अखण्ड आनंद के पथ पर

September 1953

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(श्री ब्रजमोहन जी मिहिर)

पीड़ित व्यक्ति के लिए वास्तव में यह संसार दुःख-कानन है। दुःख से घिरे हुए व्यक्ति के अन्दर केवल एक ही विचार कार्य करता है कि वह निरीह और घृणास्पद है। अन्य व्यक्ति न उसके प्रति आकृष्ट होते हैं और न हार्दिक संवेदना ही प्रकट करते हैं और तो और, उसका स्वयं अपने ही ऊपर विश्वास हट जाता है। बात यही है कि दूसरों से न उसे सहायता मिलती है और न सान्त्वना ही, पर उसके मन से यह बात अलग नहीं होती कि शायद किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसे दुःख से छुट्टी मिल जाय।

दुःख के अवसर पर मन से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलती, क्योंकि उसकी अनर्गल इच्छाएं ही दुःख उत्पन्न करती हैं। इच्छाओं से उत्पन्न सुख का तो वह आलिंगन करता है पर दुःख के उपस्थित होने पर उसकी कुछ सुने बिना ही वह उसे भगा देना चाहता है। परिस्थितियों के अनुकूल होने पर यदा-कदा उसे अपनी चाल में सफलता मिल जाती है और बुद्धि निस्सहाय होकर सुषुप्ति-अवस्था में चली जाती है और दुःख के विषय पर गंभीर विचार करने में असमर्थ हो जाती है। मन के चक्र में फंसा हुआ प्राणी इस प्रकार अधिक काल तक दुःख भोगता रहता है। एक के बाद दूसरा-इस प्रकार कितने ही जीवन ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं।

कुछ लोग ऐसे ही भी हैं जो दुःख की घड़ी उपस्थित होने पर उस पर विचार करते हैं और सत्संग का आश्रय लेते हैं। लेकिन अधूरे विचार और बाहरी सत्संग से उन्हें विशेष लाभ नहीं होता, क्योंकि उसमें भी दुःख से भागने के अतिरिक्त उनका कोई दूसरा अभिप्राय नहीं होता। दुःख पर विचार करते समय या सत्संग के अवसर पर उनका पूरा मन वहां नहीं रहता। उनका मन सदा इधर-उधर भटकता रहता है और दूसरों की बातें में दुःख से छुटकारा पाने के लिए समाधान ढूंढ़ता है, जो उसे कभी नहीं मिलता है। कारण वह अपने इन्द्रिय-सुखों को छोड़ना नहीं चाहता। दुःख के अवसर जीवन में बार-बार आते हैं और जब-जब आते हैं। तब-तब मनुष्य को गहरी चोट पहुंचाते हैं। मनुष्य उससे तिलमिला उठता है, रोता और चिल्लाता है, पश्चाताप करता है और उसके मन में भोगों से मुंह मोड़ने की भी इच्छा होती है लेकिन पुरानी आदत अवसर पाने पर उसे भोग-भोगने के प्रति पुनः प्रवृत्त कर देती है और उसका पूर्व का प्रत्यय मन्द पड़ जाता है। वास्तव में उसका यह दुःख भी प्रतारण ही है। किसी कार्य के प्रति सच्चे दुःख से सजगता उत्पन्न होती है। यदि ऐसा न हो, तो समझो कि दुःख का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। दुख में यदि मनुष्य नहीं संभला तो संसार में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो उसे सत-पथ पर ले आ सके।

जिस मनुष्य ने जिन्दगी की बातों को अर्थात् उसके सुख-दुःख को भली−भांति समझ लिया है और जिसके मन में दुःखों से छुटकारा पाने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गयी है, उसे जीवन-पर्यन्त सत्संग करते रहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सत्संग से बहुत कम लाभ उठाने वाले वे ही व्यक्ति होते हैं जो सदा सत्संग करते रहते हैं, लेकिन अपने को समझने की कभी कोशिश नहीं करते। अन्य सभी इन्द्रियों की भांति सत्संग भी उनके लिए वार्तालाप करने का एक स्थान हो जाता है। कहीं दो घड़ी बैठ कर जहां भी वे अपना मन बहला लिया करते हैं, ऐसे लोगों के अज्ञान का जल्दी अन्त नहीं होता। जीवन की किसी बात को सम्मुख रखकर, जिसको कि समझने की उसे अतिशय आवश्यकता है, यदि वह किसी सन्त के पास जाता है तो सम्भव है कि उसे अल्पकाल के सत्संग से ही बहुत बड़ा लाभ हो जाय। लेकिन जो केवल बात सुनने और समय बिताने की गरज से सत्संग करता है, उसे बहुत कम और देरी से लाभ होता है। अष्टावक्र ऋषि ने तो राजा जनक को रकाब पर पैर रखने के जितने अल्प समय में ही ज्ञान करा दिया था। सत्संग का अभिप्राय है-मार्ग में किसी विघ्न के आ जाने पर उसका समाधान कर लेना। हर बात को समझते और साधते हुए आवश्यकता उपस्थित होने पर सत्संग से लाभ उठाते हुए जीवन को ले चलने पर मार्ग सुगम हो जाता है।

मनुष्य का जीवन एक वाटिका है। वाटिका को अच्छी दशा में रखने के लिए उस पर सब ओर से निगाह रखनी आवश्यक है। उद्यान के सौन्दर्य को नष्ट कर देने वाली कोई चीज यदि बीच में उग जाती है तो चतुर माली उसे तुरंत उखाड़ फेंकता है। बाग देखने में यदि अच्छा न हुआ तो माली का सारा परिश्रम व्यर्थ समझा जाता है। माली जमीन को खूब बहाता है और उसे मुलायम बना देता है। जमीन के सब प्रकार से अच्छी हो जाने पर यह भांति-भांति के पुष्प और फल के वृक्षों को यथास्थान उसमें बैठाता है। प्रवीण माली द्वारा इस प्रकार सजाया हुआ बाग देखने में सुन्दर मालूम होता है। बाग के मालिक की भी वहां बैठने की इच्छा होती है और आगंतुकों की भी। यह जीवन भी एक उद्यान के समान है। इसे सब प्रकार संभाल कर रखना चाहिए, ताकि इसकी स्वाभाविक प्रगति में किसी प्रकार का विघ्न न उपस्थित हो। बहुत प्रकार की इच्छाओं से घिर जाने पर मनुष्य का जीवन बिना संभाली हुई वाटिका के समान हो जाता है। इच्छाओं की पूर्ति करने में वह परिश्रम करता है और उसमें संलग्न रहता है। सफलता भी होती है पर प्रायः वह विफल ही रहता है। बहुत समय तक इस सुख-प्राप्ति की धुन में लगे रहने के कारण उसे अनेकों प्रकार के अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। सुख के बीच उसकी प्रतिक्रिया से इसे प्रत्यक्ष अघात पहुंचता रहता है। फिर से वह इसकी को सही जीवन समझता है। दुःख के बहुत बढ़ जाने पर जीवन कभी-कभी उसे भार मालूम होने लगता है। इस घबराहट के बीच उसके मन में एक ही धुन रहती है विपरीत स्थिति और दुःख से कैसे छुटकारा मिले। इसके लिए वह न करने योग्य भी कार्य कर डालता है। दुःख के बहुत बढ़ जाने पर मन और बुद्धि पर उसका काबू नहीं कर जाता। मन की अतिशय खिन्न दशा में तो प्राणी शरीरान्तक चाहने लगता है अशान्त चित्त की यह बहुत ही मलिन दशा है। इसलिए दुःख की साधारण दशा में होश के रहते हुए जब चित्त में सजगता उत्पन्न हो, तो इस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए। दुःख के समय उत्पन्न हुई सजगता को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उचित प्रतिविधान करना चाहिए।

चूंकि हमें अपने सुख का आवश्यकता से अधिक ध्यान रहता है, इसलिये जीवन में यह सारी गड़बड़ी और मुसीबतें हैं। इन्द्रिय सुख के सम्बन्ध में प्रत्येक का यही अनुभव है कि वह ऐसा सुख नहीं है, जो मनुष्य को निश्चिंत कर दे। प्रत्युत वह दिनोंदिन कष्ट उत्पन्न कर बंधन को बढ़ाता ही रहता है। इस सुख में तृप्ति नहीं है। किसी भोग को कुछ समय तक स्थायी रखने से मनुष्य को उसकी आदत पड़ जाती है। फिर तो अनायास ही अचेतन मन उस काम को कर बैठता है। इन्द्रिय सुखों में यदि कोई विघ्न और निर्बंध न होता तो कदाचित इसको भी स्वाभाविक कहा जा सकता और फिर उससे छुटकारा पाने की कोई बात न सोची जाती। संसार में दिखलायी यही देता है विघ्न-बाधाओं से विमुक्त होकर कोई भी व्यक्ति इन्द्रिय-सुखों को नहीं भोग सका है। किसी भी सुख के भोग में सबसे बड़ा विघ्न तो अपना शरीर ही है। इसके अतिरिक्त परिस्थिति की विभिन्नता अनुसार अनेकों प्रकार की दिक्कत है, जो मनुष्य के सामने रोज आया करती है और मनुष्य उनका नित्य प्रति अनुभव करता है। देखने और विचार करने पर यह भी मालूम पड़ता है कि सुख का कोई कार्य नहीं है, जिसके लिए हमें बाह्य किसी भी वस्तु पर निर्भर करना पड़ता हो या हम पर उसकी प्रतिक्रिया न होती हो। ऐसा दशा में कौन प्राणी यह कह सकता है उसका सुख विघ्न-बाधाओं से रहित है। जब यह दशा है तो मनुष्य के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह अपने सुख-दुःख के प्रति सजग होकर जीवन की बातों को समझने की कोशिश करे और अपनी किसी इच्छा का जबर्दस्ती दमन न करके उसके रहस्य को समझे। इच्छा का रहस्य जब भली प्रकार अवगत हो जाता है, तब उसे त्याग करने में दुःख नहीं होता। उचित प्रयास द्वारा मनुष्य उसे छोड़ने में समर्थ होता है। यह काम भी आसन नहीं है। यदि मनुष्य यदा सजग रहे तो सम्भव अवश्य है। सजग होकर भी यदि मनुष्य अपने चिरकाल के अभ्यास को नहीं छोड़ पाता तो उसे कोई दूसरी संज्ञान युक्ति बतलायी भी नहीं जा सकती। ऐसे असमर्थ प्राणी सदा दुःख में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। मनुष्य को सच्चे मार्ग पर लाने के लिए दुःख से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। दुःख ही मनुष्य को सजग होने का अवसर प्रदान करता है। सजगता द्वारा जीवन का बोध हो जाने पर उसकी गति स्वाभाविक हो जाती है। आरम्भ में चित पहले से भी अधिक अशान्त हो जाता है, लेकिन यह अशान्ति सजगता के प्रकाश में धीरे-धीरे कम होने लगती है। आरम्भ की यह वह परेशानी है जो जीवन को समझ की राह पर ले जाती है। इस परेशानी के बीच ही जीवन का सच्चा रहस्य प्रकट होता है। शनैः शनैः मनुष्य उसके बीच में रह कर उसको देखता हुआ और उसके रहस्य को समझता हुआ उससे मुक्त हो जाता है। जीवन त्याज्य बातों को समझकर ज्यों-ज्यों मनुष्य उन्हें आसानी से छोड़ सकने में समर्थ होता जाता है, त्यों-त्यों उसका जीवन अधिकाधिक स्वाभाविक और गंभीर बनता जाता है। त्याग की हुई वस्तु में फिर उसका राग नहीं रह जाता। छोड़ने पर मन में उसके प्रति न कोई क्षोभ होता है और न उस पर विजय प्राप्त करने का रहस्य ही। वह प्राणी अपनी किसी दशा में प्रतिहत नहीं होता। जीवन उसको अधिक रुचिकर और अपना मालूम होता है, क्योंकि उसने उसे पास से देखा है और उसके अलग-अलग पहलुओं पर गौर करना सीखा है। जीवन के साथ समवर्ती होने पर कष्ट कम होने लगता है। उसके सामने जो बात आयेगी, उसे समझने के लिए वह अपना हृदय, मन और बुद्धि अर्पित कर देगा। उसके विचार और कार्य में कोई अन्तर न होगा। अपने को समझने के लिए मनुष्य को अन्य किसी व्यक्ति के उपदेश और आलोचना की आवश्यकता नहीं होती। राग-द्वेष से प्रेरित होकर वह न किसी के प्रति प्रेम प्रदर्शित करेगा और न किसी से घृणा करेगा, न किसी को अपना मित्र समझेगा और न शत्रु ही। वह मनुष्य अपने को समझने में इतना संलग्न हो जायेगा कि बाह्य वस्तुएँ उसके प्रति उपेक्षणीय हो जायेंगी। दूसरों की बातों पर ध्यान देने के लिए उसके पास समय न रहेगा और न वह दूसरों के प्रति कोई विरुद्ध बात ही सोचेगा। किसी को अपने से श्रेष्ठ समझ कर न वह उसका प्रभुत्व स्वीकार करेगा और न किसी को अपने से न्यून समझ कर उसकी उपेक्षा करेगा या उस पर प्रभुत्व दिखलायेगा। दोनों ही दशाओं में भीतर भय और भेद रहता है, इसलिये ऐसे जीवन में न समत्व होता है और न स्वाभाविकता ही। इसका परिणाम संकीर्णता और अवनति है।

जीवन में जब दूसरों का प्रभाव अधिक पड़ने लगता है तब वह मनुष्य अपना नहीं कर जाता। उसके अन्दर विचार और स्वतन्त्र कार्य करने की क्षमता का अभाव हो जाता है। जीवन की ऐसी परिस्थिति में सत्य का प्रदर्शन नहीं होता। सत्य का अनुभव करने के लिए प्रत्येक प्राणी को अपना बन जाने की आवश्यकता है। सत्य की खोज करने वाले को हर्ष, शोक, मोह, अनुराग और प्रभुत्व की भावना को अपने पास नहीं आने देना चाहिए। ये दशाएं मन को उत्तेजित करने वाली होती है। चित को ऐसी स्थिति में रखा जाय कि उस पर बाहरी कोई बात अपना प्रभाव न डाल सके। चित्त में जब आनन्द और निरालम्ब प्रेम स्थान पा लेता है, तब अपने-पराये का भेद मिट जाता है। ऐसा पुरुष न कभी उदास रहता है और न मन लगाने के लिए किसी अवलम्ब की आवश्यकता अनुभव करता है। जीव-जन्तु और लता-बल्लियों के साथ उनका सौहार्द हो जाता है। कष्टदायक अवसरों का भी जीवन में अभाव होना आरम्भ हो जाता है। मन सदा प्रसन्न और एकाग्र रहने लगता है। संसार के साथ उसका अम्लान प्रेम का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। उसको सर्वत्र सत्य का दर्शन होता है और प्रत्येक अवस्था उसके आनन्द की अवस्था हो जाती है। वायु के रूप में वह संसार की सैर करेगा। फूल-पत्तियों और घास के साथ वह नृत्य करेगा, आकाश उसका रूप होगा, जल, पृथ्वी और अग्नि उसके बाह्य प्रतीक होंगे। संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ जब एकता और मैत्री स्थापित हो जायेगी, तब वह खिन्न और भयातुर क्यों रहेगा। उस शुद्ध और पवित्र मन के अन्दर यह वांछित भावना उदय होती है। ऐसे उद्बोधित पुरुष संसार में आनन्द-प्रसार करने के केन्द्र बन जाते हैं। व्यक्त और अव्यक्त दोनों दशाओं में उनके द्वारा कार्य-सम्पादन होता रहता है। आनन्द-उपलब्धि की यह भावना स्वार्थ की भावना नहीं है। इसमें निवास करने से मन के संकल्प-विकल्पों का तिरोभाव हो जाता है। जीवन की शुद्ध और सात्विक सहज दशा है। ऐसे व्यक्ति को देखकर दूसरे प्राणी भी इस शुद्ध भावना को ग्रहण करने की इच्छा करने लगते हैं और इस ओर अपना प्रयास आरम्भ कर देते हैं। इस शुद्ध अवस्था की प्राप्ति एक ही क्षण में नहीं है पर इसमें हताश होने की कोई बात नहीं है। सत्य सबके लिए एक और अनिवार्य है। सभी एक-न-एक दिन इसे प्राप्त करेंगे-प्रश्न केवल समय का हो सकता है। इसके लिए सबसे आवश्यक बात है-तीव्र वेग का होना। तीव्र वेग वाले प्राणी इसे शीघ्र प्राप्त कर लेते है। उन्हें इधर-उधर भटकता नहीं पड़ता। देर तो उनको लगती है, जो मन्द वेग के कारण रास्ते में रुक कर इधर-उधर की सेर करने लगते हैं। आपने देखा होगा कि पर्वतारोहण के शौकीन कुछ ऐसे भी होते हैं जो मार्ग के संकटों की कुछ परवाह नहीं करते। हर एक विघ्न बाधाओं का अतिक्रमण करते हुए वे मनोवांछित शिखर पर पहुंच जाते हैं। चलते-चलते उनके पैरों में रक्त स्राव होने लगता है, पर वह भी उनका आगे बढ़ना रोक नहीं देता। श्री मानसजी के हनुमान जी तीव्र वेग की भावना के एक सुन्दर जगमगाते हुए अनुपम निदर्शन हैं। सत्य की खोज के लिए उनके मन में अपार उत्साह था। जिस गंभीर और विस्हत सागर को देखकर लोग भयभीत हो जाते हैं उसे उन्होंने एक ही छलांग में पार कर लिया। उनका जीवन अमर है। औरों में वह पराक्रम, शक्ति और सत्य की खोज का वेग नहीं था, इसीलिए भगवान श्री राम को उन्हें पार उतारने के लिए सेतु बांधने का आयोजन करना पड़ा। पर पार सब हो गये, क्योंकि सभी के अन्दर उद्देश्य की पूर्ति के लिए लगन थी, सबका हृदय और मन शुद्ध हो चुका था और सभी सत्य पथ के पथिक थे। मन और हृदय दोनों में जब किसी वस्तु के लिए अदम्य आकांक्षा उत्पन्न होती है तब प्राणी उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है इसके लिए किसी भी प्रयास को वह सहर्ष स्वीकार करता है।

भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा लोगों ने इसकी खोज की और उनका कहना है कि सत्य की प्राप्ति के लिए मार्ग अनेक हैं, किन्तु मैं तो समझता हूं कि सत्य की प्राप्ति का मार्ग केवल एक है और वह है ‘‘जीवन के रहस्य को समझना।’’ इसे लोग जब तक भली प्रकार नहीं समझ लेते, तब तक वे अनेकों मार्ग और अनेकों उपायों द्वारा अनुभव प्राप्त करने की चेष्टा करते रहते हैं। लोग कहते हैं कि ईश्वर घट-घट में व्याप रहा है, लेकिन वह भी केवल मुंह से ही कहते हैं। इस सत्य को समझ लेने पर प्राणी अपने प्रत्येक कार्य का जिम्मेदार हो जाता है। वह अपने अन्तरात्मा की ध्वनि को सुनता है और उसके अनुसार आचरण करता है। अर्थात् वह प्रत्येक कार्य में अपने हृदय और मन को एक करके कार्य करने की चेष्टा करता है। हृदय और मन में ऐक्य में ही बुद्धि का विकास है। अन्तः करण में ईश्वर, सत्य अथवा जीवन को अनुभूति हो जाने पर प्राणी अपने समस्त कार्यों के प्रति सावधान हो जाता है। उसका यह पथ जीवन की वास्तविकता को सामने रखता है। इससे जीवन स्वाभाविक और सरल बनता है। फिर उसके अन्दर ईश्वर प्राप्ति और सत्य को जानने की कोई इच्छा नहीं रह जाती, प्रत्युत उसका जीवन ही सत्य हो जाता है। उसका प्रत्येक आचरण, व्यवहार और कार्य इस प्रकार का होता है कि उससे कोई कर्मबंधन नहीं स्थापित होता। इस प्रकार का समत्वमय जीवन ही सत्य है और इसमें ईश्वर का दर्शन है।

सत्य की अनुभूति के बाद सब बातों और सब दशाओं में मनुष्य अपनी सत्ता का अनुभव करता है। संदेह उसके मन से हट जाता है। प्रत्येक स्थिति में वह सत्य के अन्दर निवास करता है। अकेलेपन की भयावह दशा का भी अन्त हो जाता है। प्रतिक्षण सत्य के सम्मुख होने से वह सदा आनन्द में निवास करता है।

सत्य विहीन मनुष्य की दशा जल से बिछुड़ी हुई मछी की-सी होती है। कुछ क्षण में जीवित तो रहते हैं, लेकिन उनके जीवन में आनन्द, उत्साह और सार नहीं रहता। उनकी दशा उस मीन की सी होती है, जो किसी मछुए के जाल में फंसकर अतिशय दुःख से प्राण त्याग करती है। अपने किसी क्षणिक सुख के कारण यदि किसी मनुष्य ने अपनी दशा को इससे कुछ अतिरिक्त समझा है तो मैं कहता हूं कि वह भ्रान्त है और अपने जीवन को भली प्रकार नहीं समझ रहा है। संसार एक बहुत ही बड़ा जाल है, उसके असंख्य छिद्रों में मनुष्य अपनी इच्छाओं की तृप्ति देखता है और लोभ-मोह के कारण उसमें फंसने की चेष्टा करता है। एक बार फंस जाने पर उससे निकलता कठिन है, अतः मनुष्य को श्वास-प्रश्वास में सचेत रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है।

पूर्ण सचेत हो जाने पर कर्तव्य का भाव भी जाता रहता है और उसे कोई वस्तु अपने में फंसा नहीं पाती। आनन्द की सत्ता से अधिक महत्वपूर्ण वस्तु जब दूसरी नहीं है तब संसार का क्षणिक सुख-दुःख पश्चिम में डूबते हुए सूर्य की भांति मन को दूर देश में कहीं अस्त हो जाता है। यह जीवन में तटस्थता की दशा है, जहां संसार के वैभव आकाश में स्थिति प्रातःकालीन नक्षत्रों की भांति फीके होकर आनन्द के परम प्रकाश में विलीन हो जाते हैं। आनन्द की प्राप्ति के पश्चात् संसार की बातों का चित्त पर असर ही नहीं होता। फिर कोई भी पदार्थ अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सकते। सारे प्रपंच मिट जाते हैं।

जब यही एक वस्तु जीवन में प्राप्त करने योग्य है, बल्कि यही जीवन है, तब मनुष्य यहां के सुख-दुःख के पचड़े में पड़कर व्यर्थ अपना समय क्यों नष्ट करता है। मार्ग में यदि कोई प्रतिरोध आ जाय तो उस पर विचार करना चाहिए और उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। आनन्द को सम्पूर्ण रूप में प्राप्त कर लेने की प्रत्येक मनुष्य के अन्दर अभिलाषा होनी चाहिए। इस पथ पर चलते हुए भी ऐसा नहीं है कि दुःख न आवे। दुःख के आने पर उसे टालने की कोशिश न की जाय। ऐसा करने से लगन के होते हुए भी लक्ष्य तक पहुंचने में विलम्ब होगा।

आनन्द की अनुभूति कोई किसी को करा दे, यह सम्भव नहीं है। अपने ही प्रयास से जीवन की यह स्थिति प्राप्त की जाती है। यह कोरी कल्पना नहीं है। बोधपूर्वक प्रयास करने पर इसमें सफलता मिलती है, वह ध्रुव सत्य है। प्रत्येक मनुष्य अपने पुरुषार्थ और प्रयास के द्वारा इसे प्राप्त कर सकता है। लोगों के जीवन में विभिन्नता अवश्य दृष्टिगोचर होती है, लेकिन यह कोई रुकावट नहीं है। सत्य वस्तु में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है।

चूंकि बहुतों के मन में सत्य को जान लेने की इच्छा और लगन है और किसी सरल मार्ग की खोज है, इसलिए मैं उनको इस पथ पर चलने के लिए आमंत्रित करता हूं। एक बार सजग होकर पैर आगे बढ़ा देने पर फिर निराश नहीं होना पड़ता और मनुष्य पीछे कदम हटाना पसन्द नहीं करता। समझ-बूझकर जब हम इस पथ पर पैर रखेंगे तब हमारे अन्दर सुख-दुःख के रहस्य को समझने की क्षमता आ जायगी। सुख का प्रसंग आने पर हमें फूलना नहीं चाहिए बल्कि उनके बीच में रहते हुए उनके रहस्य को समझकर उनसे मुक्त हो जाना चाहिए। आनन्द ही एकमात्र सत्य है। यही एक स्वाभाविक मन्दिर है, जहां सबको आना है। यहां बैठकर आप सच्चे ध्यान में निमग्न हो सकते हैं। इसको एक बार दृढ़तापूर्वक अपना लेने से सारा संदेह दूर हो जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य संसार का हो जाता है और संसार उसका हो जाता है। मैं−पन की पृथक भावना मिटकर विराट में लीन हो जाती है। राग-द्वेष की अग्नि सदा के लिए बुझ जाती है।

इस आत्यान्तिक आनन्द के प्राप्त कर लेने पर मनुष्य स्वतंत्रतापूर्वक संसार में विचरण करता है जो मनुष्य पूर्ण स्वतंत्र है और आनन्द में स्थिति वे ही संसार के सामने कुछ सही बात रख सकते हैं। आनन्द में प्रतिष्ठित हो जाने पर पुरुष प्राणी मात्र का मित्र हो जाता है और प्रेम ही उसका मुख्य आचरण रहता है प्रेम के अतिरिक्त उसके पास और कोई वस्तु नहीं रहती। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर एक ही अनेक में देखने की क्षमता स्वाभाविक ही रहती है। यही मोक्ष की स्थिति है।


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