त्यागमय जीवन।

February 1950

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(श्री रमेशकुमारी जी मैनपुरी स्टेट)

आध्यात्म विद्या के अनुभवी आचार्यों ने सुख का बीज मन्त्र ‘त्याग‘ बताया हैं। त्याग ही बड़ी कृषि है जिसके परिणाम स्वरूप हजार गुनी फसल प्राप्त होती है। त्याग का व्यापार सबसे अधिक चतुरता, बुद्धिमत्ता, दूर दर्शिता और विवेकशीलता भरा सर्वथा लाभ ही देने वाला व्यापार है। “पहले दो, तब मिलेगा” का स्वर्ण सिद्धान्त अविचल हैं। नई प्राणवायु ग्रहण करने के लिए फेफड़ों में भरी हुई पुरानी हवा को त्यागना आवश्यक हैं। शौच जाकर पेट खाली न किया जाय तो नये भोजन को उदरस्थ करना कठिन है।

किसान बीज को खेत में बखेर देता है इस त्याग का यथा समय फल मिलता है। विद्याध्ययन में समय श्रम और धन खर्च होता है, समयानुसार इसका फल भी मिलता है। भरी थैली को व्यापार में फंसा देने के बाद, खाली कर देने के बाद ही व्यापारी कुछ लाभ उठा सकता है। पति पत्नी-मित्र मित्र-जब एक दूसरे के लिए कुछ त्याग करते हैं तभी उन्हें मैत्री का सुख मिलता है। यदि दोनों पक्ष अपने अपने मतलब में चौकस रहें अपनी जरा भी हानि न होने दें, केवल स्वार्थ का ही ध्यान रखें तो पति पत्नी में और मित्र मित्र में प्रेम का आनन्द उदय नहीं हो सकता। माता पिता यदि सन्तान के लालन पालन में आत्म त्याग न करे तो सन्तान सुख प्राप्त करना उनके लिए कैसे संभव हो सकता है? बाजार में “इस हाथ दे, उस हाथ ले” का व्यवहार चलता है। कोई वस्तु खरीदनी है तो उसकी कीमत चुकाये बिना अभिलाषित वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। कुछ प्राप्त करने से पहले कुछ देना आवश्यक हैं।

यह नियम आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उसी प्रकार लागू होता है जैसा कि भौतिक जगत में। गीता में बताया गया हैं कि-त्याग ही सुखों का जनक है। यदि आत्मोन्नति करनी है तो त्याग का मार्ग अपनाना आवश्यक है। त्याग का तात्पर्य है-छोड़ना ! हम प्रायः अपने स्वार्थ को, मोह को, अहंकार को, ममता को, स्वामित्व को बहुत बढ़ा लेते हैं फलस्वरूप मनः क्षेत्र पर इतना भार जमा रहता है कि उसके दबाव से अन्तः- करण हर घड़ी दबा हुआ, कुचला हुआ, भारी-भारी रहता हैं। प्रायः धनवान एवं वैभव सम्पन्न लोग रात दिन चिन्ताओं से बेचैन रहते हैं। कारण यह है कि उनकी ममता के सूत्र से बंधा हुआ वह वैभव उनके ऊपर भार बनकर चढ़ उठता है फलस्वरूप वे धन का सुख भोगना तो दूर उस वैभव के भार से दबे हुए कुचले हुए दूसरे दुख उठाते रहते हैं, और एक गरीब की अपेक्षा भी बुरी मनः स्थिति में रहते हैं।

बड़ा संचय इसलिए उपयोगी हो सकता हैं कि उससे बड़ा त्याग किया जाय। अन्यथा भी हिंसा, असत्य, चोरी, दुराचार की भाँति ही परिग्रह को भी पाप माना गया है। आत्मोन्नति का साधन योग है, योग की आरंभिक सीढ़ी यम नियम है। यम पाँच हैं-“अहिंसा, सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यपरिग्रह यमः” इस सूत्र में महर्षि पातंजलि ने अपरिग्रह को आत्मोन्नति का प्रारंभिक तथ्य बताते हुए स्पष्ट कर दिया है कि जो लोग केवल ममता स्वार्थ और संचय ही पसंद करते हैं, त्याग करने में जिनकी रुचि नहीं हैं वे आत्मोन्नति नहीं कर सकते। त्याग के बिना आत्म सुख की प्राप्ति असंभव है।

हमारे धर्मशास्त्रों में पग पग पर दान का महात्म्य वर्णित है। हर कर्मकाण्ड के साथ हर शुभकर्म के साथ हर आपत्ति के निवारण के लिए, कुछ न कुछ दान करना आवश्यक होता है, जिनमें मनुष्य त्याग का पाठ पढ़े। हमारे प्रातःस्मरणीय ऋषि मुनि, जिनके चरणों में ऋद्धि सिद्धि लोटती थी, भिक्षाटन करते थे, जिससे वे लोगों को दान का, त्याग का क्रियात्मक पाठ पढ़ा सकें अभ्यास करा सकें। कंदमूल फल खाकर गुजर कर सकने वाले, वल्कल वस्त्रों से तन ढके रह सकने वाले वीतराग महात्माओं को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती पर लोगों को त्याग की साधना कराने के लिए वे भी भिक्षाटन करते हैं। इसमें लेने वाले का लाभ नहीं देने वाले का ही लाभ प्रधान है। आज के भिक्षाजीवियों की दुरावस्था का भयंकर चित्र खींचते हुए तो दुख होता है पर प्राचीन काल में दान धर्म का उदय आत्म कल्याण के प्रधान साधन के रूप में ही हुआ था।

एक कथा है कि एक चोर किसी साधु के पास गया, और कहने लगा कि मुझे भी ऊँचा उठने का, स्वर्ग जाने का उपाय बताइए। साधु ने एक दिन नियत कर दिया कि उस दिन आना। चोर नियत समय पर पहुँचा। साधु ने चार भारी पत्थर उसके सिर पर रख दिये और अपने पीछे पीछे पहाड़ी पर चढ़ते आने को कहा। चोर चढ़ने लगा पर थोड़ी ही देर में हाँफने लगा, तब साधु ने एक पत्थर उतार कर फेंक दिया। इससे वह कुछ तो हलका हुआ पर थोड़ी ही दूर चल फिर लड़खड़ाने लगा, साधु ने एक पत्थर और उतार दिया। कुछ दूर बाद वह दो पत्थर भी भारी लगे। इसी प्रकार एक एक करके वह दो पत्थर भी फेंक दिये गये तब बोझ रहित हो जाने पर चोर आसानी से साधु के साथ चला गया और पहाड़ी की चोटी पर पहुँच गया। तब साधु ने कहा कि तेरे सिर पर जब तक पत्थर रखे हुए थे तब तक पहाड़ी पर चढ़ना कठिन था पर जब पत्थर फेंक दिये तो चढ़ना सहज हो गया। इसी प्रकार जब तक मनुष्य के ऊपर स्वार्थ, संचय, ममता, भोग विलास रूपी पत्थरों का बोझ लादा रहता है तब तक उसे उसी को उठाये रहना कठिन पड़ता है, फिर आत्मोन्नति के लिए चलना किस प्रकार हो सकता है? यदि तू लोभ, स्वार्थ, विलासिता अहंकार आदि पत्थरों को फेंक कर हलका हो जाय तो मेरी ही भाँति तेरे लिए भी साधु बनना संभव है।

महात्मा ईसा ने अपने शिष्यों से कहा था कि-“जो बहुत जोड़ता है वह बहुत खोयेगा। जो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना चाहता है वह सब कुछ छोड़कर मेरे साथ चले।” भगवान बुद्ध ने राज सिंहासन छोड़ा था पर वे किसी प्रकार घाटे में नहीं रहे। राजा विश्वामित्र से महर्षि विश्वामित्र का पद ऊंचा था, बैरिस्टर गाँधी से महात्मा गाँधी कुछ बुरे नहीं रहे, अमीर का बेटा जवाहर, दर दर का भिखारी जवाहर बना परन्तु उसका वह त्याग कोई घाटे का सौदा नहीं है। अकबर का दरबारी प्रताप सिंह बनने की अपेक्षा जंगलों में भटकने वाला राणाप्रताप क्या मूर्ख कहलाया ? भामा शाह अपना सब कुछ लुटा गये, क्या वे घाटे में रहे ? सिकन्दर अपनी दौलत को देख देखकर मरते वक्त बुरी तरह फूट फूट कर रोता था, मरने के बाद उसने अपने दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकले रहने देने का आदेश किया था ताकि लोग यह जान सकें कि विपुल सम्पत्ति जमा करने वाला सिकन्दर अपने साथ कुछ भी न ले जा सका था उसके दोनों हाथ बिल्कुल खाली थे।

त्याग का अर्थ जिम्मेदारियों का कर्तव्य का त्याग नहीं है जैसा कि आजकल कितने ही नासमझ लोग अपने कठोर कर्तव्यों से विमुख होकर कायरतापूर्वक घर छोड़कर भाग खड़े होते हैं और विचित्र वेष बनाकर आलस्य में समय बिताते हुए दूसरों पर भार बनते हैं। त्याग का वास्तविक अर्थ है- अपनी दुर्भावना दुर्वासना स्वार्थपरता, ममता एवं लोभवृत्ति का त्याग। वेद भगवान ने कहा दे--“सौ हाथों से कमा, हजार हाथों से दान कर” हम तत्परतापूर्वक अपने श्रम का शक्ति का योग्यता का समय का पूरा पूरा उपयोग करते हुए आत्मिक और साँसारिक उत्पादन बढ़ावे और उस उत्पादन का आवश्यक अंश जीवन निर्वाह के लिए उपयोग करते हुए शेष को निर्लोभ भाव से परमार्थ में लगावें। यही गीता का कर्म योग हैं। यह त्यागमय जीवन बिताने की नीति मानव जीवन के सदुपयोग की सर्वोत्तम नीति है, आत्मोन्नति की सर्वोत्तम साधना है।


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