चार मनःस्थितियाँ और समाधि।

February 1950

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डॉ. गोपालप्रसाद ‘वंशी’, वेतिया)

वेदान्त मत में संसार स्वप्नवत् है। स्वप्न की चार ही अवस्था हैं-स्वप्नावस्था से ये चार ही प्रकार के स्वप्न देखे जाते हैं, प्रकारान्तर की कल्पना का अन्तर्भाव इन्हीं चारों में हो जाता है। स्वप्न की ये दशाएं और इनका क्रम इस प्रकार है :-

(1) जब मनुष्य सोने लगता हैं तो क्रमशः बाह्य व्यापार बन्द होने लगते हैं। पहले दूरस्थ व्यापार से मन उपरत होता जाता है, फिर आस-पास के मकान आदि अन्य वस्तुओं से, पश्चात् शरीर का ज्ञान भी नहीं रहता और आत्मा सहसा एक दूसरे संसार में पहुँच जाता है।

इस प्रथम प्रकार के स्वप्न की अन्तिम दशा में अन्नमय कोश का सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, केवल शरीराध्यास की वासना बनी रहती है। इस प्रथम स्वप्न में जो दृश्य हमारे सामने आते हैं उनके सम्बन्ध में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना मन करता है और इष्टनिष्ट का निर्णय बुद्धि करती है, इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के त्याग के लिये मन, प्राण को प्रेरणा करता है। इस दशा में भयंकर सिंह, सर्प आदि अनिष्ट पदार्थों से स्वप्नद्रष्टा भागना चाहता है तो सोते-सोते अनायास पाँव हिलने-काँपने लगते हैं कभी-कभी उठकर चलने भी लगता हैं। जीवात्मा यह स्वप्न-व्यापार प्राणमय कोश पर्यंत के अध्यास से करता है—यद्यपि इस अवस्था में प्रधान व्यापार प्राणमय कोश का ही रहता है पर इसके अगले तीन कोशों (मनोमय,विज्ञानमय और आनन्दमय) के व्यापार का संबंध भी रहता है, क्योंकि ये तीनों कोश सूक्ष्मता के तारतम्य से परस्पर संबंध है। यथा--(क्रिया)-भागना, चलना आदि प्राणमय कोश का काम है, (कल्पना)-यह इष्ट है या अनिष्ट इत्यादि मनोमय कोश का, निर्णय विज्ञानमय कोश (बुद्धित्व) का और इष्ट में आनन्द-प्रतीत ‘आनन्दमय कोश, का कार्य है।

(2) स्वप्न की दूसरी दशा यह है कि द्रष्टा, सिंह आदि अनिष्ट पदार्थ को देखकर भागना चाहता है, पाँव काम नहीं देते, चल नहीं सकता, किसी को पुकारना चाहता है पर जबान नहीं खुलती, इसका कारण यह है कि इस दशा में आत्मा में प्राणमय कोश का अध्याय छूट जाता है--(क्रिया प्राणमय कोश के सहारे होती हैं, इसलिये ऐसा होता है)--इस अवस्था में शेष तीनों कोशों का काम बराबर जारी रहता है, अर्थात् मन की कल्पना, बुद्धि का निर्णय और इष्ट में आनन्द का मान, यह सब होता रहता हैं। उक्त दोनों प्रकार के स्वप्न सर्व साधारण को होते हैं।

(3) स्वप्न की तीसरी दशा यह है कि वस्तु (स्वप्न इष्ट) या अनिष्ट सामने हैं, पर उसके संबंध में ग्रहण या परिहार की कल्पना नहीं होती। इष्ट, तटस्थ बना रहता है, यह विज्ञानमय कोश का काम है, इसमें वस्तु का बोध मात्र होता है और यह स्वप्न प्रायः सत्य ही होता है। इसी स्थिति की उत्कृष्ट दशा का नाम योग में- ‘ऋतम्भरा, प्रज्ञा हैं। इसी प्रज्ञा के द्वारा वेदादि शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान होता है, इसमें सात्विक वासना का लेश होता है।

(4) स्वप्न की चौथी अवस्था वह है जिसमें ‘दृश्य, कुछ नहीं होता, केवल आनन्द का आभास होता है क्योंकि इस अवस्था में बुद्धि का व्यापार बन्द हो जाता हैं। यह दशा आनन्द मय कोश की है, इसमें अन्य किसी कोश का संबंध लेशमात्र भी नहीं रहता।

यह अन्तिम दोनों स्वप्न (तीसरा, चौथा) सिर्फ संयमी पुरुष को ही होते हैं। इसे ही ‘सबीज’ या ‘सविकल्प’ भी कह सकते हैं।

इन उक्त प्रकार के चारों स्वप्नों की दशा से परे पहुँचने पर जो भी अवस्था रहती है वही आत्मस्वरूप की दशा, प्रत्यगावस्था अथवा विशुद्ध ज्ञान है।

समाधि से परे जो अवस्था है वह ब्राह्मीभूत अन्नत है। उसमें पहुँचने पर आत्मा परब्रह्म परमात्मा में विलीन होकर स्वयं सत् चित् और आनन्द स्वरूप हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के उपरान्त और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118