ईश्वर की महिमा अपार है।

February 1950

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(पं. सच्चिदानन्दजी तिवारी, रीठी)

ईश्वर की महिमा अपार है। उसका आँशिक वर्णन अपनी-अपनी मति के अनुसार सब करते हैं पर उसका समस्त साँगोपाँग वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है क्योंकि बुद्धि जितनी दूर तक दौड़ सकती हैं उस परिधि से परमात्मा की सीमा असंख्य गुनी हैं। बुद्धि जितनी बातों को जानती है उसकी अपेक्षा वे बातें असंख्य गुनी अधिक हैं जिनका अब तक बुद्धि को कुछ भी पता नहीं चला हैं। जब स्थूल प्रकृति के सम्पूर्ण रहस्यों को ही हम नहीं जानते तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म ब्रह्म तत्व को पूर्ण रूप से जान लेना किस प्रकार संभव है? इतना होते हुए भी ईश्वर हमसे सर्वथा अविज्ञात भी नहीं हैं। वह प्रत्येक स्थूल पदार्थ में व्यापक होने से हमारे अति निकट हैं, प्रत्यक्ष रूप से सामने खड़ा है, यहाँ तक कि हमारे गुह्यातिगुह्य मर्मस्थल अन्तः करण में समाया हुआ है, इस प्रकार वह निकट है, उसकी संज्ञा सर्वत्र प्रकाशित और प्रकट हैं। उसी लिए उसे “अणोग्णयान महतो महीयान” कहा गया हैं।

ईश्वर अविचल है वह विचलित नहीं होता, फिर भी विश्व ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अणु परमाणु को गति, प्रेरणा और शक्ति प्रदान करता हुआ सृष्टि का संचालन करता है। वह अद्वैत हैं, क्योंकि “ईषवास्य मिदं सर्वं यत्किंचिद् जगत्याँजगत” यह जो कुछ हैं सब प्रभुमय है। परन्तु वह द्वैत भी है, और असंख्य भी हैं क्योंकि अनादि काल से इस सब पसारे को वह अपने साथ लिये हुए हैं ओर अनन्तकाल तक इसे अपने साथ लिये रहेंगे। जितने भी रूप हैं सब उसी के रूप हैं। वह निष्क्रिय, निराकार, निर्विकार हैं, साक्षी और दृष्टा मात्र रहकर वह निर्लिप्त हैं। इतने पर भी सारी क्रियाएं उसी की हैं, समस्त साकार उसी के हैं, उसकी इच्छा ही प्राणियों की इच्छा है। विशुद्ध से विकारी बन जाना उसी की लीला है।

वह अमर है, अजर हैं, अविनाशी है, वह न बदलता है और न घटता बढ़ता है, फिर भी प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति, वृद्धि, हीनता और मृत्यु का वही कारण है। वह हमें दिखाई नहीं देता पर हम सबको देखता है। उसे हम भली प्रकार नहीं जानते पर वह हमें आदि से अन्त तक भली प्रकार जानता है। हम उसकी दयालुता, और हितचिन्तकता को नहीं जानते, थोड़ी सी अनिच्छित परिस्थिति सामने आ जाने पर कहते हैं कि ईश्वर हमसे रुष्ट हैं, हमारे ऊपर दैवी प्रकोप हैं, हम उसे कोसते हैं और अन्यायी बताते हैं, पर वह जानता हैं कि हमारा वास्तविक हित किस बात में है। कई बार विपरीत परिस्थितियाँ ही हमारे सर्वोच्च हित में होती हैं इस बात को हम नहीं समझ पाते पर वह जानता है।

ईश्वर शक्ति का समुद्र हैं। जब हम उससे मिलते हैं तो शक्ति प्राप्त करते हैं। वह सत् का केन्द्र हैं उसकी समीपता से हमारा सतोगुण बढ़ता है। वह चित् हैं-उसकी आराधना से हममें चैतन्यता, स्फूर्ति, क्रिया-कुशलता आती हैं। वह आनन्द का स्रोत हैं- जब हम उसका ध्यान करते हैं, उपासना में निमग्न होते हैं तो आनन्द का पारावार नहीं रहता। आत्मानन्द की उपलब्धि ही जीवन का लक्ष्य है दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि परमात्मा की प्राप्ति ही जीव का ध्येय है। जो ईश्वर के मार्ग पर चलता है वही सत्पथगामी, बुद्धिमान और सूक्ष्मदर्शी कहा जा सकता हैं।

हमें प्रभु प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि वही एक मात्र प्राप्त करने योग्य हैं। हमें भगवत् चिन्तन में निमग्न रहना चाहिए क्योंकि वही वह दुर्ग हैं जिसमें प्रवेश करने पर विषय विकारों के, पाप तापों के विषैले बाणों से रक्षा हो सकती है। भवबन्धन को तरने के लिए प्रभु का स्मरण ही नौका हैं। आत्मकल्याण का आत्म लाभ सर्वोपरि स्वार्थ साधन केवल प्रभु चरणों की शरणागति से ही हो सकता है। इसलिए हम ईश्वर का चिन्तन करें , मनन करें, ध्यान करें , गुणगान करें , और उसे अपना जीवन सहचर बनावें , यही उचित है।


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