साक्षी है कि जिन देशों की अपनी कोई दूसरी संगठित संस्कृतियों से प्रभावित होकर उसी धर्म में दीक्षित हो गये। मुसलमान और ईसाई धर्मों का जन्म हुए डेढ़ दो हजार वर्ष भी नहीं हुए हैं कि इन दो धर्मों में संसार की तीन चौथाई जनता दीक्षित हो गई। राजनैतिक और आर्थिक सहयोग में भी यह साँस्कृतिक एकता कितना भारी काम करती है। इसे विश्व को वर्तमान गति-विधियों से परिचित व्यक्ति भली प्रकार जानते हैं। राजनैतिक उपनिवेश बाद अस्थायी वस्तु है, उसे जागृत-जनता उखाड़ फेंकती हैं, पर साँस्कृतिक-साम्राज्य ऐसा जहर होता है कि उसके बन्धनों में लोग जान बूझ-कर, हँसते-हँसते बँधते हैं, उस बन्धन में कुछ अच्छाई अनुभव करते हैं ओर उससे छूटने की अपेक्षा, अपने प्रभाव के और लोगों को भी उसमें शामिल करने का प्रयत्न करते हैं। साँस्कृतिक साम्राज्य की यही विशेषता है। यह साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद अनोखे ढंग का है। राजनैतिक साम्राज्य से इसका महत्व असंख्य गुना अधिक है। ईसाई देश पहले बाइबिल लेकर किसी देश में घुसते हैं पीछे बन्दूकें भी वहाँ पहुँच जाती है। कम्युनिस्टों का बौद्धिक साम्राज्य भी पहले विचारों के पुस्तकों के रूप में ही प्रवेश करता है पीछे वह एक राजनैतिक शक्ति बन जाता है।

भारतीय संस्कृति की रक्षा इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि हमारी जातीयता ओर राष्ट्रीयता इतनी सबल बनी रहे कि हम दूसरे बौद्धिक साम्राज्य में जकड़े जाकर अपने आपको पाकिस्तान आदि के लोगों की भाँति किन्हीं अन्य जातियों या राष्ट्रों के प्रति आत्म समर्पण न करदें। प्राचीन काल में भारतीयों का विश्व पर जो चक्रवर्ती राज्य था वह साँस्कृतिक साम्राज्य ही था। सुदूर देशों में हमारी संस्कृति के चिन्ह जहाँ-तहाँ अय भी उपलब्ध हो सकते हैं। जावा, सुमात्रा, चीन, जापान आदि के पुरातत्व विभागों की साक्षी यह बताती है कि यहाँ किसी समय भारतीयता की पूर्ण प्रतिष्ठा रही है। अन्य धर्म वाले आत राजनैतिक और आर्थिक स्वार्थों से प्रेरित होकर अपनी संस्कृतियों का विश्व भर में भारी प्रचार करने का प्रयत्न कर रहे हैं, पर हमारे पूर्वजों का ऐसा कोई स्वार्थ न था। वे मनुष्यों को सच्चा मनुष्य बनाने-उसे अनेक दोष दुर्गुणों से उत्पन्न होने वाले नारकीय जीवन से बचाकर, सच्चे शास्त्र का पथ-प्रदर्शन करने की पुनीत भावना से प्रेरित हो कर ही अपनी देवी संस्कृति का प्रचार करते थे। उन के पुनीत उद्देश्यों से परिचित विश्व उन्हें जगद्गुरु मानता था।

आज हमारी संस्कृति का भारी ह्रास हो रहा है। विदेशों में जो इस संस्कृति की मान्यता रखने वाले थे, उनकी संख्या दिन-दिन घटती जा रही है। अपने घर में भी उसका भारी तिरस्कार है आज का नवयुवक भारतीय आचार विचार, भाषा-भेष, रहन-सहन, रीति-रिवाज नापसन्द करता है, उसे अंग्रेजी ढंग पसन्द है। वह उन्हें दिन दिन अधिक प्रसन्नता पूर्वक अपनाता जाता है। भारतीय संस्कृति का परिवर्तन अंग्रेजी संस्कृति के रूप में तेजी से होता चला जा रहा है। यदि यह गतिविधि इसी क्रम से चलती रही तो कुछ ही शताब्दी में हमारा मानसिक और सामाजिक ढाँचा दूसरी ही प्रकार का बन जावेगा। साथ ही दैवी संस्कृति का वह दीपक जो संसार को शान्तिमय प्रकाश की ओर ले जा सकने में समर्थ है, भी अस्त हो जायगा। फिर हमारी करोड़ों वर्ष की चली आ रही महान परंपराएं किसी रूप में जीवित भी रहेंगी या नहीं, इसे कौन कह सकता है? आज भी पढ़े-लिखें लोगों में से चोटी जनेऊ गायब होता चला जा रहा है, धोती कुर्ते की दुर्गति है, पूजा अर्चना ढोंग मात्र समझे जाने लगे हैं, रीति रिवाजों में, कानूनों में पाश्चात्य पद्धति का तेजी से समावेश हो रहा है। कुछ ही दिन में इसका क्या रूप बन जायगा, यह कल्पना आज कष्ट कर प्रतीत होती है।

जिनके मन में भारतीयता के प्रति आदर है, वे निश्चय ही यह पसन्द नहीं करेंगे कि भारतीय संस्कृति इस प्रकार आत्मघात करती हुई विश्व के पर्दे पर से अपना अस्तित्व समेटने में लग जाये। हम में से ही विचारशील व्यक्ति यह अनुभव करेगा कि भारत को राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक और नैतिक दृष्टि से एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाने के लिए भारतीय संस्कृति की जड़े मजबूत की जानी चाहिये। यह तो एक छोटी बात रही सच्ची बात यह है कि विश्व में देवी सम्पत्ति की, मानवता की, सत्य प्रेम और न्याय की रक्षा के लिए इस दिव्य संस्कृति को जीवित रखना ही नहीं वरन् सुविकसित करना भी आवश्यक है।

हमारी यह-विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति इस दुर्दशा को क्यों पहुँची? इसके कारणों पर विचार करते हुए हमें दो हो कारण दृष्टि गोचर होते हैं-

(1) भारतीय संस्कृति की रूप रेखा वर्तमान समय में विकृत हो रही है। जिस रूप में आज वह तर्क बुद्धि और उपयोगिता की दृष्टि से अनुपयोगी प्रतीत होता है। इस लिए लोग उसे रूढ़िवाद, अन्ध विश्वास, ढोंग अविवेक पूर्ण समय से पीछे की चीज साम्प्रदायिकता आदि उपेक्षित वस्तु मान लेते हैं।

(2) भारतीय संस्कृति का जो मूलभूत दार्शज रूप है। जिसके आधार पर समय समय पर अनेक रीति रिवाजों का परिवर्तन परिवर्तन होता रहता-उन आधार मूल तथ्यों की जानकारी लोगों को नहीं रही। फल स्वरूप लोग यह समझने में समर्थ नहीं रहे कि यह मनुष्य जाति के लिए कितनी कल्याणमयी महान् उपयोगिता है।

भारतीय तत्व ज्ञान की वास्तविक आधार शिला का मूल रूप यदि साधारण जनता की समझ में आ जाय तो निश्चय ही हर बुद्धिमान आदमी यह अनुभव कर सकता कि यह तत्व ज्ञान-आधुनिक सभी तत्व ज्ञानों से ऊँचा है। कम्युनिज्म आदि जो दर्शन अपने आपको वर्तमान समय के लिए सर्वोपयोगी एवं व्यवहारिक सिद्ध करते हैं, उनसे भारतीय तत्वज्ञान किसी भी प्रकार पीछे नहीं हैं, हमारी प्राचीन विचार धाराएं और परंपराएं यदि ठीक रूप से समझा जायं तो वे मनुष्य की समस्त समस्याओं को सुलझाने में अधिक आधुनिक और अधिक व्यवहारिक रूप से समर्थ हो सकते हैं। हमारा दर्शन, पूर्ण रूप से मनोविज्ञान, पदार्थ विज्ञान, तर्क, प्रमाण, अनुभव आदि के ठोस आधारों पर आधारित है। इसी प्रकार रीति रिवाजों, त्यौहारों, व्रत, उत्सवों, संस्कार, भाषा-भेष, भाव, आचार, व्यवहार आदि का महत्व समझ में आ जाये और समय के कुप्रभाव से आ विकृतियों का संशोधन तथा समय की प्रगति की पूर्ति के लिए आवश्यक परिवर्तन कर दिया जाय तो हमारी साँस्कृतिक महानता और उपयोगिता हर किसी की समझ में आ सकती है। तब उसकी उपेक्षा, अवहेलना और निन्दा करना उचित प्रतीत न होगा।

संस्कृति पुनरुत्थान के लिए हमें सबसे बड़ा और सबसे आरम्भिक कार्य यह करना है कि उसके विशुद्ध रूप की-जो आज तमसाच्छन्न हो रहा है-लोगों के सन्मुख परिष्कृत रूप में उपस्थित करें और यह बतावें कि इस महानता को अपनाना हमारे लिए सभी दृष्टियों से कितना अधिक लाभ दायक हो सकता है। संस्कृति सेवा का-पुनरुत्थान का सर्व प्रथम कार्य यही हो सकता है कि हम जनता के सामने सर्व साधारण के सामने अपना दर्शन शास्त्र, तत्व ज्ञान तथा आचार विचार का व्यवहारिक रूप उपस्थित करें, जिससे उसकी उपेक्षा करने वालों को पुनः विचार करने का और थोड़ी आस्था रखने वालों को प्रोत्साहन का अवसर मिले। आइये हम लोग बड़े पैमाने पर सुसंगठित रूप से इस निर्माण कार्य में संलग्न हों।


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