साँस्कृतिक शिक्षा की एक महान योजना

November 1955

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भारतीय-संस्कृति को घर-घर तक पहुँचाने, उसे सुरक्षित रखने और बढ़ाने का कार्य करने के लिये जो लोग अपना और अपने परिवार का पूरा समय देते हैं उन्हें पापा,पंडित, पुरोहित आदि नामों से पुकारा जाता है प्राचीन काल में ये लोग अपनी योग्यता, सेवाबुद्धि, तपस्या बनाने के लिए साधना करते थे और अपना सेवा-क्षेत्र अमुक परिवारों या क्षेत्रों तक सीमित करके पूरी तत्परता के साथ वहाँ कार्य करते रहते थे।महात्मा गाँधी प्रत्येक ग्राम में एक ‘ग्राम सेवक’ द्वारा रचनात्मक कार्य किये जाने पर जोर देते थे, वह योजना साँस्कृतिक आधार पर प्राचीन काल में हमारे दूरदर्शी पूर्वजों द्वारा बहुत ही मजबूती से स्थापित की गई थी। एक पंडित या पुरोहित के जिम्मे अमुक ग्राम या परिवारों के निवासी यजमान किये गये और उन्हें काम सौंपा गया कि उन परिवार के व्यक्तियोँ को सुसंस्कृत बनाने के लिए पूरी तत्परता के साथ संलग्न रहे। व्रत, पर्व, त्यौहार, संस्कार आदि विशेष समयों पर विशेष रूप में और सामान्य समयों पर सामान्य रूप से उन परिवारों से बालकों, पुरुषों और स्त्रियों को उनकी स्थिति के अनुसार मनोबल, शिक्षण, उपदेश एवं वैदिक सहयोग देकर ऊँचा उठाने के लिए विविध आयोजन करते रहते थे। इन आयोजनों को ही कर्म-काण्ड कहा जाता था।

अपने इन परम हितैषी पुरोहितों की आजीविका के लिये ये यजमान भी समय समय एक पर श्रद्धा पूर्वक दान, दक्षिणा, भेंट-पूजा, अन्न, वस्त्र, जौ आदि देकर अपना कर्तव्य पालन करते थे। इस प्रकार यजमान को अपने परम हितैषी परम आवश्यक उपकारी पुरोहित महोदय के प्रति कृतज्ञता एवं प्रत्युपकार स्वरूप दान दक्षिणा देने का पुण्य मिलता था, उधर उन पुरोहित महोदय को आजीविका की उलझने से छुटकारा पाकर पूरा और पूरा समय लगा अपना कर्तव्य पालन करने में सुविधा होती थी। इस प्रकार प्राचीन काल में यजमान और पुरोहित की एक बड़ी ही उपयोगी परम्परा स्थापित की गई थी। गाँधी जी के योगी परम्परा स्थापित की गई थी। गाँधी जी के ‘ग्राम सेवक’ शब्द का ही पर्यायवाची शब्द ‘पुरोहित’ है। पुर माने ग्राम, हित माने हित करने वाले अर्थात् ग्राम का हित करने वाला। जबतक पुरोहित और यजमान की पद्धित अपने स्वस्थ रूप में रहीं तब तक घर घर में भारतीय संस्कृति की स्थापना, सुरक्षा और अभिवृद्धि बहुत ही व्यवस्थित रूप से होती रही।

समय के फेर के साथ-साथ इस यजमानी और पुरोहिती की परम पवित्र शृंखला में विकार आये। पुरोहितों ने अपने स्वार्थ और भोग के लिए लालच में ग्रसित होकर मोटी दक्षिणा मारने के उपाय सोचे और ऐसे कार्यक्रम गढ़े जिनमें यजमान स्वर्ग आदि की बड़ी-बड़ी लालसाएं क्षण मात्र में पूरी कराने के भ्रम-जाल में फंस कर पुरोहितों को प्रचुर धन दे। और वे पुरोहित उस धन से ऐसा आराम का जीवन व्यतीत करें। यह व्यापार खूब पनपा, संत, महंत, पुरोहित बड़ी-बड़ी सम्पत्तियों के स्वामी बन गये। मठ, गद्दी, जागीरें बना करके राजाओं जैसा ऐश्वर्य उपभोग करने लग। भारत का प्रधान मंत्री होते हुए भी चाणक्य और चक्रवर्ती राजा के राज गुरु होते हुए भी वशिष्ठ का व्यक्तिगत जीवन कितना त्यागपूर्ण था, वह परम्परा सर्वथा भुला दी गई। यजमान प्रसन्न हुआ कि आत्मोन्नति के कठिन परिश्रम को त्यागकर कुछ कर्मकाण्ड कर देने और पंडित जी को दक्षिणा देने मात्र से पाप धुलते और स्वर्ग प्राप्ति का लाभ लूट लिया। पुरोहित प्रसन्न हुए कि यजमान को उल्लू बना कर खूब माल उड़ाया। दोनों की चालाकी अन्ततः हमारे संस्कृति पतन का हेतु बनी। आज यजमानी और पुरोहिती की परम्परा, आश्रय, उपेक्षा रूढ़ि, कीचड़ में सनी पड़ी है। वह अन्धविश्वास और धर्मभीरुता पोषण लेकर किसी प्रकार जी ही रही है। अब तक मरने के उसके असाध्य लक्षण स्पष्ट दीख रह है। यजमान इन नामधारी पुरोहितों से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहता है, पुरोहित इस पेशे में मनचाही आमदनी न रहने से कोई दूसरा व्यापार ढूंढ़ने में लगे हैं।

वस्तुतः यह पौरोहित्य की परम्परा अपने मूल रूप से निरर्थक नहीं हैं, वरन् अतीव आवश्यक है देश व्यापी संस्कृति संगठन करने, और घर घर में भारतीय तत्व ज्ञान की अखण्ड ज्योति का प्रकाश पहुँचाने के लिए पुरोहित लोग सर्वश्रेष्ठ माध्यम का कार्य कर सकते हैं। कोई नई संस्था खड़ी करने और बड़ी संख्या में नये कार्यकर्ता नियुक्त करके उनके निर्वाह का प्रश्न हल करना साधारण कार्य नहीं है। पर पुरोहितों को तो यजमानों से उनका आवश्यक वेतन दक्षिणा के रूप में अनायास ही मिलता रहता है। दूसरे-साँस्कृतिक कार्यक्रमों की पूर्ति, उनका पैतृक कार्यक्रम भी है। जिस प्रकार नये मन्दिर बनाकर उनके खर्च के लिए नई जायदादें लगाना कठिन है पर पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार करके उनमें लगी हुई सम्पत्तियों की सुव्यवस्था करना सुविधा जनक है उसी प्रकार देश व्यापी साँस्कृतिक संगठन करने के लिए नई संस्था बनाना, नये कार्यकर्ता लाखों की संख्या में नियुक्त करना कठिन है पर पुराने पुरोहितों को यदि उनके स्वाभाविक कार्यक्रम में लगाया जा सके तो भारतवर्ष के घर घर में भारतीय तत्व ज्ञान का प्रकाश थोड़े ही समय में जगमगाता हुआ दृष्टि गोचर हो सकता है। पुरोहितों को अपनी स्वार्थ परता के निमित्त हर घड़ी दक्षिण के लिए ही यजमान के पीछे ललचाते फिरना छोड़ना होगा और यजमान को अमुक पूजा मात्र से पापनाश और स्वर्ग लाभ का अज्ञान छोड़कर पुरोहितों को इस योग्य बनाने की प्रेरणा देनी होगी कि उनके परिवार के लिए उपयोगी धर्म शिक्षक का वे कार्य कर सकें दोनों ही ओर से लालच छोड़कर कर्त्तव्य पर आरुढ़ हो जाने मात्र की तैयारी में यह यजमान और पुरोहित की पुनीत परम्परा पुनः जागृत हो सकती है और हमारे पिछड़े हुए देश की कुछ ही दिनों में सब प्रकार सुदृढ़ कर सकती है।

इस पुण्य परम्परा को प्राचीन काल के स्तर पर पुनर्जीवित करने के लिए गायत्री तपोभूमि में एक व्यापक कार्य क्रम आरम्भ किया जा रहा है। जिसको अनुसार प्रत्येक यजमान से कहा जायेगा कि वह अपने पुरोहितों को आदर पूर्वक प्रेरणा करे कि- “यजमानों ने उनकी आजीविका की व्यवस्था दान दक्षिणा के रूप में कर रखी है अब उनका कर्त्तव्य है कि अपना सारा समय, अपना आत्मबल, तप, ज्ञान, अनुभव बढ़ाकर यजमानों के उत्कर्ष के लिए लगा देने के अपने पुनीत धर्म का पालन करें।”

इस कार्य क्रम के अनुसार प्रत्येक पण्डित पुरोहित से कहा जायगा कि-“दक्षिणा के रूप में लिया हुआ प्रतिग्रह तक हलाहल विष की तरह आत्मा का गला देने वाला बन जाता है जब उसे लेकर पुरोहित अपने यजमान के कल्याण के लिए कुछ न करें। यजमानों का मानसिक उत्कर्ष करना, उनके परिवार में साँस्कृतिक जीवन की स्थापना करना उनकी जिम्मेदारी है, इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए उन्हें दक्षिणा रूपी फीस मिलती है। दवा के दाम और फीस वसूल करके भी कोई डाक्टर अपने मरीज की चिकित्सा न करें और रोगी उपचार के अभाव में मर जाय तो डाक्टर अपराधी होता है। इसी प्रकार जो पुरोहित केवल प्रतिग्रह-दान दक्षिणा लेते हैं और यजमान के मानसिक उत्कर्ष के लिए समुचित श्रम नहीं करते, अपने आपको उस महान जिम्मेदारी के योग्य नहीं बनाते वे वस्तुतः घोर नरक गाम होते हैं। शास्त्रों में ऐसे पुरोहितों की अत्यंत कटु शब्दों में भर्त्सना की गई है। सो उन्हें वैसा ही निंदनीय न बन कर सच्चे अर्थों में पुरोहित बनना चाहिए और अपने कर्तव्यों को सजग प्रहरी की तरह-दक्षिणा के बदले में ही नहीं-ईश्वर के सौंपे हुए उत्तर दायित्व को पूर्ण करने की दृष्टि से भी लोकहित के लिये मृत प्राय भारतीय संस्कृति को घर-घर में पुनःजीवित करने के लिए कमर कस कर खड़ा हो जाना चाहिए।

यदि यजमान और पुरोहित दोनों के कर्तव्य की युग धर्म की इस पुकार को सुना तो निश्चय ही कुछ ही दिनों में लगभग आठ लाख कार्य कर्ताओं की एक विशाल साँस्कृतिक सेना खड़ी हो सकती, और उस सेना द्वारा अज्ञान, अन्धिकार, रूढ़िवाद, कुसंस्कार, निकृष्ट जीवन आदि के शत्रुओं को आसानी से परास्त किया जा सकता है। आसुरी संस्कृति की विजय पताका फहराने में यह सेना बड़ी सफलता पूर्वक समर्थ हो सकती है। पुरोहित परम्परा की जीर्णोद्धार होकर उसकी सुव्यवस्था बन जाना निश्चय ही राष्ट्र के लिये एक महान् वरदान सिद्ध हो सकता है।

प्रत्येक यजमान और प्रत्येक पुरोहित तक-कानों को खड़े कर देने वाले समुल दोष के साथ, इस गुहार को पहुँचाने का हम प्रयत्न कर रहे हैं। साथ ही साथ गायत्री तपोभूमि में पुरोहितों को उनके कार्यों की समुचित शिक्षा देने की व्यवस्था भी आरम्भ करे रहे है। इस शिक्षा में निम्न कार्यक्रम रखा गया है:-

1-पुरोहित के परम-पवित्र कर्तव्य और उनका पालन करने में शास्त्रों के आदेश।

2- पुरोहित का व्यक्तिगत जीवन किन विशेषताओं से परिपूर्ण हो !

3-पुरोहित के लिए आवश्यक कर्तव्य शिक्षा-जिसे उसको प्राप्त करना ही चाहियें।

4- संस्कृत भाषा की नवीन पद्धति से इतनी शिक्षा जिसके अनुसार संस्कृत भाषा में संभाषण किया जा सके और आवश्यक व्याकरण तथा साहित्य का बोध, प्राप्त करके संस्कृत को समझा जा सके ।

5- संध्या, हवन, वलिद्वैश्व आदि के नित्य कर्म की शिक्षा।

6-सस्वर वेद पाठ करने की पद्धति संबन्धी आवश्यक जानकारी तथा मन्त्र संहिता का एक बड़ा भाग कंठस्थ करना।

7- दैनिक हवन, दार्श पौर्णमास इष्टि, विष्णु यज्ञ, रुद्र यज्ञ, गायत्री यज्ञ आदि विभिन्न प्रकार के छोटे बड़े यज्ञों का शास्त्रीय शिक्षा।

8- नामकरण, मुँडन यज्ञोपवीत, वेदारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह अन्त्येष्टि आदि षोडस संस्कारों का शास्त्रीय ज्ञान तक उन अवसरों पर देने योग्य प्रवचनों की तैयारी।

9- घकृत्व कला, भाषण देने, कथा कहने आदि की रीति-नीति।

10- कर्तव्य शास्त्र, धर्म शास्त्र, जन शिक्षण के योग्य समुचित ज्ञान-जिससे प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्तव्यों की शिक्षा एवं प्रेरणा दी जा सके।

11- रामायण, गीता, भागवत, वेद, उपनिषद्, पुराणों के मार्मिक उपाख्यानों की कथाएं जो जन जागरण युग निर्माण एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान में भारी सहायक हो सकती हैं ।

12- आरोग्य ज्ञान-माधवनिदान, शांर्गधर संहिता आदि के आधार पर रोग निदान, नाडी परीक्षा चिकित्सा, औषधि निर्माण, परिचर्या, आहारविज्ञान, आसन व्यायाम, लाठी चलाना आदि।

13- संगीत,कथा कीर्तन,भजन आदि के लिए आवश्यक ताल स्वर तथा गायन वाद्य की शिक्षा । जिसके आधार पर रामायण आदि की कथा बाजे पर कही जा सके।

14- पंचांग एवं ग्रह नक्षत्रों सम्बन्धी ज्योतिष शास्त्र की आवश्यक जानकारी ।

15-लोक व्यवहार, शिष्टाचार, संसार की वर्तमान समस्याएं, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान आदि का आवश्यक ज्ञान।

16-हिन्दू धर्म के अनेक व्रत, पर्व, रिवाज, दर्शन, तत्वज्ञान, समाज रचना आदि आधारों की बुद्धि संगत विज्ञान संगत, विवेचन। उनके मनाने के, आधारों, लाभों तथा विज्ञानों का समुचित परिचय

इन आधारों को लेकर ऐसी शिक्षा पद्धति बनाई गई है जिसे प्राप्त करना प्रत्येक पुरोहित के लिए आवश्यक है। शिक्षा क्रम एक वर्ग का है। 16 वर्ष से कम आयु के छात्र न लिये जायेंगे। शिक्षा की कोई फीस नहीं। रहने की तपोभूमि में समुचित व्यवस्था है। साधारणतः यह आशा की जाती है कि छात्र अपना भोजन भार जो लगभग 15 मासिक पड़ेगा, स्वयं उठायें। पर जो इससे असमर्थ हों उनके भोजन आदि की व्यवस्था भी कर दी जायेगी। अभी ऐसा केन्द्रीय विद्यालय मथुरा में ही खोला गया है। पीछे देश भर में ऐसे ही विद्यालय स्थापित किये जावेंगे।

जिनका पेशा पंडिताई पुरोहिताई का है उनके लिए उनके बालकों के लिए तो यह शिक्षा अत्यन्त ही आवश्यक है । इसके अतिरिक्त जिन्हें आजीविका की दृष्टि में नहीं-निस्वार्थ समाज सेवा की, अपना धार्मिक ज्ञान बढ़ाने की दृष्टि से एवं अपने परिवारों में साँस्कृतिक वातावरण पैदा करने की इच्छा है उन सब के लिए भी यह शिक्षा अत्यन्त उपयोगी है। जो भी व्यक्ति भारत में सांस्कृतिक वातावरण पैदा करने में अभिरुचि रखते हैं उनके लिए यह शिक्षा क्रम निश्चित रूप में उपयोगी होगा। 16 वर्ष से अधिक आयु के स्वस्थ, सदाचारी, कठोर अनुशासन में रहने की प्रतिज्ञा करने वाले, सद्गुणी व्यक्ति इस शिक्षा को प्राप्त कर सकते हैं इसका प्रारम्भ इसी दिवाली बाद एकादशी से आरम्भ हो जायेगा। विशेष जानकारी के लिए “साँस्कृतिक शिक्षा की नियमावली” मँगा लेनी चाहिए।

इस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए जो छात्र आवेंगे उनके स्वास्थ्य को सुधारने, दुर्गुणों को छुड़ाने व्यक्तिगत सद्गुणों को बढ़ाने तथा स्वभावों का उत्तम बनाने के लिए विशेष रूप से प्रयत्न किया जायगा। चूँकि पुरोहित का सम्बन्ध जन समाज से रहता है, जिसमें जन समाज से व्यवहार करने योग्य गुण न हों उनके लिए दूसरों को प्रभावित करना कठिन होता है इसलिए मधुर भाषण, शिष्टाचार, दूसरों की स्थिति और भावना को समझ कर तद्नुसार व्यवहार करना आदि की व्यवहारिक शिक्षा पर विशेष ध्यान रखा जावेगा। पौरोहित्य एक प्रकार का धार्मिक नेतृत्व है, धार्मिक वेत्ता में जो गुण होने चाहिए उन सबका पुरोहित में होना भी आवश्यक है। इन गुणों के बिना पुरोहित अधूरा है। उसका संभाषण, आचरण, व्यवहार, क्रिया कलाप नपा तुला होना चाहिए। सच्चे पुरोहित में यह बातें होना आवश्यक है, इसलिए शिक्षा में अन्यान्य बातों के साथ साथ इस दिशा में भी पूरा ध्यान रखा जावेगा। आशा की जाती है कि एक वर्ष की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त यहाँ से निकले हुए छात्र साँस्कृतिक सेवा के लिए कुछ महत्वपूर्ण सेवा कर सकेंगे।

“अखण्ड ज्योति” के पाठकों से प्रार्थना है कि अपने क्षेत्र के पुरोहितों को इस शिक्षा में आने के लिए प्रेरणा दें। जो इन शिक्षाओं को प्राप्त कर लौटें उनके सहयोग से संस्कृति विकास को आगे बढ़ावें। जिनके पास अवकाश है ऐसे रिटायर लोग, वानप्रस्थी, साधु संन्यासी, पारिवारिक समस्याओं से जिन्हें छुटकारा मिल चुका है, जो कुछ धर्म सेवा, प्रचार आदि कार्य करना चाहते हैं, उन्हें इस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए उत्साह पैदा करें। अब समय आया है कि भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए हम में से प्रत्येक को कुछ न कुछ करना चाहिये। अखण्ड ज्योति और गायत्री परिवार के सदस्यों को हम इनके लिए विशेष रूप से आमन्त्रित करते हैं। यह विद्यालय एक शुभ आरम्भ है इसके लिए कूड़ा करकट नहीं सुयोग्य छात्र जुटाने में सक्रिय सहयोग देना, हम सब का एक आवश्यक कर्तव्य है।


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