हम अपनी उसी संस्कृत को वापिस लावें

November 1955

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जब भारतीय संस्कृति का लोग महत्व समझते थे, उस पर विश्वास करते थे, उसको आचरण में लाते हुए अपना गौरव समझते थे, तब इस देश में घर-घर महापुरुष उत्पन्न होते थे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख-शान्ति की कभी न थी। इस संस्कृति के ढाँचे में ढले हुए नररत्न अपने प्रकाश से समस्त संसार में प्रकाश उत्पन्न करते थे और उसी आकर्षण के कारण विश्व की जनता उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं भूसुर-पृथ्वी के देवता मानती थी। वह देश, स्वर्ग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता था। अतीत का इतिहास, इस तथ्य का मुक्त कंठ से उद्घोष कर रहा है।

भारतीय संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित प्रत्येक परिवार में स्वर्गीय शान्ति एवं सद्भावनाओं का निवास रहता था। पिता और पुत्र के बीच कैसे सम्बन्ध थे, इसका उदाहरण देखना हो तो विमाता की आज्ञा से 14 वर्ष के लिए वनवास जाने वाले राम, अन्धे माता पिता को कन्धे पर काँवर में बिठा की तीर्थ यात्रा कराने वाले श्रवण कुमार, पिता के दान करने पर यमपुर खुशी-खुशी प्रस्थान करने वाले नचिकेता, पिता को सँतुष्ट करने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेने वाले भीष्म का, चरित्र पढ़ लेना चाहिए। भाई का भाई के प्रति क्या कर्त्तव्य है, इसकी झाँकी राम, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पढ़ लेने से सहज ही हो जाती है। कौरवों को जब यक्षों ने बन्दी बना लिया तो युधिष्ठिर ने भ्रातृ प्रेम के वशीभूत होकर उन्हें छुड़वाया। पुष्कर के दुर्व्यवहार को भुला कर नल ने अपने भाई को क्षमा ही कर दिया। ऐसे भ्रातृ प्रेम के उदाहरण पग-पग पर मिलेंगे। सच्चे मित्र कैसे होते हैं, यह कृष्ण ने सुदामा और अर्जुन के साथ अपना कर्त्तव्य पालन करके दिखाया था।

पति-पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए, इसके उदाहरण पत्नीव्रती पुरुष और पतिव्रता नारियों के पग पग पर उपस्थित किए हैं। सीता, सावित्री, शैव्या, दमयन्ती, गान्धारी, अनसूया, सुकन्या आदि की कथाएँ घर-घर गाई जाती हैं। पर स्त्री को माता एवं पुत्री समझने वाले भी सभी कोई थे। शिवाजी द्वारा, यवन कन्या को सुरक्षित रूप से सम्मानपूर्वक राजमहल में पहुंचा देना, अर्जुन का उर्वशी को लौटा देना, कच का रूप गर्विता देवयानी का प्रस्ताव अस्वीकार करना, सूर्पणखा का लक्ष्मण द्वारा उपहास करना जैसे प्रसँगों की कमी नहीं है। भीष्म, हनुमान, जैसे अखण्ड ब्रह्मचारी प्रचुर संख्या में परिलक्षित होते थे।

अतिथि-सत्कार के लिए मोरध्वज का अपना पुत्र दे देना, भूखे बहेलिये के लिये कबूतर कबूतरी का अपना शरीर दे देना, दुर्भिक्ष पीड़ित समय में अनेक दिनों से भूखे ब्राह्मण परिवार का अपनी थाली की रोटियाँ चाण्डाल को दे देना आदि अनेकों वृत्तान्त महाभारत में देखे जा सकते हैं। शरणागत कबूतर की रक्षा के लिये राजा शिवि ने अपना माँस काठ-काट कर दे दिया था। कुन्ती ने ब्राह्मण कुमार के बदले अपने पुत्र भीम को राक्षस का आहार बनने के लिये भेजा था।

अपने स्वार्थ, सुख-साधन, धन सम्पदा सँग्रह ऐश आराम को लात मार कर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोक सेवा और परमार्थ का जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की सफलता मानते रहे हैं। गौतम बुद्ध अपने राजपाट और सुख सौभाग्य को छोड़ कर हिंसा और अज्ञान में डूबे हुए सँसार को दया और आत्मज्ञान की शिक्षा देने के लिए निकल पड़े। महावीर ने लालची और विषयासक्ति दुनिया को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाने के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया। भागीरथ ने राज सुख को छोड़ की दीर्घकाल तक कठोर तप किया और प्यासी पृथ्वी को तृप्त करने के लिए तरण तारिणी गंगा का अवतरण कराने का महान कार्य सम्पादन किया। नारदजी कुछ घड़ी भी एक स्थान पर न ठहर कर आत्म ज्ञान का प्रसार करने के लिए हर घड़ी पर्यटन करते रहते थे, व्यास जी ने संसार को धर्म-ज्ञान देने के लिए अष्टादश पुराणों की रचना की। आदि कवि बाल्मीकि ने रामायण की रचना करके मानव जाति को कर्त्तव्य-पथ पर चलने के लिए अग्रसर किया। चरक, सुश्रुत, बाग भट्ट, धन्वन्तरि, प्रभृत, ऋषियों ने जीवन भर जड़ी बूटियों, धातुओं, विषों आदि का अन्वेषण करके रोग ग्रस्त पीड़ितों का त्राण करने के लिये सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र का आविर्भाव किया। ज्योतिष विद्या की महान खोज, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों की गति-विधियों और उनकी मनुष्य जाति पर जो प्रभाव पड़ता है, उसकी खोज करने वाले वे ऋषि ही थे। सूर्य सिद्धान्त, मकरन्द, ग्रहलाघव आदि को देखने से आश्चर्य होता है कि उस समय बिना वैज्ञानिक यन्त्रों के इस प्रकार की शोध करके संसार को महान ज्ञान देने के लिए उन्हें कितना श्रम करना पड़ा होगा।

सदा अपने को तप से तृप्त अपनी महान सेवाएं विश्व मानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अन्तरात्मा उनके चरणों पर लोट जाने को करती है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पराशर, याज्ञवल्क्य, शंख, कात्यायन, गोभिल, पिप्पलाद, शुकदेव, शृंगी, लोमश, धौम्य, जयकारु, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल तिल जलाकर संसार के लिये वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शौनक निरन्तर प्राचीर काल के महापुरुषों की गाथाएँ, विरुदावलियाँ धर्मचर्चाएँ सुना सुना कर मानव जति की सुप्त अन्तरात्माओं को जगाया करते वे। दधीचि ने असुरत्व से देवत्व की रक्षा के लिए अपनी हड्डियाँ ही दान कर दीं। धर्म की मर्यादा की रक्षा के लिये वन्दा वैरागी खौलते तेल के कढ़ाह में प्रसन्नतापूर्वक कूद पड़ा। हकीकतराय के कत्ल, गुरु -बालकों के जीवित दीवारों में चुने जाने की कथाएँ आज भी धर्म कर्त्तव्य की उपेक्षा करके धन संग्रह और इंद्रिय भोगों में लगे हुए लोगों पर नालत देती हुई आकाश में विहार कर रही हैं।

आज अधिकाँश पण्डित, पुरोहित, साधू, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुए मुफ्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य प्रमाद से चित्त हटाकर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करते, पर भारतीय संस्कृति की परम्परा इसके सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व का आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानन्द, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ, आदि असंख्यों धर्मगुरु लोक हित के लिये जीवन भर घोर परिश्रम-प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोक सेवा का एकान्त मुक्ति से अधिक महत्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन-लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा-“आप तो अब मुक्ति के लिये प्रयाण कर रहे हैं।” बुद्ध ने उत्तर दिया-“जब तक संसार में एक भी प्राणी बन्धन में बँधा हुआ है तब तक मुझे मुक्ति कर कोई कामना नहीं है। मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिए बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।” स्वामी दयानन्द सरस्वती भी योग-साधना करने हिमालय में गये थे, पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि लोक सेवा ही सर्वोत्तम योग-साधना है।” स्वामी जी तपस्या से लौट आये और अज्ञान-प्रस्त जनता में ज्ञान-प्रसार करने को ही अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया। शंकराचार्य और दयानन्द अपने इस महान त्याग के उपलक्ष में विष-पान करके स्वर्ग सिधारे। गाँधी जी ने जीवन भर ऐसा ही तप करके महात्मा शब्द को सार्थक किया। लोकमान्य तिलक और महामना मालवीय जैसे व्यक्तियों का चरित्र ही ‘पण्डित’ शब्द का वास्तविक प्रमाण है। गुरु कैसे होते हैं यह कामना हो, तो गुरु गोविन्द सिंह आदि सिक्खों के दश गुरुओं का चरित्र पढ़ना चाहिये। शिष्य भी तब ऐसे ही होते थे। एकलव्य अरुणि, उद्दालक, धोम्य, नचिकेता आदि शिष्यों के चरित्र पढ़ने से अपनी संस्कृति पर सहज ही गर्व होने लगता है।

भारतीय संस्कृति में पले हुए राजा कैसे होते थे, इसका उदाहरण राजा जनक के जीवन से मिल सकता है। वे अपने गुजारे के लिये स्वयं खेती करते थे और राजकोष से एक पाई भी अपने लिये न लेकर उसे जनता के निमित्त ही खर्च करते थे। जनक को अपना खेत जोतते समय हल की नोक की उचाट से एक कन्या मिली थी हल की नोंक को संस्कृति में सीता कहते हैं, इसलिए जनक ने अपने खेत में मिली हुई इस कन्या का नाम भी सीता रखा था। महर्षि विश्वामित्र को जब किसी यज्ञीय (लोक हितकारी) कार्य के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा हरिश्चंद्र ने समस्त राज्य कोष ही दान नहीं कर दिया वरन् अपने तथा अपने स्त्री-बच्चों के शरीर को बेच कर भी उसकी पूर्ति की और एक सच्चे राजा का आदर्श उपस्थित किया। छत्रपति शिवाजी का विशाल राज्य था उसे उन्होंने समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दिया था और स्वयं गुरु की आज्ञानुसार एक मुनीम की तरह इसका संचालन करते थे। भरत भी राम की चरण पादुकाओं को शासक मानकर स्वयं एक तुच्छ सेवक की भाँति 14 वर्ष राज्य चलाते रहे। धौलपुर की राजगद्दी के मलिक नृसिंह भगवान और मेवाड़ की राजगद्दी के मालिक भगवान एकलिंग जी माने जाते थे। राजा लोग अपने को उनका संचालक कहते थे। पीछे यद्यपि यह बात दिखावा मात्र रह गई, पर आरम्भ में यह त्याग भी उसी शृंखला का एक प्रतीक अवश्य के लिए वेष बदले प्रजाजनों के बीच घूमता रहता था। राणा प्रताप राज सुख की परवाह न करके जीवन भी स्वाधीनता संग्राम में धर्मयुद्ध लड़ते रहें। महान् राजपुत्र दुर्गादास राठौर को लड़ाई में रोटी भी नसीब नहीं हो पाती थी तो वह घोड़े पर चढ़ा हुआ भाले की नोंक में छेद कर भुट्टे भून खाता था और स्वाधीनता संग्राम लड़ता रहता था। छत्रसाल की गाथा सर्व विदित है। ऐसे होते थे यहाँ के शासक राज्यों के मंत्री प्रधान मन्त्री कैसे होते थे, उसका नमना चाणक्य का जीवन है। यह विश्व का अभूत पूर्व कूटनीतिज्ञ एक फूँस की झोंपड़ी में गरीब लोगों की भाँति रहता था और राज्य कोष से अपने व्यय के लिये कुछ भी नहीं लेता था।

धन सम्पत्ति जिनके पास होती थी वे उसे साम पीढ़ियों के लिये तिजोरी में बन्द नहीं करते थे वरन् तात्कालिक लोक हित के लिये उसे मुक्त हस्त से दान करते रहते थे। राजा कर्ण की दान वीरता प्रसिद्ध है। कहते हैं कि वे सवामन स्वर्ण रोज दान करते थे। कृष्ण ने जब उनकी दान वीरता की परीक्षा कराई है, जो उसने अपनी जान जोखिम में डालकर कवच कुण्डल दिये हैं। मरते समय भी दाँत तोड़कर उसमें लगा हुए स्वर्ण दान करके याचकों को विमुख नहीं लौटने दिया है। मोरध्वज ने अपने पुत्र को दिया है राजा बलि ने तीनों लोक का राज्य ही नहीं अपना शरीर भी उस समय लोक सेवा के प्रतीक समझे जाने वाले ब्राह्मण-वामन को दान दिया है। जरूरतमंदों के लिए लोग अपनी परोसी थाली तक दान कर देते थे। भामा शाह ने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति तिनके की तरह राणा प्रताप को दे डाली। राजा महेन्द्र प्रताप अपना राजपाट राष्ट्रीय शिक्षा के लिये अर्पित करके भारतीय स्वाधीनता के लिये विदेश भागे थे। परशुराम ने 21 बार पृथ्वी का राज्य प्राप्त करके उसे दान किया था। सुभाष बोस को वर्मा में भारतीयों ने अपना सर्वस्व स्वाधीनता संग्राम चलाने के लिए दिया था। उससे पूर्व श्री0 बोस भारत की अपनी लाखों रुपये की सम्पत्ति को राष्ट्र के लिए सौंप कर, उसको सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित कर गये थे। सी0 आर॰ दास अपनी बैरिस्ट्ररी में हजारों रुपया महीना कमाते थे, वह सारा का सारा, कई बार कर्ज लेकर भी सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। जमुनालाल बजाज ने अपने को गाँधी जी का पाँचवाँ दत्तक पुत्र घोषित करके अपनी सारी सम्पत्ति महात्मा गाँधी के चरण में अर्पित करदी थी ।

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविंद राणाडे, गणेश शंकर विद्यार्थी, अद्धानन्द, सर्वदानन्द, दर्शनानन्द, लेखराम, हैडगेवार आदि का जीवन जिस प्रकार से व्यतीत हुआ है उसमें भारतीय संस्कृति की झांकी देखी जा सकती है। भूषण, गंग और चन्दवरदाई आदि ने चारणों में अपनी ओजस्वी वाणी और कविता से अनेकों निष्प्राणों को प्राणवान बनाया। गंग इसी अपराध में हाथी के पैर के नीचे कुचलवाये गये, चन्दबरदाई ने गजनी में जो कष्ट सहा, वह किसी से छिपा नहीं है। सन् 57 लेकर स्वाधीनता के हिंसात्मक संग्राम के क्रान्तिकारी वीर सैनिक और सन् 21 से लेकर सन् 47 तक की अहिंसात्मक राज्य क्रान्ति में अगणित व्यक्तियों ने जो त्याग किये हैं उनकी गाथाएँ पढ़ते सुनते हुए भुजायें फड़कने लगती हैं। पाकिस्तानी बर्बरता के सामने सिर न झुका कर अपने धर्म को अक्षुण्य रखने के लिये पंजाब और बंगाल के लाखों स्त्री- पुरुषों ने जो त्याग किये हैं उनका स्मरण करके चित्तौड़ की रानियों के जौहर और गुरु गोविंद सिंह के कुछ पुत्रों की स्मृति-ताजी हों जाती है।

आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के लिये घोर तप करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं हैं। ध्रुव, प्रहलाद, सरीखे भक्त प्राचीन काल में हुए हैं और मध्यकाल में सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, रैदास, कबीर, दादू, रामानन्द, रामानुज, षटकोपाचार्य, तिरुवल्लुवर जैसे संतों की संख्या बहुत बड़ी हैं। अनीति के निवारण के लिये त्रेता में ऋषियों ने अपना खून निकाल निकाल कर एक घड़ा भरा था और वह रक्त घट अन्त में राक्षसों के विध्वंस करने के निमित्त सीता-जन्म का हेतु बना था। इसी मार्ग पर यह आस्तिक सन्त अपनी साधना, भक्ति ,ज्ञान, दीक्षा आदि के द्वारा अनीति निवारण और धर्म विस्तार का कार्य करते रहे हैं।

विश्व मानव की सेवा के लिए भारतीय स्त्रियाँ भी पुरुषों से पीछे नहीं रही हैं। उनका कार्य-क्षेत्र पुरुषों के समान विस्तृत क्षेत्र में न रह कर सीमित क्षेत्र में रहा है इसलिए उन्हें यश उतना ही नहीं मिला हैं। केवल कुछ पतिव्रता स्त्रियों के कौतूहल पूर्ण चरित्रों का ही ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन आया है पर सच बात यह है कि भारतीय नारी ने प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से अधिक कार्य किया है । उन्हीं की प्रेरणा और छत्रछाया से समर्थ होकर पुरुष जाति कुछ कर सकने में सफल हो सकी । इसीलिये उनका नाम पुरुषों से पहले लिया जाता रहा है। सीताराम, राधेश्याम , गौरीशंकर , लक्ष्मी नारायण, उमामहेश, मायाब्रह्मा, सावित्री सत्यवान् आदि कामों में पहला नाम नारी का और दूसरा नर का है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं रहा है जिनमें भारतीय नारी ने महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन न की हों । वेदों के दृष्टा जिस प्रकार विश्वामित्र आदि ऋषि हुए हैं वैसी ही ऋषिकाएँ - स्त्रियाँ भी हुई हैं । ऋग्वेद 10। 85। 10। 134। 10-36।10-40। 8-91। 10-95। 5-88। 8-91 आदि अनेकों सूत्रों की दृष्टा घोपा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, जुहू, अदिति सरमा, रोमशा, लोपामुद्रा, शास्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ ही हैं। मनु की पुत्री इडा बड़ी प्रकाण्ड याज्ञिक थी। मैत्रेयी एक समय की अद्वितीय विद्वान थी। शाण्डिल्य की पुत्री श्रीमती ने अत्यंत कठोर तप किये थे। महाभारत में शान्ति पर्व के अध्याय 30 में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के छक्के छुड़ा दिये थे। भागवत में स्वधा की पुत्री वयना और धारिणी का वर्णन है वे विज्ञान विद्या में निष्णात् थी। ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित वेदवती को चारों वेद सस्वर कण्ठाग्र थे। भारती देवी नामक महिला ने शंकराचार्य से ऐसा शास्त्रार्थ किया था कि बड़े बड़े विद्वान भी अचंभित रह गये थे। उसके प्रश्नों से निरुत्तर होकर शंकराचार्य को उत्तर देने के लिए कुछ मास की मोहलत माँगनी पड़ी थी।

युद्ध कला- प्रवीण कैकेयी को दशरथ जी लड़ाई में अपने साथ ले गये थे और जब रथ टूटने लगा तो कैकेयी ने ही उसका तात्कालिक उपचार करके पराजय से बचाया था। मदालसा, महामाया के चरित्र भी प्रसिद्ध हैं। चित्तौड़ की रानियाँ बूँदी की रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, चाँदबीबी, आदि के पराक्रम से दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। द्रौपदी, गान्धारी, कुन्ती आदि की असाधारण योग्यता को सुनते सुनते तृप्ति नहीं होती। मीरा ने लोक लाज छोड़ कर राज परिवार त्याग कर जनता जनार्दन के हृदयों में भक्ति का दिव्य रस ओत प्रोत किया था। समाज सुधार और राजनैतिक क्षेत्रों में प्राण प्रण से संलग्न महिलाएं इस शताब्दी में भी कम नहीं हुई हैं

महापुरुषों और महान् नारियों के दिव्य चरित्र से भारतीय इतिहास का पन्ना पन्ना जगमगा रहा है। यहाँ घर घर में ऐसे नर-रत्न पैदा होते रहें हैं जिनके उज्ज्वल चरित्र प्रकाश स्तम्भ की भाँति आज भी गिरी हुई मनुष्य जाति का पथ प्रदर्शन करने के लिए जाज्वल्वान हो रहे हैं। यह क्रम इस देश के केवल इसलिए चलता रहा है कि यहाँ ऋषि प्रणीत संस्कृति के प्रति लोगों की गम्भीर आस्था रही है। इन धर्म शास्त्रों, ऋषि प्रणालियों, आप्त वचनों का अनुगमन करने के लिए लोग श्रद्धापूर्वक हृदय और मस्तिष्क के द्वार खोल रहे हैं। आज भोगवादी भौतिक संस्कृति ने उस हमारी सनातन परम्परा से जनसाधारण को विमुख कर दिया है। फलस्वरूप सर्वत्र घोर अशान्ति, दारिद्रय, रोग, शोक, भय, उत्पीड़न, तृष्णा और वासना से सभी के हृदय जर्जर हो रहे हैं।

हमारा निश्चित विश्वास है कि भारतीय संस्कृति ऋणि प्रणीत-रीति नीति अपना करके ही मनुष्यता का उत्कर्ष हो सकता है अन्यथा वर्तमान गतिविधि उसे सब प्रकार नष्ट करके ही छोड़ेगी। सत्य अमर है, श्रद्धा अमर है, धर्म अमर है, प्रेम अमर है, न्याय अमर है ये कभी मन्द भले ही हों जावें पर मर नहीं सकते। भारतीय संस्कृति भी अमर है, वह आज तमसाच्छन्न हों रही है पर कल अवश्य ही निर्मल होगी। हमारी अन्तरात्मा कहती है कि वह पुनः सजीव होगी और उसकी विजय दुन्दुभी फिर एकबार विश्व में बजेगी।

हम उस भविष्य की प्रतीक्षा करते हैं जिसमें भारत में घर-घर अपने प्राचीन आदर्शों की भावना एवं मान्यता का विकास होगा। लोग आपस में ऐसे व्यवहार रखेंगे जैसे प्राचीन भारत में रखे जाते थे। माँ बाप, भाई बहिन, भाई भाई, पिता पुत्र सास बहू स्त्री-पुरुष, स्वजन सम्बन्धी, बन्धु बन्धुओं के बीच ऐसे प्रचुर एवं प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होंगे जिन्हें देखकर देवता भी ईर्ष्या करें। पुरुष व स्त्रियों के प्रति और स्त्रियाँ पुरुषों के प्रति अत्यन्त ही पवित्र भावनाएँ रखा करेगी। व्यापारी और ग्राहक के बीच उचित मुनाफे पर ठीक वस्तुओं का ईमानदारी के साथ क्रिय-विक्रय होगा। मजदूर पूरा काम करने में और मालिक पूरी मजदूरी देने में कसर न रखेंगे। आलस्य को, काम से जी चुराने को मानवीय अपराध समझा जायगा और हर आदमी पसीना बहाये बिना रोटी खाना पसन्द न करेगा। मनुष्य परस्पर सहिष्णु, सहनशील, एक दूसरे की स्थिति ओर कठिनाई को समझने वाले, तथा उदार व्यवहार करने वाले होंगे। छल, चोरी, व्यभिचार, बेईमानी, दगाबाजी, विश्वासघात, अनीति, अन्याय आदि से लोग वैसी ही घृणा करेंगे जैसे अखाद्य और अभक्ष्य को भूखा रहने पर भी कोई नहीं खता। संयम, नियोग और दीर्घजीवी रहेंगे। सन्तोषी और परिश्रमी होने के कारण उन्हें किसी बात का घाटा न रहेगा। परस्पर स्नेह और सद्भावों के कारण आपसी व्यवहार स्वर्गीय सुख जैसे मधुर हो जावेंगे।

यह बातें आज की स्थिति तुलना में करते हुए असंभव सी दीखती हैं पर वस्तुतः ये कुछ भी कठिन नहीं हैं। भारतीय संस्कृति के यह सहज फलितार्थ है। इस देश में लाखों करोड़ों वर्षों तक लगातार ऐसा ही वातावरण स्थिर रहा है। हमारी यह विशेषताएं हैं। यदि हम अनार्य संस्कृति की कीचड़ में से अपने पैर निकाल लें ओर आय-संस्कृति की ओर कदम बढ़ावें, तो उस प्राचीन इतिहास की पुनरावृत्ति होना बिलकुल सहज और स्वाभाविक ह। इस भूमि में वह विशेषताएं हैं कि वे सहज विकास करती रहें, जो घर-घर में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, भीम अर्जुन, गान्धी, जवाहर पैदा हो सकते हैं और सब प्रकार की सुख सुविधाओं से परिपूर्ण होते हुए हम भटके हुए संसार को सही रास्ते पर ला सकते हैं। आइए, अपने उसी प्राचीन गौरव को वापिस लाने के लिए हम सब मिल कर भागीरथ प्रयत्न करें।


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