भलैं सुधा सीचौ तहाँ, फलु न लागि है कोय। जहाँ बाल विधवान को, अश्रुपात नित होय॥
शूद्र बहुत जिस देश में, धरे क्षुद्रता भाव। वह विनसाता सहज ही, निज अज्ञान प्रभाव॥
जब आता अभिमान अति, तुरत नसाता मान। रावण औ शिशुपाल सम, होवे यदपि महान॥
पर भाषा, पर भाव, पर भूषण, पर परिधान। पराधीन जन की अहै, यही पूर्ण पहिचान॥
निर्बल मिलकर परस्पर, वस्त्र बनाता सूत। मिलो परस्पर दौड़ कर हर्षित भारत पूत॥
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