महत्त्वकांक्षाएँ और असंतोष

July 1962

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आज अधिकाधिक सफलता जल्दी से जल्दी प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति लालायित है। यह लालसा इतनी अधिक है कि वह अपनी उचित मर्यादाओं से कहीं अधिक चाहता है, यह नहीं सोचता कि मेरी योग्यता, श्रमशीलता तथा सामर्थ्य की तुलना में जो कुछ मिला हुआ है, वह संतोषजनक है या नहीं? हर व्यक्ति असंतुष्ट दिखाई पड़ता है। इसका कारण एक ही है कि वह, जितना प्राप्त हो चुका है, हो रहा है, उसे अपर्याप्त मानता है और अधिक वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए लालायित है। जितनी आकांक्षा करता है, उसकी तुलना में उसे जितना कम मिला हुआ होता है, उतना ही वह दुखी और असंतुष्ट रहता है। असंतोष एक प्रकार का दरद है, जिससे मनुष्य को उसी प्रकार की बेचैनी बनी रहती है, जैसे आँख का दरद, पेट का दरद, कान का दरद, दाढ़ का दरद होने पर होती है। हम अपने चारों ओर ऐसे ही दरदमंदों का समूह इकट्ठा हुआ देखते हैं।

असंतोष से अवनति

उन्नति की आकांक्षा एक बात है और असंतोष बिलकुल दूसरी। उन्नतिशील व्यक्ति आशा, उत्साह, धैर्य और साहस को साथ लेकर प्रसन्न मुखमुद्रा और स्थिर चित्त के साथ आगे बढ़ते हैं। गहरे पानी में उतरते हुए हाथी जिस प्रकार अपना एक-एक कदम बहुत सँभाल-सँभालकर रखता है और जहाँ गड्ढा दीखता है वहाँ से तुरंत पैर पीछे हटा लेता है, उसी प्रकार प्रत्येक उन्नतिशील व्यक्ति सँभल-सँभलकर अपना प्रत्येक कदम आगे बढ़ाता है। स्वस्थ चित्त एवं उद्वेगरहित व्यक्ति ही वर्त्तमान कठिनाइयों का सही कारण ढूँढ़ सकने और उसका उपाय खोज निकाल सकने में समर्थ हो सकता है। उसी की सूझ-बूझ ठीक तरह काम करती है और वही कठिनाइयों और बाधाओं का निराकरण कर सकने में समर्थ होता है और वही प्रतिकूल परिस्थितियों में देर तक दृढ़तापूर्वक खड़ा रह सकता है। जिसमें इतनी दृढ़ता न होगी, वह अधीर व्यक्ति कभी किसी महत्त्वपूर्ण सफलता का अधिकारी न हो सकेगा।

उतावली और जल्दबाजी

उतावले और जल्दबाज, असंतुष्ट और उद्विग्न व्यक्ति एक प्रकार के ‘अधपगले’ कहे जा सकते हैं। वे जो कुछ चाहते हैं, उसे तुरंत ही प्राप्त हो जाने की कल्पना किया करते हैं। यदि जरा भी देर लगती है तो अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक गुण मानसिक स्थिरता को खोकर, असंतोषरूपी उस भारी विपत्ति को कंधे पर ओढ़ लेते हैं, जिसका भार लेकर उन्नति की दिशा में कोई आदमी देर तक नहीं चल सकता। असंतोष एक प्रकार का मानसिक बुखार है। जिस प्रकार बुखार का रोगी शारीरिक और मानसिक दोनों ही दृष्टियों से अशक्त हो जाता है, खड़े होते ही उसके पैर लड़खड़ा जाते हैं, कुछ ही देर पढ़ने, बोलने या सोचने से सिर दरद करने लगता है, उसी प्रकार असंतोष से ग्रसित मानसिक रोगी भी कुछ कर-धर नहीं सकता। उसे कुढ़न ही हर घड़ी घेरे रहती है। क्षुब्ध और उत्तेजित मन से वह अंट-शंट बातें ही सोच सकता है। दूसरों पर दोषारोपण करके अपने द्वेष और क्रोध को बढ़ाते रहना ही उससे बन पड़ता है। अपनी मानसिक स्थिति जिनने इस प्रकार की असंतुलित बना ली है, वे व्यक्ति अपने उद्वेग की उलझन में ही उलझे पड़े रहते हैं। उनकी सारी शक्तियाँ कुढ़न, द्वेष, असंतोष, छिद्रान्वेषण, दोषारोपण, प्रतिशोध, निंदा, ईर्ष्या आदि में ही नष्ट होती रहती हैं। प्रगति के पथ पर बढ़ने के लिए जिन सद्गुणों की आवश्यकता है, वह इन असंतुष्ट व्यक्तियों को तिलांजलि देकर अपने आप पलायन कर जाते हैं और वह अभागा एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा दुर्भाग्य अपने सामने उपस्थित होते देखता रहता है।

तुच्छता से महत्ता की ओर

उन्नति की आकांक्षा एक बहुत ही उचित, स्वाभाविक एवं अध्यात्मिक मनोवृत्ति है। तुच्छता से आगे बढ़कर महत्ता को प्राप्त करना प्रत्येक मानव प्राणी का स्वाभाविक कर्त्तव्य है। जीवन की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की अभिलाषा का होना उचित भी है और आवश्यक एवं प्रशंसनीय भी। पर यह आकांक्षा तभी सफल हो सकती है, जब धैर्य, साहस, विवेक और पुरुषार्थ का समुचित सम्मिश्रण उसके साथ हो। प्रसन्न मन और स्थिर चित्त रहना, इस मार्ग पर चलने वाले पथिक के लिए नितांत आवश्यक है। वैज्ञानिक शोध करने वाले शोधकर्त्ता जीवन भर किसी शोध में लगे रहते हैं और एक प्रकार से सफलता नहीं मिलती तो दूसरा-तीसरा मार्ग सोचते हैं, पर लगे उसी कार्य में रहते हैं। धैर्य में रत्ती भर भी कमी नहीं आने देते, असंतोष की एक रेखा भी उनके चेहरे पर नहीं होती। काम को काम समझकर करते रहने को ही वे अपने संतोष का आधार बनाए रहते हैं और वर्षों बीत जाने पर भी यदि सफलता न मिले तो खिन्नता की एक शिकन माथे पर नहीं पड़ने देते। यही स्थिति जिस किसी के मनःक्षेत्र की होगी, केवल वही इस संसार में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेगा, केवल वही कोई बड़ी सफलता प्राप्त कर सकेगा।

कुढ़न की ओछी आदत

असंतुष्ट व्यक्ति एक ओछा व्यक्ति है, जो प्रगति-पथ पर बढ़ने की तैयारी में अपनी शक्ति को लगाने की अपेक्षा उसे कुढ़न में नष्ट करता रहता है। इस संसार की रचना कल्पवृक्ष के समान नहीं हुई है कि जो कुछ हम चाहें वह तुरंत ही मिल जाया करे। यह कर्मभूमि है, यहाँ हर किसी को अपना रास्ता आप बनाना पड़ता है, अपनी योग्यता और विशेषता का प्रमाण प्रस्तुत किए बिना कोई किसी महत्त्वपूर्ण स्थान पर नहीं पहुँच सकता। यहाँ हर किसी को परीक्षा की अग्नि में तपाया जाता है और जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, उसी को प्रामाणिक एवं विश्वस्त माना जाता है। ऐसे ही लोगों का दुनिया सहयोग करती है और उसे ही प्रगति के प्रवेश द्वार में घुसने की अनुमति प्रदान करती है। कुढ़न और असंतोष किसी भी व्यक्ति के कुपात्र होने का सबसे बड़ा प्रमाण हैं। कुपात्रों का, टूटे और गंदे बरतनों का स्थान, सदा कूड़े के ढेर में रहा है। हम भी यदि अपनी कुपात्रता सिद्ध करेंगे, तो सम्मान के स्थान पर नहीं पहुँचने दिए जाएँगे, कूड़े के ढेर में ही पड़े रहेंगे।

संतोष और उल्लास

इस संसार का यह नियम है कि हँसमुख, प्रसन्नचित्त, आशावादी, उत्साही और संतुष्ट व्यक्ति के पीछे-पीछे लोग फिरते हैं। क्योंकि हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ दुःख और चिंता छिपाए बैठा रहता है, वह अपना मन हलका करने के लिए ऐसा सहारा ढूँढ़ता है, जहाँ उसके घावों को कुरेदा न जाए, मरहम लगे। मनोरंजन के लिए लोग इसीलिए अपना बहुत-सा समय और धन खरच करते हैं। सिनेमा, खेल, तमाशे, मेले-ठेले, सैर, यात्रा आदि मनोरंजनों की आवश्यकता इसी दृष्टि से मानी जाती है। उनके दूसरे लाभ भी हो सकते हैं पर प्रधान उद्देश्य यही रहता है। यही आवश्यकता लोग उस व्यक्ति से पूरी करना चाहते हैं जो संतुष्ट और प्रसन्न दीखता है। खिले हुए गुलाब के चारों ओर भौंरे इसलिए मंडराते रहते हैं, क्योंकि फूल अपने आप में सर्वांगपूर्ण, विकसित, प्रसन्न और सफल दिखाई देता है। सूखे, मुरझाए, कुचले हुए और सड़े-गले फूल पर भौंरा तो क्या, कोई मक्खी भी नहीं बैठती, उसे उपेक्षा, उपहास और तिरस्कार के गर्त्त में फेंक दिया जाता है।

मुँह फुलाए, रूठे बैठे रहने वाले और चिड़चिड़ाते-बड़बड़ाते रहने वाले नर−नारी अपने समीपवर्त्ती लोगों की सहानुभूति खो बैठते हैं। उनसे सब लोग डरने और कतराने लगते हैं। चेचक और हैजा के रोगी से सब कोई अपना बचाव करते हैं कि कहीं यह छूत हमें भी न लग जाए। असंतुष्ट और खिन्न मनुष्य से झूठी सहानुभूति कोई भले ही प्रकट कर दे, वस्तुतः मन-ही-मन उससे घृणा करते हैं और बचने की कोशिश करते हैं। कुढ़ने वाले व्यक्ति की कष्टकथा सुनकर कौन आदमी अपने दुःख को बढ़ाना चाहेगा? यहाँ तो सबको मनोरंजन की चाह है, हँसोड़ और प्रसन्नमुख व्यक्ति की तलाश है। उसके समीप रहकर लोग अपना मनोरंजन करना चाहते हैं। मनहूस-सी शक्ल बनाए बैठे रहने वाले और दुःख-दुर्भाग्य का रोना रोते रहने वाले लोगों के पास अपना मन क्षुब्ध करने के लिए भला कौन तैयार होगा? संत और महापुरुषों की बात दूसरी है, वे दुखियों के लिए अपना प्राण भी दे सकते हैं, पर सामान्य लोग तो उनसे बचने की ही कोशिश करेंगे।

सद्गुणों का प्रतिफल

उन्नति कोई उपहार नहीं है, जो छत फाड़कर अनायास ही हमारे घर में बरस पड़े। उसके लिए मनुष्य को कठोर प्रयत्न करने पड़ते हैं, प्रतीक्षा करनी पड़ती है, और एक मार्ग अवरुद्ध हो जाए तो दूसरा सोचना पड़ता है। गुण, योग्यता और क्षमता ही सफलता का मूल्य है। जिसमें जितनी क्षमता होगी, उसे उतना लाभ मिलेगा। कभी-कभी इसके अपवाद भी हो सकते हैं, पर आमतौर से होता यही है कि उत्कृष्टता को प्राथमिकता मिलती है। दूध को गरम करते ही उसका अच्छा अंश मलाई के रूप में ऊपर तैरने लगता है। जिन व्यक्तियों का व्यक्तित्व जितना सुव्यवस्थित होता है, उन्हें उतनी ही आसानी से , उतनी ही बड़ी महत्ता एवं सफलता उपलब्ध हो जाती है। खेलकूद की प्रतियोगिताओं में जो खिलाड़ी अधिक सामर्थ्यवान होते हैं, वे ही बाजी जीतते और पुरस्कार पाते हैं। परीक्षा में अच्छे नंबर लाने वाले अपनी प्रतिभा का उचित परिणाम अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव को सुव्यवस्थित बनावें तो असंतोष के कारणों का स्वयं ही समाधान होता चलेगा।

गरीबी धन की नहीं मन की

गरीबी दुनिया में वस्तुतः इतनी अधिक नहीं है जितनी कि दिखाई पड़ती है। मनुष्य प्रचुर धन का स्वामी बनने के, अंततः ऐश्वर्य का सुखोपभोग करने के सपने देखा करता है, अपने से बड़े लोगों के साथ अपनी तुलना करके खिन्न होता है कि मैं भी इतना ही बड़ा क्यों न हो जाऊँ? बस, ईर्ष्या और तृष्णा की आग प्रचंड वेग से उसके मन में जलने लगती है। कपड़ों में लगी आग से जलता हुआ मनुष्य कोई और उपाय न देखकर कुँए में कूद पड़ने को भी इस आशा से तैयार हो जाता है कि मेरी जलन मिट जाएगी। इसी प्रकार जिसका मन महत्त्वाकांक्षाओं की तृष्णा में बुरी तरह जल रहा है, उसके लिए कुकर्म के कुँए में कूद पड़ना भी कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

मनुष्य अनेकों वस्तु चाहता है। अपने से बड़े और सुखी-संपन्न स्थिति के लोगों को देखकर यह इच्छा उत्पन्न होती है कि हमारे पास भी इतना ही वैभव और ऐश्वर्य क्यों न हो? इस प्रकार की तृष्णा ही असंतोष का कारण देखी जाती है। हमें चाहिए कि अपने से नीचे गिरे हुए, दुखी और गरीबों से अपनी तुलना करते हुए संतोष की साँस लें कि परमात्मा ने हमें अनेकों से कमजोर भले ही बनाया हो, पर असंख्यों से ऊँचा भी रखा है। असंतोष के यदि दस कारण जीवन में होते हैं तो सौ कारण संतोष के भी होते हैं। जो कुछ संतोष के कारण हमें प्राप्त हैं, उन पर विचार करें और उनसे अपना चित्त प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें तो दृष्टिकोण के बदलते ही मन की खिन्नता का प्रत्यावर्त्तन प्रसन्नता और उल्लास में हो जाता है। हर इच्छा किसी की भी पूरी नहीं हुई। सबको, जो कुछ है, उसी पर सबर करके अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहना पड़ता है। यही क्रम शांतिदायक है, इसी को अपनाकर हम संतोष के अधिकारी बन सकते हैं।

अमीरी नहीं महानता

महत्वाकांक्षा गुणों की होनी चाहिए। हम दूसरों की अपेक्षा अधिक विद्वान, अधिक स्वस्थ, अधिक संयमी, अधिक सेवाभावी, अधिक सभ्य, अधिक सहिष्णु अधिक धार्मिक बनें, यह प्रतिस्पर्धाएँ यदि चलने लगें तो व्यक्ति का पतन नहीं, उत्थान ही होगा। तुच्छ कीट-पतंग की तरह निम्न श्रेणी का जीवनयापन न करके हम नररत्नों की श्रेणी में अपना नाम अंकित करें, महापुरुषों जैसे आदर्श उपस्थित करें! जीवन का लक्ष्य पूर्ण करके जीवनमुक्ति का आनंद प्राप्त करें— ऐसी महत्वाकांक्षाएँ यदि मन में जागृत रहें और उनके लिए हम प्रयत्न करें तो उसका प्रतिफल ऐसा हो सकता है, जिसके आधार पर सभ्य समाज की रचना और युग-निर्माण का उद्देश्य पूर्ण हो सके।


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