जागरण गीत (Kavita)

September 1953

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उठ रे मानव निज नींद भगा युग बीत गया तुझको सोते।

अति दूर पड़ी तेरी मंजिल चढ़ना-बढ़ना आसान नहीं।

सोना, रोना, सुधि को खोना सचमुच सुख का सामान नहीं।

झूठी सुमनों की सेज सजी, अच्छा है शूलों पर हंसना।

मिथ्या महलों की मीनारें, इनसे शुभ टीलों पर बसना।

निर्माण नया करना राही क्यों व्यर्थ यहां साहस खोते।

उठ रे मानव निज नींद भगा युग बीत गया तुझको सोते।

चलते आंधी तूफान निरे दीपक जलते रहते फिर भी।

उठते सागर में ज्वार अरे? जलपोत नहीं रुकते फिर भी।

अड़ते आखिर पथ में गिरि भी पर चीर उन्हें सरिता बहती।

कारा की काल कोठरी में देखी कवि की कविता बनती।

तुझको नौका अपनी खेती पतवार नये सिर से होते-

उठ रे मानव निज नींद भगा युग बीत गया तुझको सोते।।

बढ़ने वाले रुकते न कभी भीषण बाधा बरसातों में।

उड़ने वाले थकते न कभी पंछी नभ-झंझावातों में।।

जिनका अंगारों से परिचय उनको न कभी जलने से भय।

निर्भीक वही मिटते जाते, उनको मिलती मिटने से जय।

फलते जग में प्राणी जाहिर पर पीड़ा खुद हैं ढोते।

उठ रे मानव निज नींद भगा युग बीत गया तुझको सोते


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