युग-निर्माण का आधार-तत्त्व

July 1962

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समाजरूपी जंजीर की मनुष्य एक कड़ीमात्र है। छड़ का एक सिरा आग में तपाया जाए या बरफ में ठंडा किया जाए तो उसका दूसरा सिरा भी गरम या ठंडा हो जाता है। ऐसा नहीं हो सकता है कि छड़ का जितना स्थान तपाया जाए उतना ही गरम हो और बाकी सब ज्यों का त्यों बना रहे। मनुष्य समाज भी एक छड़ की तरह है। यदि किसी समाज में दोष-दुर्गुण उत्पन्न होते हैं तो शांतिप्रेमी लोग भी उसके कुप्रभाव से बच नहीं सकते और यदि सद्प्रवृत्तियों से सारा समाज भरा रहता है तो एक व्यक्ति दुर्गुणी हो तो भी उसे समाज के दबाव से सुधरने को विवश होना पड़ता है। विश्वशांति और युग-निर्माण के जिस महान लक्ष्य को लेकर हम अग्रसर होते हैं, वह केवल कुछ व्यक्तियों के संत बन जाने से संभव न होगा, वरन जनसमूह में व्याप्त प्रवृत्तियों का ध्यान रखना होगा और दोष-दुर्गुणों को, द्वेष-दुर्भावों को हटाकर उनके स्थान पर सद्विचारों और सत्कर्मों की स्थापना करनी पड़ेगी।

विचारों से कार्य-प्रेरणा

कार्यों का मूल, विचार है। मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार घूमते हैं, उसी प्रकार के कार्य होने लगते हैं। जिस वर्ग के लोग स्वार्थपरता, तृष्णा, वासना और अहंता के विचारों में डूबे रहते हैं, वहाँ नाना प्रकार के क्लेश, कलह, दुष्कर्म एवं अपराध निरंतर बढ़ते रहते हैं। पर जहाँ परमार्थ, संयम, संतोष और नम्रता आदर्शवाद को प्रधानता दी जाती है, वहाँ सर्वत्र सत्कर्म होते दिखाई पड़ते हैं और उसके फलस्वरूप, सतयुगी सुख-शांति का वातावरण बन जाता है। जिस प्रकार स्वस्थ शरीर से स्वच्छ मन का संबंध है, उसी प्रकार स्वच्छ मन के ऊपर सभ्य समाज की संभावना निर्भर है। यदि शरीर बीमार पड़ा रहेगा तो मन में निम्न श्रेणी के विचार ही आवेंगे। अस्वस्थ व्यक्ति देर तक उच्च भावनाएँ अपने मन में धारण किए नहीं रह सकता। उसी प्रकार अस्वच्छ मन वाले व्यक्तियों से भरा समाज कभी सभ्य कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता। मानव जाति एकता, प्रेम, प्रगति, शांति एवं समृद्धि की ओर अग्रसर हो, इसका एकमात्र उपाय यही है कि लोगों के मन आदर्शवाद, धर्म, कर्त्तव्यपरायणता, परोपकार एवं आस्तिकता की भावनाओं से ओत-प्रोत रहें। इस दिशा में यदि हमारे कदम उठते रहेंगे तो उन्नति के लिए जिन योग्यताओं एवं क्षमता की आवश्यकता है, वे सब कुछ ही समय में अनायास प्राप्त हो जाएँगी। पर यदि दुर्गुणी लोग बहुत चतुर और साधनसंपन्न बनें तो भी उस चतुरता और क्षमता के दुरुपयोग होने पर विपत्ति ही बढ़ेगी।

आदर्शवाद की भावना

आदर्श समाज की रचना के लिए आदर्शवाद के सिद्धांतों को जनमानस में गहराई तक प्रवेश कराया जाना आवश्यक है। कोई नियम, निर्देश, प्रतिबंध या कानून मनुष्य को सदाचारी बनने के लिए विवश नहीं कर सकते। वह अपनी चतुरता से हर प्रतिबंध का उल्लंघन करने की तरकीब निकाल सकता है। पर यदि आत्मिक अंकुश लगा रहेगा तो बाह्यजीवन में अनेक कठिनाइयाँ होते हुए भी वह सत्य और धर्म पर स्थिर रह सकता है। उसे कोई प्रलोभन, भय या आपत्ति सत्पथ से डिगा नहीं सकती। यह आध्यात्मिक अंकुश ही हमारे उन सारे सपनों का आधार है, जिनके अनुसार समाज को सभ्य बनाने और युग परिवर्तित होने की आशा की जाती है।

श्रेयपथ के पथिक

किसी समय भारत सभ्यता की दृष्टि से बहुत ऊँचा था। उस स्थान का एक ही कारण था कि हमारा सारा समाज आदर्शवाद पर परिपूर्ण निष्ठा धारण किए रहता था। श्रेयमार्ग पर, धर्मपथ पर, चलने की जब भी प्रवृत्ति उत्पन्न हुई है, तभी सतयुग के स्वर्गीय दृश्य उपस्थित हो गए हैं और जहाँ भी स्वार्थपरता और दुष्टता की बात है वहाँ क्लेश-कलह का, दुख-दारिद्र का नारकीय वातावरण उत्पन्न हो गया है। हमारे पूर्व पुरुष इस तथ्य को जानते थे, इसलिए वे सुख-साधनों को ढूँढ़ने के साथ-साथ इस बात के लिए भी सचेष्ट रहते थे कि हर व्यक्ति आदर्शवादी बने। आदर्शवादी व्यक्ति स्वयं ही आत्मशांति प्राप्त नहीं करता, वरन सारे समाज के लिए आनंद और उल्लास की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है।

रामायण का आदर्श

रामायणकाल पर जब दृष्टिपात करते हैं तो राम, लक्ष्मण, भरत, कौशिल्या, सुमित्रा, सीता, उर्मिला, हनुमान, जटायु आदि के आदर्शवाद को ही उस स्वर्गीय आनंद को उत्पन्न करते हुए पाते हैं, जिसके स्मरणमात्र से हम आज भी पुलकित और भावविभोर हो जाते हैं। यदि इन महापुरुषों ने ऊँचे आदर्शवाद का परिचय न दिया होता, हर एक ने अपने-अपने संकुचित स्वार्थ की दृष्टि से सोचा होता तो राज घरानों में होते रहने वाले षड़यंत्रों से बढ़कर वहाँ और कोई विशेषता दृष्टिगोचर न होती। अपने माता-पिता की प्रसन्नता के लिए रामचंद्र जी ने जिस प्रकार का उदार दृष्टिकोण रखा, उससे आज तक बच्चों को मातृ-पितृभक्ति की शिक्षा मिल रही है। लक्ष्मण और भरत का भ्रातृप्रेम, कौशिल्या और सुमित्रा का अपने बच्चों को सन्मार्ग पर कष्ट उठाने के लिए प्रोत्साहन, सीता का पतिव्रत, उर्मिला का अपने पति के आदर्शवादी बनने का संतोष, हनुमान का न्यायपक्ष के लिए अपना जीवनदान करना, जटायु जैसे दुर्बल पक्षी का अन्याय से संघर्ष करते हुए प्राण देना आदि कतिपय महानताएँ ऐसी हैं, जिनके होने से ही रामायण, रामायण कहला सकने योग्य बनी है।

  अंधे माता-पिता की काँवर को कंधे पर रखकर उन्हें तीर्थयात्रा कराने वाले श्रवणकुमार, अपने पूर्वज पुरुषों को मुक्ति की आवश्यकता और प्यासी भूमि को तृप्त करने के लिए कठोर तप करने वाले भागीरथ, अपने पिता शांतनु के विवाह का साधन बनाने के लिए स्वयं आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करने वाले भीष्म, पिता ययाति की प्रसन्नता के लिए अपना यौवन दान देने वाले पुरु का आदर्श चरित्र आज भी हमारे बच्चों में पितृभक्ति पैदा करने के लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।

पतिव्रत और पत्नीव्रत

पतिव्रत धर्म का अनुकरणीय उदाहरण उत्पन्न करने वाली भारतीय नारियाँ इस गए-गुजरे जमाने में भी धर्म से लड़खड़ाने वाले पैरों को धर्ममार्ग पर आरुढ़ रहने की शिक्षा देती रहती हैं। अंधे पति के साथ विवाह होने पर धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने अपनी आँखों पर जीवन भर के लिए पट्टी बाँध ली। पति की मर्यादा की रक्षा के लिए शैव्या ने अपने बच्चे का तथा अपना बिकना स्वीकार किया और दासी का निकृष्ट जीवन शिरोधार्य कर लिया। सीता वन-वन मारी-मारी फिरीं। सुकन्या ने अस्थि-पिंजरमात्र च्यवन ऋषि के साथ हुए अपने विवाह को प्रसन्नतापूर्वक निवाहा। दमयंती ने अपने पति के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं सहे। चित्तौड़ की रानियाँ अपने पतियों की प्रतिष्ठा रखने के लिए जीवित चिताओं में जल गईं। चूड़ावत की पत्नी हाडी रानी ने अपने पति को वासनाग्रस्त होकर रणक्षेत्र में जाने से इंकार करने पर अपना सिर काटकर ही उसके सामने रख दिया और उसके यश पर आँच आने देना स्वीकार न किया।

पतियों ने भी पत्नीव्रत को नारी के पतिव्रत से कम महत्त्व नहीं दिया। यज्ञ के समय पत्नी की आवश्यकता अनुभव होते हुए भी राम, एक पत्नी के रहते दूसरी से विवाह करने को किसी भी प्रकार तैयार न हुए, उनने सोने की सीता बनाकर काम चलाया। इंद्रपुरी में अर्जुन के पहुँचने पर उर्वशी ने उसके सामने काम प्रस्ताव किया और उसी के समान पुत्र प्राप्ति की कामना प्रकट की तो अर्जुन ने यही उत्तर दिया कि मैं विवाहित हूँ, पत्नीव्रत नष्ट नहीं कर सकता, आप मुझे ही कुंती माता की तरह अपना पुत्र मानकर अपनी पुत्रप्राप्ति की कामना पूर्ण करें। छत्रपति शिवाजी के सामने जब एक सुंदर यवन युवती पेश की गई तो उनने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए इतना ही कहा—"काश! मेरी माता भी इतनी ही सुंदर होती तो मैं कुरूप क्यों जन्मता।" संत तुकाराम कहीं से मिले हुए सारे गन्ने रास्ते में ही बालकों को बाँटकर जब केवल एक गन्ना ही घर लेकर पहुँचते हैं, तो उनकी कर्कशा पत्नी आग बबूला हो जाती है और वह गन्ना तुकाराम की पीठ पर दे मारती है; वह गन्ना बीच से टूट जाता है। तुकाराम क्रुद्ध नहीं होते, वे जानते हैं कि पति के अपमान की तरह पत्नी का अपमान भी पाप है। जिस प्रकार पत्नी के लिए 'अंध, वधिर, क्रोधी अति दीना' पति का अपमान न करना धर्म है, उसी प्रकार पति के लिए भी कर्कशा एवं दुर्गुणी पत्नी को निबाहना और क्षमा करते रहना कर्त्तव्य है। तुकाराम इस अपमान को क्षमा कर देते हैं और हँसते हुए केवल इतना ही कहते हैं—"देवि ! गन्ना एक था और खाने वाले हम दो। तुमने पीठ पर मारकर इसका ठीक बँटवारा कर दिया। लो एक तुम खाओ एक मैं खाता हूँ।"

गुरुजनों का प्रत्युपकार

गुरुभक्ति का आदर्श उपस्थित करते हुए विश्वामित्र की प्रसन्नता के लिए राजा हरिश्चंद्र अपना राज-पाट ही उन्हें नहीं दे देते, वरन अपना शरीर और स्त्री-बच्चे बेचकर उनकी दक्षिणा भी चुकाते हैं। दलीप, गुरु की गौ पर सिंह द्वारा आक्रमण होने पर, अपना शरीर देकर भी गुरुधन की रक्षा करते हैं। मिट्टी की प्रतिमा बनाकर द्रोणाचार्य को गुरु बनाने वाले एकलव्य के सामने जब साक्षात द्रोणाचार्य उपस्थित होते हैं और वे गुरु दक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा माँगते हैं तो एकलव्य खुशी-खुशी अंगूठा काटकर उनके सामने रख देता है। समर्थ गुरु रामदास को सिंहनी के दूध की आवश्यकता पड़ने पर उनके शिष्य शिवाजी अपने जीवन को खतरे में डालकर चल देते हैं और गुरु की अभीष्ट वस्तु लाकर उनके लिए प्रस्तुत करते हैं। गुरु के खेत में पानी रोकने में असमर्थ हो जाने पर बालक आरुणि का स्वयं ही लेटकर पानी रोकना यह बताता है कि गुरुऋण से उऋण होने के लिए शिष्यों में कितनी निष्ठा रहती थी और वे कृतज्ञता की भावनाओं से प्रेरित होकर प्रत्युपकार के लिए क्या-क्या करने को तैयार नहीं रहते थे।

मित्रता का मूल्य

मित्रता का मूल्य चुकाने में सच्चे मित्रों को पीछे नहीं रहना चाहिए और समय पड़ने पर बड़ी-से-बड़ी बाजी लगा देनी चाहिए। इसका उदाहरण हम कृष्ण-सुदामा और कृष्ण-अर्जुन के प्रसंग में भली प्रकार देख सकते हैं। युधिष्ठिर जब स्वर्ग जाने लगे हैं और उनके सेवक कुत्ते को वहाँ प्रवेश मिलता नहीं दीखा है, तो उनने स्वयं भी जाने से इनकार कर दिया। वे तभी देवलोक गए, जब उनके प्रिय सेवक कुत्ते को भी साथ ले चलने की अनुमति मिल गई। यह हुआ स्वामी का सेवक के प्रति कर्त्तव्य। स्वामी के प्रति सेवक का क्या कर्त्तव्य होता है, इसे संयम राय ने जाना था। पृथ्वीराज युद्ध के मैदान में घायल पड़े हैं, गिद्ध उनका माँस नोंच-नोंचकर खा रहे हैं, आँखें निकालने ही वाले हैं कि पास में घायल पड़ा सेवक संयम राय होश में आते ही यह दृश्य देखकर व्यथित हो जाता है। स्वामी की रक्षा करने के लिए उठ सकने में असमर्थ होने पर वह दूसरा उपाय सोचता है। पास में पड़ी तलवार से अपना माँस काट-काटकर गिद्धों के सामने फेंकना शुरू करता है। गिद्ध पृथ्वीराज को छोड़कर उस फेंके माँस को खाने लग जाते हैं। इतने में रक्षक दल आ पहुँचता है और पृथ्वीराज की जान बच जाती है। उदयपुर का शासक बनवीर जब असली उत्तराधिकारी राजकुमार को अपने रास्ते से हटाने के लिए उसका कत्ल करने पहुँचता है तो पन्नाधाय उसके सामने अपना लड़का पेश कर देती है और अपने स्वामी के बालक को बचा लेती है। सेवक और स्वामी के बीच में क्या संबंध होने चाहिए, इसका अनुकरणीय उदाहरण हमें इन घटनाओं में उपलब्ध होता है। मुहम्मद गोरी ने जब पृथ्वीराज को कैद कर लिया तो उनके सेवक चंद वरदायी ने यही उचित समझा कि अपने स्वामी का मृत्यु के समय तक साथ दिया जाए। उसने समय आने पर अपने प्राणों की परवाह न करते हुए यह कर्त्तव्य किस प्रकार निवाहा, इसे इतिहास के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं।

त्याग और बलिदान

'आदर्शवाद की भावनाएँ' यदि मन में रहें तो मनुष्य साधारण स्थिति में होने पर भी अपना अनुकरणीय आदर्श संसार के सामने उपस्थित कर सकता है और शरीर न रहने पर भी अपने उज्ज्वल चरित्र के द्वारा जनसमाज का चिरकाल तक मार्गदर्शन करता रह सकता है। वाजिश्रवा ने अपना सर्वस्व धन-धान्य, यहाँ तक कि पुत्र नचिकेता को भी राष्ट्र की आवश्यकता के लिए यमाचार्य को दान कर दिया था। हर्षवर्धन और अशोक ने अपना विशाल साम्राज्य तथा अपार धन का विपुल भंडार धर्मप्रसार के लिए संकल्प कर दिया था। भामाशाह ने अपनी सारी दौलत राणा प्रताप के चरणों पर अर्पित करके उन्हें स्वाधीनता संग्राम जारी रखने की प्रेरणा की थी। सुभाष चन्द्र बोस को आजाद हिंद फौज के संचालन के लिए रंगून के भारतीयों ने अपनी करोड़ों रुपयों की संपदा देकर गर्व और संतोष अनुभव किया था। सेठ जमनालाल बजाज ने गाँधी जी को स्वतंत्रता संग्राम चलाने के लिए अपना सर्वस्व उनके चरणों पर अर्पित कर दिया। शिवाजी, राणा प्रताप, बंदा वैरागी, गुरु गोविंद सिंह, हकीकत राय आदि वीरों ने धर्म की रक्षा के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाए। राजा जनक हल जोतकर अपने गुजारे के लिए अनाज उत्पन्न करते थे और राज्यकोष की एक पाई भी अपने काम में नहीं लगाते थे। अहिल्याबाई ने अपनी सारी आमदनी तीर्थों और देवालयों के निर्माण और जीर्णोद्धार में लगा रखी थी। कर्ण की दानवीरता प्रसिद्ध है। वे जो कुछ प्राप्त करते थे, वह सारे का सारा सत्कार्यों की सहायता के लिए उसी दिन दान कर देते थे। इतने बड़े साम्राज्य का मंत्री होते हुए भी चाणक्य ने अपने निजी जीवन को त्यागमय ही बनाए रखा। वे फूँस की कुटिया में लंगोटी लगाकर रहते थे और अपनी योग्यता का लाभ अपने आपको नहीं, वरन सारे समाज को देने में संतोष अनुभव करते थे।

महापुरुषों की परंपरा

धार्मिकता की अभिवृद्धि के लिए कितने ही सत्पुरुषों ने अपने जीवन अर्पण किए  हैं। दधीचि ने अपनी हड्डियाँ तक देवत्व की रक्षा करने के लिए दान कर दीं। राजा शिवि ने शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए उसके बराबर अपना माँस काटकर दे दिया। बुद्ध, महावीर, गाँधी, दयानंद, शंकराचार्य, नानक, कबीर, तुकाराम, रामदास, विवेकानंद आदि ने धर्मप्रवृत्तियों को बढ़ाने के लिए अपना सारा जीवन ही लगा दिया और वे अनेक कठिनाइयाँ सहते हुए भी जनसेवा के कार्य में संलग्न रहे। सत्प्रवृत्तियाँ जब भी किसी मनुष्य के मन में जाग पड़ती हैं तो वह पिछले बुरे जीवन का परित्याग करके उच्चकोटि का महापुरुष बन जाता है। तुलसीदास की मोह-वासना प्रसिद्ध है, वे रात में मुर्दे पर बैठकर नदी को  पार करके और पनाले पर लटकते हुए साँप को पकड़कर स्त्री के पास पहुँचे थे। सूरदास का वेश्यागामी जीवन प्रसिद्ध है, जिससे क्षुब्ध होकर उसने अपनी आँखें फोड़ी थीं। अंबपाली सारे यौवनकाल में वेश्यावृत्ति करती रही। वाल्मीकि का बहुत बड़ा जीवन भाग डाकू का कार्य करते हुए बीता। अजामिल कसाई था। अंगुलिमाल नित्य नरहत्या करके मनुष्यों की उंगलियों की माला पहनता था। इस प्रकार के घृणित जीवन बिताने वालों के मन में भी जब धर्मप्रवृत्ति जीवित हुई तो उनके जीवन का कायाकल्प ही हो गया था और वे देवताओं की श्रेणी में गिने जाने लगे।

इस अग्नि परीक्षा को स्वीकारें

सभ्य समाज की रचना इस आदर्शवाद को हृदयंगम करने से ही संभव हो सकती है, जिसे हमारे पूर्व पुरुषों ने बड़ी श्रद्धा भावना के साथ अपने जीवन का लक्ष्य बनाए रखा था। हो सकता है कि महानता के मार्ग पर चलते हुए किसी को कष्ट और कठिनाइयों की अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना पड़े, पर उसे आत्मिक शांति और कर्त्तव्यपालन की प्रसन्नता हर घड़ी बनी रहती है। इस मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति को असुविधा हो सकती है, पर समाज का विकास इसी त्याग और बलिदान के ऊपर निर्भर रहता है। चरित्रवान व्यक्ति ही किसी समाज की सच्ची संपत्ति होते हैं। हम अतीतकाल में विश्व के सुदृढ़ आदर्शवाद के आधार पर ही रहे हैं। अतः जबकि हम अपनी उस पुरानी महानता और उज्ज्वल परंपरा को पुनः लौटाने चले हैं तो हमें आदर्शवाद का ही अवलंबन करना होगा। धैर्य और कर्त्तव्य को दृढ़तापूर्वक जीवन में धारण करना पड़ेगा।


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