मैत्री भावना से स्वास्थ्य सुधार

April 1954

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(श्री. प्रो. लालजी राम शुक्ल)

मनुष्य अनेक प्रकार के शारीरिक मानसिक रोगों से पीड़ित रहता है। मनुष्य का मुख्य रोग मानसिक है। शारीरिक रोग से इस रोग का प्रकाशन मात्र रहता है वह किसी न किसी प्रकार के रोग का आवाहन करता रहता है। शारीरिक पीड़ा मानसिक पीड़ा से कहीं हल्की होती है। अतएव मानसिक रोगों से बचने के लिए मनुष्य शारीरिक रोग को स्वीकार करता है। बहुत से शारीरिक रोग तब तक अच्छे नहीं होते जब तक मनुष्य का मन स्वस्थ नहीं होता।

मनुष्य के मानसिक संताप का प्रधान कारण अपने आपको किसी कल्पित कमी के लिये कोसते रहना है। रोगी को कल्पित कमी वास्तविक दिखाई देती है। रोगी अपने आपसे असन्तुष्ट रहता है। उसके भीतरी और बाहरी मन की एकता के स्थापन में ही स्वास्थ्य है और मन के इन दो भागों के विरोध होने पर ही रोग की व्यवस्था आ जाती है। मनुष्य जितनी ताड़ना अपने आप से पाता है उतना वह किसी दूसरे से नहीं पाता। जो मनुष्य किसी प्रकार के अपने जीवन के बहुत ऊँचे आदर्श बना लेते हैं वे सदा उन आदर्शों की प्राप्ति न कर सकने के कारण अपने को कोसा करते हैं। कोई मनुष्य धन की कमी के कारण और कोई चरित्र की कमी के कारण अपने को कोसते रहते हैं। ऐसे लोग अपने आपकी दूसरों से तुलना करते हैं और अपने आप को उससे अच्छा न होने के कारण दुःखी होते रहते हैं। कितने ही लोग अपनी एक प्रकार की कमी को भूलते हैं पर वह कमी सदा के लिये नहीं भूलती। यदि मनुष्य अपनी एक प्रकार की कमी को भूल जाय तो उसे अपने आप से दूसरे प्रकार की कमी दिखलाई पड़ने लगती है। यदि मनुष्य अपनी नैतिक कमी को भुलाने में सफल हो जाय तो वह धन की कमी, रूप की कमी अथवा सम्मान की कमी के विचार में परिणत होकर मनुष्य को त्रास देने लगती है। इस प्रकार अपने आपको भुलाने की चेष्टा करने से मनुष्य का दुःख कम न होकर और भी बढ़ जाता है।

मनुष्य का दुःख तभी घटता है जब अपने आप को पूरी तरह जानकर जैसा वह है वैसा ही अपने आपको स्वीकार करता है। अर्थात् जब वह अपने आप से आत्म समन्वय स्थापित करता है। मनुष्य चाहे जैसा भी हो वह उतना बुरा नहीं होता कि अपने आपको स्वीकार न कर सके। मानसिक आरोग्य प्राप्ति की कुँजी अपने आपको प्रेम करने में, अपने आप से एकत्व स्थापित करने में है।

लेखक ऐसे अनेक रोगियों के पत्र पाता है जो अकारण चिन्ता और भय के कारण आत्म सन्ताप में रहते हैं। एक रोगी लिखता है- “आज मेरी मानसिक तथा शारीरिक स्थिति बहुत ही दयनीय है। सबसे पहली बात यह है कि मैं सदा चिन्तित रहा करता हूँ। जब देखो तब मेरी सूरत सदा मनहूस रहा करती है। मुझे हँसी बहुत कम आती है। न मालुम कहाँ से फालतू विचार मन में आते रहते हैं। मैं चाहता हूँ फालतू विचार तथा चिन्ताएँ मन में न आवें पर वे पीछा नहीं छोड़तीं। मेरे अधिकाँश विचार अच्छे न होकर खराब भावना पूर्ण रहते हैं। जिनसे क्रोध, घमण्ड, मान आदि का अंश अधिक रहता है। जिससे शरीर को अधिक हानि होती है। मुझे मन ही मन क्रोध बहुत आता है जिससे मन चिन्तित हो जाता है।”

एक दूसरा रोगी अपने विचारों से इतना परेशान है कि मृत्यु के सिवाय और कोई रास्ता उसे विचारों के क्लेश से मुक्त करने का नहीं दिखाई देता सदा अपनी भर्त्सना किया करता है जहाँ तक बन पड़ता है वह सोता है। किन्तु जब जागता है तब अगाध विकार और चिन्ताएँ घेर लेती हैं। उक्त प्रकार की मानसिक स्थिति आत्म स्वीकृत न करने के कारण अपने वर्तमान और आदर्श स्वत्व में एकता स्थापित न होने के कारण उत्पन्न होती है। जो मनुष्य अपने आपको किसी विशेष प्रकार का विलक्षण बनाने की चेष्टा करता है वह अनेक प्रकार की आत्म-भर्त्सना का भागी होता है। विलक्षण बनाने की मनोवृत्ति एक दूसरे की सहगामी है।

बहुत से मनुष्य अपने आपके विषय में दो चित्र रखते हैं। एक में वे अपने आपको कुरूप और पतित के रूप में पाते है। मनुष्य प्रायः अपने सुन्दर सत्य को तो स्वीकार करता है परन्तु वह अपने कुरूप सत्व को अपने आपसे छिपाने की चेष्टा करता है। इस प्रकार मनुष्य का अपने आपके विषय में अभिमान बढ़ जाता है। फिर मनुष्य जितना ही अपने कुरूप स्वत्व को भुलाता है वह उतना ही किसी न किसी रूप में उसके सामने आ जाता है। जब मनुष्य का कुरूप सत्व इच्छा के विरुद्ध उसके सामने आ जाता है तब बड़ा भयावह रहता है। इस प्रकार मनुष्य के मन का अपना ही एक अंग, दूसरे अंग, के लिए पिशाच बन जाता है। यदि कोई मनुष्य स्थाई शाँति चाहता है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि वह अपने व्यक्तित्व के दो प्रकार के चित्रों को मिलाकर एक नया ही चित्र तैयार करे। यह चित्र न तो इतना सुहावना होगा जितना कि पहले का कुरूप चित्र था। फिर मनुष्य न तो अपने सद्गुणों के लिए अधिक अभिमान करेगा न दुर्गुणों के लिए आत्म भर्त्सना करेगा।

आधुनिक काल में मनोवैज्ञानिक विधि से मनुष्य को सुखी बनाने के अनेक उपाय सोचे जाते हैं। मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य का सुख और दुःख उसी के हाथ में है। हमारे विवेक युक्त सन्तुलित विचार ही हमारे सुख का कारण होते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको अपूर्ण मानकर उन्नति करने की चेष्टा करे तो वह अपने को सुखी बनाने में समर्थ होगा। प्रायः हम अपने आपको पूर्ण मान बैठते हैं और यही हमारे दुःख का कारण होता है। जो मनुष्य जितना ही पूर्ण अपने को समझता है वह अपनी भर्त्सना भी उतनी ही करता है। ऐसा व्यक्ति अपना ही शत्रु होता है।

मानसिक रोगों का अन्त करने का प्राचीन उपाय जिसे भगवान बुद्ध ने बताया है मैत्री भावना का अभ्यास है। मनुष्य दो प्रकार की अमैत्री भावना से अपने आपको दुःखी बनाता है। एक दूसरे के प्रति अमैत्री भावना और दूसरी अपने प्रति ही अमैत्री भावना। अपने प्रति अमैत्री भावना के समय मनुष्य अपने आपको कोसता रहता है। इस प्रकार के भाव को कुकृत्य कहा जाता है। ऐसे विचार का अन्त अपने प्रति मैत्री भावना का अभ्यास अपने आपको अभागा व्यक्ति न मान कर ‘उपयुक्त’ व्यक्ति ही मानने से होता है।

परन्तु कोई भी व्यक्ति तब तक मैत्री भावना अपने प्रति नहीं कर सकता जब तक वह दूसरों के प्रति मैत्री भावना नहीं लाता, जो दूसरों के प्रति उदारता के विचार मन में लाता है वह अपने प्रति भी उदारता के विचार करता है। दूसरों के प्रति प्रेम प्रदर्शित करना अपने प्रति प्रेम प्रदर्शित करने की सीढ़ी है। दूसरों की त्रुटियों को जो जितना ही माफ कर देता है उसकी अन्तरात्मा भी अपनी त्रुटियों को माफ कर देती है। मनुष्य के अनुदार विचार उस जहरीले साँप के समान है जो दूसरों को काटने के लिए पाला जाता है। परन्तु जो अपनी ही हानि करता है। उदार विचार इससे उल्टा कार्य करता है। वह दोनों का कल्याण करता है।

जो मनुष्य आत्म कल्याण चाहता है उसे निःस्वार्थ भाव से ही दूसरों के प्रति उदारता दिखाना और उनकी सेवा करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के कार्य से उसे कोई लौकिक लाभ हो या नहीं उसे आध्यात्मिक लाभ तो अवश्य होता है। उसके उदार विचारों की संख्या बढ़ जाती है और ये उदार विचार उसे आपत्ति काल में काम देते हैं। उदार विचार रोग से बचाते हैं। और सहज में ही आरोग्य बना देते हैं। बाहरी फल की इच्छा से जो भला काम करते हैं उनका परिणाम दुखद ही होता है। कितनी बार हमें अपने भले कार्यों के लिए मान और यश न मिलकर अपमान और अपकीर्ति मिलती है। कितने ही लोग हमें उनके प्रति भलाई करने के लिए कुछ कृतज्ञता न दिखा कर नुकसान ही पहुँचाते हैं। इस प्रकार के जो व्यक्ति बाहरी काम की आशा से भला काम करता है वह दुख ही दुख में रहता है। जो व्यक्ति जितना स्वार्थी होता है वह दूसरों को उतना ही स्वार्थी पाता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों के प्रति भलाई करके आत्म सन्तोष का अनुभव करके आत्म भर्त्सना करता है। ऐसे ही लोगों को अकारण मानसिक रोग हो जाते हैं।


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