मनुष्य व्यक्तिगत रूप से एवं सामूहिक रूप से भौतिक सुख-साधनों और आन्तरिक शान्ति-संतोष का अभिलाषी रहता है। उन्हीं दोनों को प्राप्त करने के लिए अपनी समझ और परिस्थिति के अनुसार नाना प्रकार के विचार और कार्यक्रम बनाता है। और उनके निमित्त अपने आपको लगाये रहता है। लोगों में कार्य और तरीके, भिन्न भिन्न प्रकार के एक दूसरे के विरोधी तक भले ही हों-पर मूलतः इच्छा, अभिलाषा, कामना, प्यास सब की एक ही है। इस एक ही कामना से प्रेरणा से समस्त मानव प्राणी प्रेरित, आन्दोलित, कार्यसंलग्न, सुखी एवं दुखी रहते हैं।
प्राचीन काल में तत्वदर्शी ऋषियों ने बड़े ही सूक्ष्म आधार पर मनुष्य की इस समस्या का अध्ययन किया था। आज के वैज्ञानिक जिस प्रकार अणु-परमाणु प्रभृति, प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों को ढूंढ़ने में जुटे हुए हैं, उससे अनेक गुनी तत्परता के साथ ऋषियों ने यह खोज की थी कि मनुष्य की चिरन्तन अभिलाषा, सुख-शान्ति की उपलब्धि किस आधार को अपनाने से हो सकती है? उन्होंने हजारों लाखों वर्षों के अन्वेषण बाद जो निष्कर्ष निकाला, उसे पूर्ण व्यवस्थित रूप से संसार के सम्मुख रख दिया। उस निष्कर्ष एवं आधार को लाखों वर्ष तक विभिन्न प्रकार से, विभिन्न स्थानों पर आजमाया गया और अन्ततः लोगों को इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा कि यह ऋषि-प्रणीत विचार-पद्धति और कार्य- प्रणाली ही एकमात्र ऐसी पद्धति है, जिसे अपना कर मनुष्य स्वयं सुख-शान्ति से रह सकता है और अपने संपर्क में आने वाले अन्यों की भी सुख शान्ति में वृद्धि कर सकता है। इस (1) जीवन की विभिन्न समस्याओं पर अमुक दृष्टिकोण के अनुसार विचार करने और (2) जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में अपनाई जाने योग्य कार्य पद्धतियों को नाम “संस्कृति” रखा गया।
यह तत्वज्ञान समस्त विश्व के लिए था, पर चूँकि इसका आविष्कार भारत में हुआ, इसलिए उसका नाम भारतीय-संस्कृति रखा गया। आज भी अनेक वस्तुएं ऐसी हैं, जो एक देश में पैदा होती या बनती है पर उनका उपयोग सारा संसार करता है। उन वस्तुओं को उस देश के निर्मित कहा या लिखा जाता है, पर इससे किसी अन्य देशवासी को उसके उपयोग में आपत्ति नहीं होती। भारतीय चाय, स्विट्जरलैंड की घड़ियां, वर्जीनिया का तम्बाकू, आदि को सभी देश वैसे ही उपयोग करते हैं जैसे, मानों ये अपनी ही हों। एवरेस्ट नामक एक पर्वतारोही ने हिमालय की सर्वोच्च चोटी खोज की, जो उस चोटी के नाम पर पर्वतारोही के सम्मान में ‘एवरेस्ट’ रख दिया गया। इसी प्रकार भारतीयों ने विश्व को एक परम सुख-शान्ति दायिनी विचार पद्धति, जीवन-यापन-शैली की खोज करदी, इसलिए उस ‘संस्कृति’ का नाम ‘भारतीय’ रख दिया गया। भारतीय-संस्कृति, वस्तुतः किसी जाति, देश सम्प्रदाय आदि तक कदापि सीमित नहीं है, वह तो समस्त मानव जाति के लिए समान रूप से उपयोगी एवं आवश्यक वस्तु है।
भारतीय-संस्कृति में बौद्धिक मानसिक, विचार क्षेत्रीय आधार यह है कि (1) सुख का केन्द्र भौतिक सुख सामग्री को न मानकर आन्तरिक श्रेष्ठता को मानना (2) अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता, क्षमा और सहानुभूति पूर्ण का व्यवहार करना (3) अंतरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधिक विकसित एवं चरितार्थ करना (4) व्यक्तिगत आवश्यकताओं को घटाना और समय, शक्ति तथा योग्यता अधिकाँश भाग विश्व हित में लगाना (5) आलस्य और प्रमाद से बचते हुए परिश्रम और अनुशासन को मजबूती से पकड़ता तथा शुद्ध कमाई का उपयोग करना (6) अपने को एकाकी नहीं, वरन् विश्व मानव की महान मशीन का एक पुर्जा मास मानना और अपने स्वार्थ को विश्वस्वार्थ (परमार्थ) में घुला देना (7) दूसरों की कठिनाइयों को-परिस्थितियों को समझते हुए विचार भिन्नता, के प्रति असहिष्णु न होना (8) सर्वत्र स्वच्छता रखना और संयम से रहना (9) ईश्वर के सर्वव्यापी और न्यायकारी होने पर पूर्ण विश्वास रखते हुए, उसकी उपासना करते हुए अनीति से बचना। (10) निराशा, चिन्ता, क्रोध, शोक, लोभ, भय, मद, आदि उद्वेगों से बचते हुए मानसिक सन्तुलन को स्थिर तथा चित्त को प्रसन्न रखना। (11) अपने उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों को पूरी तरह पालन करना (12) अनीति से लड़ने और धर्म-भावनाओं की रक्षा करने के लिए, कष्ट सहने को भी तैयार रहना। इस प्रकार के और शास्त्रों में विभिन्न रूपों से विस्तार पूर्वक लिये गये है। उनको किस परिस्थिति में? कैसे कौनसा आदर्श? किस प्रकार अपनाया जाय, इसके उदाहरण महाभारत, रामायण आदि कथा-ग्रन्थों में बड़े ही उत्तम रूप से समझाये गये हैं।
जब तक भारतीय-संस्कृति का आदर था, उसे लोग धर्म एवं ईश्वरीय आदर्श मानकर जीवन में व्यवहार करते थे, तब तक समस्त विश्व में परम शान्ति का साम्राज्य था। घर-घर सुख-शाँति विराजती थी। मनुष्य-मनुष्य के बीच में अपार प्रेम था। एक दूसरे के लिए क्या त्याग कर सकता है इसके आदर्श उदाहरण उपस्थित करने के लिए हर एक व्यक्ति प्रतिस्पर्धा करता था, एक दूसरे से आगे बढ़ना चाहता था। ऐसी स्थिति में धन धान्य की कभी भी कदापि नहीं रह सकती, वे सब प्रकार स्वस्थ दीर्घजीवी प्रसन्न, सन्तुष्ट दिखाई देते थे। भारतीय संस्कृति का अनुसरण करने वाले को भौतिक सुख और आन्तरिक शान्ति का होना सुनिश्चित है, इस तथ्य को हर व्यक्ति पर प्रयोग करके ऋषियों ने यह दिखा दिया था कि मानव को चिरन्तन अभिलाषा, सुख-शान्ति को निश्चित रूप से प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वही है-जिसे “संस्कृति” कहते हैं। इस “संस्कृति” को पाकर मानवता धन्य हो गई थी। संसार ने भारतीयों की इस महान देने के प्रति परिपूर्ण कृतज्ञता प्रकट करते हुए इसका नाम भारत-निर्मित-विश्व-संस्कृति संक्षेप में भारतीय-संस्कृति, रखा। उसकी विजय दुन्दुभी विश्व को कोने कोने में बजी। इसी आवार पर भारत को चक्रवर्ती एवं जगद्गुरु कहा गया।
समय के कुप्रभाव दे दूसरी विचार धाराओं का उद्भव हुआ, जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ साधन, अपार धन संग्रह, अनियंत्रित काम-क्रीड़ा, लूट खसोट, कृतज्ञता का अभाव, धोखाधड़ी, छल प्रपंच, षड्यंत्र, ईर्ष्या-द्वेष, आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, कर्तव्यों की उपेक्षा, विलासिता, फिजूलखर्ची, नशेबाजी आदि दुष्ट वृत्तियों का उभार हुआ। जितना जितना मनुष्य इनकी आरे बढ़ा, उतना ही उतना व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन उलझन भरा कंटकाकीर्ण, दुखी और असन्तुष्ट होता गया। आज स्वार्थपरता और अधिक भोग ऐश्वर्य ही मनुष्य का लक्ष बन गया है। एक दूसरे के साथ सहयोग, प्यार उदारता, क्षमा, सहायता सेवा, स्नेह आदि का श्रेष्ठ व्यवहार करने की अपेक्षा दूसरों का बुरे में बुरा अहित करके भी अपना लाभ कमाने में संलग्न है। सर्वत्र दुख और भ्रष्टाचार का बोल बाला है। अपराधों की संख्या दिन दूनी, राज चौगुनी बढ़ रही है। नैतिकता की दीवार, बुरी तरह जर्जर हो रही है। हर आदमी एक दूसरे के प्रति अविश्वासी एवं सन्दिग्ध बना हुआ है, किसी को किसी पर भरोसा नहीं, एक को दूसरे के इरादों में कुटता, विश्वासघात और आक्रमण की गन्ध आती है। परस्पर ये सम्बन्ध बिगड़ने कर मूल कारण, मनुष्यों की व्यक्तिगत स्वार्थपरता एवं भोग ऐश्वर्य की प्रचण्ड कामनाएं आसुरी गुण-कर्म-स्वभावों की कुप्रवृत्तियाँ ही हैं। इन्हीं से सारा वातावरण दूषित कर दिया है। घर-घर में तन-तन मन-मन में क्लेश, कलह, ईर्ष्या-द्वेष, चिन्ता, भय क्रोध, शोक, अभाव, अज्ञान की अग्नि जल रही है। मनुष्य की शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अन्तर्राष्ट्रीय, भौतिक, अध्यात्मिक सभी समस्या उलझ गई हैं और वही किंकर्तव्य विमूढ़ होकर आत्म घात करने जैसी स्थिति में जा पहुँचा है। सर्वत्र निराशा और अन्धकार का साम्राज्य छाया हुआ है। इस संकट को उत्पन्न करने वाली विचार पद्धति एवं कार्य शैली को प्राचीर काल में “आसुरी संस्कृति” कहते हैं। दैवी संस्कृति को परास्त करके आज यह आसुरी संस्कृति अपना विजय नृत्य कर ही है। मंत्र मोहित की तरह सारा मानव समाज उसी मायाविनी की ताल में माल लगाकर नाच रहा है। और सर्वनाश के गर्त में गिरने के लिए तेजी से कदम बढ़ाता चला जा रहा है।
क्या यह क्रम इसी प्रकार चलते रहना उचित है? क्या इन सर्वनाश की घड़ियों में हमें कुछ भी नहीं करना है? क्या भारतीय संस्कृति को नष्ट होने दिया जाय? क्या विश्व मानव के पतन और उत्थान में हमारा कुछ भी कर्तव्य नहीं है? इन प्रश्नों पर जब कोई ऐसा व्यक्ति विचार करके, जिसकी अन्तरात्मा का प्रकाश सर्वथा बुझ नहीं गया है-तो उसके भीतर से एक टीस उठती है और लगता है कि सर्वनाश की इन घड़ियों में उसे चुप नहीं बैठना चाहिए वरन् कुछ करना चाहिए। कुछ करने का समय अब आ गया है। ऋषियों की स्वर्गीय आत्माएं हमें पुकार रही हैं। अब यह समय आ गया है जब इन पुकारों को अनसुनी न करके-हमें अपने पवित्र धर्म कर्तव्यों के लिए उठ खड़ा होना है गायत्री महायज्ञ की योजना इस महान साँस्कृतिक पुनरुत्थान का आरम्भिक देव पूजन है। इस मंगलाचरण के बाद हमें वह कार्यक्रम बनाना है जिसके आधार पर मनुष्यों को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाया जा सके और निराश अभाव ग्रस्त, अशान्त अन्तःकरणों में आशा की, समृद्धि की, सुख शान्ति की ज्योति जगाई जा सके। मानवीय आदर्शों, विचारों, उद्देश्यों कर्तव्यों, गुणों, स्वभावों, मर्यादाओं और कार्यक्रमों को हमें हर मस्तिष्क पे, हर हृदय में, हर शरीर में, हर घर में प्रवेश करना होगा ताकि सर्वनाश की ओर दौड़ती जा रही दुनिया को शान्ति की दिशा में मोड़ा जा सके। आइये हम सब मिल कर इसी साधना में संलग्न हों। व्यक्तिगत स्वार्थों को यहाँ तक कि स्वर्ग और मुक्ति को भी इस महान आदर्श के लिए ठुकरा कर हम सच्चे त्याग का परिचय देंगे, तो अपना ही नहीं असंख्यों अन्य आत्माओं का भी कल्याण करने में समर्थ हो सकेंगे। ईश्वरीय इच्छा और प्रेरणा का यह प्रवाह हमें और आपको बलात् इस कार्यक्रम में लगाना चाहता है।
आइए इस ईश्वरीय इच्छा की पूर्ति के लिए भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए मिल जुल कर कुछ कार्य करें। जिनके पास जितना समय और अवकाश हो उन्हें उतना समय साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए लगाना चाहिए। जो सज्जन योग्यता ओर आरोग्य की दृष्टि से राष्ट्र के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हों। और पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुके हों वे अपना जीवन पूर्ण रूपेण संस्कृति सेवा के लिए अर्पित कर सकते हैं ऐसे लोगों का आत्मदान स्वीकार करने के लिए गायत्री तपोभूमि आदर पूर्वक प्रतीक्षा करती है।
(1) मथुरा में संस्कृति विश्व विद्यालय को चलाने के लिए उसकी व्यवस्था तथा शिक्षा पद्धति में योग देने के लिए (2) देश व्यापी भ्रमण करके भाषण, संगठन, प्रचार करने के लिए (3) साँस्कृतिक तत्वज्ञान की खोज करने के लिए भारी स्वाध्याय करने एवं साहित्य निर्माण करने के लिए-सुयोग्य व्यक्तियों की हमें भारी आवश्यकता है। जो व्यक्ति लोक सेवा की साधना करते हुए जीवन लक्ष की प्राप्ति में-ईश्वर और मुक्ति के निश्चित रूप से प्राप्त होने में विश्वास रखते हों वे अपना और दूसरों का सच्चा हित साधन करने के लिए इस संगठित महान कार्यक्रम में अपने आपको सौंप दें। जिनकी भावनाएं ऊँची तथा योग्यताएं कम है उनकी योग्यताएं बढ़ाने के लिए यहाँ पर प्रयत्न हो सकता है। नर और नारी दोनों ही समान रूप से इस कार्य के लिए उपयोगी हैं। जो लोग पूरा समय नहीं दे सकते वे अपना बचा हुआ समय, अपने निकटवर्ती क्षेत्र देकर भी बहुत कुछ कर सकते हैं।