विवाह-आत्म विकास रूपी सोपान की एक बड़ी सीढ़ी है।

February 1950

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(श्री दौलतराम कटहरा बी0 ए0)

हिन्दु धर्म में जिन षोडश संस्कारों का विधान का ध्येय जीव को पशुत्व से देवत्व की ओर उन्मुख करना है। जीव अपनी शैशव दशा में पशु के समान ही खाता-पीता सोता-जागता रोता-चिल्लाता रहता है। उस समय उसके जीवन में बुद्धि तत्व अविकसित रहने से उसका जीवन आध्यात्मिक नहीं होता। जब वह तनिक बड़ा होता है तब क्रमशः माता-पिता और गुरुजनों की आज्ञा पालन आदि गुणों को सीखता है इस तरह उसे धीरे धीरे आत्म-दमन, आत्म-संयम और इच्छा-निरोध का पाठ सीखना पड़ता है। उसे आज्ञा-पालन द्वारा अपने क्षुद्र ‘स्व’ का-अपने दैहिक व्यक्तित्व का भाव भुलाना पड़ता है और तब धीरे धीरे उसकी गुहा में आत्म का प्रकाश होता है, उसका आत्म-भाव उभरता है और तब उसका आत्म-विस्तार प्रारम्भ होता है। ज्यों-ज्यों वह आत्म-दमन करता है, अपने ऊपर नियंत्रण लगाता है, त्याग करता है, त्यों-त्यों उसमें आत्मीयता का भाव बढ़ता जाता है। बड़ा होने पर जीव का विवाह संस्कार होता है। यह होने पर जीव के ऊपर अनेक जिम्मेदारियाँ आ पड़ती है। यहाँ तो देह-भाव-विलोपन और आत्म-बलिदान का पाठ पूरा-पूरा सीखना पड़ता है। कालान्तर में जो संतान प्राप्ति होती है, उसकी सेवा बीना आत्म त्याग और बलिदान के संभव नहीं। साथ-साथ अपने जीवन सहचर के व्यक्तित्व में जो अपने व्यक्तित्व को मिलाना होता है-वह बिना मिलाए रख कर नहीं बन सकता। इस जीवन में तो इच्छा-निरोध, आत्म संयम की पूरी-पूरी साधना करनी पड़ती है, क्योंकि बिना इसके अपना जीवन सहचर के साथ पूर्णतया घुल-मिल जाना नहीं बनता। अतएव विवाह में आत्म-विलीनीकरण परमावश्यक है और यह आत्म विलीनीकरण- देह-भाव का यह उद्देश्य-पशुत्व को दबाने और देवत्व को जगाने का एक साधन है। अतएव विवाह पशुत्व से देवत्व की और बढ़ाने का एक मार्ग है।

विवाह भौतिक दृष्टि से अतिरिक्त, अध्यात्मिक जीवन के क्रमिक विकास की दृष्टि से भी जीव के बाल्य-काल के पश्चात स्वाभाविक रूप से ही आवश्यक है बाल्य-काल के उपरान्त आध्यात्मिक सोपान पर आगे चढ़ने के लिए जो अगली सीढ़ी हो सकती है वह विवाह-बन्ध ही है। बाल्यकाल के उपराँत एक दम संन्यास धर्म में पहुँचना सबके लिए सरल नहीं और न अपेक्षित ही है। बाल्य-काल में सदा खाते-पीते, सोते-जागते सुखों का उपभोग ही होता है-इंद्रियों की तृप्ति का प्रयत्न ही चलता रहता है। इच्छाओं का निरोध नहीं होता किंतु इसके ठीक विपरीत संन्यास में एक दम त्याग ही त्याग है। अतएव विवाह ही एक ऐसी बीच की अवस्था है जो मनुष्य को विरक्ति और भोग की अवस्था के ठीक बीचों-बीच रखकर विरक्ति और त्याग के साथ साथ ही सुख-भोग की शिक्षा देती है। मध्यम मार्ग राग-द्वेष से वियुक्त होकर सुखोपभोग करना इस जीवन के अतिरिक्त न तो बाल्यावस्था में संभव है और न संन्यासावस्था में। इसलिए विवाह एक पवित्र बंधन है और विवाहित जीवन को योग्यतापूर्वक निबाहने में ही मनुष्य का आध्यात्मिक कल्याण है।

सफल विवाहित जीवन ईश्वर से सम्मिलन की पूर्वावस्था है। जायसी आदि संतों ने ईश्वर-प्रेम कैसा होना चाहिए उसकी एक क्षुद्र झाँकी पति-पत्नी के प्रेम को माना है। जायसी ने अपने काव्य पद्मावत में महारानी पद्मिनी और रतनसिंह के प्रेम का उत्तम विवरण किया है। जब लौकिक प्रेम के निबाहने में इतनी जानिसारी की आवश्यकता होती है तो ईश्वर-प्रेम तो फिर सिर का सौदा है, सिर हथेली पर रखकर चलना है। अतएव लौकिक प्रेम ही ईश्वर से सामीप्य लाभ करने का मार्ग प्रस्तुत करता है। शास्त्रकारों की दृष्टि में विवाहित जीवन पवित्र जीवन है। तैत्तरीयोपनिषद् में तो “प्रजातंतु माव्यवच्छेत्सीः” ऐसा उपदेश है। अतएव जहाँ पवित्र जीवन है वहाँ पापमय उत्पत्ति कहाँ हो सकती है। फिर हम ब्रह्म ज्ञान हो जाने पर भी सत्य काम जाबाल और समुग्वा रैक्व जैसे ब्रह्म ज्ञानियों को भी विवाह करते देखते हैं। इससे भी जीवन की पवित्रता ही प्रतिपादित होती है। केवल आत्म-संयम का होना न होना ही विवाहित जीवन को पवित्र या अपवित्र बना देता है। पुनश्च भगवान कृष्ण ने भी तो कहा है “धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ” अर्थात् प्राणियों में स्थित मैं धर्म अविरुद्ध काम हूँ।

ऋग्वेद का वचन है।

समानी व आकूतिः समाना हृदय समान हो,

अर्थात् हमारा आचरण समान हो,

हमारे मन समान हों और हम एक दूसरे की सहायता के लिए सदा तत्पर रहें। यदि हम अपने जीवन-सहचर के साथ भी एकात्म्यता और अभिन्नता का अनुभव नहीं कर सकते तो वेद में वर्णित समाज के साथ इतनी अभिन्नता हो सकना तो बहुत दूर की बात है। इस दृष्टि से भी विचार करें तो विवाह-बन्धन उत्कृष्ट सामाजिक तथा आध्यात्मिक जीवन यापन करने के लिए उत्तम शिक्षण-स्थल है। विवाह आध्यात्मिक विकास के लिए सुअवसर प्रदान करता है।

विवाहित जीवन बहुतों के लिए दुःखमय प्रतीत होता है। किंतु इसका कारण केवल आत्म-संयम और पुरुषार्थ की कमी है। कठिनाइयाँ केवल हमारी चरित्र-गत तथा पुरुषार्थ संबंधी न्यूनताओं की ओर ही संकेत करती हैं और मानों हमें उन पर विजय प्राप्त करने के लिए उद्बोधित करती है। जो लोग पलायन-मनोवृत्ति लेकर विवाह-बंधन से बल निकलते है वे दुख और कठिनाइयों से भी भले ही बच निकलें, किन्तु कठिनाइयों से बच निकलना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। इससे उद्देश्य की सिद्धि नहीं होती। जीवन का लक्ष्य है अपनी आत्म-शक्ति बढ़ाना और अपनी उन चरित्रगत तथा पुरुषार्थ संबंधी न्यूनताओं को दूर करना, जो कठिनाइयों को जन्म देती हैं और जिनके रहते हुए कठिनाइयाँ प्रतीत होती हैं। विवाहित जीवन की उपेक्षा कर तथा अपनी चरित्र-गत न्यूनताओं से अपरिचित रह कर पूर्ण आनन्द भोगने का दावा करना भ्रम मात्र है पूर्ण आनन्द तो पूर्णतया पुरुषार्थी और दोष-मुक्त होने पर ही प्राप्त हो सकता है। विवाह पुरुषार्थी और पूर्णतया दोष-मुक्त होने का बढ़िया साधन है। अतएव जिनके जीवन में कोई दोष नहीं है और पूर्ण पुरुषार्थी है केवल वे ही इस बीच की सीढ़ी-विवाहित जीवन की उपेक्षा करने के अधिकारी हैं-क्योंकि उनको विवाहित जीवन सफल-आत्म-विजय प्राप्त ही रहता है।

मनुष्य ने अपने विकास काल में जिस सर्वोत्तम तत्व को विकसित किया है वह माता-पिता का हृदय ही है। इसमें जिस सुकोमलता का निवास है वह मनुष्य को देवोपम बना सकता इसी के कारण मनुष्य इस हिंसक विश्व में सर्वोपरि सुशोभित हो रहा है। इस प्रेम-मय हृदय की प्राप्ति के लिए विवाह ही द्वार को उन्मुक्त करता है।

विवाहित जीवन में जो बात मैं अत्यन्त बुरी समझता हूँ वह अपने सहचर के प्रति दुरोध है। उसकी नजर की चोरी की कौन कहें हमें तो उससे अपने विचारों को भी न छुपाने का आदर्श सदा अपने सामने रखना चाहिए। हम कभी ऐसे विचारों को स्थान न दें जिसे हम अपने जीवन-सहचर पर प्रकट न कर सकते हों। तभी विवाहित जीवन सफल, सुखी और शाँति-मय हो सकता है।


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