सत्कर्मों से दुर्भाग्य भी बदल सकता है।

February 1950

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प्रारब्ध कर्मों का, भूतकाल में किये हुए भले बुरे कामों का, फल मिलना प्रायः निश्चित ही होता है। कई बार तो ऐसा होता है कि कृतकार्य का फल तुरन्त मिल जाता है, कई बार ऐसा होता है कि प्रारब्ध भोगों की प्रबलता होने के कारण विधि निर्धारित भली-बुरी परिस्थिति वर्तमान काल में बनी रहती है और इस समय जो कार्य किए गए है उनका परिणाम कभी पीछे भुगतने के लिए जमा हो जाता है।

यदि प्रत्येक भले बुरे कर्म का फल तुरन्त हाथों-हाथ मिल जाता होता तो इस संसार में कहीं भी पापी और पाप का निशान ढूंढ़ने मिलता। क्योंकि जैसे विष खाते ही तुरन्त मृत्यु हो जाती है। वैसे ही पाप करते ही उसकी भयंकर पीड़ा होती तो उसे कोई स्पर्श भी न करता और बुराई का स्वादिष्ट फल मिठाई की तरह मधुर, बर्फ सा शीतल, चन्दन सा सुगंधित और सब प्रकार मनोहर आनन्द मय होता तो दौड़ दौड़ कर सभी लोग बुराई करते, अशुभ कर्म करने में कोई किसी से पीछे न रहता। परन्तु परमेश्वर ने मनुष्य की बुद्धिमता की परीक्षा करने के लिए और उसकी स्वतंत्रता, दूरदर्शिता और विवेकशीलता को स्वतंत्र दिशा में विकसित होने देने के लिए ऐसी व्यवस्था की है कि कर्मफल तुरन्त तो बहुत कम मिलते हैं वे आगे पीछे के लिए जमा होते रहते है। यह उधार खाता, उचंत खाता, बैंकों के हिसाब की तरह आगे पीछे जमा खर्च में पड़ता रहता है। यह वह स्थान है जिस पर मनुष्य की बुद्धिमता परखी जाती है, इसी खतरे से सावधान करने के लिए धर्म का विधान है। वेद पुराण शास्त्र, इतिहास इसी जगह पर सावधान करने के लिए अपना अभिमत घोषित करते रहते हैं। फिर भी लोग चूकते हैं।-भ्रम में पड़ते हैं, और इस संदेह में पढ़ते हैं कि जाने कर्मफल मिलता भी है या नहीं। शास्त्रों की वाणी, धर्म की व्यवस्था जाने सच है भी या नहीं। इस संदेह में भ्रमित होकर ही वे पाप और नास्तिकता को अपना लेते है। तुरन्त फल न मिलना यही तो माया है, इस माया में ही मनुष्य भ्रमित होता है। आग छूने से जलन और बर्फ छूने से ठंडक की भाँति यदि पाप पुण्य का स्पर्श अपना अपना तुरन्त परिणाम दिखाते तो वेदशास्त्र धर्म भजन, पूजन कथा, कीर्तन आदि किसी की जरूरत न पड़ती। जैसे हरी घास को देखते ही गधा सीधा उसे खाने को चला जाता है वैसे ही सब लोग पुण्य के लिए सीधे चल देते है। और जैसे लाल झंडे को देखकर भैंस बिदकती है वैसे ही पाप का नाम सुनते ही लोग उससे बचकर दूर भागते हैं। पर ऐसा है नहीं, यही ईश्वर की माया है। हम माया को समझें और उसके जाल में न उलझें यही हमारी बुद्धिमानी का प्रमाण हो सकता है।

जैसे गोबर के उपले आज थापे जाएं तो वे कई दिन में सूख कर जलाने लायक होते है। हम जो भले बुरे कर्म करते रहते हैं उनका भी धीरे धीरे परिपाक होता रहता है और कालान्तर में वे कर्मफल के रूप में परिणित होते है। इसी प्रक्रिया को भाग्य, तकदीर, कर्मलेख, विधाता के अंक, प्रारब्ध, होतव्यता, आदि नामों से पुकारते हैं। हम देखते हैं कि कई व्यक्ति अत्यन्त शुभ कर्मों में प्रवृत्त है पर उन्हें कष्ट में जीवन बिताना पढ़ रहा है और जो पाप में प्रवृत्त हैं वे चैन की छान रहे हैं। इस का कारण यही है कि उनके भूतकाल के कर्मों का उदय इस समय हो रहा है और आज की करनी का फल उन्हें आगे आने वाले समय में मिलेगा।

मोटा नियम यही है कि जो किया गया है, उसका फल अवश्य मिलेगा। कर्म जैसे मन्द या तीव्र किये गये होंगे उनकी बुराई अच्छाई के अनुसार न्यूनाधिक सुख दुख का विधान होता है। यह कर्म भोग बड़े बड़ों को भोगना पड़ता है।

परन्तु इसमें सूक्ष्म नियमानुसार कभी कभी हेर फेर भी हो जाता है। जो प्रारब्ध परिपक्व होकर भोग के रूप में प्रस्तुत है उसमें परिवर्तन होना तो कठिन है पर जो कर्म अभी पक रहे हैं, भोग बनने की स्थिति में जो अभी नहीं पहुँच पाये हैं उन पर वर्तमान कर्मों का प्रभाव पड़ता है और उनका फल न्यून या अधिक हो सकता है अथवा वे नष्ट भी हो सकते हैं। धर्म ग्रन्थों में जहाँ शुभ कर्मों का महात्म्य वर्णन किया गया है वहाँ स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख आया है कि “इस शुभ कर्म के करने से पिछले पाप नष्ट हो जाते हैं।” यहाँ सन्देह उत्पन्न होता

है कि यदि उस कर्म के करने वाले के पाप नष्ट ही हो गये तो वर्तमान में तथा भविष्य में किसी प्रकार का दुख या अभाव उसे न रहना चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं, शुभ कर्म करने वाले भी अन्य साधारण व्यक्तियों की तरह सुख दुख प्राप्त करते रहते हैं।

पूर्वकृत पापों के नष्ट होने का संबंध उन कर्मों से है जिनका अभी परिपाक नहीं हुआ है, जो अभी संचित रूप में पड़े हैं और समयानुसार फलित होने के लिए जो सुरक्षित रखे हुए हैं। वर्तमान काल में यदि अधिक बलवान शुभकर्म किए जाएं, मन में यदि उच्चकोटि की सतोगुणी भावनाओं का प्रकाश प्रज्वलित रहे तो उसके तेज से, ऊष्मा से वह अशुभ संचय झुलसने लगता है और हत प्रभ हीन वीर्य होने लगता है। जहाँ अग्नि की भट्टी जलती रहती हो उसके आस पास में कई पुस्तकें औषधियाँ आदि रखी रहें तो वे सब उस गर्मी के कारण जीर्ण शीर्ण निस्तेज और क्षतवीर्य हो जायेंगी। कोई बीज उस गर्मी को रखे रहें तो उनकी उपजाने की शक्ति मारी जायेगी। इसी प्रकार यदि वर्तमान काल में कोई व्यक्ति अपनी मनोभूमि को तीव्रगति से निर्मल और सतोगुणी बनाता जा रहा है तो उसकी तीव्रता से भूतकाल के अशुभ कर्मों की शक्ति अवश्य नष्ट होगी। इसी प्रकार यदि भूतकाल में अच्छे कर्म किये गये थे और उनका सुखदायक शुभ परिपाक होने जा रहा था तो वह परिपाक भी वर्तमान काल के कुकर्मों, दुर्गुणों, कुविचारों और दुष्ट भावनाओं के कारण हीन-वीर्य, निष्फल और मृतप्रायः हो सकता है। वर्तमान का प्रभाव भूत पर ही पड़ता है और भविष्य पर भी। महापुरुषों के पूर्वज भी प्रशंसा पाते है और संतान भी आदर की दृष्टि से देखी जाती है। दुष्ट कुकर्मियों के पूर्वज भी कोसे जाते हैं और उनकी संतानें भी लज्जा का अनुभव करती है।

स्मरण रखिए वर्तमान ही प्रधान है। पिछले जीवन में आप भले या बुरे कैसे भी काम करते रहे हों यदि अब अच्छे काम करते हैं तो चंद भोग्य बन गये फलों को छोड़ कर अन्य संचित पाप क्षतवीर्य हो जायेंगे और यदि उनका कुछ परिणाम हुआ भी तो बहुत ही साधारण स्वल्प कष्ट देने वाला एवं कीर्ति बढ़ाने वाला होगा। शिवि, दधीच, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, ध्रुव, पांडव आदि को पूर्व भोगों के अनुसार कष्ट सहने पड़े पर वे कष्ट अन्ततः उनकी कीर्ति को बढ़ाने वाले और आत्मलाभ कराने वाले सिद्ध हुए। सुकर्मी व्यक्तियों के बड़े-बड़े पूर्व घातक स्वल्प दुख देकर सरल रीति से भुगत जाते हैं। पर जो वर्तमान काल में कुमार्गगामी हैं उनके पूर्वकृत सुकर्म तो हीन वीर्य हो जायेंगे जो संचित पाप कर्म हैं वे सिंचित होकर परिपुष्ट और पल्लवित होंगे, जिससे दुखदायी पाप फलों की शृंखला अधिकाधिक भयंकर होती जाएगी।

हमें चाहिए कि सद्विचारों को आश्रय दें और सुकर्मों को अपनायें, यह प्रणाली हमारे बुरे भूतकाल को भी श्रेष्ठ भविष्य में परिवर्तित कर सकती है।


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