गीता ही हमारी पथ-प्रदर्शक है।

April 1954

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(श्री पं. गंगादत्त शास्त्री)

भारत के कई प्रान्तों और विशेष कर पंजाब में साम्प्रदायिक दंगों और उनसे होने वाली जान-माल की अथाह क्षति का बाजार गर्म है। जिधर देखते हैं उधर ही मानवता के स्थान पर दानवता का ताण्डव नृत्य नजर आता है। हिन्दुओं के मन्दिर और मकान जलाये जा रहें हैं करोड़ों की सम्पत्ति लूटी जा रही है, बच्चों, बूढ़ों और स्त्रियों का निर्दयता से वध किया जा रहा है। ये भयंकर उपद्रव- जिनके सम्बन्ध में पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, आज प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहें है। हम अपने ही सन्मुख अपनी असंख्य माँ बहिनों तथा बहू-बेटियों को इस अकाल मृत्यु का ग्रास बनते हुए प्रतिदिन देख रहे हैं। किन्तु असमर्थता के कारण भागने के सिवाय हमारे पास दूसरा चारा ही नहीं।

जिस जाति के पूर्वजों ने पग पग पर संसार को वीरता की अलौकिक झनकार सुनाई थी और अन्याय व अत्याचार का अन्त करके विश्व में सुख-शान्ति का साम्राज्य समर्पित करने का दिव्य संदेश दिया था, आज उन्हीं के वंशज हम उनके उपदेश के विपरीत चलें तो यह जानकर किसे दुख न होगा?

शताब्दियों से परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़े हुए हिन्दु-समाज ने शारीरिक गुलामी के साथ-साथ बौद्धिक परतन्त्रता को भी इस कदर अपना लिया कि उसने अपने साहित्य का ज्ञान तो दूर रहा- उसका परिचय प्राप्त करना भी व्यर्थ समझा और वैदेशिक साहित्य का केवल मात्र अध्ययन और उसका अन्धानुकरण ही जीवन का उच्च ध्येय समझ लिया। इस अन्धानुकरण और उपेक्षा-भाव ने ही वास्तव में हिन्दू-जाति का यह पतन कर डाला है। क्या ही अच्छा होता यदि प्रत्येक हिन्दू केवल मात्र गीता का ही अध्ययन कर- उसके पद-चिन्हों पर चलता। रण से विमुख और कायरता की रट लगाने वाले अर्जुन जैसे क्षत्रिय को जिसने मधुर सन्देश द्वारा युद्ध के लिए उत्तेजित कर दिया और भयंकर संग्राम द्वारा असंख्य शत्रुओं का संहार करते हुए निर्बल पाण्डवों के गल में वैजयन्ती पहना दी। क्या आज भी उस गीता के प्रतिशब्द में वह धधकती हुई आग नहीं है?

आज भी वह संसार में दानवता का दमन करते हुए मातृभूमि को- जो अपने ही कुपुत्रों की काली करतूतों से बुरी तरह खण्डित हो रही है- अखण्ड तथा सुखमय नहीं बना सकती है ? किन्तु हिन्दू जाति का दुर्भाग्य है कि उसने स्वदेशाभिमान और वीरता में विश्वास के स्थान पर केवल मात्र अपने ही भाइयों का खून चूस कर पूँजी इकट्ठी करना सीख लिया है। ये भावनाएं ही उनमें कायरता भर ही है। गीता में ऐसे मनुष्यों को खूब फटकार दी है और उन्हें अनार्थ तथा दुर्बल हृदय कहा गया है। इसी विषय पर अर्जुन को सम्बोधित करते हुए श्री कृष्ण ने कहा था-

कुत्पस्त्ना कश्मलमिदं विषमें समुपस्थितम्, अनार्य जुष्टमस्वर्ग्यकीर्तिकरमर्जुन !

क्लैव्यं माम गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते क्षुद्रं हृदयदौबल्यं त्यक्तवोत्तिष्ट परन्तप !

हे अर्जुन ! इस संकट के अवसर पर तुम्हारे में इस प्रकार का अज्ञानयुक्त मोह कैसे पैदा हो गया है कि- “मैं अपने सम्बन्धियों को रण में नहीं मारूंगा, यह मानवता तो कायरों के हृदय में पैदा होती है, इससे अपयश और नरक ही प्राप्त होता है। इसलिए घबराओ मत! तुम्हारे जैसे वीर पुरुष के लिए यह बात शोभा नहीं देती। हृदय की दुर्बलता तथा क्षुद्रता को छोड़कर धनुष उठाओ और शत्रुओं से जाकर लड़ो, यदि तुम इस क्षात्र धर्म का पालन न करोगे तो- ततः स्वधर्म कीर्तिन्च हत्वा पापमवा प्स्थसि अर्थात् अपने धर्म और यश को त्याग कर पातकी कहलाओगे। उस दशा में संसार में तुम्हारा जीवित रहना उचित नहीं होगा, क्योंकि सम्भावितस्य चाकितिर्मरणादतिरिच्यते, संसार में प्रतिष्ठित व्यक्ति की निन्दा मृत्यु से भी भयंकर है।

गीता के इन जीवन भरे उपदेशों ने ही एक बार अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हिन्दू जाति को जगाकर कर्त्तव्य मार्ग की ओर अग्रसर किया था और भारत में पुनः हिन्दुत्व की जड़ पक्की की थी।

शत्रु से प्रतिक्रिया लेना हमारा शास्त्रोक्त धर्म है और शास्त्र ने यहाँ तक कह दिया है कि शत्रु को अपनी कन्या देकर भी मार देने में कोई दोष नहीं है। जो आदमी अपनी मातृभूमि को विधर्मियों द्वारा पद-दलित देखकर भी कान में तेल डालकर सोया रहता है वह परम कृतघ्न है, पितर भी उसके हाथ की अंजलि ग्रहण नहीं करते- “पितरोअपि ने गृहृन्ति तद्दत्ताँ सलिलाज्जलिम” हिन्दुओं के वेदों और शास्त्रों ने केवल वीरता के गीत नहीं गाये अपितु इनके पूज्य देवताओं ने स्वयं शस्त्र ग्रहण करते हुए इन शिक्षाओं को कार्य रूप में परिणत करके दिखला दिया है शिवाजी ने त्रिशूल, दुर्गा ने धनुष तलवार, भाला आदि गणेश ने शंकु और हनुमान ने गदा ग्रहण की है भीष्म ने तो यहाँ तक कह दिया था :-

अग्रत श्चतुरो वेदाः षृष्टतो धनुरुद्यतः। इदं ब्राह्म इदं क्षात्रं शापेन च शरेण च ॥

अर्थात्- ब्राह्मण होने के नाते मेरे आगे चार वेद रखे हैं और मेरे पीछे युद्ध के लिए तैयार धनुष पड़ा है। मेरे पास ब्रह्मा और शास्त्र दोनों तेज हैं, जिससे काम पड़ेगा उसी का उपयोग करूंगा। खेद। अपने पूर्वजों के इन आदर्शों को भूल कर आज हिन्दू जाति दूसरी ही ओर जा रही है। जिस जाति के नौनिहालों ने केवल एक स्त्री का अपमान न सहकर महाभारत जैसा भयंकर संग्राम करा डाला और उस अपमान का पूरा बदला लिया, उन्हीं की सन्तान आज की हिन्दू जाति है, जिसके सामने प्रतिदिन हजारों अबलाओं की अस्मतें लूटी जा रही हैं, उनकी हत्याएं की जा रही हैं, उनके नन्हें शिशुओं को अग्नि की लपटों में धकेला जा रहा है। और उनके परिवार वालों को कमरों में बन्द करके आग लगाकर भस्म किया जा रहा है, परन्तु फिर भी इनके खून में हरकत पैदा नहीं होती।

हिन्दुओं के सर्वश्रेष्ठ नेता श्रीकृष्ण को कौन नहीं जानता, जिनके श्रीमुख से गीता के अमर उपदेश निकले हैं, उन जैसा वीर और दृढ़ प्रतिज्ञ मनुष्य आज तक कोई नहीं हुआ। जिस समय द्रौपदी ने उन्हें दूत के रूप में जाते हुए देखा तो उसने कहा- भया! तुम उनसे सन्धि करने तो जा रहे हो किन्तु मेरे बालों को न भूल जाना, इन्हीं बालों को खींच कर उन्होंने एक अबला का अपमान किया था। तब श्री कृष्ण ने उत्तर दिया- है द्रौपदी ! चाहे हिमालय पर्वत चलने लग पड़े पृथ्वी के सौ टुकड़े हो जाय और आकाश नक्षत्रों के सहित गिर पड़े, किन्तु मेरा वचन असत्य नहीं हो सकता, मैं उन आततायियों से बदला लेकर रहूँगा।

श्रीकृष्ण ने जैसा कहा करके दिखला दिया और दुनिया के सामने एक ज्वलन्त आदर्श रख दिया- ‘आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारता” अर्थात् सामने आते हुए शत्रु को बिना सोचे समझे मार गिराना चाहिए। नीति शास्त्र भी कहता है कि “सदसि वाक् पटुता युधि विक्रमाः” अर्थात् असली मनुष्य वही है जो सभा में वाक् चातुरी और रण में कौशल दिखलाये, सदियों से अपने इन उज्ज्वल आदर्शों को भूलकर हिन्दू जनता कमजोर तथा आत्म विस्मृत हो चुकी है और आत्म गौरव तो इसमें लेश मात्र भी नहीं दिखाई पड़ता, केवल ‘ब्लैक मार्केट’ के जरिये पैसा कमाना और उसे ऐशोआराम में खर्च करना ही इसने अपना मुख्य ध्येय समझ लिया है। अपना देश अपनी सभ्यता और अपना साहित्य इसने बिल्कुल तुच्छ समझ लिया है।

मुसीबतों में पड़े हुए अपने लाखों भाइयों की दुख गाथाएं- सुनने की इसे आवश्यकता नहीं। जिस देश के अन्न, जल और मिट्टी से जीवन प्राप्त कर यह हिन्दू जाति फली और फूली है, उसी को विधर्मियों द्वारा पद-दलित कराने में इसने कोई कसर शेष न रखी। निरन्तर सुख-निद्रा में सोये रहने के कारण इसमें से देश-भक्त और वीरता के भाव ही जाते रहे और देश की चिन्ता लग पड़ी। विपत्ति काल में अपनी अन्याय से कमाई हुई पूँजी के साथ कायरों की तरह लुक-छिप जाना ही इसने अपना आदर्श समझ लिया है। इस बुज़दिली को सर्वप्रथम जन्म देने वाले हैं हमारे ये बड़े-बड़े तोंद-धारी पूँजीपति- जिन्होंने हर मुसीबत के समय देश के साथ गद्दारी की, धोखेबाजी की और गीता के पवित्र सिद्धाँत को ठुकरा कर समय से अनुचित लाभ उठाया और देश को हर सम्भव उपाय से चूस-चूस कर अस्थि शेष कर डाला है।

एक ओर तो हजारों निरपराध स्त्रियों, बूढ़ों, और बच्चों की हत्याएं की जा रही है, हिन्दुओं के मन्दिर बाजार धर्मशालाएं तथा मकान जलाए जा रहे हैं। और अबलाओं के सतीत्व पर आक्रमण हो रहें है, तो दूसरी ओर हमारे ही हिन्दू भाई इन सब घटनाओं से अनजान बन कर ब्लैक ‘मार्केट’ के चक्कर पर चल रहे हैं और “पैसा गुरुणा गुरु” वाली कहावत चरितार्थ कर रहें है। मैं नहीं जानता कि ऐसे पापियों का बोझ उठाने के लिए हमारी मातृभूमि को कितने कष्ट का सामना करना पड़ रहा होगा। जब देश पर विधर्मियों के आक्रमण हो रहें हैं तब स्वयं बोरियाँ- बिस्तर बाँध कर दुबक जाना मनुष्यता नहीं पशुता है और कायरता है। पिछले जमाने में जब कुछ डरपोक क्षत्रिय युद्ध से भाग कर अपने घरों में आते तो वीर क्षत्राणियाँ उन्हें सौ-सौ लानतें देती- “तुम क्षत्रिय कुल के कलंक हो, तुमने अपने कुल को धब्बा लगाया है”। उन वीर क्षत्राणियों को अपने पतियों और पुत्रों का इतना मोह नहीं था। जितना कि युद्ध में क्षत्रियत्व की शान रखने का।

आज कल देश में जितने दंगे और फसाद हो रहें है उनमें हिन्दुओं की स्वार्थान्धता, दुर्बलता और पलायन वृत्ति ही मुख्य कारण है। हमारे विरोधियों में यह विश्वास फैल गया है कि हिन्दू कायर और बुज़दिल हैं, इसीलिए वे उन पर आक्रमण करने का साहस कर देते हैं। हिन्दू बजाय भागने के यदि संगठित होकर एक बार भी उनके दाँत खट्टे कर दें तो फिर उनमें फसाद करने की हिम्मत नहीं हो सकती अतः हिन्दुओं की भलाई इसी में है कि वे एक बार गीता का अमर उपदेश सुनकर वीरता से गुण्डों का सामना करें।

हिन्दू समाज को जागृत करने के लिए गीता एक अमूल्य साधन है। इसके एक एक शब्द में वह उत्तेजना, वह नवस्फूर्ति और वह अन्तर्ज्वाला भरी हुई है जो मुर्दे में भी जागृति पैदा करती है। श्रीकृष्ण जैसे महान क्रांतिकारी नेता के मुख से निकले हुए ये शब्द सुनने मात्र से ही शरीर के अंग-अंग में आग की लपटें पैदा कर देते हैं। आज की विषम परिस्थिति में यदि हमारी रक्षा हो सकती है तो इसी अनुपम ग्रन्थ के तूफानी उपदेशों का कार्य रूप में परिणत करने से।


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