धर्मों की मूलभूत एकता

September 1953

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(श्री जेम्स ऐलन)

जो लोग बाह्य धार्मिक आडम्बरों के स्थान पर जनसाधारण से विमुक्त होकर सब जीवन सम्बन्धी मौलिक अन्वेषण करते हैं, उनका घमण्ड रूपी अन्धकूप में, जो ऐसे लोगों की प्रतीक्षा करता रहता है गिरना अवश्यम्भावी है। जो यह समझने लगते हैं कि उनके बराबर आध्यात्मिक प्रकाश पाने वाला कोई नहीं, उनके लिए अन्य धर्मों पर आक्रमण करना (रूढ़ि-प्रेमियों की निन्दा करना, मानो रूढ़ि-प्रेमी दोष का पर्याय है) साधारण सी बात हो जाती है। रूढ़ि से विलग होने का अर्थ पाप से मुक्त होना कदापि नहीं है। निःसन्देह सनातन धर्म से विलग होने वाला प्रायः अधिक कटु और अपमान-कारक होता है। यह परिवर्तन और बात है तथा हृदय-परिवर्तन कुछ और। धर्म से अपनी श्रद्धा हटा लेना सरल है परन्तु अपने का पाप से मुक्त करना बहुत कठिन है।

वास्तव में रूढ़ि और अनुमति नहीं, किन्तु घृणा और अहंकार ही त्याज्य हैं। पर धर्म नहीं किन्तु विज पाप ही घृणास्पद है। बुद्धिमान पुरुष इसलिए घमण्ड न करेगा कि दूसरों की अपेक्षा वह अधिक अनुभवशील है, अधिक उच्च स्थान पर है। जो ऐसे नाम मात्र के धर्म के दास अभी तक बने हैं, जिसको कि उसने छोड़ दिया है। दूसरों के प्रति संकुचित, स्वमतान्ध और स्वार्थी आदि शब्द प्रयोग करने से बुद्धिमता नहीं सूचित होती। कोई भी इन शब्दों का प्रयोग अपने प्रति अच्छा न समझेगा। धार्मिक लोगों को दूसरों के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग न करना चाहिए, जिसके प्रयोग से वे स्वयं दुःखी रहते हैं।

जो दया तथा नम्रता-प्रदर्शन कर रहे हैं, वे ही सचमुच बुद्ध है। वे अपने को तुच्छ समझते हैं। दूसरों के प्रति दया दिखाते हैं। अपने दोषों की निन्दा कठोर तर्क द्वारा किया करते हैं। अपराधों को दया-दृष्टि से देखते हैं। इस प्रकार वे प्रकृति तथा वस्तुओं की व्यवस्था को देखने के लिए ज्ञानचक्षु प्राप्त करते हैं जिनके व अन्य लोगों की तथा अन्य धर्मों की वास्तविकता ज्ञात करने में समर्थ होते हैं। अपने अन्य धर्मावलम्बी तथा नियम मात्र पृथक अनेक पड़ौसी को घृणा दृष्टि से नहीं देखते अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का होना आवश्यक है जो अनेक धर्म-विशेष के प्रति निष्ठा रखते हैं और अपने समीपवर्ती के धर्म-पालन में प्रतिरोध नहीं करते, जो अपने पड़ौसी के धर्म कर्तव्य की निन्दा नहीं करते, वे ही संसार को पूर्ण शान्ति की और अग्रसर कर सकते हैं।

सब विभिन्न धर्मों में प्रेम रूपी ऐक्य-शक्ति है। प्रेमी जन सब धर्मों की सानुकम्प एकता में प्रवेश कर चुके हैं।

जो लोग धर्म के मौलिक तत्व को जान गये हैं, जिनका ज्ञान चक्षु खुल गया है, जिनका हृदय अगर दया दाक्षिण्य-वृत्ति में प्रवृत्त है, वे कलह तथा परनिन्दा को पास न फटकने देंगे, अपने मत की प्रशंसा-रूपी भ्रान्ति में न फंसेंगे। इस बात को साबित करने का प्रयत्न न करेंगे कि उनका ही मत सर्वश्रेष्ठ है। और वे दूसरे मतों का अपमान करके अपने धर्म को ऊँचा बनाने का प्रयत्न न करेंगे। जिस प्रकार सत्यवादी पुरुष अपनी तथा अपने कार्य की बड़ाई नहीं करता, उसी प्रकार विनम्र तथा दयाशील पुरुष अपने मन को सर्वोपरि करने का प्रयत्न नहीं करता और न तो दूसरों के पवित्र धर्मों का छिद्रान्वेषण करके अपने धर्म-विशेष का उन्नत करने के फेर में रहता है।

अपने धर्म की बड़ाई और दूसरे के धर्म की निन्दा न करनी चाहिये, प्रत्युत अन्य धर्मों का सम्मान करना चाहिये। सम्मान का कारण चाहे जो कुछ भी हो परन्तु इस प्रकार बरतने से अपने धर्म का ह्रास होगा और दूसरे धर्म का लाभ। विपरीत आचरण होने पर तथा दूसरे का अहित करने पर अपने धर्म का लोप हो जाता है। जो कोई परधर्म की निन्दा करके अपने धर्म का विज्ञापन करता है, वह वास्तव में अपने धर्म के प्रेमवश और उसकी ख्याति दूर तक फैलाने के लिये करता है। यह अंधकारमय तथा प्रगाढ़ भ्रम है, जिससे आकृष्ट होकर लोग यह सोचते हैं कि वे पर-धर्मों के छिद्रान्वेषण से अपने धर्म की सेवा कर सकते हैं। सबसे दयनीय बात तो यह है कि सदैव सनातन धर्मों की निन्दा कर, उन्हें समूल नष्ट करके अन्य लोगों को अपना मतावलम्बी बनाने के आनंद में, अपने ही मत को बदनाम तथा नष्ट करने के चिंतनीय कार्य में लीन रहते हैं।

जिस प्रकार कोई व्यक्ति दूसरों पर मिथ्याक्षेप कर प्रत्येक ओर अपने चरित्र तथा उत्कर्ष पर स्थायी आघात करता है, उसी प्रकार दूसरे मतों की निन्दा करके वह प्रत्येक बार अपने धर्म को तुच्छ तथा कलुषित बनाता है। अन्य धर्मों पर आक्रमण और दोषारोपण करने वाला वही मनुष्य होता है, जो अपने धर्म को अपमानित तथा उस पर आक्रमण होते देख बहुत दुःखी होता है यदि कोई मनुष्य अपने धर्म पर किये गये आक्षेपों को सहन नहीं कर सकता तो उसे ध्यान रखना चाहिये कि वह अन्य धर्मों पर भी आक्षेप न करें। यदि उसे अपने धर्म की प्रशंसा और सहायता करती आती है तो यह उसका कर्त्तव्य है कि वह अन्य धर्म की जो बाह्य रूप से भिन्न होते हुए भी (उसी के धर्म की तरह) श्रेष्ठ आदर्श को अपने सामने रखता है-सहायता तथा प्रशंसा करे। इस प्रकार साम्प्रदायिक जीवन के दुःखों तथा दोषों से मुक्त होकर वह दैवी त्याग तथा दान में भी अपने को दक्ष बना लेगा।

वह हृदय की सौम्यता तथा त्याग को अपना चुका है उन अन्य विकारों से मुक्त हो जाता है जो पक्षपातमय कलह, प्रखण्डता, उत्पीड़ा और कटुता की अग्नि को प्रत्येक युग में प्रज्ज्वलित रखते हैं। यह (हृदय) दया तथा कोमलता के विचारों में निवास करता है। न किसी का अनादर करता है और न किसी से घृणा, किसी से बैर नहीं मोल लेता। सौम्य जन ईश्वरीय-नियम की उस तह को जान लेते हैं जो अन्य प्रकार से नहीं जानी जा सकती। वह सब धर्मों तथा सम्प्रदायों में अच्छाई ही पाता है और उन अच्छाइयों को अपना लेता है।

सत्यान्वेषियों को मतों तथा द्वेष युक्त भेदों का त्याग करना चाहिए। उन्हें त्याग के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। त्यागी तथा दयाशील लोग मिथ्याक्षेप, परोक्ष निन्दा और दूसरों पर दोषारोपण करने से बिल्कुल दूर रहते हैं। ये अन्य धर्म को कुचलकर अपने धर्म की उन्नति नहीं चाहते।

सत्य अपना प्रतिवाद नहीं कर सकता। निर्दोषता, वास्तविकता तथा अटल ध्रुवत्व ही सत्य का स्वाभाविक गुण है। तब धर्मों तथा मतों में अनन्त विरोध क्यों? क्या यह भूल के कारण नहीं हैं? प्रतिवाद तथा कलह तो दोष के साम्राज्यान्तर्गत हैं क्योंकि दोष भ्रमात्मक होने से निज विरोधी होता है।

यदि ईसाई धर्म वाले अपने धर्म को सत्य और बौद्धधर्म को झूठा करार देते हैं और बौद्धधर्म वाले अपने धर्म को सत्य और ईसाई धर्म का मिथ्या बताते हैं तो हमारे सामने एक असात्त्वनीय विरोध खड़ा हो जाता है -क्योंकि दोनों धर्म सच्चे और साथ ही साथ झूठे नहीं हो सकते, परन्तु यदि ये दोनों धार्मिक सम्प्रदाय यह कहें या विचारें कि वास्तव में विरोध का कारण दोष है परन्तु दोष उनमें या उनके धर्म में नहीं किन्तु दूसरे मनुष्य में तथा उसके धर्म में है, तो उससे विरोध और बढ़ जाता है। तब दोष की जड़ क्या है? और सत्य कहां है? क्या इन व्यक्तियों के दृष्टिकोण से दोष नहीं है? क्या वे अपने-अपने दृष्टिकोण को बदल दें- यदि बैर का स्थान उदारता को दे दें तो क्या उन्हें वह सत्य भासित न होगा जो पारस्परिक विरोध से शून्य है?

जो व्यक्ति अपने धर्म को सत्य बतलाता है और दूसरे धर्म को मिथ्या, उसने वास्तव में अपने धर्म के मूल सार को नहीं जाना है -क्योंकि सार वस्तु के पाने पर सब धर्मों में सत्य का प्रकाश पाता है। जिस प्रकार विश्व के अखिल दृष्टव्य विषयों में केवल एक ही सत्य है, उसी प्रकार सब धर्मों की नैतिक शिक्षा पवित्र है-और तब महात्माओं ने केवल एक ही सार वस्तु का उद्देश्य दिया है। ईसा मसीह द्वारा दिये गये पर्वत पर धर्म के प्रवचन के उपदेश सब धर्मों में मिलते हैं और सब महात्मा तथा उनके अनुयायियों ने उन्हीं उपदेशों के अनुसार ही अपने जीवन को बिताया क्योंकि शुद्ध हृदय तथा दोषरहित जीवन ही सत्य है। सिद्धान्तों तथा मत समूहों में सत्य नहीं है। हृदय शुद्धि, जीवन की पवित्रता, करुणा प्रेम तथा परहितेच्छा के ऊपर ही सब धर्म दीक्षा देते हैं। वे सुकर्म करने का और पाप तथा स्वार्थपरता त्यागने का उपदेश देते हैं। ये बातें, सिद्धांत ईश्वर-शास्त्र तथा मतों से कुछ सम्बन्ध नहीं रखतीं। ये क्रियात्मक हैं, अभ्यास करने के लिए हैं और जीवन में व्यवहार के रूप में आचरणीय हैं। लोगों में इन बातों पर मतभेद नहीं होता क्योंकि वे तो प्रत्येक मत द्वारा प्रतिपादित द्वारा सच्चाइयां हैं। पर आखिर मतभेद किस बात के लिए होता है? केवल मीमांसा तथा ईश्वर-शास्त्रों के विषय में ही। लोग सच्ची बातों के विषय में नहीं वरन् झूठी बातों के विषय में मतभेद करते हैं। वे सत्य पर नहीं वरन् दोषों पर कटते-मरते हैं। सब धर्मों का तथ्य यह है कि सत्य के विषय में कुछ जानने के पहिले प्रत्येक व्यक्ति अपने भाइयों से कलह करना छोड़ दे और उसके साथ प्रेम और उदारतापूर्वक बर्ताव करें। किसी व्यक्ति के लिए यह करना उस समय तक कैसे सम्भव होगा जब तक वह अपने पड़ौसी के धर्म को झूठा समझकर उसे समूल नष्ट कर देना अपना परम कर्त्तव्य समझता है? वह दूसरों के प्रति उस व्यवहार का प्रदर्शन नहीं है जिसकी आशा हम अन्य तरीके से अपने प्रति करते हैं।

सत्य और वास्तविकता सब देश और सब काल में अपने ही रूप में रहती है। पवित्र ईसाई और पवित्र बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं। दोनों में हृदय को शुद्धता, जीवन की पवित्रता, निर्दोष आकांक्षाएं और मृत्यु-प्रेम पाये जाते हैं। बौद्ध धर्मावलम्बी के सुकर्म एक ईसाई के सुकर्म से भिन्न नहीं। पाप के लिये प्रायश्चित दुर्विचार तथा दुष्कर्म के लिए चिंता केवल ईसाइयों के हृदय में ही नहीं वरन् सब धर्मावलंबियों के हृदय में उत्पन्न होती है। सहृदयता की बड़ी आवश्यकता है। प्रेम अनिवार्य है। एक ही प्रकार के मौलिक सिद्धान्तों के कारण सब धर्म एक है। किन्तु मनुष्य इन सत्यों में रत नहीं होता। वह उन वस्तुओं के मतों तथा मीमांसाओं में उलझता हैं जो अनुभव तथा ज्ञान की सीमा के परे हैं जो केवल अपने मन-विशेष की रक्षा तथा प्रचार में ही फूटते हैं और परस्पर मुठभेड़ करते हैं।

दोषारोपण प्राथमिक उत्पीड़न है। मैं अच्छा हूं तुम बुरे यह विचार घृणास्पद है। इसी बीच विश्वव्यापक सत्यता को पाकर मनुष्य अहंकार को छोड़ देता है, दोषारोपण रूपी घृणास्पद ज्वालाओं को शान्त कर देता है। अपने हृदय से ‘सब दोषी हैं’ इस दूषित विचार को निकाल कर ‘‘केवल मैं ही दोषी हूं’’ इस प्रकाशमय विचार को अपनाते हैं। ऐसा सोचने के पश्चात वह पाप मुक्त हो जाता है। सबके साथ उदारता तथा प्रेमपूर्वक व्यवहार करता है। भेदभाव नहीं उत्पन्न करता है और फिर्केबन्दी से दूर रहता है। शांति का इच्छुक होता है न कि पक्षपाती। इस प्रकार त्यागमय जीवन व्यतीत करता हुआ सबसे प्रसन्न रहता है। वह सर्वमय हो जाता है। उसे विश्व-व्यापक सत्य भासित हो जाता है क्योंकि जहां एक दोष दूसरे दोष का विरोध करता है और स्वार्थपरता फूट फैलाती है वहां सत्य सत्यता को भासित करता है और धर्म एकीकरण का कारण होता है।


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