मानव जीवन का तत्वज्ञान

September 1953

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(एक चीनी दार्शनिक के विचार)

जिस प्रकार प्रभात काल लवा पक्षी को, सायंकाल की धूसरता उल्लू को, शहद मधुमक्खी को, मृत शरीर गिद्ध को प्रफुलित करते हैं उसी प्रकार जीवन मनुष्य को प्यारा है। मानवी जीवन चाहे उज्ज्वल भले ही हो, किन्तु वह आँखों को चकाचौंध में ही डालता है, चाहे वह निस्तेज भले ही हो, फिर भी निराशा उत्पन्न नहीं करता, वह चाहे जितना मधुर हो, फिर भी उससे जी नहीं ऊबता। चाहे सड़ कर वह बिगड़ गया हो फिर भी छोड़ा नहीं जाता। इतना होने पर भी उसका सच्चा मूल्य कौन जान सकता है।

बुद्धिमत्ता इसी में है, जब जीवन की कदर उतनी ही की जाय जितनी योग्यता है। मूर्खों की तरह न तो यह समझो कि जीवन की अपेक्षा दूसरी कोई वस्तु अधिक मूल्यवान नहीं है, और न ढोंगी बुद्धिमानों की तरह यह ही खयाल करो कि जीवन नि:सार है। केवल अपने स्वार्थ ही के लिये उस पर आसक्त न होओ, बल्कि उससे होने वाले दूसरों के हित का ध्यान रखो।

सोना देने पर भी जीवन नहीं खरीदा जा सकता और न ढेर के ढेर हीरे खर्च करने पर गया हुआ समय फिर वापिस मिल सकता है। इसलिये प्रत्येक क्षण को सद्गुण संपादन करने में ही लगाना बुद्धिमानी का काम है।

हमारा जन्म न हुआ होता अथवा जन्म से भर गये होते तो अच्छा होता-ऐसा न वहाँ और न अपने उत्पन्नकर्ता से यह पूछो कि ‘‘यदि हम पैदा न होते तो तू बुराई किसके लिये बनाता’’? ऐसे-ऐसे प्रश्न करना भूल का काम है क्योंकि भलाई-बुराई तुम्हारे हाथ में है और भलाई न करने का नाम बुराई है।

यदि मछली को मालूम हो जाये कि चारे के नीचे कँटिया है तो क्या वह उसे निगल जायगी? यदि सिंह जान ले कि जाल मेरे फँसाने के लिये बिछाया गया है तो क्या वह उसमें घुस जायेगा? उसी प्रकार यदि यह बात मनुष्य को विदित हो जाये कि जीवात्मा शरीर के साथ नष्ट हो जायेगी तो क्या वह कभी जीने की इच्छा करेगा?

जिस प्रकार पक्षी एकाएक पिंजड़े में फँस जाने पर पटक-पटक कर अपने शरीर की दुर्गति नहीं कर डालता, उसी में पड़ा हुआ दिन व्यतीत करता है, उसी प्रकार जिस स्थिति में हो उससे भागने का प्रयत्न करो उसी में सन्तोष रखो, समझ लो कि हमारे, भाग्य में यही बदा था।

यद्यपि तुम्हारी स्थिति में मार्ग कांटेदार है, किन्तु वे दुःखदायी नहीं हैं। उन सभी को अपनी प्रकृति के अनुकूल बना लो, जहां किन्तु बुराई देख पड़े, समझ लो कि वहाँ सावधानी की आवश्यकता है।

जब तक तुम पुआल के बिछौने पर लेटे हो तब तक तुम्हें बड़ी गहरी नींद आवेगी, किन्तु जब गुलाब के फूलों का बिछौना सोने को मिल गया वहां कांटों से बचने की चौकसी करनी पड़ेगी।

गर्हित जीवन से यशस्वी मृत्यु अच्छी है। इसलिए जितने दिन तुम यश के साथ जीवित रह सकते हो, उतने ही दिन जीवित रहने का प्रयत्न करो। हां, यदि तुम्हारा जीवन लोगों को तुम्हारी मृत्यु से अधिक उपयोगी जान पड़े तो उसकी अधिक रक्षा करना भी तुम्हारा कर्त्तव्य है।

मूर्ख मनुष्य कहते हैं कि जीवन अल्प है, किन्तु तुम ऐसा न कहो, क्योंकि अल्प जीवन के साथ चिंतायें भी तो अल्प ही रहती है।

जीवन का निरुपयोगी भाग निकाल डाला जाय, तो क्या बचेगा? बाल्यावस्था, बुढ़ापा, सोने का समय, बेकार बैठने का समय और बीमारी के दिन शेष यदि जीवन के संपूर्ण दिनों में से निकाल दिये जाये तो कितने दिन शेष रह जाते हैं।

मनुष्य जीवन ईश्वरीय देन है। यदि वह अल्प है तो उससे सुख भी अधिक रहेगा। दीर्घ गर्हित जीवन से हमको क्या लाभ? क्या अधिक दुष्कर्म करने के लिये अपना जीवन बढ़वाना चाहते हो? अब रही बात भलाई करने की। तो क्या वह जिसने तुम्हारा जीवन परिमित कर दिया है उतने दिन के कर्मों को देखकर संतुष्ट न होगा।

ऐ शोक के पुतले मनुष्य! तू अधिक दिनों तक क्यों जीवित रहना चाहता है? केवल श्वांस लेने के लिए, खाने-पीने का लिए और संसार का सुख भोगने के लिये? यह तो पहले ही जाने कितने बार तू कर चुका है। बार-बार वही वही करना अरुचिकर और व्यर्थ नहीं है?

क्या तू अपने गुण और बुद्धि की वृद्धि करेगा? परन्तु शोक! न तो तुझे कुछ सीखना है और न तुझे कोई शिक्षक मिलता है? तुझे तो अल्प जीवन दिया गया है तब तू उसी का सदुपयोग नहीं करता तो दीर्घ जीवन के लिये फिर क्यों अभिलाषा करता है?

हम में विद्या का अभाव है, इसके लिए तू पश्चाताप करता है? उसका अन्त तो तेरे ही साथ श्मशान में हो जायगा। इसीलिये इस संसार में ईमानदार बन कर रह, तभी तू चतुर कहलायेगा।

‘‘कौवे और हिरनों की आयु १०० वर्ष की होती है, और हमारी आयु इतनी दीर्घ क्यों नहीं होती?’’ ऐसा ध्यान में भी न लाए। छिः छिः तुम अपनी समता कौवों और हिरनों से करते हो। यदि इन से तुलना करने बैठो तब भी उनमें विशेष गुण मिलेंगे वे तुम्हारी तरह न तो झगड़ालू हैं और न कृतघ्न हैं, उलटे वे तुम्हें उपदेश देते हैं कि निष्कपट और सादगी के साथ जीवन व्यतीत करने से बुढ़ापे में सुख होता है।

क्या तुम अपने जीवन को इन पशु-पक्षियों से अधिक उपयोगी बना सकते हो? यदि नहीं तो अल्प जीवन तो तुम्हें मिलना ही चाहिये। मनुष्य जानता है कि मैं थोड़े दिन तक इस संसार में रहूंगा तब भी अत्याचार करने के लिये संसार को अपना गुलाम बनाकर छोड़ता है। यदि कहीं वह अगर होता तो न मालूम कितना भीषण अत्याचार करता।

ऐ मनुष्य! तुझे जीवन बहुत काफी मिला है। परन्तु तू इसे न जानता हुआ सदैव दीर्घ जीवन के लिये झींकता है। सच तो यह है कि तुझे दीर्घ जीवन की कुछ भी आवश्यकता नहीं क्योंकि तू उसका दुरुपयोग कर रहा है। तू उसे इस तरह व्यर्थ गँवाता है जैसे तुझे आवश्यकता से अधिक जीवन दिया गया हो। और फिर भी शिकायत करता है मेरा जीवन दीर्घ नहीं बनाया गया!

मनुष्य संपत्ति का ठीक-ठीक उपयोग करने से धनवान होता है। केवल धन की प्रचुरता से ही वह धनी नहीं कहा जा सकता। विज्ञजन पहले ही से वह संयमपूर्वक रहते हैं और आगे भी संयम का ध्यान रखते हैं। परन्तु मूर्खों का हमेशा ही ‘‘श्रीगणेशाय नमः’’ हुआ करता है।

‘‘चलो प्रथम धनोपार्जन कर लें और फिर इसका उपयोग कर लेंगे’’ ऐसा विचार छोड़ दो। वह, तो वर्तमान समय का दुरुपयोग करता है। एक प्रकार से अपना सर्वस्व गँवा रहा है। सैनिक के हृदय को बाण सहसा बेध देता है। उसे कुछ खबर नहीं कि यह बाण कहां से आया। उसी प्रकार मृत्यु मनुष्य को एकाएक आ धर दबोचती है तब उसे स्वप्न में भी यह ख्याल नहीं होता कि मैं इस प्रकार काल ग्रास बन जाऊँगा।

अब आइये जीवन क्या है जिसकी लोगों का इतनी उत्कट इच्छा रहती है? अथवा श्वासोच्छवास क्या वस्तु है जिसका चाव जनसाधारण इतना करते हैं? उत्तर यही देना पड़ेगा कि यह जीवन भ्रमोत्पादक और आपत्तिपूर्ण है। इसके आदि में अज्ञान, मध्यम में दुःख और अन्त में शोक होता है।

जिस प्रकार एक लहर दूसरी लहर को धक्का देती है और फिर दोनों पीछे से आई हुई तीसरी लहर में अन्तर्गत हो जाती है, उसी प्रकार जीवन में एक संकट के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा और तीसरे के बाद चौथा ऐसे ही नये-नये संकटों का आना-जाना लगा रहता है, प्रस्तुत बड़े संकट में पूर्व के संकट छोटे-छोटे संकट विलीन हो जाते हैं। यदि सच पूछिये तो हमारे भय भी हमारे वास्तविक संकट हैं और असम्भव बातों के पीछे पड़कर निराशाओं को झेल लेते हैं।

मूर्ख मृत्यु से डरते हैं, और अमर होने की भी इच्छा करते हैं। जीवन का कौन सा भाग हम हमेशा अपने साथ रखना चाहते हैं? यदि कहिये जवानी, तो क्या जवानी व्यभिचार और धृष्टता में व्यतीत करने के लिये मांग रहे हो? और कहो बुढ़ापा, तो क्या निर्वीर्य अवस्था ही तुम्हें अधिक पसन्द है?

ऐसा कहा जाता है कि, सफेद बालों का बड़ा सत्कार होता है। यह बात सच है, परन्तु सद्गुण यौवन का भी मान बढ़ा सकता है, बिना सद्गुणों के बुढ़ापे का प्रभाव आत्मा की अपेक्षा शरीर पर ही अधिक पड़ता है। कहते हैं कि, वृद्ध पुरुषों का आदर इसलिये होता है कि ये विश्रृंखलता का तिरस्कार करता है। परन्तु जब हम देखते हैं कि वे व्यसन और विषय का तिरस्कार स्वयं नहीं करते, किन्तु व्यसन और विषय उनका ही तिरस्कार करते हैं, तब हमें यही कहना पड़ता है कि लोगों का स्वयं का उपर्युक्त कथन कुछ बहुत सत्य नहीं है।

अतएव यौवन काल में सद्गुणों को उपलब्ध करो तभी बुढ़ापे में भी सत्कार होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118