सादगी सबसे बढ़िया फैशन है।

February 1950

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(लेखक-महात्मा गाँधी)

आरोग्य जैसे आहार पर निर्भर है वैसे ही, किसी हद तक, पोशाक पर भी। गोरी लेडियाँ शौक के लिये ऐसी पोशाक पहनती हैं कि वे उनके पैर और कमर तक रहें। इससे उन्हें कई प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। चीन में औरतों के पैर इतने छोटे कर दिये जाते हैं कि हमारे बच्चों के पैर भी उनके पैरों से बड़े होते है। इससे चीन की औरतों के स्वास्थ्य को बड़ा धक्का पहुँचता है। इन दो उदाहरणों से पढ़ने वाले समझ सकते हैं कि कुछ अंश में हमारे स्वास्थ्य का आधार पोशाक पर भी है। बहुत अंशों में पोशाक को पसन्द करना हमारे हाथ में नहीं रहता। हम अपने बड़े-बूढ़ों की पोशाक पहनते हैं। और वर्तमान काल में ऐसा करने की जरूरत भी है। पोशाक का मुख्य उद्देश्य क्या है, उसे भूलकर अब पोशाक से हमारा धर्म, हमारा देश और हमारी जाति आदि जाने जाते हैं। मजदूर, मास्टर, कारोबारी आदि की पोशाक भी जुदी ही जाति की होती है। ऐसी स्थिति में आरोग्य की दृष्टि से पोशाक का विचार करने से कुछ लाभ ही होगा।

पोशाक शब्द में जूते और जेवर इत्यादि शामिल समझने चाहिए। पोशाक का मुख्य उद्देश्य क्या है? मनुष्य अपनी प्राकृतिक स्थिति में कपड़ा नहीं पहनता था। स्त्री-पुरुष केवल अपना गुप्त भाग ढक लेते और बाकी शरीर का सब भाग खुला रखते थे। इससे उनका चमड़ा कठिन और मजबूत हो जाता था। ऐसे मनुष्य हवा और पानी को खूब सह सकते हैं। उन्हें एकाएक सर्दी इत्यादि नहीं होती, यह तो प्रायः सभी लोग जानते हैं कि हम केवल नथुनों से ही हवा नहीं लेते हैं। कपड़े पहनकर हम चमड़े के इस बड़े काम को रोकते हैं। ठंडे देश के मनुष्य ज्यों-ज्यों आलसी बनते गये त्यों-त्यों उन्हें शरीर ढकने की जरूरत हुई। वे ठंड न सह सके और पोशाक का रिवाज चल पड़ा। अन्त में लोगों ने पोशाक को मनुष्य का आभूषण मान लिया। फिर उससे देश, जाति आदि की पहचान होने लगी।

असल में प्रकृति ने मनुष्य के शरीर पर चमड़े की बहुत ही योग्य पोशाक दी है। यह मानना कि शरीर नग्न दशा में बुरा मालूम होता है, बिल्कुल भ्रम है। अच्छे से अच्छे चित्र तो नग्न दशा में ही भले दिखाई पड़ते हैं। पोशाक से शरीर के साधारण अंगों को ढककर मानो हम दिखाते हैं कि उनके दोष छिपाने के लिए हम यह कर रहे हैं। हमारे पास ज्यों-ज्यों पैसा अधिक होता है त्यों-त्यों हम अपनी टीमटाम बढ़ाते जाते हैं। हर तरह से आदमी अपनी सुन्दरता बढ़ाना चाहता है। शीशे में मुँह देख-देख कर अकड़ता है- वाह ! मैं कैसा खूबसूरत हूँ। यदि ऐसी आदतों से हम सबकी दृष्टि में फर्क न पड़ा हो तो हम तुरन्त समझ सकते हैं कि मनुष्य का अच्छे से अच्छा रूप उसकी नग्न दिशा में दिखाई देता है, और उसी में उसका आरोग्य भी है। एक पोशाक पहनी कि रूप में उतना ही फर्क डाला। शायद केवल कपड़े से सन्तोष न होने पर स्त्री-पुरुषों ने गहने पहनने शुरू कर दिये। बहुतेरे मर्द भी पैर में कड़े पहनते हैं, कानों में बालियाँ लटकाते हैं और हाथ में अंगूठी पहनते हैं। ये सब गन्दगी के घर हैं। यह समझना बहुत ही कठिन है कि इनके पहनने में कौन-सी शोभा फटी पड़ती है। इस विषय में औरतों ने तो हद ही कर दी है। ये पैरों में ऐसे भारी-भारी कड़े, पाजेब पहनती हैं कि पैर उठाना भी कठिन हो जाता है। बालियों से कान गुँथे रहते हैं। नाक में भारी नथ लटका करती है और हाथों में तो जितने गहने हों उतने ही थोड़े! इस पहनाव से शरीर पर बहुत मैल जमा हो जाती है। कान और नाक में तो मैल की हद ही नहीं रहती। हम इस मैली दशा को शृंगार समझ कर खूब पैसे फूँकते हैं। चोरों की वजह से जान जोखिम में डालते हुए नहीं डरते। किसी ने बहुत ठीक कहा है कि “अभिमान से पैदा हुई मूर्खता को हम तकलीफ झेलते हुए जो नजराना देते हैं वह बहुत ही अधिक होता है।” ऐसे उदाहरण बहुत लोगों ने अपनी आँखों देखे होंगे कि कान में फोड़ा होने पर भी औरतों ने अपना बालियाँ नहीं उतारने दीं। हाथ में फोड़ा होकर पक गया। फिर भी पहुँची न उतरी। उंगली पककर सूज आई तब भी मर्द और औरतें हीरा जड़ी अंगूठी अपनी उंगली से उ

तार डालना रूप में फर्क आ जाने का कारण समझती हैं।

पोशाक के सम्बन्ध में अधिक सुधार मुश्किल हैं। फिर भी हम गहनों और अनावश्यक कपड़ों को एकदम विदा कर सकते हैं। रीतिरिवाज के लिये कुछ कपड़ों को रखकर बाकी को अलग कर सकते हैं। पोशाक मनुष्य का आभूषण है, यह बहम जिन लोगों के मन से दूर हो गया है वे बहुत कुछ सुधार करके अपना आरोग्य ठीक कर सकते हैं।

आजकल यह हवा बह रही है कि यूरोप की पोशाक हमारे लिए बहुत अच्छी है, इस पोशाक से हमारा रौब बढ़ जाता है और लोग हमारा सम्मान करने लगते हैं। इन सब बातों पर विचार करने का यह स्थल नहीं। यहाँ तो इतना कहना आवश्यक है कि यूरोप की पोशाक यहाँ के ठण्डे भागों के लिये भले ही योग्य हो, किन्तु वह भारतवर्ष के लिये उपयोगी नहीं सिद्ध हो सकती। हिन्दुस्तान के लिये, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, हिन्दुस्तान की ही पोशाक समुचित हो सकती हैं। हमारे कपड़े खुले और ढीले-ढाले होते हैं। इसलिये उनमें हवा आती जाती है। हमारे कपड़े अधिकतर सफेद होते हैं जिससे सूर्य की किरणें बिखर जाती हैं। काले रंग के कपड़े में सूर्य की गर्मी अधिक मालूम होती है। इसका कारण यह है कि उसमें लगकर किरणें बिखरती नहीं !

हम अपना सिर प्रायः ढके रहते हैं और बाहर जाते समय तो अवश्य ही ढक लिया करते हैं। पगड़ी तो हमारी पहचान हो गई है। फिर भी, जहाँ तक सुविधा हो, सिर खुला रखने में ही फायदा है। बाल बढ़ाना और पटिया पाड़ना जंगलीपन की निशानी हैं। बढ़े हुए बालों में धूल, मैल और जूएं पड़ जाती हैं। कहीं सिर में फोड़ा हुआ तो उसका इलाज करना भी कठिन हो जाता हैं। सिर पर साहब लोगों के से बाल बढ़ाना पगड़ी बाँधने वालों के लिये बेवकूफी है।

पैरों के द्वारा भी हम बहुतेरे रोगों के पंजे में फंस जाते हैं। बूट इत्यादि पहनने वालों के पैर नाजुक हो जाते हैं। उनके पसीना निकलने लगता है और वह बहुत ही बदबू करता है। जिस मनुष्य को बास की परख है वह मोजे और बूट पहिनने वाले मनुष्य के पास बदबू के मारे उस समय खड़ा नहीं रह सकता जब वह अपने मोजे और बूट उतार रहा हो। हम जूतों को पादत्राण और कंटकारि कहते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जब काँटों में, ठण्डक में अथवा धूप में चलना पड़े तभी जूते पहनने चाहिये और सो भी इस प्रकार के जिनसे केवल तलुये ढंकें। सारा पैर न ढक जाय। इस अभिप्राय को सेंडल (खड़ाऊंदार) जूते भली-भाँति पूरा कर सकते हैं। जिनका सिर दुखता हो जिनका शरीर कमजोर हो, जिनके पैरों में दर्द होता हो और जिन्हें जूते पहनने की आदत है, उनके लिये तो हमारी यही सलाह हैं कि वे नंगे पैर चलने का प्रयोग कर देखें। इससे उन्हें तुरन्त मालूम होगा कि पैर खुले रखने और उन्हें पसीना-रहित रखने से हम तत्काल कितना लाभ उठा सकते हैं।


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