(श्री रघुनाथ त्रिपाठी)
शक्ति पाकर, इस जगत से
याचना मैं क्यों करूँगा।
विष पचा लूँगा, अमिय की
कामना ही क्यों करूँगा ॥1॥
जग चले चाहे विपथ हो,
दानवों की भावना ले।
ध्येय अपना सत्य का ले
विपथगामी क्यों बनूँगा ॥2॥
दे चुका सर्वस्व अपना
विश्व का जब त्राण करने,
फिर धरा की शांति हरने
मनुजता को क्यों दलूँगा॥3॥
त्याग कर तृष्णा अहंता
हो गया मैं आज निर्भय।
छोड़ आया जिस डगर को
उस डगर को क्यों वरूँगा॥ 4॥