हो उठी झंकृत विपंची, देव! फिर मैं क्यों न गाऊँ! चल पड़े थे जब चरण ये, खिल उठे थे अयुत शतदल,
छिन्न था बन्धन क्षितिज का, चूमती थी मृत्यु पदतल, रागमय था व्योम, नीचे हरित अंचल मेदिनी का,
ली यही, जग में निरन्तर ज्योति जीवन की जगाऊँ।
कंटकों का जाल पथ में देखकर मैं मुस्कराया। देख दुर्गम गिरि वनों को मैं नहीं फूला समाया।
रात घिर आई, तिमिर के सिन्धु का तब ज्वार आया, गिर पड़ा मैं श्रान्त विह्वल, पैर क्या पीछे हटाऊँ?
भेद उर तम-तोम का फिर शीघ्र ही होगा सवेरा, रंग भर देगा जगत में तूलिका से रवि चितेरा,
भव्य बाल-मराल मानस में तिरेंगे मुदित होकर, ले यही विश्वास पथ पर
देव! बढ़ता नित्य जाऊँ हो उठी झंकृत विपंची, देव! फिर मैं क्यों न गाऊँ!